शासन व्यवस्था
भारतीय विश्वविद्यालयों की कठिन राह
यह एडिटोरियल 09/05/2022 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “The Multiple Crises in Indian Universities” लेख पर आधारित है। इसमें भारतीय विश्वविद्यालयों के समक्ष विद्यमान प्रमुख चुनौतियों पर चर्चा की गई है और उनकी समस्याओं को दूर करने के लिये कुछ उपाय सुझाए गए हैं।
संदर्भ
लंबे समय से यह धारणा रही है कि शिक्षा सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भारत और विदेशों में किये गए विभिन्न अध्ययनों से इस धारणा की पुष्टि होती है कि उच्च शिक्षा से बेहतर वित्तीय परिणाम प्राप्त होते हैं। इस दृष्टिकोण से आगे बढ़ते हुए भारत सरकार ने भारतीय विश्वविद्यालयों के उत्थान के लिये कई कदम उठाए हैं जैसे ‘इंस्टीट्यूशन ऑफ एमिनेंस’ योजना (20 संस्थानों को विश्वस्तरीय शिक्षण और अनुसंधान संस्थानों के रूप में स्थापित/अपग्रेड करने के लिये), IMPRINT पहल (प्रमुख इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी चुनौतियों को हल करने के लिये अनुसंधान हेतु एक रोडमैप विकसित करना) तथा राष्ट्रीय शिक्षा नीति (National Education Policy-NEP), 2020। इस तरह के प्रयासों के बावजूद कभी अपनी उत्कृष्टता पर रहे भारतीय शिक्षण संस्थान कई संकटों से घिरे हुए हैं जैसे- विश्वविद्यालय स्तर पर वित्तीय बदहाली, शिक्षकों के लिये अनुसंधान के अवसरों में कमी, बदतर अवसंरचनाएँ और छात्रों के लिये गुणवत्ताहीन सीखने की प्रक्रिय (लर्निंग आउटकम)।
वैश्विक स्तर पर भारतीय विश्वविद्यालयों की स्थिति:
- ‘टाइम्स हायर एजुकेशन’ ( Times Higher Education-THE) ने सितंबर 2021 में अपना ‘वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2022’ (World University Rankings 2022) संस्करण जारी किया, जिसमें पाया गया कि विश्व के शीर्ष 1000 विश्वविद्यालयों में से भारत के 35 विश्वविद्यालय शामिल हैं। इस रैंकिंग में भारतीय विश्वविद्यालयों की यह दूसरी सर्वाधिक संख्या है।
- इन 35 संस्थानों में से भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) शीर्ष पर था, जिसके बाद IIT रोपड़ और जेएसएस उच्च शिक्षा और अनुसंधान अकादमी का स्थान था।
- इससे पहले जुलाई 2021 में ‘क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2022’ (QS World University Rankings 2022) में 22 भारतीय संस्थानों ने (वर्ष 2021 की रैंकिंग में 21 संस्थानों की तुलना में) शीर्ष 1,000 विश्वविद्यालयों की सूची में स्थान प्राप्त किया था जहाँ गुवाहाटी, कानपुर, खड़गपुर और मद्रास में अवस्थित IIT संस्थानों ने रैंकिंग में प्रमुख जगह पाई।
भारतीय विश्वविद्यालयों के संकट के कारण:
- खराब शासन संरचना: भारतीय शिक्षा का प्रबंधन अति-केंद्रीकरण, नौकरशाही संरचनाओं और जवाबदेही, पारदर्शिता एवं पेशेवर रवैये की चुनौतियों का सामना कर रहा है।
- शिक्षा मंत्रालय उच्च शिक्षा संस्थानों पर 25% प्रवेश क्षमता बढ़ाने पर ज़ोर दे रहा है, जबकि वित्त मंत्रालय नए शिक्षण पदों के सृजन पर प्रतिबंध की अपेक्षा रखता है।
