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डेली न्यूज़

  • 30 Oct, 2020
  • 48 min read
भारतीय राजनीति

वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग

प्रिलिम्स के लिये

पर्यावरण प्रदूषण (रोकथाम एवं नियंत्रण) प्राधिकरण,  वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग

मेन्स के लिये

सरकार द्वारा गठित आयोग की संरचना, कार्य, शक्तियाँ और इसकी आलोचना

चर्चा में क्यों?

केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCR) और इसके आसपास के क्षेत्रों में वायु प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिये वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग गठित करने हेतु एक अध्यादेश अधिसूचित किया है।

प्रमुख बिंदु

  • केंद्र सरकार के इस अध्यादेश के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर गठित ‘पर्यावरण प्रदूषण (रोकथाम एवं नियंत्रण) प्राधिकरण’ (EPCA) तथा इस विषय से संबंधित अन्य सभी समितियों को विघटित कर दिया गया है। 
    • इन पूर्व की समितियों को विघटित करने का मुख्य उद्देश्य दिल्ली और आस-पास के क्षेत्रों में वायु प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिये सभी सुव्यवस्थित प्रयास करना और जनभागीदारी को कारगर बनाना है।

कारण

  • दिल्ली और इसके आस-पास के क्षेत्रों में वायु प्रदूषण सबसे प्रमुख चिंता का विषय बना हुआ है। यही कारण है कि वायु प्रदूषण के कारणों जैसे- पराली जलाना, गाड़ियों से होने वाला प्रदूषण, शहरी विनिर्माण संबंधी प्रदूषण आदि की निगरानी, उनसे निपटने और समाप्त करने के लिये एक समेकित दृष्टिकोण अपनाना तथा उसे लागू करना काफी महत्त्वपूर्ण हो गया था।
  • अब तक राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और इसके आस-पास के क्षेत्रों में वायु प्रदूषण की निगरानी और प्रबंधन केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB), राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, पर्यावरण प्रदूषण (रोकथाम एवं नियंत्रण) प्राधिकरण (EPCA) जैसे अलग-अलग निकायों द्वारा किया जा रहा था। 
  • इसके कारण प्रदूषण से निपटने का कार्य और भी चुनौतीपूर्ण तथा अव्यवस्थित हो गया था, ऐसे में लंबे समय से एक ऐसे निकाय के गठन पर विचार किया जा रहा था, जो इस पूरी प्रक्रिया को सुव्यवस्थित कर सके।
  • हालिया अध्यादेश में वायु प्रदूषण से संबंधित सभी निकायों को समेकित कर एक अतिव्यापी निकाय बनाने की परिकल्पना की गई है, जिससे वायु गुणवत्ता का प्रबंधन अधिक व्यापक, कुशल और समयबद्ध तरीके से किया जा सकेगा।

आयोग की संरचना

  • सात सदस्यों वाले पर्यावरण प्रदूषण (रोकथाम एवं नियंत्रण) प्राधिकरण (EPCA) के विपरीत सरकार द्वारा गठित नए आयोग में एक पूर्णकालिक अध्यक्ष समेत कुल 18 सदस्य होंगे। साथ ही इस आयोग में भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों और अन्य संगठनों के प्रतिनिधियों के तौर पर ‘एसोसिएट सदस्य’ तथा एक पूर्णकालिक सचिव को भी शामिल किया जाएगा, जो कि मुख्य समन्वय अधिकारी के तौर पर कार्य करेगा।
    • ध्यातव्य है कि इस आयोग का अध्यक्ष या तो भारत सरकार में सचिव स्तर का अधिकारी होगा या फिर राज्य सरकार में मुख्य सचिव स्तर का अधिकारी होगा और इसका कार्यकाल तीन वर्ष का होगा तथा कार्यकाल की समाप्ति के बाद उसे पुनः नियुक्त किया जा सकेगा।
  • केंद्रीय मंत्रालयों के प्रतिनिधियों के अलावा इस आयोग में पाँच राज्यों (पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और दिल्ली), केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB), भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO), नीति आयोग, प्रदूषण विशेषज्ञ, संस्थानों और गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) के प्रतिनिधियों को भी शामिल किया जाएगा।
  • इस तरह से आयोग आसानी से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के साथ समन्वय स्थापित कर सकेगा तथा इन राज्यों में वायु प्रदूषण की रोकथाम, नियंत्रण एवं उन्मूलन संबंधी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन की निगरानी कर सकेगा। 
  • निकाय की संरचना को देखकर कहा जा सकता है कि केंद्र सरकार इस विषय से संबंधित विभिन्न हितधारकों को एक मंच पर लाने का प्रयास कर रही है।
    • आयोग की इस प्रकार की संरचना इस दृष्टिकोण से भी काफी महत्त्वपूर्ण है कि दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में वायु प्रदूषण के प्रबंधन में स्टबल-बर्निंग (कृषि मंत्रालय और राज्य सरकारें) और औद्योगिक उत्सर्जन (वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय) आदि अलग-अलग हितधारक शामिल हैं।

आयोग की उप-समितियाँ

  • सरकार द्वारा जारी अधिसूचना के अनुसार, इस आयोग में 3 उप-समितियाँ होंगी, हालाँकि आयोग अपनी इच्छानुसार अन्य समितियों का भी गठन कर सकता है-
  1. निगरानी और पहचान पर उप-समिति
  2. सुरक्षा और प्रवर्तन पर उप-समिति
  3. अनुसंधान और विकास पर उप-समिति

