एडिटोरियल (07 Dec, 2023)



कृषि खाद्य प्रणालियों की प्रच्छन्न लागत

यह एडिटोरियल 05/12/2023 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “The need to transform agri-food systems” लेख पर आधारित है। इसमें कृषि-खाद्य प्रणालियों की प्रच्छन्न लागतों के बारे में चर्चा की गई है और स्वास्थ्य, पर्यावरण एवं समाज पर उनके प्रभाव के बारे में विचार किया गया है।

प्रिलिम्स के लिये:

द स्टेट ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर 2023, खाद्य और कृषि संगठन (FAO), क्रय शक्ति समता (PPP), गैर-संचारी रोग (NCDs), नीति आयोग, फसल विविधीकरण, जलवायु-अनुकूल फसल किस्में, लक्षित सिंचाई, अंतर-पीढ़ीगत न्याय, FAO’s का वास्तविक लागत लेखांकन दृष्टिकोण।

मेन्स के लिये:

कृषि खाद्य प्रणालियों की प्रच्छन्न लागत, भारत में गहन कृषि के प्रभाव, MSP का फसल प्रतिरूप पर प्रभाव, भारत में खाद्य प्रणाली को टिकाऊ बनाने के लिये आगे की राह।

खाद्य उत्पादन, प्रसंस्करण और वितरण के लिये ज़िम्मेदार कृषि क्षेत्र एक बिलियन से अधिक लोगों को रोज़गार और आजीविका प्रदान करता है। 

हम वर्तमान में एक निर्णायक मोड़ पर हैं जहाँ बढ़ती वैश्विक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। इन चुनौतियों में अपर्याप्त खाद्य उपलब्धता, खाद्य तक सीमित पहुँच और वहनीयता (affordability) संबंधी चिंताएँ शामिल हैं। इसके साथ ही, खाद्य उत्पादन और खेती के नकारात्मक प्रभावों के कारण पर्यावरणीय, सामाजिक और स्वास्थ्य संबंधी प्रच्छन्न लागतें (hidden costs) उत्पन्न होती हैं। 

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) ने अपनी ‘द स्टेट ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर, 2023 में कृषि-खाद्य प्रणालियों (agrifood systems) की इन ‘प्रच्छन्न लागतों’ को उजागर किया है और उनके प्रभाव के बारे में विचार किया है। 

खाद्य और कृषि की प्रच्छन्न लागत:

  • कृषि-खाद्य प्रणालियों की प्रच्छन्न लागतों में ग्रीनहाउस गैस (GHG) एवं नाइट्रोजन उत्सर्जन जल उपयोग, भूमि-उपयोग परिवर्तन से उत्पन्न पर्यावरणीय लागत, अस्वास्थ्यकर आहार पैटर्न के कारण उत्पादकता में होने वाले हानियों से संबंधित स्वास्थ्य लागत और गरीबी एवं अल्पपोषण से जुड़ी उत्पादकता हानियों से उत्पन्न सामाजिक लागत शामिल हैं। 
  • ‘द स्टेट ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर, 2023 154 देशों में राष्ट्रीय स्तर पर कृषि-खाद्य प्रणालियों की प्रच्छन्न लागत का आकलन करने का FAO का पहला प्रयास है। 

वैश्विक संदर्भ में रिपोर्ट की मुख्य बातें:

  • वर्ष 2020 में क्रय शक्ति समता (PPP) पर कृषि-खाद्य प्रणालियों की वैश्विक परिमाणित प्रच्छन्न लागत लगभग 12.7 ट्रिलियन डॉलर थी, जो वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (PPP के संदर्भ में) के लगभग 10% के बराबर है। 
  • वैश्विक स्तर पर, वर्ष 2020 में मात्राबद्ध प्रच्छन्न लागतों (quantified hidden costs) का 73% आहार पैटर्न से जुड़ा था जिसके कारण मोटापा और गैर-संचारी रोग (NCDs) उत्पन्न हुए, जिससे फिर श्रम उत्पादकता की हानि हुई। 
  • कृषि से संबद्ध मात्रात्मक पर्यावरणीय प्रच्छन्न लागत, जो मात्रात्मक प्रच्छन्न लागतों के 20% से अधिक के लिये ज़िम्मेदार है, कृषि मूल्यवर्द्धित के लगभग एक-तिहाई भाग के बराबर है।  
  • सामाजिक पक्ष के मामले में यह अनुमान लगाया गया है कि कृषि-खाद्य प्रणालियों में कार्यरत मध्यम गरीबों की आय को निम्न-आय देशों में 57% और निम्न-मध्यम-आय देशों में 27% तक बढ़ाने की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वे मध्यम गरीबी रेखा (moderate poverty line) से ऊपर हैं।  
  • रिपोर्ट में कृषि-खाद्य प्रणालियों को रूपांतरित करने के लिये निर्णय-निर्माण में इन लागतों को शामिल करने की तत्काल आवश्यकता को उजागर किया गया है। 

भारत के संदर्भ में रिपोर्ट में क्या कहा गया है? 

  • भारत की कृषि-खाद्य प्रणालियों की कुल प्रच्छन्न लागत लगभग 1.1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर थी, जो चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद विश्व में तीसरी सबसे बड़ी लागत है। 
  • FAO की रिपोर्ट के अनुसार, कृषि-खाद्य प्रणालियों से संबद्ध कुल 12.7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की वैश्विक मात्राबद्ध प्रच्छन्न लागत में भारत की हिस्सेदारी 8.8% थी, जबकि चीन ने इसमें 20% और अमेरिका ने 12.3% का योगदान किया। 
  • भारत में प्रच्छन्न लागतों में बीमारी के बोझ (आहार पैटर्न से उत्पादकता हानि) की सबसे अधिक हिस्सेदारी थी (60%), जबकि इसके बाद कृषि-खाद्य श्रमिकों के बीच गरीबी की सामाजिक लागत (14%) और फिर नाइट्रोजन उत्सर्जन की पर्यावरणीय लागत (13%) की हिस्सदारी थी।  
  • रिपोर्ट में सभी को स्वस्थ एवं पर्यावरणीय रूप से संवहनीय आहार प्रदान करने के लिये कृषि-खाद्य प्रणालियों को रूपांतरित करने के लिये समर्थन को पुनरुद्देशित करने के महत्त्व पर बल दिया गया है। 

गहन कृषि पद्धतियाँ भारत में प्रच्छन्न लागतों को कैसे प्रभावित कर रही हैं? 

  • समाज पर प्रभाव: 
    • स्वदेशी प्रणाली का पतन: बहुराष्ट्रीय निगमों से खरीदे गए बीजों के प्रवेश और उर्वरकों के उपयोग ने बीज संप्रभुता (seed sovereignty) को नष्ट कर दिया है, स्वदेशी ज्ञान प्रणालियों को बाधित किया है और दालों एवं मोटे अनाजों जैसी विभिन्न प्रकार की फसलों से एकल-फसल रोपण की ओर संक्रमण को प्रेरित किया है। 
      • दूसरी ओर, भारत में पारंपरिक खेती का दृष्टिकोण फसलों की एक विस्तृत शृंखला पर केंद्रित रहा है जो स्थिरता प्रदान करता है और प्रकृति के साथ अधिक तालमेल रखता है। भारत के गढ़वाल हिमालयी क्षेत्र में ‘बारहनाजा’ (बारह अनाज) एक फसल विविधीकरण प्रणाली है जो एक वर्ष में 12 फसलों की खेती पर केंद्रित है। 
    • ऋणग्रस्तता में वृद्धि : कृषि आदानों/इनपुट के निजीकरण और विनियमन से कृषक परिवारों में ऋणग्रस्तता भी बढ़ गई है। वर्ष 2013 में भारत में किसान परिवार का ऋण-परिसंपत्ति अनुपात (debt-to-asset ratio) वर्ष 1992 की तुलना में 630% अधिक पाया गया। 
    • निम्न कृषि आय: भारत में कृषि तेज़ी से अव्यवहार्य होती गई है जहाँ एक किसान परिवार की औसत मासिक घरेलू आय महज 10,816 रुपए है। 
  • पारिस्थितिकी पर प्रभाव: 
    • मृदा उर्वरता में गिरावट: उचित फसल चक्र (crop rotation) का पालन किये बिना ‘मोनोकल्चर’ और गहन खेती (intensive farming) जैसे अभ्यास मृदा से विशिष्ट पोषक तत्वों को समाप्त कर सकते हैं। 
    • भूजल का अत्यधिक दोहन: भारत में कृषि सिंचाई पर बहुत अधिक निर्भर करती है ताकि फसलों के लिये नियमित एवं पर्याप्त जल आपूर्ति सुनिश्चित हो सके। इस प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप भूजल का अत्यधिक दोहन हुआ है जिसके प्रतिकूल पारिस्थितिक परिणाम उत्पन्न हुए हैं। 
  • स्वास्थ्य पर प्रभाव: 
    • चावल और गन्ने की खेती का विस्तार जैव विविधता को प्रभावित कर रहा है; यह भूजल संसाधनों पर दबाव को बढ़ाता है और वायु एवं जल प्रदूषण में योगदान देता है। 

