इन्फोग्राफिक्स
भारतीय राजनीति
राज्यपाल की भूमिका और शक्तियाँ
प्रिलिम्स के लिये:राज्यपाल से संबंधित संवैधानिक प्रावधान मेन्स के लिये:राज्यपाल-राज्य के बीच संबंधों को लेकर विवाद |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केरल के राज्यपाल ने मंत्रियों को चेतावनी दी कि मंत्रियों के व्यक्तिगत बयान जो राज्यपाल के कार्यालय की गरिमा को कम करते हैं, उन पर कड़ी कार्रवाई की जाएगी।
प्रसादपर्यंत का सिद्धांत:
- विषय:
- प्रसादपर्यंत के सिद्धांत की उत्पत्ति अंग्रेज़ो के कानून से हुई जिसके अनुसार, एक सिविल सेवक क्राउन के प्रसादपर्यंत पद धारण करता है।
- अनुच्छेद 310 के तहत सिविल सेवक यथा- रक्षा सेवाओं, सिविल सेवाओं, अखिल भारतीय सेवाओं के सदस्य या केंद्र/राज्य के तहत सैन्य पदों या सिविल पदों पर नियुक्त व्यक्ति राष्ट्रपति या राज्यपाल के प्रसादपर्यंत जैसा भी मामला हो, पद धारण करते हैं।
- अनुच्छेद 311 इस सिद्धांत पर प्रतिबंध लगाता है और सिविल सेवकों को उनके पदों से मनमानी बर्खास्तगी के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है।
- यदि प्राधिकरण ने उसे पद से हटाने का अधिकार दिया है या उसे हटाने के लिये संतुष्ट है अथवा यदि राष्ट्रपति या राज्यपाल को लगता है कि राज्य की सुरक्षा के हित में जाँच करना व्यावहारिक या सुविधाजनक नहीं है, तब किसी प्रकार के जाँच की आवश्यकता नहीं होती है।
- संविधान के अनुच्छेद 164 के अनुसार, मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाएगी और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री की सलाह पर की जाएगी।
- इसमें कहा गया है कि मंत्री राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करते हैं। एक संवैधानिक योजना जिसमें उन्हें पूरी तरह से मुख्यमंत्री की सलाह पर नियुक्त किया जाता है, संदर्भित 'प्रसादपर्यंत' का आशय मुख्यमंत्री के एक मंत्री को बर्खास्त करने के अधिकार के रूप में भी लिया जाता है, न कि राज्यपाल का। संक्षेप में किसी भारतीय राज्य का राज्यपाल स्वयं किसी मंत्री को नहीं हटा सकता है।
- सर्वोच्च न्यायालय का नज़रिया:
- शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य (1974):
- इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल जो कि विभिन्न अनुच्छेदों के तहत अन्य शक्तियों एवं कार्यपालिका के संरक्षक हैं, “कुछ असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर, अपने मंत्रियों की सलाह के अनुसार ही अपनी औपचारिक संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग करेंगे।
- नबाम रेबिया बनाम उपाध्यक्ष (2016):
- इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने बी आर अम्बेडकर की टिप्पणियों का सहारा लेते हुए कहा "संविधान के तहत राज्यपाल के पास ऐसा कोई कार्य नहीं है जिसे वह स्वयं निष्पादित कर सकता है। चूँकि राज्यपाल के पास कोई कार्य नहीं है लेकिन उसके कुछ कर्त्तव्य हैं और सदन को इस बात को ध्यान में रखना चाहिये।"
- वर्ष 2016 में उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया था कि राज्यपाल के विवेक के प्रयोग से संबंधित अनुच्छेद 163 सीमित है और उसके द्वारा की जाने वाली कार्रवाई मनमानी या काल्पनिक नहीं होनी चाहिये। अपनी कार्रवाई के लिये राज्यपाल के पास तर्क होना चाहिये तथा यह सद्भावना के साथ की जानी चाहिये।
- महाबीर प्रसाद बनाम प्रफुल्ल चंद्र 1969:
- यह मामला अनुच्छेद 164(1) के तहत राज्यपाल की प्रसादपर्यंतता की प्रकृति के प्रश्न के इर्द-गिर्द घूमता है।