कार्य और शक्तियाँ

  • आयोग के पास दिल्ली और इसके आस-पास के क्षेत्रों में वायु प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिये सभी आवश्यक उपाय करने, इस संबंध में दिशा-निर्देश जारी करने और आवश्यकता पड़ने पर शिकायतें दर्ज करने की शक्ति होगी।
    • यह आयोग राज्य सरकार और किसी सरकारी विभाग को भी आदेश जारी कर सकता है।
  • यह आयोग पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सरकारों के साथ समन्वय स्थापित करने का कार्य करेगा।
  • यह वायु गुणवत्ता और प्रदूषकों के उत्सर्जन से संबंधित मानकों का भी निर्धारण करेगा।
  • अध्यादेश के अनुसार, वायु गुणवत्ता और प्रदूषण से संबंधित किसी भी मामले में किसी निकाय अथवा राज्य सरकार के साथ हितों के टकराव की स्थिति में इस आयोग द्वारा जारी किये गए आदेश अथवा निर्देश को सर्वोपरि माना जाएगा।
  • इस आयोग को वायु प्रदूषण से संबंधित किसी भी मामले की जाँच करने और दिल्ली तथा इसके आस-पास के क्षेत्रों में स्थापित किसी भी परिसर, संयंत्र, उपकरण, मशीनरी आदि का निरीक्षण करने का अधिकार है।
    • साथ ही इस आयोग को किसी भी उद्योग को बंद करने, उसके निषेध या विनियमन से संबंधित दिशा-निर्देश जारी करने की शक्ति भी है।
    • इसे किसी भी मामले पर स्वतः संज्ञान लेने अथवा शिकायत के आधार पर मामले की जाँच करने का अधिकार है।

दंडात्मक प्रावधान

  • केंद्र सरकार द्वारा जारी अध्यादेश के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति अथवा संस्था आयोग द्वारा जारी आदेश अथवा दिशा-निर्देश का उल्लंघन करती है तो उसे दंड के तौर पर 5 वर्ष तक की जेल अथवा 1 करोड़ रुपए जुर्माना अथवा दोनों सज़ा दी जा सकती है।
    • यदि अपराध किसी कंपनी द्वारा किया जाता है तो उस कंपनी और नियमों का उल्लंघन करने वाले अधिकारी दोनों को दोषी माना जाएगा और उनके विरुद्ध कानूनी कार्यवाही की जाएगी, वहीं यदि अपराध किसी सरकारी विभाग द्वारा किया जाता है तो विभाग का प्रमुख तब तक दंड का उत्तरदायी होगा जब तक यह सिद्ध न कर दिया जाए कि नियमों का उल्लंघन उसकी जानकारी के बिना हुआ है।

आलोचना

  • कई जानकारों ने यह चिंता ज़ाहिर की है कि आयोग में नौकरशाहों का भारी वर्चस्व है, और इसमें वायु गुणवत्ता तथा वायु प्रदूषण से संबंधित विषय विशेषज्ञों की कमी है।
  • 18-सदस्यीय इस आयोग में गैर-सरकारी संगठनों से केवल 3 सदस्यों को ही शामिल किया गया है और केवल तीन स्वतंत्र विषय-विशेषज्ञ शामिल किये गए हैं।
  • सरकार द्वारा जारी अध्यादेश में कहीं भी यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि प्रदूषण के विरुद्ध इस मुकाबले में थर्ड पार्टी मॉनीटरिंग और नागरिक भागीदारी का किस प्रकार प्रयोग किया जाएगा।
  • ग्रामीण विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय और परिवार कल्याण मंत्रालय तथा श्रम मंत्रालय जैसे महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों को इस आयोग में प्रतिनिधित्त्व नहीं दिया गया है। वहीं समयबद्ध परिणाम के प्रति भी आयोग की ज़िम्मेदारी तय नहीं की गई है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय राजनीति

आदर्श आचार संहिता

प्रिलिम्स के लिये

निर्वाचन आयोग, आदर्श आचार संहिता

मेन्स के लिये

आदर्श आचार संहिता का इतिहास और इसके मुख्य प्रावधान, इससे कानूनी तौर पर लागू करने संबंधी मुद्दा

चर्चा में क्यों?

हाल ही में निर्वाचन आयोग ने मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ द्वारा एक महिला राजनेता पर की गई टिप्पणी को आदर्श आचार संहिता (MCC) का उल्लंघन बताते हुए उन्हें चुनाव प्रचार के दौरान ऐसे शब्दों का प्रयोग न करने की सलाह दी है।

प्रमुख बिंदु

आदर्श आचार संहिता (MCC)

  • आदर्श आचार संहिता (MCC) निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव से पूर्व राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों के विनियमन तथा स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने हेतु जारी दिशा-निर्देशों का एक समूह है।
  • आदर्श आचार संहिता (MCC) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 के अनुरूप है, जिसके तहत निर्वाचन आयोग (EC) को संसद तथा राज्य विधानसभाओं में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनावों की निगरानी और संचालन करने की शक्ति दी गई है।
  • नियमों के मुताबिक, आदर्श आचार संहिता उस तारीख से लागू हो जाती है जब निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव की घोषणा की जाती है और यह चुनाव परिणाम घोषित होने की तारीख तक लागू रहती है। 

