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एडिटोरियल

  • 04 Jan, 2021
  • 14 min read
जैव विविधता और पर्यावरण

आर्कटिक पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में आर्कटिक क्षेत्र में पिघल रही बर्फ और इसके वैश्विक प्रभावों के साथ संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ:

आर्कटिक क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का सबसे नाटकीय रूप देखा जा रहा है, क्योंकि यह क्षेत्र वैश्विक औसत से दोगुनी गति से गर्म हो रहा है। आर्कटिक की बर्फ के क्षेत्रफल में लगभग 75% की कमी देखी गई है। जैसे-जैसे आर्कटिक की बर्फ पिघलकर समुद्र में पहुँच रही है यह प्रकृति में एक नई वैश्विक चुनौती खड़ी कर रही है। वहीं दूसरी तरफ यह परिवर्तन उत्तरी सागर मार्ग (Northern Sea Route-NSR) को खोल रहा है जो एक छोटे ध्रुवीय चाप के माध्यम से उत्तरी अटलांटिक महासागर को उत्तरी प्रशांत महासागर से जोड़ता है। कई पृथ्वी अवलोकन अध्ययनों का अनुमान है कि यह मार्ग वर्ष 2050 की गर्मियों तक या उससे पहले ही  बर्फ मुक्त हो सकता है।

हालाँकि NSR के पूर्ण व्यवसायीकरण से पहले वैश्विक समुदाय द्वारा आर्कटिक में पिघल रही  बर्फ और इससे संबंधित अन्य चुनौतियों की समीक्षा की जानी चाहिये।

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आर्कटिक की पिघलती बर्फ का प्रभाव:

  • वैश्विक जलवायु: आर्कटिक और अंटार्कटिक विश्व के रेफ्रिजरेटर की तरह काम करते हैं। चूँकि ये क्षेत्र सफेद बर्फ और हिमपात में ढके रहते हैं जो सूर्य से आने वाली गर्मी को अंतरिक्ष में वापस परावर्तित कर देता है (एलबेडो प्रभाव), इस प्रकार ये विश्व के अन्य हिस्सों में अवशोषित गर्मी के सापेक्ष एक संतुलन प्रदान करते हैं।   
    • बर्फ का क्षरण और समुद्री जल का गर्म होना समुद्र के स्तर, लवणता के स्तर, समुद्री धाराओं और वर्षा पैटर्न को प्रभावित करेगा। 
    • इसके अतिरिक्त बर्फ के क्षेत्रफल में कमी का अर्थ है कि इससे गर्मी के परावर्तन में भी कमी आएगी, जो विश्व भर में लू (Heatwave) की तीव्रता में और अधिक वृद्धि करेगा। 
    • इसका अर्थ यह होगा कि ये परिस्थितियाँ अधिक चरम सर्दियों को बढ़ावा देंगी क्योंकि जैसे-जैसे ध्रुवीय जेट प्रवाह गर्म हवाओं के कारण अस्थिर होगा, वैसे ही यह अपने साथ कड़ाके की ठंढ लाते हुए दक्षिण की तरफ बढ़ेगा।
  • तटीय समुदाय: वर्तमान में औसत वैश्विक समुद्री जल स्तर वर्ष 1900 की तुलना में 7 से 8 इंच बढ़ चुका है और यह स्थिति लगातार गंभीर होती जा रही है।