- अनुच्छेद 164(1) के तहत राज्यपाल की प्रसादपर्यंतता अनुच्छेद 164(2) के अधीन है। इस प्रकार राज्यपाल की प्रसादपर्यंतता की वापसी को मंत्रालय हेतु विधानसभा के समर्थन की वापसी के साथ मेल खाना चाहिये।
- शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य (1974):
राज्यपाल से संबंधित संवैधानिक प्रावधान
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 153 के तहत प्रत्येक राज्य के लिये एक राज्यपाल का प्रावधान किया गया है। एक व्यक्ति को दो या दो से अधिक राज्यों के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया जा सकता है।
- राज्यपाल केंद्र सरकार का एक नामित व्यक्ति होता है, जिसे राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है।
- संविधान के मुताबिक, राज्य का राज्यपाल दोहरी भूमिका अदा करता है।
- वह राज्य की मंत्रिपरिषद (CoM) की सलाह मानने को बाध्य राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है।
- इसके अतिरिक्त वह केंद्र सरकार और राज्य सरकार के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में कार्य करता है।
- अनुच्छेद 157 और 158 के तहत राज्यपाल पद के लिये पात्रता संबंधी आवश्यकताओं को निर्दिष्ट किया गया है। इसके लिये पात्रताएँ हैं-
- वह भारत का नागरिक हो।
- आयु कम-से-कम 35 वर्ष हो।
- संसद के किसी भी सदन या राज्य विधायिका का सदस्य नहीं होना चाहिये।
- लाभ का पद धारण न करता हो।
- राज्यपाल को संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत क्षमादान और दंडविराम आदि की भी शक्ति प्राप्त है।
- कुछ विवेकाधीन शक्तियों के अतिरिक्त राज्यपाल को उसके अन्य सभी कार्यों में सहायता करने और सलाह देने के लिये मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में एक मंत्रिपरिषद का गठन किये जाने का प्रावधान है। (अनुच्छेद 163)
- राज्य के मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है। (अनुच्छेद 164)
- राज्यपाल, राज्य की विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को अनुमति देता है, अनुमति रोकता है अथवा राष्ट्रपति के विचार के लिये विधेयक को सुरक्षित रखता है। (अनुच्छेद 200)
- राज्यपाल कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में अध्यादेशों को प्रख्यापित कर सकता है। (अनुच्छेद 213)
राज्यपाल-राज्य संबंध के बीच विवाद के तत्त्व:
- राज्यपाल की परिकल्पना एक गैर-राजनीतिक प्रमुख के रूप में की गई है, जिसे मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना चाहिये। हालाँकि राज्यपाल को संविधान के तहत कुछ विवेकाधीन शक्तियाँ प्राप्त हैं। उदाहरण के लिये:
- राज्य विधानमंडल द्वारा पारित किसी विधेयक को स्वीकृति देना या रोकना,
- किसी पार्टी को बहुमत साबित करने के लिये आवश्यक समय का निर्धारण, या
- आमतौर पर किसी चुनाव में त्रिशंकु जनादेश के बाद बहुमत साबित करने के लिये सबसे पहले किस पार्टी को आमंत्रित करना है।
- राज्यपाल और राज्य के बीच मतभेद होने पर सार्वजनिक रूप से इसकी भूमिका के बारे में कुछ स्पष्ट प्रावधान नहीं हैैैैं।
- राज्यपाल का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है, वह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत ही पद पर बना रह सकता है।
- वर्ष 2001 में संविधान के कामकाज की समीक्षा पर गठित राष्ट्रीय आयोग ने माना कि राज्यपाल की नियुक्ति और संघ के लिये इसकी निरंतरता आवश्यक है।
- ऐसी आशंका जाहिर की जाती है कि राज्यपाल प्रायः केंद्रीय मंत्रिपरिषद से प्राप्त निर्देशों के अनुसार कार्य करता है।
- संविधान में राज्यपाल की शक्तियों के प्रयोग के लिये कोई दिशा-निर्देश नहीं हैं, जिसमें मुख्यमंत्री की नियुक्ति या विधानसभा को भंग करना शामिल है।