भारत में कृषि-खाद्य प्रणालियों की प्रच्छन्न लागत को कम करने के लिये आगे की राह: 

  • फसल विविधीकरण: मृदा की उर्वरता को बढ़ाने, कीटों एवं बीमारियों के जोखिम को कम करने और कृषि में समग्र प्रत्यास्थता में सुधार लाने के लिये फसल विविधीकरण (crop diversification) एवं चक्रण (crop rotation) को बढ़ावा देना। 

  • जलवायु-प्रत्यास्थी फसल किस्मों की खेती करना: ऐतिहासिक रूप से स्थानीय जलवायु परिस्थितियों के प्रति प्रत्यास्थता प्रदर्शित करने वाली फसल किस्मों की पहचान करने और उनका उपयोग करने के लिये पारंपरिक कृषि ज्ञान को आधुनिक वैज्ञानिक विधियों के साथ संयुक्त किया जाना चाहिये। 
    • उदाहरण के लिये, उप-सहारा अफ्रीका में सूखा-सहिष्णु मक्के की किस्मों को विकसित और प्रसारित किया गया है, जिससे लाखों छोटे किसानों को लाभ प्राप्त हुआ है।  
  • लक्षित सिंचाई (Precision Irrigation): इसका उद्देश्य जल उपयोग दक्षता को अधिकतम करना है, जहाँ सुनिश्चित हो कि जल की प्रत्येक बूँद पौधों के विकास में प्रभावी ढंग से योगदान करे। 
    • जल उपयोग दक्षता को अधिकतम करने और पर्यावरणीय नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिये ड्रिप एवं स्प्रिंकलर सिंचाई का उपयोग किया जाता है। 
  • परिवर्तनीय दर उर्वरकीकरण (Variable Rate Fertilization): यह एक कृषि पद्धति है जिसमें मृदा के पोषक तत्वों के स्तर, फसल की आवश्यकताओं और अन्य प्रासंगिक कारकों में भिन्नता के आधार पर खेत में उर्वरकों के अनुप्रयोग को समायोजित करना शामिल है। 
    • प्रत्येक फसल और क्षेत्र की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप उर्वरक अनुप्रयोग के लिये मृदा परीक्षण, रिमोट सेंसिंग और परिशुद्ध कृषि प्रौद्योगिकियों का उपयोग कर परिवर्तनीय दर उर्वरकीकरण की स्थिति प्राप्त की जा सकती है। 
  • सरकारी नीति परिवर्तन: 
    • सरकारी नीति परिवर्तन कराधान, सब्सिडी और विधान निर्माण के माध्यम से प्रच्छन्न कृषि-खाद्य लागत को कम कर सकते हैं। 
    • जोखिमों और ज़िम्मेदारियों को साझा कर, सार्वजनिक और निजी दोनों ही संस्थाएँ कृषि क्षेत्र में चुनौतियों का प्रबंधन करने और उनका शमन करने के लिये मिलकर कार्य कर सकती हैं। 
  • कृषि-खाद्य व्यवसाय में न्याय की स्थिति का निर्माण : 
    • अंतर-पीढ़ीगत न्याय (Intergenerational Justice): कृषि-खाद्य व्यवसाय के नकारात्मक ऐतिहासिक प्रभावों की ज़िम्मेदारी लें और उनका समाधान करें। 
    • अंतरा-पीढ़ीगत न्याय (Intragenerational Justice): यह किसानों के लिये उचित मुआवजे की रणनीतियों के साथ मौजूदा पीढ़ी के भीतर संसाधनों के समान वितरण को सुनिश्चित करने पर केंद्रित है। 
    • अंतर्जातीय न्याय (Interspecies Justice): मानव असाधारणता (human exceptionalism) को अस्वीकार करें तथा जैव विविधता एवं पारिस्थितिक तंत्र के मूल्य का उचित हिसाब रखें, उसकी रक्षा करें और उसका पुनरुद्धार करें। 
  • FAO का वास्तविक लागत लेखांकन दृष्टिकोण: 
    • FAO का वास्तविक लागत लेखांकन दृष्टिकोण (True Cost Accounting Approach)—जो उद्योग की पर्यावरणीय, सामाजिक, स्वास्थ्य संबंधी एवं आर्थिक लागत और लाभों को महत्त्व देता है—का उपयोग कृषि-खाद्य कंपनियों की प्रच्छन्न लागत से निपटने के लिये किया जा सकता है।
    • इसमें व्यवसायों के उत्पादन, प्रसंस्करण और अपने उत्पादों को बढ़ावा देने के तरीके को विनियमित करना शामिल होगा। 