    • बढ़ता समुद्री जल स्तर तटीय बाढ़ और तूफान के मामलों में तीव्रता लाते हुए तटीय शहरों और छोटे द्वीपीय देशों के लिये उनके अस्तित्व को खोने का खतरा उत्पन्न करता है।
    • ग्रीनलैंड में हिमनद का पिघलना भविष्य में  समुद्र-स्तर की वृद्धि के लिये एक महत्त्वपूर्ण चेतावनी है, यदि यहाँ के हिमनद पूरी तरह से पिघल जाते हैं, तो यह वैश्विक समुद्र स्तर में 20 फीट तक की वृद्धि कर सकता है। 
  • खाद्य सुरक्षा: हिमनदों के क्षेत्रफल में गिरावट के कारण ध्रुवीय चक्रवात, लू की तीव्रता और मौसम की अनिश्चितता में वृद्धि के कारण पहले ही फसलों को काफी नुकसान पहुँच रहा है, जिस पर वैश्विक खाद्य प्रणालियाँ निर्भर हैं। 
    • इस अस्थिरता के कारण विश्व के सबसे कमज़ोर वर्ग के लिये उच्च कीमतों के साथ खाद्य असुरक्षा का संकट बना रहेगा।
  • पर्माफ्रॉस्ट और ग्लोबल वार्मिंग:  आर्कटिक क्षेत्र में पर्माफ्रॉस्ट के नीचे बड़ी मात्रा में मीथेन गैस संरक्षित है जो कि एक ग्रीनहाउस गैस होने के साथ ही जलवायु परिवर्तन के  प्रमुख कारकों में से एक है। 
    • इस क्षेत्र में बर्फ के पिघलने के कारण मीथेन मुक्त होकर वायुमंडल में मिल जाएगी, जिससे ग्लोबल वार्मिंग की दर में तीव्र वृद्धि होगी।   
    • जितनी जल्दी आर्कटिक बर्फ के क्षेत्रफल में कमी होगी, उतनी ही तेज़ी से पर्माफ्रॉस्ट भी पिघलेगा और यह दुष्चक्र जलवायु को गंभीर रूप से प्रभावित करेगा।  
  • जैव विविधता के लिये खतरा: आर्कटिक की बर्फ का पिघलना इस क्षेत्र की जीवंत जैव विविधता के लिये गंभीर खतरा उत्पन्न करता है।  
    • प्राकृतिक आवास को होने वाली हानि और इसके क्षरण,  वर्ष भर बर्फ मौजूद न होना  तथा उच्च तापमान की स्थिति आदि आर्कटिक क्षेत्र के पौधों, पक्षियों और समुद्री जीवों की उत्तरजीविता के लिये मुश्किलें पैदा कर रही हैं, जो कम अक्षांशों से प्रजातियों को उत्तर की ओर स्थानांतरित होने के लिये प्रोत्साहित करती है।
    • बर्फ के क्षेत्रफल में गिरावट और पर्माफ्रॉस्ट का पिघलना ध्रुवीय भालू, वालरस, आर्कटिक लोमड़ियों, बर्फीले उल्लू, हिरन और कई अन्य प्रजातियों के लिये परेशानी का कारण बन रहा है।
    • टुंड्रा क्षेत्र का दलदल में बदलना, पर्माफ्रॉस्ट के विगलन, अचानक आने वाले तूफानों के कारण तटीय इलाकों को होने वाली क्षति और वनाग्नि की वजह से कनाडा एवं रूस के आंतरिक भागों में भारी तबाही के मामलों में वृद्धि हुई है।