- राज्यपाल कितने समय तक किसी विधेयक पर अपनी स्वीकृति रोक सकता है, इसकी कोई सीमा निर्धारित नहीं है।
- राज्यपाल केंद्र सरकार को एक रिपोर्ट भेजता है, जो अनुच्छेद-356 (राष्ट्रपति शासन) को लागू करने के लिये राष्ट्रपति को केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सिफारिशों का आधार बनाती है।
राज्यपालों द्वारा निभाई गई कथित पक्षपातपूर्ण भूमिका से संबंधित चिंताओं को दूर करने के लिये किये गए प्रयास:
- राज्यपालों के चयन के संबंध में परिवर्तन:
- वर्ष 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा संविधान के कामकाज की समीक्षा पर गठित राष्ट्रीय आयोग ने सुझाव दिया कि किसी राज्य के राज्यपाल को उस राज्य के मुख्यमंत्री के परामर्श के बाद राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाना चाहिये।
- सरकारिया आयोग का प्रस्ताव:
- केंद्र-राज्य संबंधों पर वर्ष 1983 में गठित सरकारिया आयोग ने प्रस्ताव दिया कि राज्यपालों के चयन में भारत के उपराष्ट्रपति एवं लोकसभा के अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के बीच परामर्श किया जाना चाहिये।
- पुंछी समिति का प्रस्ताव:
- केंद्र-राज्य संबंधों पर वर्ष 2007 में गठित न्यायमूर्ति मदन मोहन पुंछी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, उपराष्ट्रपति, लोकसभा के अध्यक्ष और संबंधित मुख्यमंत्री की एक समिति द्वारा राज्यपाल का चयन किया जाना चाहिये।
- पुंछी समिति ने संविधान से "प्रसादपर्यंत के सिद्धांत" को हटाने की सिफारिश की, लेकिन राज्य सरकार की सलाह के खिलाफ रहने वाले मंत्रियों पर मुकदमा चलाने की मंजूरी पर राज्यपाल के अनुमोदन के अधिकार का समर्थन किया।
- इसने राज्य विधानमंडल द्वारा राज्यपाल पर महाभियोग चलाने के प्रावधान का समर्थन किया।
आगे की राह
- यद्यपि राज्यपाल विधेयक की विषय-वस्तु से भिन्न हो सकते हैं और उपलब्ध संवैधानिक विकल्पों का प्रयोग कर सकते हैं, उन्हें अपनी शक्तियों का उपयोग उन कानूनों को रोकने के लिये नहीं करना चाहिये जो उनके लिये अनुचित हैं।
- यह इस सिद्धांत को लागू करने का समय है कि एम.एम. पुंछी आयोग, जिसने केंद्र-राज्य संबंधों की समीक्षा की, ने सिफारिश की कि राज्यपालों पर कुलपतियों की भूमिका का बोझ नहीं डाला जाना चाहिये।
- राज्यपालों का मानना है कि वे संविधान के तहत जो कार्य करते हैं, वे अतिरंजित प्रतीत होते हैं। उनसे संविधान की रक्षा करने की अपेक्षा की जाती है और वे निर्वाचित शासनों को संविधान का उल्लंघन करने के खिलाफ चेतावनी देने के लिये अपनी शक्तियों का उपयोग कर सकते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे निर्णय लेने हेतु समय-सीमा की अनुपस्थिति और समानांतर शक्ति केंद्र के रूप में कार्य करने के लिये उन्हें दिये गए विवेकाधीन शक्ति का उपयोग कर सकते हैं।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. किसी राज्य के राज्यपाल को निम्नलिखित में से कौन सी विवेकाधीन शक्तियाँ प्राप्त हैं? (2014)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (b) व्याख्या:
अतः विकल्प (b) सही है। प्रश्न. क्या सर्वोच्च न्यायालय का फैसला (जुलाई 2018) उपराज्यपाल और दिल्ली की चुनी हुई सरकार के बीच राजनीतिक संघर्ष को सुलझा सकता है? परीक्षण कीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2018) प्रश्न. राज्यपाल द्वारा विधायी शक्तियों के प्रयोग के लिये आवश्यक शर्तों की चर्चा कीजिये। राज्यपाल द्वारा अध्यादेशों को विधायिका के समक्ष रखे बिना पुन: प्रख्यापित करने की वैधता पर चर्चा कीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2022) |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