आदर्श आचार संहिता का विकास

  • आदर्श आचार संहिता की शुरुआत सर्वप्रथम वर्ष 1960 में केरल विधानसभा चुनाव के दौरान हुई थी, जब राज्य प्रशासन ने राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों के लिये एक ‘आचार संहिता' तैयार की थी। केरल प्रशासन द्वारा तैयार की गई इस संहिता में चुनावी सभाओं, भाषणों और नारों आदि के बारे में राजनीतिक दलों को निर्देश दिये गए थे।
  • इसके पश्चात् वर्ष 1962 के लोकसभा चुनाव में निर्वाचन आयोग (EC) ने सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों और राज्य सरकारों को फीडबैक के लिये आचार संहिता का एक प्रारूप भेजा, जिसके बाद से देश भर के सभी राजनीतिक दलों द्वारा इसका पालन किया जा रहा है।
  • वर्ष 1979 में निर्वाचन आयोग ने सत्ताधारी दल को चुनाव के दौरान अनुचित लाभ प्राप्त करने से रोकने के लिये आदर्श आचार संहिता में सत्तारुढ़ दल से संबंधित दिशा-निर्देश शामिल कर दिये। इसके बाद वर्ष 1991 में आदर्श आचार संहिता को और अधिक सख्ती से लागू करने का निर्णय लिया गया। 
  • वर्ष 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्वाचन आयोग को आदर्श आचार संहिता (MCC) में चुनावी घोषणापत्र से संबंधित दिशा-निर्देश शामिल करने का आदेश दिया, जिसे वर्ष 2014 में शामिल कर लिया गया।

आदर्श आचार संहिता के प्रावधान

  • सामान्य आचरण: राजनीतिक दलों की आलोचना केवल उनकी नीतियों, कार्यक्रमों, पिछले रिकॉर्ड और कार्य तक सीमित होनी चाहिये। जातिगत और सांप्रदायिक भावनाओं को आहत करने, असत्यापित रिपोर्टों के आधार पर उम्मीदवारों की आलोचना करने, मतदाताओं को रिश्वत देने या डराने और किसी के विचारों का विरोध करते हुए उसके घर के बाहर प्रदर्शन या धरना देने जैसी गतिविधियाँ पूर्णतः निषिद्ध हैं।
  • सभा: सभी राजनीतिक दलों को अपनी किसी भी बैठक का आयोजन करने से पहले स्थानीय प्रशासन और पुलिस को बैठक के स्थान और समय के बारे में सूचित करना चाहिये ताकि बैठक के दौरान पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था सुनिश्चित की जा सके।
  • जुलूस: यदि दो या दो से अधिक दल या उम्मीदवार एक ही मार्ग से जुलूस निकालने की योजना बनाते हैं, तो किसी भी तरह के टकराव से बचने के लिये आयोजकों को पहले ही एक-दूसरे से संपर्क कर लेना चाहिये। इस तरह के जुलूस के दौरान किसी भी राजनीतिक दल के नेता के पुतले नहीं जलाए जाने चाहिये।
  • मतदान: मतदान केंद्रों पर सभी दलों के कार्यकर्त्ताओं को उपयुक्त बैज या पहचान पत्र दिया जाना चाहिये। मतदाताओं को चुनावी दल के नेताओं द्वारा दी जाने वाली पर्ची सादे (सफेद) कागज़ पर होगी और इसमें कोई प्रतीक चिह्न, उम्मीदवार का नाम या पार्टी का नाम नहीं होगा।
  • पोलिंग बूथ: केवल मतदाताओं और चुनाव आयोग द्वारा जारी वैध प्रमाणपत्र वाले लोगों को ही मतदान केंद्रों में प्रवेश करने की अनुमति दी जाएगी।
  • प्रेक्षक (Observer): निर्वाचन आयोग द्वारा प्रेक्षकों (Observer) की नियुक्ति की जाएगी, जिसके पास कोई भी उम्मीदवार चुनाव के संचालन के बारे में समस्याओं की रिपोर्ट कर सकता है।
  • सत्तारुढ़ दल: चुनाव आयोग ने आदर्श आचार संहिता (MCC) में वर्ष 1979 में सत्तारुढ़ दल के आचरण को विनियमित करने हेतु कुछ प्रतिबंध लागू किये थे।
    • मंत्रियों द्वारा आधिकारिक यात्राओं का प्रयोग चुनावी कार्यों के लिये नहीं किया जा सकता है, साथ ही चुनावी कार्यों के लिये आधिकारिक मशीनरी का उपयोग भी नहीं किया जाना चाहिये।
    • सत्तारुढ़ दल को सरकारी खजाने से विज्ञापन देने या प्रचार के लिये आधिकारिक जन माध्यमों का इस्तेमाल करने से बचना चाहिये।
    • मंत्रियों और राजनीतिक पदों पर बैठे अन्य लोगों को आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद किसी भी तरह की वित्तीय अनुदान की घोषणा नहीं करनी चाहिये या सड़कों के निर्माण, पेयजल की व्यवस्था आदि का वादा भी नहीं करना चाहिये।
    • अन्य दलों को सार्वजनिक स्थानों का उपयोग करने की अनुमति दी जानी चाहिये।
  • चुनावी घोषणापत्र: राजनीतिक दलों को ऐसे वादे करने से बचना चाहिये, जो मतदाताओं पर अनुचित प्रभाव डालते हैं।