- इसके साथ ही उच्च शिक्षा पर व्यय (सरकारी व्यय के प्रतिशत के रूप में) वर्ष 2012 से ही 1.3-1.5% की एकसमान स्थिति पर बना रहा है।
- खराब अवसंरचना: भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली के समक्ष खराब अवसंरचना एक अन्य चुनौती है; विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा संचालित संस्थानों में भौतिक सुविधाओं और अवसंरचनाओं का अभाव बना हुआ है।
- अधिकांश भारतीय विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में अत्यधिक भीड़-भाड़ और खराब वातन की सुविधा एवं कम स्वच्छ क्लासरूम पाए जाते हैं साथ ही छात्रावास सुविधा भी असंतोषजनक है।
- खराब शिक्षण क्षमता: ‘क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2022’ से खुलासा हुआ कि हालाँकि भारतीय विश्वविद्यालयों ने अकादमिक प्रतिष्ठा मीट्रिक और शोध प्रभाव पर अपने प्रदर्शन में सुधार किया है फिर भी वे शिक्षण क्षमता मीट्रिक स्तर पर संघर्षरत ही बने हुए हैं।
- कोई भी भारतीय विश्वविद्यालय संकाय-छात्र अनुपात (Faculty-Student Ratio) के मामले में शीर्ष 250 में शामिल नहीं है।
- शिक्षण क्षमता के संबंध में खराब प्रदर्शन भर्ती/नियुक्ति दर में गिरावट के कारण नहीं है बल्कि छात्रों की संख्या में वृद्धि के कारण है जो परिदृश्य आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के लिये सरकार द्वारा आरक्षण लागू करने के कारण उत्पन्न हुआ है।
- अपर्याप्त अनुसंधान अनुदान: अपर्याप्त संसाधन और सुविधाओं के अतिरिक्त छात्रों को सलाह देने के लिये सीमित संख्या में गुणवत्तापूर्ण संकाय ही उपलब्ध हैं। अधिकांश शोधार्थी फेलोशिप के बिना शोधरत्त हैं या उन्हें समय पर फेलोशिप प्राप्त नहीं हो रही है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनके शोधकार्य को प्रभावित करता है।
- इसके अलावा, यूजीसी की लघु और बृहत् अनुसंधान परियोजना योजनाओं के तहत प्रदत्त अनुदान वित्त वर्ष 2016-17 में 42.7 करोड़ रुपए से घटकर वित्त वर्ष 2020-21 में मात्र 38 लाख रुपए रह गया है।
- भारत में 1,040 से अधिक विश्वविद्यालय हैं लेकिन 2.7% में ही पीएचडी कार्यक्रमों का संचालन किया जाता हैं क्योंकि वे वित्तपोषण की कमी और खराब अवसंरचना से ग्रस्त हैं।
- विश्वविद्यालयों में अनुसंधान अवसंरचना में सुधार लाने पर लक्षित राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन (NRF) को अभी तक मंज़ूरी प्राप्त नहीं हुई है।
- इसके अलावा, यूजीसी की लघु और बृहत् अनुसंधान परियोजना योजनाओं के तहत प्रदत्त अनुदान वित्त वर्ष 2016-17 में 42.7 करोड़ रुपए से घटकर वित्त वर्ष 2020-21 में मात्र 38 लाख रुपए रह गया है।
- शैक्षणिक मानकों में गिरावट: शैक्षणिक मानकों और प्रक्रियाओं को बहाल नहीं किया जा रहा है। परीक्षाओं का पेपर लीक होना एक आम सी बात हो गई है।
- परीक्षार्थियों ने समय-समय पर उजागर किया है कि परीक्षा केंद्र संचालक उम्मीदवारों को पास कराने में मदद करने के लिये मोटी रकम वसूलते हैं।