शासन व्यवस्था
आईटी नियम, 2021 में संशोधन
प्रिलिम्स के लिये:सूचना प्रौद्योगिकी नियम 2021 मे संशोधन, अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19, अनुच्छेद 21। मेन्स के लिये:सूचना प्रौद्योगिकी नियम 2021 में संशोधन, सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सरकार ने सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती दिशा-निर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम 2021 में संशोधनों को अधिसूचित किया।
- इनका उद्देश्य देश के नागरिकों के लिये इंटरनेट को सुलभ, सुरक्षित, भरोसेमंद और जवाबदेह बनाना है।
आईटी नियम, 2021 में प्रमुख संशोधन:
- सोशल मीडिया मध्यस्थों के लिये नए दिशा-निर्देश:
- वर्तमान में मध्यस्थों को केवल उपयोगकर्त्ताओं के लिये हानिकारक/गैरकानूनी सामग्री की कुछ श्रेणियों को अपलोड नहीं करने के बारे में सूचित करने की आवश्यकता है। ये संशोधन उपयोगकर्त्ताओं को ऐसी सामग्री अपलोड करने से रोकने के लिये उचित प्रयास करने हेतु मध्यस्थों पर एक कानूनी दायित्व आरोपित करते हैं। नया प्रावधान यह सुनिश्चित करेगा कि मध्यस्थ का दायित्त्व केवल एक औपचारिकता नहीं है।
- इस संशोधन में मध्यस्थों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत उपयोगकर्त्ताओं को मिले अधिकारों का सम्मान करने की आवश्यकता है, इसलिये इसमें उचित तत्परता, गोपनीयता और पारदर्शिता की अपेक्षा की गई है।
- मध्यस्थ के नियमों और विनियमों के प्रभावी संचार हेतु यह महत्त्वपूर्ण है कि संचार क्षेत्रीय भारतीय भाषाओं में भी किया जाए।
- वर्तमान में मध्यस्थों को केवल उपयोगकर्त्ताओं के लिये हानिकारक/गैरकानूनी सामग्री की कुछ श्रेणियों को अपलोड नहीं करने के बारे में सूचित करने की आवश्यकता है। ये संशोधन उपयोगकर्त्ताओं को ऐसी सामग्री अपलोड करने से रोकने के लिये उचित प्रयास करने हेतु मध्यस्थों पर एक कानूनी दायित्व आरोपित करते हैं। नया प्रावधान यह सुनिश्चित करेगा कि मध्यस्थ का दायित्त्व केवल एक औपचारिकता नहीं है।
- नियम 3 में संशोधन:
- नियम 3 (नियम 3(1)(बी)(ii)) के उपखंड 1 के आधारों को 'मानहानि कारक' और 'अपमानजनक' शब्दों को हटाकर युक्तिसंगत बनाया गया है।
- क्या कोई सामग्री मानहानि कारक या अपमानजनक है, यह न्यायिक समीक्षा के माध्यम से निर्धारित किया जाएगा।
- नियम 3 (नियम 3(1)(बी)) के उपखंड 1 में कुछ सामग्री श्रेणियों को, विशेष रूप से गलत सूचना और ऐसी अन्य सामग्री से निपटने के लिये फिर से तैयार किया गया है जो विभिन्न धार्मिक/जाति समूहों के बीच हिंसा को उकसा सकती है।
- नियम 3 (नियम 3(1)(बी)(ii)) के उपखंड 1 के आधारों को 'मानहानि कारक' और 'अपमानजनक' शब्दों को हटाकर युक्तिसंगत बनाया गया है।
- शिकायत अपील समिति का गठन:
- उपयोगकर्त्ता शिकायतों पर मध्यस्थों द्वारा लिये गए निर्णयों या निष्क्रियता के खिलाफ उपयोगकर्त्ताओं को अपील करने की अनुमति देने हेतु ‘शिकायत अपील समितियों' का गठन किया जाएगा।
- हालाँकि उपयोगकर्त्ताओं को हमेशा किसी भी समाधान के लिये न्यायालयों का दरवाज़ा खटखटाने का अधिकार होगा।
- उपयोगकर्त्ता शिकायतों पर मध्यस्थों द्वारा लिये गए निर्णयों या निष्क्रियता के खिलाफ उपयोगकर्त्ताओं को अपील करने की अनुमति देने हेतु ‘शिकायत अपील समितियों' का गठन किया जाएगा।
प्रमुख आईटी नियम, 2021:
- यह सोशल मीडिया का सक्रिय होना अनिवार्य करता है:
- प्रमुख तौर पर IT नियम (2021) सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को अपने प्लेटफॉर्म पर सामग्री के संबंध में अधिक सक्रिय रहने के लिये बाध्य करता है।