आदर्श आचार संहिता का कानूनी प्रवर्तन

  • यद्यपि आदर्श आचार संहिता को कानूनी तौर पर लागू नहीं किया गया है, यानी आचार संहिता का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को कानूनी तौर पर सज़ा नहीं दी जा सकती है, किंतु इसके कुछ प्रावधानों को भारतीय दंड संहिता, 1860, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 आदि के माध्यम से लागू किया जा सकता है।
  • गौरतलब है कि वर्ष 2013 में कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय संबंधी स्थायी समिति ने आदर्श आचार संहिता (MCC) को कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाने की सिफारिश करते हुए इसे जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 का हिस्सा बनाए जाने की बात कही थी।
  • हालाँकि निर्वाचन आयोग स्वयं आदर्श आचार संहिता (MCC) को कानूनी रूप से लागू करने के पक्ष में नहीं है। निर्वाचन आयोग का तर्क है कि चुनाव पूरा कराने की अवधि अपेक्षाकृत काफी कम होती है और न्यायिक कार्यवाही में ज़्यादा समय लगता है, इसलिये व्यावहारिक तौर पर आदर्श आचार संहिता को कानूनी रूप से लागू करना, संभव नहीं है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

चावल के पौधों में पोटेशियम की कमी में सुधार हेतु प्रयास

प्रीलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय पादप जीनोम अनुसंधान संस्थान, जीन ओवरएक्प्रेशन

मेन्स के लिये:

चावल के पौधों में पोटेशियम की कमी में सुधार

चर्चा में क्यों?

एक नए अध्ययन में सुझाव दिया गया है कि एक विशिष्ट पादप हार्मोन ‘जस्मोनेटे’ (Jasmonate-JA) के माध्यम से चावल के पौधों में पोटेशियम की कमी को दूर किया जा सकता है और साथ ही चावल की उत्पादकता भी बढ़ाई जा सकती है।  

प्रमुख बिंदु: 

  • जस्मोनेटे (Jasmonate-JA) नामक पादप हॉर्मोन जो पौधे की प्रतिरक्षा के लिये कीटों, परोपजीवी एवं अन्य रोगजनकों जैसे जैविक कारकों से संबंधित होता है।
  • इस अध्ययन में कहा गया है कि ओसजाज़9 (OsJAZ9) नामक एक जीन के ओवरएक्प्रेशन (Overexpression of a Gene) ने चावल के पौधों को पोटेशियम की कमी के प्रति अधिक सहनशील बनाने में मदद की। 

जीन ओवरएक्प्रेशन (Gene Overexpression):

  • ‘जीन ओवरएक्प्रेशन’ एक ऐसी प्रक्रिया है जो प्रचुर मात्रा में ‘टारगेट प्रोटीन एक्प्रेशन’ (Target Protein Expression) की ओर ले जाती है। यह प्रक्रिया उस कोशिका में हो सकती है जहाँ जीन मूल रूप से या अन्य एक्प्रेशन प्रणालियों में स्थित होता है।
  • जीन ओवरएक्प्रेशन के दो सामान्य उद्देश्य हैं:
    • इससे बड़ी संख्या में टारगेट जीन उत्पादों को प्राप्त किया जा सकता है जिनका उपयोग अनुसंधान या उत्पादन में किया जा सकता है जैसे- प्रोटीन की 3D संरचना का अध्ययन और किण्वन तकनीक द्वारा इंसुलिन तैयार करना।
    • जीन अतिउत्पादन के माध्यम से टारगेट जीन उत्पादों के जैविक कार्य का अध्ययन किया जा सकता है।
  • वैज्ञानिकों ने देखा कि पोटेशियम की कमी होने पर चावल के पौधों में जेए-इले (JA-ILe) [हार्मोन का एक जैव-सक्रिय रूप] के संचय में वृद्धि हुई। इसके बाद जेए-इले (JA-ILe) ने ‘पोटेशियम ट्रांसपोर्टरों’ (Potassium Transporters) को सक्रिय किया।

जेए-इले (JA-ILe):

  • JA-ILe एक प्लांट हार्मोन है जो जैस्मोनिक एसिड (Jasmonic Acid) और अमीनो एसिड आइसोल्यूसिन (Amino Acid Isoleucine) के संयुग्मन से बनता है।
  • JA-ILe पौधों की वृद्धि एवं विकास के कई पहलुओं में योगदान देता है और तनाव की स्थिति के तहत इसका स्तर बढ़ता है जिससे प्रतिरक्षा यौगिकों का उत्पादन होता है तथा  विकास बाधित होता है।
  • भारत में 1960 के दशक की हरित क्रांति को एक अन्य पादप हार्मोन द्वारा संचालित किया गया था जिसे गिबरेलिन्स (Gibberellins- GA) कहा जाता है।   
  • नए अध्ययन से पता चलता है कि भविष्य में होने वाले अनुसंधानों को जस्मोनेटे (Jasmonate- JA) हार्मोन की ओर उन्मुख किया जा सकता है जो पोषक तत्त्वों एवं कीटों से सुरक्षा प्राप्त करने में मदद कर सकता है।

पौधों के लिये ‘पोटेशियम’ की महत्ता:

  • ‘पोटेशियम’ पौधों के लिये सबसे महत्त्वपूर्ण ‘मैक्रोन्यूट्रिएंट्स’ (Macronutrients) में से एक है। 
  • पौधों को अन्य तत्त्वों के अलावा ‘पोटेशियम आयन’ (Potassium Ion) की एक उच्च एवं अपेक्षाकृत स्थिर संकेंद्रण की आवश्यकता होती है जो श्वसन एवं प्रकाश संश्लेषण में शामिल कई एंज़ाइमों को सक्रिय करता है।
  • पोटेशियम ऊर्जा उत्पादन और कोशिका विस्तार जैसी महत्त्वपूर्ण सेलुलर प्रक्रियाओं (Cellular Processes) में भी शामिल होता है।
    • हालाँकि मृदा में सबसे प्रचुर मात्रा में मौजूद होने के बावजूद पौधों के लिये इसकी उपलब्धता सीमित है। ऐसा इसलिये है क्योंकि मृदा में अधिकांश पोटेशियम (लगभग 98%) बाध्य रूपों में मौजूद हैं और मृदा विलयन में इसका निस्तारण पादप जड़ों द्वारा इसके अधिग्रहण की दर से काफी धीमा है।
  • मृदा विलयन या विनिमेय रूप में पोटेशियम की उपलब्धता मृदा अम्लता, सोडियम एवं अमोनियम आयनों जैसे अन्य मोनोवलेंट कैटायन (Monovalent Cations) की उपस्थिति और मृदा के कणों के प्रकार जैसे कई कारकों पर निर्भर करती है।

पादपों में पोटेशियम की कमी का प्रभाव: 

  • पादपों में पोटेशियम की कमी जड़ों एवं अंकुरों की वृद्धि को रोककर पौधों को प्रभावित करती है। 
  • अध्ययनों से पता चला है कि जिन पौधों में पोटेशियम की कमी होती है वे नमक, सूखा, ठंड लगना और अन्य अजैविक व जैविक तनावों के लिये अतिसंवेदनशील होते हैं।

निष्कर्ष:

  • कृषि वैज्ञानिक मानते हैं कि ‘भविष्य की कृषि को इनपुट-गहन (Input-Intensive) के बजाय इनपुट-कुशल (Input-Efficient) होना चाहिये’। 
  • अतः यह नवीनतम अध्ययन चावल की फसल में उर्वरक उपयोग दक्षता में सुधार के लिये आणविक/ आनुवंशिक संसाधनों को जोड़ता है जो सतत् कृषि (Sustainable Agriculture) का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये अहम है।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


भारतीय अर्थव्यवस्था

IFSCA के तहत रेगुलेटरी सैंडबॉक्स

प्रीलिम्स के लिये:

IFSCA, GIFT सिटी, रेगुलेटरी सैंडबॉक्स

मेन्स के लिये:

अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र प्राधिकरण

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ‘अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र प्राधिकरण’ (International Financial Services Centres Authority- IFSCA) द्वारा ‘रेगुलेटरी सैंडबॉक्स' के लिये एक फ्रेमवर्क जारी किया गया।

प्रमुख बिंदु:

  • रेगुलेटरी सैंडबॉक्स, नियंत्रित दशाओं में नवीन फिनटेक उत्पादों या सेवाओं के 'प्रत्यक्ष परीक्षण' (Live Testing) को संदर्भित करता है।
  • फिनटेक पहल के तहत बैंकिंग, बीमा, प्रतिभूतियों और प्रबंधन के क्षेत्र में वित्तीय उत्पादों और वित्तीय सेवाओं के प्रसार को प्रोत्साहित किया जाता है।
  • 'IFSCA, गुजरात इंटरनेशनल फाइनेंस टेक-सिटी कंपनी लिमिटेड (GIFT-City) गांधीनगर, गुजरात में स्थित IFSC केंद्र में एक विश्व स्तरीय फिनटेक हब विकसित करने के उद्देश्य से फिनटेक (FinTech) पहल को बढ़ावा देने की दिशा में प्रयास कर रहा है।
  • इस दिशा में IFSCA द्वारा ‘रेगुलेटरी सैंडबॉक्स’ के लिये एक रूपरेखा पेश की गई है।

रेगुलेटरी सैंडबॉक्स फ्रेमवर्क:

  • सैंडबॉक्स फ्रेमवर्क के तहत पूंजी बाज़ार में कार्यरत इकाइयों यथा- बैंकिंग, बीमा और वित्तीय सेवा क्षेत्र को अभिनव फिनटेक समाधानों की दिशा में प्रयोग करने के लिये कुछ सुविधाएँ प्रदान की जाएगी।
  • इन सुविधाओं को निवेशक की सुरक्षा और जोखिम शमन की सुविधाओं के साथ सुदृढ़ किया जाएगा।
  • पूंजीगत बाज़ार में कार्यरत संस्थाएँ यथा- बैंकिंग, बीमा और पेंशन क्षेत्रों के साथ-साथ भारत और ‘वित्तीय कार्रवाई कार्य बल’ (FATF) के न्यायाधिकार में आने वाली सभी व्यक्तिगत और स्टार्टअप्स संस्थाएँ (विनियमित और असंगठित) नियामक सैंडबॉक्स में भागीदारी के लिये पात्र होंगी।
  • सैंडबॉक्स में भाग लेने के इच्छुक व्यक्ति तथा संस्थाएँ IFSCA को आवेदन कर सकते हैं। IFSCA  इन आवेदनों का आकलन करेगा और ‘रेगुलेटरी सैंडबॉक्स’ को सीमित परीक्षण के लिये उपयुक्त नियामकीय छूट प्रदान कर सकता है। 
  • इनोवेशन सैंडबॉक्स को IFSC में कार्य करने वाले ‘मार्केट इन्फ्रास्ट्रेक्चर इंस्टिट्यूट’ (MII) द्वारा प्रबंधन हेतु सुगम बनाया जाएगा।

अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र प्राधिकरण'

(International Financial Services Centres Authority):

  • केंद्र सरकार ने गांधीनगर, गुजरात में 'अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्रों' (IFSCs) में सभी वित्तीय सेवाओं को विनियमित करने के लिये 'अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र प्राधिकरण' की स्थापना की है।

कार्य:

  • प्राधिकरण नियामकीय संस्थाओं (RBI, SEBI) द्वारा अनुमोदित वित्तीय उत्पादों  प्रतिभूतियों, जमा या बीमा, वित्तीय सेवाओं और वित्तीय संस्थानों के अनुबंधों को विनियमित करेगा।
  • यह केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित IFSC के अन्य वित्तीय उत्पादों, वित्तीय सेवाओं या वित्तीय संस्थानों को भी विनियमित करेगा।
  • यह केंद्र सरकार को अन्य वित्तीय उत्पादों, वित्तीय सेवाओं या वित्तीय संस्थानों के विनियमन के लिये भी सिफारिश कर सकता है,  जिन्हें सरकार द्वारा  IFSC के तहत विनियमन की अनुमति दी जा सकती है।

सदस्य:

  • अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र प्राधिकरण में नौ सदस्य शामिल हैं, जिन्हें केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है।
  • IFSC प्राधिकरण के सभी सदस्यों का कार्यकाल तीन वर्ष का होगा, जो पुनर्नियुक्ति के पात्र होंगे।
  • प्राधिकरण में  एक अध्यक्ष तथा भारतीय रिज़र्व बैंक, सेबी, बीमा नियामक और विकास प्राधिकरण (IRDAI) तथा पेंशन फंड नियामक और विकास प्राधिकरण (PFRDA) के एक-एक सदस्य और वित्त मंत्रालय के दो सदस्य शामिल हैं। 
    • दो अन्य सदस्यों को एक 'चयन समिति' की सिफारिश पर नियुक्त किया जाएगा।

स्रोत: पीआइबी


कृषि

जूट सामग्री में अनिवार्य पैकेजिंग के लिये मानदंड

प्रीलिम्स के लिये:

गवर्नमेंट ई-मार्केटप्लेस, जूट आईसीएआरई, राष्‍ट्रीय जूट बोर्ड   

मेन्स के लिये:

जूट सामग्री में अनिवार्य पैकेजिंग के लिये मानदंड

चर्चा में क्यों?

हाल ही में प्रधानमंत्री की अध्‍यक्षता में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने शत-प्रतिशत खाद्यान्‍नों एवं 20% चीनी को अनिवार्य रूप से विविध प्रकार के जूट बोरों में पैक किये जाने की मंज़ूरी दी।

प्रमुख बिंदु: 

  • भारत सरकार ने जूट पैकिंग सामग्री अधिनियम, 1987 [Jute Packaging Material (JPM) Act, 1987] के तहत अनिवार्य रूप से पैकिंग किये जाने के इस मानक को विस्‍तारित किया है।
  • इसके अलावा यह भी अनिवार्य किया गया है कि खाद्यान्‍नों की पैकिंग के लिये शुरू में 10% जूट बोरों की खरीद ‘गवर्नमेंट ई-मार्केटप्लेस (Government E-Marketplace - GEM) पोर्टल’ पर ‘रिवर्स ऑक्शन’ के ज़रिये होगी। 
  • अन्य प्रावधान: अगर जूट पैकिंग सामग्री की आपूर्ति में कोई कमी या व्‍यवधान आता है या किसी तरह की कोई प्रतिकूल स्थिति पैदा होती है तो कपड़ा मंत्रालय (Ministry of Textiles) अन्‍य संबद्ध मंत्रालयों के साथ मिलकर उपबंधों में छूट दे सकता है और खाद्यान्‍नों की अधिकतम 30% की पैकिंग किये जाने का निर्णय ले सकता है।

लाभ:

  • भारत सरकार के इस निर्णय से देश के पूर्वी एवं पूर्वोत्तर विशेषकर पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा, असम, आंध्र प्रदेश, मेघालय और त्रिपुरा के किसानों तथा श्रमिकों को लाभ मिलेगा।
  •  चीनी को विविध प्रकार के जूट बोरों में पैक किये जाने के निर्णय से जूट उद्योग को लाभ होगा।
  • देश में कच्‍चे जूट के घरेलू इस्‍तेमाल और जूट पैकिंग सामग्री को बढ़ावा मिलेगा।
  • गौरतलब है कि जूट उद्योग मुख्‍यत: सरकारी क्षेत्र पर निर्भर है और प्रतिवर्ष खाद्यान्‍नों की पैकिंग के लिये जूट बोरों की खरीद पर भारत सरकार 7500 करोड़ रुपए से अधिक धनराशि  खर्च करती है। 
    • यह जूट क्षेत्र में मांग को जारी रखने और इस क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों एवं किसानों की आजीविका के लिये भारत सरकार की ओर से उठाया गया एक सकारात्मक कदम है।

भारत में जूट आधारित अर्थव्यवस्था: 

