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एडिटोरियल

  • 07 Jun, 2021
  • 8 min read
भारतीय राजनीति

एक राष्ट्र एक चुनाव

यह एडिटोरियल दिनांक 02/06/2021 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित लेख “One Nation, One Election” पर आधारित है। इसमें देश में एक साथ चुनाव कराने के पक्ष और विपक्ष में तर्क दिये गए है।

हाल ही में कोविड 19 संक्रमण की दूसरी लहर का प्रकोप भारत में देखा गया है। इसमें मार्च-अप्रैल 2021 के दौरान चार राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश में हुए चुनावों का भी संभावित योगदान माना जा रहा है, इसलिये "एक राष्ट्र, एक चुनाव" (One Nation, One Election) जैसी महत्त्वपूर्ण अवधारणा पर तर्कपूर्ण चर्चा करना आवश्यक हो गया है।

इस अवधारणा के अंतर्गत मुख्य रूप से 5 मुद्दों पर चर्चा किये जाने की आवश्यकता है, इन पाँच मुद्दों में शामिल हैं: चुनाव कराने की वित्तीय लागत; बार-बार प्रशासनिक स्थिरता की लागत; सुरक्षा बलों की बार-बार तैनाती में आने वाली दृश्य और अदृश्य लागत; राजनीतिक दलों के अभियान और वित्त लागत; तथा क्षेत्रीय/छोटे दलों को समान अवसर प्राप्त होने का प्रश्न।

एक साथ चुनाव: पृष्ठभूमि

  • यह विचार वर्ष 1983 से अस्तित्व में है, जब चुनाव आयोग ने पहली बार इसे प्रस्तावित किया था। हालाँकि वर्ष 1967 तक एक साथ चुनाव भारत में प्रतिमान थे।
  • लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के पहले आम चुनाव वर्ष 1951-52 में एक साथ हुए थे।
  • इसके बाद वर्ष 1957, वर्ष 1962 और वर्ष 1967 में हुए तीन आम चुनावों में भी यह प्रथा जारी रही।
  • लेकिन वर्ष 1968 और वर्ष 1969 में कुछ विधान सभाओं के समय से पहले भंग होने के कारण यह चक्र बाधित हो गया।
  • वर्ष 1970 में लोकसभा को समय से पहले ही भंग कर दिया गया था और वर्ष 1971 में पुनः नए चुनाव हुए थे। इस प्रकार पहली, दूसरी और तीसरी लोकसभा ने पूरे 5 वर्ष के कार्यकाल पूर्ण किये थे।
  • लोकसभा और विभिन्न राज्य विधानसभाओं दोनों के समय से पहले विघटन और कार्यकाल के विस्तार के परिणामस्वरूप लोकसभा तथा राज्यों की विधानसभाओं के अलग-अलग चुनाव हुए हैं और एक साथ चुनाव का चक्र बाधित हो गया।

एक साथ चुनाव के पक्ष में तर्क

नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार देश में प्रत्येक वर्ष कम-से-कम एक चुनाव होता है;  दरअसल प्रत्येक राज्य में प्रत्येक वर्ष चुनाव भी होते हैं। उस रिपोर्ट में नीति आयोग ने तर्क दिया कि इन चुनावों के चलते विभिन्न प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नुकसान होते हैं।

  • चुनाव की अगणनीय आर्थिक लागत: बिहार जैसे बड़े आकार के राज्य के लिये चुनाव से संबंधित सीधे बजट की लागत लगभग 300 करोड़ रुपए है। हालाँकि इसके अलावा अन्य वित्तीय लागतें एवं अगणनीय आर्थिक लागतें भी हैं।
    • प्रत्येक चुनाव के दौरान सरकारी तंत्र चुनाव ड्यूटी और संबंधित कार्यों के कारण अपने नियमित कर्तव्यों से चूक जाता है।
    • चुनावी बजट में चुनाव के दौरान उपयोग किये जाने वाले इन लाखों मानव-घंटे की लागत की गणना नहीं की जाती है।
  • नीति पक्षाघात: आदर्श आचार संहिता (MCC) सरकार की कार्यकारिणी को भी प्रभावित करती है, क्योंकि चुनावों की घोषणा के बाद न तो किसी नई महत्त्वपूर्ण नीति की घोषणा की जा सकती है और न ही क्रियान्वयन।
  • प्रशासनिक लागतें: सुरक्षा बलों को तैनात करने तथा बार-बार उनके परिवहन पर भी भारी और दृश्यमान लागत आती है।
    • संवेदनशील क्षेत्रों से इन बलों को हटाने और देश भर में जगह बार-बार तैनाती के कारण होने वाली थकान तथा बीमारियों के संदर्भ में राष्ट्र द्वारा एक बड़ी अदृश्य लागत का भुगतान किया जाता है।

एक साथ चुनाव के विरुद्ध तर्क

  • संघीय समस्या: एक साथ चुनावों को लागू करना लगभग असंभव है क्योंकि इसके लिये मौजूदा विधानसभाओं के कार्यकाल में मनमाने ढंग से कटौती करनी पड़ेगी या उनकी चुनाव तिथियों को देश के बाकी भागों हेतु नियत तारीख के अनुरूप लाने के लिये उनके कार्यकाल में वृद्धि करनी पड़ेगी।
    • ऐसा कदम लोकतंत्र और संघवाद को कमज़ोर करेगा।
  • लोकतंत्र की भावना के विरुद्ध: आलोचकों का यह भी कहना है कि एक साथ चुनाव कराने के लिये मजबूर करना लोकतंत्र के विरुद्ध है क्योंकि चुनावों के कृत्रिम चक्र को थोपने की कोशिश करना और मतदाताओं की पसंद को सीमित करना उचित नहीं है।
  • क्षेत्रीय दलों को नुकसान: ऐसा माना जाता है कि एक साथ चुनाव से क्षेत्रीय दलों को नुकसान पहुँचेगा क्योंकि एक साथ होने वाले चुनावों में मतदाताओं द्वारा मुख्य रूप से एक ही तरफ वोट देने की संभावना अधिक होती है जिससे केंद्र में प्रमुख पार्टी को लाभ होता है।
  • जवाबदेही में कमी: प्रत्येक 5 वर्ष में एक से अधिक बार मतदाताओं के समक्ष आने से राजनेताओं की जवाबदेहिता बढ़ती है।

 निष्कर्ष

  • यह स्पष्ट है कि एक साथ चुनाव की अवधारणा को लागू करने के लिये संविधान और अन्य कानूनों में संशोधन की आवश्यकता होगी। लेकिन यह कार्य इस प्रकार किया जाना चाहिये कि लोकतंत्र और संघवाद के मूल सिद्धांतों को चोट न पहुँचे।
  • इस संदर्भ में विधि आयोग ने एक विकल्प का सुझाव दिया है जिसके अनुसार अगले आम चुनाव से निकटता के आधार पर राज्यों को वर्गीकृत किया चाहिये और अगले लोकसभा चुनाव के साथ राज्य विधानसभा चुनाव का एक दौर तथा शेष राज्यों के लिये दूसरा दौर 30 महीने बाद होना चाहिये। लेकिन यह इस बात की गारंटी नहीं देता है कि इन सबके बावजूद भी मध्यावधि चुनाव की आवश्यकता नहीं होगी।

मेंस अभ्यास प्रश्न: क्या देश में एक साथ चुनाव लोकतंत्र और संघवाद को संकट में डालते हैं? विश्लेषण कीजिये।


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