- शिकायत अधिकारी की व्यवस्था:
- उन्हें एक शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करने और निर्धारित समय-सीमा के भीतर गैर-कानूनी एवं अनुपयुक्त सामग्री को हटाने की आवश्यकता होती है।
- प्लेटफ़ॉर्म के निवारण तंत्र का शिकायत अधिकारी उपयोगकर्त्ताओं की शिकायतों को प्राप्त करने और हल करने के लिये ज़िम्मेदार है।
- उन्हें एक शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करने और निर्धारित समय-सीमा के भीतर गैर-कानूनी एवं अनुपयुक्त सामग्री को हटाने की आवश्यकता होती है।
- उपयोगकर्त्ताओं की ऑनलाइन सुरक्षा और गरिमा सुनिश्चित करना:
- बिचौलिये ऐसी सामग्री की शिकायतों की प्राप्ति के 24 घंटे के भीतर इसे हटाएंगे या अक्षम करेंगे जो व्यक्तियों की निजता को उजागर करती हैं, ऐसे व्यक्तियों को पूर्ण या आंशिक नग्नता या यौन क्रिया में दिखाती हैं या प्रतिरूपण की प्रकृति में हैं, जिसमें मॉर्फ्ड इमेज़ आदि शामिल हैं।
- गोपनीयता नीतियों के बारे में उपयोगकर्त्ताओं को शिक्षित करना:
- सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की गोपनीयता नीतियों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि उपयोगकर्त्ताओं को कॉपीराइट की गई सामग्री और ऐसी किसी भी चीज़ को प्रसारित न करने के बारे में शिक्षित किया जाए, जिसे मानहानि कारक, नस्लीय या जातीय रूप से आपत्तिजनक, पीडोफिलिक, भारत की एकता, अखंडता, रक्षा, सुरक्षा, या संप्रभुता को खतरे में डालने वाला या किसी भी चीज़ का उल्लंघन माना जा सकता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्षों के प्रश्न (PYQs)प्रश्न. भारत में निम्नलिखित में से किसके लिये साइबर सुरक्षा घटनाओं पर रिपोर्ट करना कानूनी रूप से अनिवार्य है? (2017)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 उत्तर: (d) व्याख्या:
अत: विकल्प (d) सही है। |
स्रोत: पी.आई.बी.
भारतीय राजनीति
भारतीय संविधान में प्रथम संशोधन
प्रिलिम्स के लिये:अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार, अनुच्छेद 19, राष्ट्रीय सुरक्षा, जनहित याचिका, सर्वोच्च न्यायालय, राजद्रोह। मेन्स के लिये:वर्ष 1951 का भारतीय संविधान का पहला संशोधन और इसके निहितार्थ। |
चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1951 में संविधान में पहले संशोधन द्वारा भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में किये गए परिवर्तनों को चुनौती देने वाली एक जनहित याचिका की जाँच करने के लिये सहमति व्यक्त की है।
- न्यायालय ने कहा कि यह एक विचार-विमर्श वाला कानूनी मुद्दा है और इस पर केंद्र की राय अपेक्षित है।
याचिकाकर्त्ता के तर्क:
- आपत्तिजनक प्रविष्टियाँ (Objectionable Insertions):
- संशोधन अधिनियम की धारा 3(1) द्वारा अनुच्छेद 19 के मूल खंड (2) को एक नए खंड (2) के साथ प्रतिस्थापित किया गया, जिसमें दो आपत्तिजनक प्रविष्टियाँ थीं।
- अनुच्छेद 19 का मूल खंड (2) अनुच्छेद 19 (1) (a) के तहत गारंटीकृत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंधों से संबंधित था।
- नए खंड (2) में "दो आपत्तिजनक प्रविष्टियाँ " शामिल हैं, जो "लोक व्यवस्था के हित में" और "अपराध को उकसाने के संबंध में" भी प्रतिबंधों की अनुमति देती हैं।
- राष्ट्रीय सुरक्षा की उपेक्षा:
- इस संशोधन द्वारा 'राज्य की अखंडता को नुकसान पहुँचाने के संदर्भ में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के माध्यम से राष्ट्रीय सुरक्षा की भी उपेक्षा की गई है,जिससे कट्टरपंथ, आतंकवाद और धार्मिक कट्टरवाद द्वारा धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य की अवधारणा के प्रति गंभीर चिंता उत्पन्न हुई है।