  • जूट क्षेत्र पर लगभग 3.7 लाख श्रमिक और कई लाख किसान परिवारों की आजीविका निर्भर है जिसे देखते हुए भारत सरकार इस क्षेत्र के विकास के लिये निम्नलिखित संगठित प्रयास कर रही है। 
    • कच्‍चे जूट के उत्‍पादन एवं मात्रा को बढ़ाना।
    • जूट क्षेत्र का विविधीकरण करना।
    • जूट उत्‍पादों की सतत् मांग को बढ़ावा देना। 

जूट क्षेत्र को प्रदान की गई अन्य प्रकार की सहायता:    

  • जूट आईसीएआरई (Jute ICARE)
    • भारत सरकार ने कच्‍चे जूट की उत्‍पादकता एवं गुणवत्‍ता में सुधार लाने के लिये एक विशेष कार्यक्रम ‘जूट आईसीएआरई’ (Jute ICARE) शुरू किया है। 
      • इसके तहत सरकार विभिन्‍न प्रकार की कृषि पद्धतियों को उपलब्‍ध कराकर 2 लाख जूट किसानों की मदद कर रही है जिसमें बीजों की पंक्तियों में बुवाई, नोकदार निराई-उपकरण का प्रयोग करके खरपतवार प्रबंधन (Weed Management) और गुणवत्‍ता युक्‍त प्रमाणित बीजों का वितरण तथा सूक्ष्‍म जीवों की मदद से कच्‍चे जूट को सड़ाने की प्रक्रिया शामिल है। 
      • भारत सरकार के इन मध्‍यवर्ती प्रयासों से कच्‍चे जूट की गुणवत्ता और उत्‍पादन में काफी इज़ाफा हुआ है और जूट किसानों की आय बढ़कर 10,000 रुपए प्रति हेक्‍टेयर हो गई है।
  • प्रमाणित बीजों के वितरण से संबंधित प्रयास: हाल ही में भारतीय जूट निगम (Jute Corporation of India) ने वाणिज्यिक आधार पर 10,000 क्विंटल प्रमाणित बीजों के वितरण के लिये राष्ट्रीय बीज निगम (National Seeds Corporation) के साथ समझौता ज्ञापन पर हस्‍ताक्षर किये हैं। 
    • तकनीकी उन्‍नयन और प्रमाणित बीजों के वितरण से जूट फसलों की गुणवत्ता एवं उत्‍पादकता में बढ़ोतरी होगी और इससे किसानों की आय में वृद्धि होगी।
  • जूट क्षेत्र का विविधीकरण: जूट क्षेत्र के विविधीकरण को बढ़ावा देने के मद्देनज़र राष्‍ट्रीय जूट बोर्ड (National Jute Board) ने राष्‍ट्रीय डिज़ाइन संस्‍थान (National Institute of Design) के साथ एक समझौता किया है और इसी के अनुरूप गांधी नगर (गुजरात) में एक जूट डिज़ाइन प्रकोष्‍ठ (Jute Design Cell) खोला गया है। 

राष्‍ट्रीय जूट बोर्ड (National Jute Board):

  • भारतीय जूट के प्रचार के लिये राष्ट्रीय जूट बोर्ड (NJB) सर्वोच्च निकाय है।
  • राष्ट्रीय जूट बोर्ड अधिनियम-2008 (National Jute Board Act-2008) के तहत स्थापित इस बोर्ड की अध्यक्षता भारत सरकार के कपड़ा मंत्रालय के सचिव द्वारा की जाती है।
  • जूट विनिर्माता विकास परिषद (Jute Manufacturers Development Council) का गठन वर्ष 1984 में एक सांविधिक निकाय के रूप में किया गया था किंतु अब इसे राष्ट्रीय जूट बोर्ड में समाहित कर दिया गया है।

भारतीय जूट निगम लिमिटेड (Jute Corporation of India Ltd.):

  • भारतीय जूट निगम लिमिटेड कोलकाता में स्थित भारत सरकार की एक एजेंसी है जो जूट की खेती करने वाले राज्यों को न्यूनतम समर्थन मूल्य एवं सहायता प्रदान करती है।
  • इसका गठन वर्ष 1971 में हुआ था।  
  • इसके अलावा विभिन्‍न राज्‍य सरकारों द्वारा खासकर पूर्वोत्तर क्षेत्र में जूट जियो टेक्‍सटाइल्‍स (Jute Geo Textiles) और एग्रो टेक्‍सटाइल्‍स (Agro-Textiles) को बढ़ावा दिया गया है। इसमें केंद्रीय सड़क परिवहन और जल संसाधन मंत्रालय की भी सहभागिता है। 
  • जूट उत्पाद के आयात पर एंटी-डंपिंग ड्यूटी: जूट क्षेत्र में मांग को बढ़ावा देने के लिये भारत सरकार ने बांग्‍लादेश एवं नेपाल से जूट उत्पादों के आयात पर एंटी-डंपिंग ड्यूटी लगाई है और यह 5 जनवरी, 2017 से प्रभावी है।
  • जूट स्‍मार्ट (Jute SMART) ई- कार्यक्रम: जूट क्षेत्र में पारदर्शिता को बढ़ावा देने के लिये भारत सरकार ने दिसंबर 2016 में जूट स्‍मार्ट ई-कार्यक्रम की शुरुआत की है जिसमें बी-ट्विल सेकिंग (B-Twill sacking) किस्‍म के टाट के बोरों की खरीद के लिये सरकारी एजेंसियों द्वारा एक समन्वित प्‍लेटफॉर्म उपलब्‍ध कराया गया है। 
    • इसके अलावा भारतीय जूट निगम द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्‍य और वाणिज्यिक अभियानों के तहत जूट की ऑनलाइन खरीद के लिये जूट किसानों को 100% धनराशि हस्‍तांतरित की जा रही है।

स्रोत: पीआइबी


भारतीय अर्थव्यवस्था

शहरी बेरोज़गारी में गिरावट

प्रिलिम्स के लिये:

आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण, राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय

मेन्स के लिये: 

देश की अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी, बेरोज़गारी और रोज़गार से संबंधित प्रश्न

चर्चा में क्यों? 