विश्वविद्यालयों की वित्तीय समस्या की गंभीरता
- विश्वविद्यालय के बुनियादी ढाँचे में निवेश घटा है। केंद्रीय स्तर पर वित्त वर्ष 2022-23 में छात्र वित्तीय सहायता को घटाकर 2,078 करोड़ रुपए कर दिया गया (वित्त वर्ष 2021-22 में 2,482 करोड़ रुपए) अनुसंधान और नवाचार हेतु आवंटन में 8% की कमी आई जो वर्तमान में 218 करोड़ रुपए रह गया है।
- उच्च शिक्षा वित्तपोषण एजेंसी (Higher Education Financing Agency- HEFA)—जो संस्थानों को सभी अवसंरचना ऋणों के लिये धन मुहैया कराती है, के बजट को वित्त वर्ष 20-21 में 2,000 करोड़ रुपए से घटाकर वित्त वर्ष 21-22 में 1 करोड़ रुपए कर दिया गया। कुछ सीमित विकल्पों के साथ विश्वविद्यालयों को ऋण लेने के लिये विवश किया गया है।
- विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (University Grants Commission- UGC) को वित्त वर्ष 2021-22 में 4,693 करोड़ रुपए की तुलना में वित्त वर्ष 2022-23 में 4,900 करोड़ रुपए आवंटित किये गए लेकिन नकदी प्रवाह में कमी के कारण डीम्ड/केंद्रीय विश्वविद्यालयों के वेतन भुगतान में देरी हुई।
- संकाय सदस्यों को वेतन प्राप्त होने में महीनों तक देरी का सामना करना पड़ता है।
- अधिकांश विश्वविद्यालय घाटे में चल रहे हैं। मद्रास विश्वविद्यालय को 100 करोड़ रुपए से अधिक का संचित घाटा झेलना पड़ा, जिससे उसे राज्य सरकार से 88 करोड़ रुपए का अनुदान लेने हेतु विवश होना पड़ा।
- दिल्ली विश्वविद्यालय के बारह कॉलेजों को वित्तीय कमी का सामना करना पड़ा है जहाँ राज्य द्वारा आवंटन लगभग आधे भाग तक कम हो गया है।
- इससे विवेकाधीन व्यय में कटौती की स्थिति बनी है। दिल्ली के कई कॉलेज बुनियादी डेटाबेस और पत्रिकाओं की सदस्यता लेने में असमर्थ हैं।
आगे की राह
- बेहतर वित्तपोषण: अवसंरचना अनुदान/ऋण और वित्तीय सहायता के लिये समर्पित वित्तपोषण धारा स्थापित करने के साथ-साथ वित्तपोषण में वृद्धि करने की तत्काल आवश्यकता है।
- स्टार्ट-अप रॉयल्टी और विज्ञापन जैसे अन्य राजस्व धाराओं का उपयोग करने के लिये भी विश्वविद्यालयों को छूट दी जानी चाहिये।
- NRF की स्थापना: NRF की स्थापना से उम्मीद है कि शिक्षा जगत का मंत्रालयों और उद्योगों से संपर्क बनेगा तथा स्थानीय आवश्यकताओं के लिये प्रासंगिक अनुसंधान को धन दिया जा सकेगा।
- अनुसंधान/शोध के लिये वित्तपोषण में उल्लेखनीय वृद्धि की आवश्यकता है, जहाँ NRF जैसे संस्थान मौजूदा योजनाओं (विज्ञान मंत्रालय की योजनाओं सहित) को पूरकता प्रदान करें (न कि उन्हें प्रतिस्थापित करें)।
- स्नातक से नीचे के छात्रों के लिये पाठ्यक्रम-आधारित अनुसंधान अनुभवों को साझा करने हेतु भी धन आवंटित किया जाना चाहिये।
- इसके अलावा NRF शोधकर्त्ताओं के लिये सुपरिभाषित समस्याएँ प्रस्तुत कर सकेगा, ताकि वे लक्ष्य-उन्मुख और समयबद्ध तरीके से समाधान ढूँढ सकें।