दूसरा पहलू और उत्तरी सागर मार्ग (NSR):  

  • NSR के माध्यम से आर्कटिक का खुलना पर्याप्त वाणिज्यिक और आर्थिक अवसर (विशेष रूप से शिपिंग, ऊर्जा, मत्स्य पालन और खनिज संसाधनों के क्षेत्र में) प्रस्तुत करता है।
    • इस मार्ग के खुलने से रॉटर्डम (नीदरलैंड) से योकोहामा (जापान) की दूरी में 40% की कटौती (स्वेज नहर मार्ग की तुलना में) होगी।
    • एक अनुमान के अनुसार, विश्व में अभी तक न खोजे गए नए प्राकृतिक तेल और गैस के भंडारों में से 22% आर्कटिक क्षेत्र में हैं, साथ ही अन्य खनिजों के अतिरिक्त ग्रीनलैंड में विश्व के 25% दुर्लभ मृदा धातुओं के होने का अनुमान है। बर्फ के पिघलने के बाद इन बहुमूल्य खनिज स्रोतों तक आसानी से पहुँचा जा सकेगा। 

चुनौतियाँ:

  • NSR की पर्यावरणीय और आर्थिक व्यावहारिकता: गहरे पानी वाले बंदरगाहों की कमी, बर्फ तोड़ने वाले जहाज़ों की आवश्यकता, ध्रुवीय परिस्थितियों के लिये प्रशिक्षित श्रमिकों की कमी और उच्च बीमा लागत आर्कटिक के संसाधनों के दोहन हेतु कठिनाइयों को बढ़ाता है।
    • इसके अलावा खनन और गहरे समुद्र में ड्रिलिंग कार्य में भारी आर्थिक और पर्यावरणीय जोखिम बना रहता है।
  • वैश्विक समन्वय का अभाव: अंटार्कटिका के विपरीत आर्कटिक विश्व की साझी संपदा नहीं है और इस क्षेत्र पर अंतर्राष्ट्रीय शासन को बनाए रखने वाली कोई अधिमान्य संधि [संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून संधि (UNCLOS) को छोड़कर] भी नहीं है।
    • इसके अधिकांश बड़े हिस्से पाँचों तटीय देशों- रूस, कनाडा, नॉर्वे, डेनमार्क (ग्रीनलैंड) और अमेरिका की संप्रभुता के अधीन हैं तथा नए संसाधनों के दोहन का अधिकार भी उन्हें ही प्राप्त है।
    • ऐसे में राष्ट्रीय आर्थिक हित आर्कटिक संरक्षण के वैश्विक प्रयासों को प्रभावित कर सकते हैं।
  • भू-राजनीति का प्रभाव:  इस क्षेत्र में विस्तारित महाद्वीपीय भागों और समुद्र की तलहटी में संसाधनों पर अधिकार के दावों के लिये रूस, कनाडा, नॉर्वे और डेनमार्क के बीच टकराव दिखाई देता है।
    • हालाँकि रूस इस क्षेत्र में एक प्रमुख शक्ति है, जिसके पास सबसे लंबा आर्कटिक समुद्र तट, आधी आर्कटिक आबादी और एक मज़बूत सामरिक नीति है। रूस दावा करता है कि NSR उसकी क्षेत्रीय जल सीमा में आता है।
    • इसके विपरीत अमेरिका का मानना ​​है कि यह मार्ग अंतर्राष्ट्रीय जल क्षेत्र के अंतर्गत आता है।
    • अपने आर्थिक लाभ को देखते हुए चीन ने ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव परियोजना’ (Belt and Road initiative- BRI) के विस्तार के रूप में एक ‘ध्रुवीय सिल्क रोड’ की अवधारणा प्रस्तुत की है  और साथ ही उसने इस क्षेत्र में बंदरगाहों, ऊर्जा, बुनियादी ढाँचे एवं खनन परियोजनाओं में भारी निवेश किया है।

भारत की भूमिका:  

  • भारत के हित: इन विकासों के संबंध में भारत के हित हालाँकि बहुत सीमित हैं परंतु ये पूर्णतया परिधीय या शून्य भी नहीं हैं।
    • भारत की जलवायु: भारत की व्यापक तटरेखा हमें समुद्र की धाराओं, मौसम के पैटर्न, मत्स्य पालन और हमारे मानसून पर आर्कटिक वार्मिंग के प्रभाव के प्रति संवेदनशील बनाती है।
    • तीसरे ध्रुव की निगरानी: आर्कटिक के बदलावों पर हो रहे वैज्ञानिक अनुसंधान, जिसमें भारत का अच्छा रिकॉर्ड रहा है, तीसरे ध्रुव (हिमालय) में जलवायु परिवर्तन को समझने में सहायक होगा।
    • रणनीतिक ज़रूरत: आर्कटिक क्षेत्र में चीन की सक्रियता के रणनीतिक निहितार्थ और वर्तमान में रूस के साथ इसके आर्थिक तथा रणनीतिक संबंधों में हो रही वृद्धि सर्वविदित है, अतः वर्तमान में इसकी व्यापक निगरानी की आवश्यकता है।
    • आवश्यक कदम:  भारत को आर्कटिक परिषद (Arctic Council) में पर्यवेक्षक का दर्जा प्राप्त है, जो आर्कटिक पर्यावरण और विकास के पहलुओं पर सहयोग के लिये प्रमुख अंतर-सरकारी मंच है।
      • वर्तमान में यह बहुत ही आवश्यक है कि आर्कटिक परिषद में भारत की उपस्थिति को आर्थिक, पर्यावरणीय, वैज्ञानिक और राजनीतिक पहलुओं को शामिल करने वाली सामरिक नीतियों के माध्यम से मज़बूती प्रदान की जाए।

निष्कर्ष:

आर्कटिक वैश्विक जलवायु प्रणाली का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटक है। ठीक वैसे ही जैसे अमेजन के जंगल दुनिया के फेफड़े हैं, आर्कटिक हमारे लिये संचालन तंत्र की तरह है जो हर क्षेत्र में वैश्विक जलवायु को संतुलन प्रदान करता है। इसलिये यह मानवता के हित में है कि आर्कटिक में पिघल रही बर्फ को एक गंभीर वैश्विक मुद्दा मानते हुए इससे निपटने के लिये मिलकर कार्य किया जाए।

अभ्यास प्रश्न:  वर्तमान में वैश्विक समुदाय के लिये आर्कटिक में पिघल रही बर्फ और इससे जुड़ी चुनौतियों के प्रभावों  का आकलन करना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। चर्चा कीजिये।


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