निष्कर्ष: 

चूँकि हम एक पर्यावरणीय संकट के मुहाने पर खड़े हैं, यह स्पष्ट है कि हमारा वर्तमान प्रक्षेप पथ पृथ्वी की व्यवस्था को सुरक्षित एवं उपयुक्त सीमाओं से परे धकेल रहा है। हमारे पास न केवल आगे की क्षति को रोक सकने की क्षमता है बल्कि एक न्यायसंगत एवं रूपांतरकारी बदलाव को प्रेरित करने की भी क्षमता है जो अपने ग्रह के साथ हमारे संबंधों को पुनः व्यवस्थित कर सकता है। इसके लिये पहला महत्त्वपूर्ण कदम यह होगा कि हमारी खाद्य प्रणाली के गहन एवं न्यायसंगत रूपांतरण की तत्काल आवश्यकता पर ध्यान आकर्षित किया जाए। 

अभ्यास प्रश्न: कृषि-खाद्य प्रणाली के भीतर प्रच्छन्न लागत की अवधारणा को परिभाषित कीजिये। देश में कृषि-खाद्य प्रणाली को संवहनीय बनाने के लिये आप क्या सुझाव देंगे?

  विगत वर्षों के प्रश्न  

प्रिलिम्स

प्रश्न: निम्नलिखित में से कौन से कारक/नीतियाँ हाल के दिनों में भारत में चावल की कीमत को प्रभावित कर रही है? (2020)

न्यूनतम समर्थन मूल्य
2. सरकार द्वारा व्यापार
3. सरकार द्वारा भंडारण
4. उपभोक्ता सब्सिडी

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: 

(a) केवल 1, 2 और  4
(b) केवल 1, 3 और 4
(c) केवल  2 और  3
(d) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: (d)


मेन्स:

प्रश्न : फसल विविधता के समक्ष मौजूदा चुनौतियाँ क्या हैं? उभरती प्रौद्योगिकियाँ फसल विविधता के लिये किस प्रकार अवसर प्रदान करती हैं? (2021)