- अनुसंधान/शोध के लिये वित्तपोषण में उल्लेखनीय वृद्धि की आवश्यकता है, जहाँ NRF जैसे संस्थान मौजूदा योजनाओं (विज्ञान मंत्रालय की योजनाओं सहित) को पूरकता प्रदान करें (न कि उन्हें प्रतिस्थापित करें)।
- गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को बनाए रखना: यह देखना निराशाजनक है कि उच्च शिक्षा संस्थान अपनी परीक्षाओं के निष्पक्ष क्रियान्वयन में विफल रहे हैं।
- इसमें सुधार के लिये विकेंद्रीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता होगी जहाँ विश्वविद्यालयों को अकादमिक कार्यक्रमों, पदोन्नति, समूह के आकार आदि पर निर्णय ले सकने की अनुमति दी जाए।
- मौजूदा HEIs का उन्नयन: वर्ष 2035 तक सकल नामांकन अनुपात (Gross Enrollment Ratio- GER) को मौजूदा 27% से बढ़ाकर 50% करने के लक्ष्य के साथ भारत को न केवल नए उच्च शिक्षा संस्थान (HEIs) और विश्वविद्यालय खोलने की ज़रूरत है, बल्कि मौजूदा HEIs के उन्नयन की भी आवश्यकता है।
- इस व्यापक विस्तार के लिये न केवल अतिरिक्त वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता होगी बल्कि एक नए शासन मॉडल की भी आवश्यकता होगी।
- इसके साथ ही, हमारे संस्थानों को अपने कार्यक्षेत्र एवं पेशकश में बहु-विषयक बनने और आपस में सहयोग करने की आवश्यकता है।
- गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करना: शिक्षा की लागत को उत्पाद की गुणवत्ता के साथ जोड़ना इस दिशा में पहला कदम होगा।
- रोज़गार योग्यता (Employability) के दृष्टिकोण से शिक्षा की गुणवत्ता का आकलन करना यह सुनिश्चित करेगा कि हम ‘बेरोज़गार स्नातकों’ की समस्या का समाधान कर रहे हैं।
- छात्र विश्वविद्यालयों के चयन में रोज़गार योग्यता को प्राथमिकतादी जाती है। प्रौद्योगिकी में तेज़ी से बदलाव के साथ भविष्य की नौकरियों को अभी तक परिभाषित नहीं किया गया है। इसलिये उद्योग से निरंतर प्रतिक्रिया/फीडबैक ग्रहण करते हुए कार्यक्रमों को डिज़ाइन करने की आवश्यकता है।
- एक रोज़गार योग्यता स्कोरकार्ड छात्रों को एक सूचित निर्णय लेने में मदद करने हेतु दीर्घकालिक योगदान दे सकता है। इसका उपयोग विश्वविद्यालयों की निरंतर मान्यता के लिये भी किया जा सकता है।
निष्कर्ष
NEP 2020 ने सामाजिक, नैतिक और भावनात्मक क्षमताओं एवं प्रकृति के साथ-साथ आलोचनात्मक चिंतन एवं समस्या समाधान का संपोषण करने की परिकल्पना की है। इसे साकार करने के लिये एक प्रोत्साहनकारी पारितंत्र की आवश्यकता होगी, जहाँ विश्वविद्यालयों (और छात्रों/संकाय की गतिविधियों) के लिये वृहत वित्तपोषण, स्वायत्तता और सहिष्णुता की स्थिति हो। इसके बिना प्रतिभाशाली भारतीय नागरिकों का विदेश पलायन होता रहेगा और नीति-निर्माता भारत के ‘ब्रेन-ड्रेन’ का शोक मनाते रहेंगे।
अभ्यास प्रश्न: भारत में विश्वविद्यालयों के समक्ष विद्यमान प्रमुख चुनौतियों पर चर्चा कीजिये और उन सुझावों को दीजिये जो भारत को ‘विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों का घर’ होने की अपनी पूर्वस्थिति को पुनः प्राप्त करने में मदद कर सकते हैं।