- ये दो प्रविष्टियाँ निम्न धाराओं (Sections) को प्रतिरक्षा देती हैं:
- 124A: राजद्रोह
- 153 A: धर्म, नस्ल, जन्म स्थान, निवास, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना और सद्भाव के प्रतिकूल कार्य करना।
- 295A: जानबूझकर दुर्भावनापूर्ण कार्य करना, जिसका उद्देश्य किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं या उसके धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करना है।
- 505: असंवैधानिक तरीके से भारतीय दंड संहिता के तहत सार्वजनिक व्यवस्था को नुकसान पहुँचाने वाले वक्तव्य देना।
- धारा 3 (1) (a) - 3 (2) को अप्रभावी करना:
- इस याचिका में न्यायालय से पहले संशोधन की धारा 3 (1) (a) और 3 (2) को "संसद की संशोधन शक्ति से परे" घोषित करने तथा इसे "संविधान की आधारभूत संरचना को नुकसान पहुँचाने एवं नष्ट करने" के आधार पर शून्य घोषित करने का आग्रह किया गया।
संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951:
- विषय:
- प्रथम संशोधन वर्ष 1951 में अनंतिम संसद द्वारा पारित किया गया था, जिसके सदस्य संवैधानिक सभा के हिस्से के रूप में संविधान का मसौदा तैयार करने का काम समाप्त कर चुके थे।
- प्रथम संशोधन अधिनियम ने अनुच्छेद 15, 19, 85, 87, 174, 176, 341, 342, 372 और 376 में संशोधन किया।
- कानून की रक्षा के लिये संपत्ति अधिग्रहण आदि की व्यवस्था।
- भूमि सुधारों और इसमें शामिल अन्य कानूनों को न्यायिक समीक्षा से बचाने के लिये नौवीं अनुसूची जोड़ी गई। इसके पश्चात अनुच्छेद 31 के बाद अनुच्छेद 31ए और 31बी जोड़े गए।
- संशोधन का कारण:
- इन संशोधनों का तात्कालिक कारण सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के फैसलों की एक शृंखला थी, जिन्होंने सार्वजनिक सुरक्षा कानूनों, प्रेस से संबंधित कानूनों और आपराधिक प्रावधानों को खारिज कर दिया था, जिन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार के साथ असंगत माना जाता था।
- प्रभाव:
- अनुच्छेद 31 के प्रावधानों के तहत नौवीं अनुसूची में रखे गए कानूनों को इस आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है कि उन्होंने नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया है।
- अनुच्छेद 31 (ए) ने राज्य को संपत्ति के अधिग्रहण या सार्वजनिक हित में किसी भी संपत्ति या निगम के प्रबंधन के संबंध में शक्ति निहित की है। इसका उद्देश्य ऐसे अधिग्रहणों को अनुच्छेद 14 और 19 के तहत न्यायिक समीक्षा से छूट देना था।
- नौवीं अनुसूची का व्यापक रूप से दुरुपयोग किया गया था। नौवीं अनुसूची में न्यायिक जाँच से संरक्षण प्राप्त करने वाले 250 से अधिक विधान शामिल हैं।
आगे की राह
- अलग राजनीतिक संदर्भ में आयोजित होने के बावजूद प्रथम संशोधन की बहस आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि भारत में लोकतंत्र कठिन अथवा अनिश्चित समय से गुज़र रहा है।
- स्टेन स्वामी की हिरासत में मौत और विपक्षी नेताओं, वकीलों तथा मानवाधिकार रक्षकों के खिलाफ पेगासस निगरानी स्पाइवेयर के दुरुपयोग के बारे में हालिया खुलासे आदि इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिये संस्थागत सुरक्षा उपायों को क्यों संरक्षित एवं मज़बूत किये जाने की आवश्यकता है।
- आज़ादी के 74 साल बाद प्रथम संशोधन की बहस पर फिर से विचार करना इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. भारतीय संविधान में नौवीं अनुसूची की शुरुआत किस प्रधानमंत्री के काल के दौरान की गई थी? (2019) (a) जवाहरलाल नेहरू उत्तर: (a) |
स्रोत: द हिंदू
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
कवकीय संक्रमण की पहली सूची
हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने कवकीय (कवकीय) संक्रमण (प्राथमिकता रोगजनकों) की पहली सूची जारी की जो सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिये खतरा हो सकते हैं।
WHO की कवकीय प्राथमिकता रोगजनक सूची:
- परिचय:
- कवक प्राथमिकता रोगजनक सूची (FPPL) में 19 कवक शामिल हैं जो मानव स्वास्थ्य के लिये सबसे बड़े खतरे का प्रतिनिधित्व करते हैं।
- सूची को बैक्टीरियल प्राथमिकता वाले रोगजनकों की सूची से प्राथमिकता दी जाती है, जिसे पहली बार WHO द्वारा वर्ष 2017 में स्थापित किया गया था, जिसमें वैश्विक लक्ष्य और कार्रवाई पर समान ध्यान दिया गया था।
- लक्ष्य:
- इसका उद्देश्य कवकीय संक्रमण और एंटीकवकीय प्रतिरोध के लिये वैश्विक प्रतिक्रिया को मज़बूत करने हेतु आगे के अनुसंधान और नीतिगत हस्तक्षेपों पर ध्यान केंद्रित करना एवं बढ़ावा देना है।
- श्रेणियाँ:
- वर्गीकरण रोगज़नक के सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रभाव या उभरते एंटिकवकीय प्रतिरोध जोखिम पर आधारित है।
- क्रिटिकल प्रायोरिटी ग्रुप: इसमें कैंडिडा ऑरिस शामिल है जो एक अत्यधिक दवा प्रतिरोधी कवक क्रिप्टोकोकस नियोफॉर्मन्स एस्परगिलस फ्यूमिगेटस और कैंडिडा अल्बिकन्स है।
- उच्च प्राथमिकता समूह: इसमें कैंडिडा परिवार के साथ-साथ अन्य कई कवक शामिल हैं जैसे म्यूकोरालेस, "ब्लैक फंगस" वाला एक समूह, एक संक्रमण जो गंभीर रूप से बीमार लोगों में तेज़ी से बढ़ा, विशेष रूप से भारत में कोविड-19 के दौरान।
- मध्यम प्राथमिकता समूह: इसमें कई अन्य कवक शामिल हैं, जिनमें Coccidioides spp और Cryptococcus gattii शामिल हैं।
- वर्गीकरण रोगज़नक के सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रभाव या उभरते एंटिकवकीय प्रतिरोध जोखिम पर आधारित है।
- FPPL रिपोर्ट द्वारा अनुशंसित कार्रवाई:
- प्रयोगशाला क्षमता और निगरानी को सुदृढ़ बनाना।
- अनुसंधान, विकास और नवाचार में सतत् निवेश।
- रोकथाम और नियंत्रण के लिये सार्वजनिक स्वास्थ्य हस्तक्षेप को बढ़ाना।
कवकीय रोगजनकों से संबंधित बढ़ती चिंताएँ:
- चिंताएँ:
- कवकीय रोगजनक न केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिये एक गंभीर खतरा हैं बल्कि यह उपचार के प्रति भी प्रतिरोधी होते जा रहे हैं, वर्तमान में केवल चार वर्ग की एंटिकवकीय दवाएँ उपलब्ध हैं।
- अधिकांश कवक रोगजनकों में तेज़ी और संवेदनशील निदान की कमी होती है तथा जो निदान/उपचार मौज़ूद हैं वे विश्व स्तर पर व्यापक रूप से उपलब्ध या सस्ते नहीं हैं।
- उभरते हुए साक्ष्य इंगित करते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग और अंतर्राष्ट्रीय यात्रा एवं व्यापार में वृद्धि के कारण दुनिया भर में कवकीय रोगों की घटना तथा भौगोलिक सीमा दोनों का विस्तार हो रहा है।
- के दौरान अस्पताल में भर्ती मरीज़ो में कवकीय संक्रमण की घटनाओं में काफी वृद्धि हुई है।
- कवक जो आम संक्रमण (जैसे कैंडिडा ओरल और वैजाईनल थ्रश) का कारण बनते हैं, उपचार के प्रति तेज़ी से प्रतिरोधी हो रहे हैं, इसके साथ ही आम लोगों में गंभीर संक्रमण के जोखिम भी बढ़ रहे हैं।
- लक्षित जनसंख्या:
- ये कवकीय संक्रमण अक्सर गंभीर रूप से बीमार रोगियों और कमज़ोर प्रतिरक्षा प्रणाली वाले लोगों को प्रभावित करते हैं।
- कैंसर, एचआईवी/एड्स, अंग प्रत्यारोपण, पुरानी साँस की बीमारी और पोस्ट-प्राथमिक तपेदिक संक्रमण वाले लोगों में इस कवकीय संक्रमण का अधिक जोखिम रहता है।