हाल ही केंद्रीय सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा जारी तिमाही ‘आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण’ (Periodic Labour Force Survey- PLFS) के अनुसार, अक्तूबर 2018 से शहरी बेरोज़गारी की दर में लगातार गिरावट देखने को मिली है।

प्रमुख बिंदु:

  • PLFS के आँकड़ों के अनुसार, अक्तूबर-दिसंबर 2019 में शहरी क्षेत्रों में बेरोज़गारी की दर 7.9% रही, जो कि वर्ष 2018 में इसी अवधि के दौरान के आँकड़ों से 2% कम है।
  • गौरतलब है कि जुलाई-सितंबर 2019 में शहरी क्षेत्रों में बेरोज़गारी की दर 8.4%, अप्रैल-जून 2019 में 8.9% और अक्तूबर-दिसंबर 2018 की अवधि के दौरान 9.9% थी।
  • इस सर्वेक्षण के अनुसार, अक्तूबर-दिसंबर 2019 के दौरान 15-29 वर्ष आयु वर्ग में शहरी बेरोज़गारी 19.2% रही, जो कि जुलाई-सितंबर 2019 के 20.6% और अक्तूबर-दिसंबर 2018 के 23.7% से भी कम है।
  • गौरतलब है कि PLFS के तहत शहरी बेरोज़गारी के आँकड़ों को तिमाही रूप से जारी किया जाता है, इसके आँकड़े जुटाने की प्रक्रिया आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण की वार्षिक रिपोर्ट से अलग होती है, जिसमें शहरी क्षेत्रों के साथ ग्रामीण क्षेत्रों के आँकड़ों को भी शामिल किया जाता है।
  • हालिया सर्वेक्षण में 45,555 परिवारों के 1.79 लाख लोगों को शामिल किया गया था, जबकि जुलाई-सितंबर 2019 के सर्वेक्षण में 44,471 परिवारों के 1.79 लाख लोग शामिल थे।

महिला बेरोज़गारी दर: सर्वेक्षण के अनुसार, देश में महिला बेरोज़गारी की दर में वृद्धि देखने को मिली है। अक्तूबर-दिसंबर 2019 में महिला बेरोज़गारी की दर 9.8% रही, जो इसी वर्ष जुलाई-सितंबर (9.7%) के दौरान प्राप्त आंकड़ों से 0.1% अधिक है।

  • शहरी क्षेत्रों में महिला बेरोज़गारी की दर पिछले वर्ष की अक्तूबर-दिसंबर की 12.3% दर और अप्रैल-जून 2019 की 11.3% दर से कम बनी हुई है।

पुरुष बेरोज़गारी दर: अक्तूबर-दिसंबर 2019 के दौरान पुरुष बेरोज़गारी दर 7.3% रही, जो जुलाई-सितंबर 2019 की 8% दर और अक्तूबर-दिसंबर 2018 की 9.2% दर से कम है।

श्रम बल भागीदारी दर (Labour Force Participation Rate- LFPR): अक्तूबर-दिसंबर 2019 में 37.2% दर के साथ LFPR में सुधार देखने को मिला। 

  • गौरतलब है कि जुलाई-सितंबर 2019 की तिमाही में यह 36.8% थी।  
  • राज्यों की स्थिति: इस सर्वेक्षण के अनुसार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, तेलंगाना, केरल, मध्य प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली और आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में श्रम बल भागीदारी दर का आँकड़ा राष्ट्रीय स्तर से अधिक रहा।

‘आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण’ (Periodic Labour Force Survey- PLFS): 

  • आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण भारत का पहल कंप्यूटर आधारित रोज़गार सर्वेक्षण है, इसकी शुरुआत वर्ष 2017 में केंद्रीय सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा की गई थी।
  • PLFS रिपोर्ट ‘राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय' (National Statistical Office- NSO) द्वारा जारी की जाती है।
  • इस सर्वेक्षण की शुरुआत राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग द्वारा वर्ष 2009 में गठित कुंदू समिति (Kundu Committee) की सिफारिशों के आधार पर की गई थी।

‘राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय' (National Statistical Office- NSO):

  • केंद्र सरकार द्वारा वर्ष 2019 में राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (National Sample Survey Office- NSSO) और केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (Central Statistics Office- CSO) का विलय कर राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की स्थापना की गई थी।
  • NSO, देश में सांख्यिकीय प्रणाली के नियोजित विकास के लिये नोडल एजेंसी के रूप में कार्य करने के साथ ही भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों/विभागों और राज्य सांख्यिकी ब्यूरो (SSB) के बीच सांख्यिकीय कार्य का समन्वय करता है।

रोज़गार और बेरोज़गारी के प्रमुख संकेतक:

  1. श्रम बल भागीदारी दर (LFPR):  LFPR, देश की कुल आबादी में से श्रम बल में शामिल लोगों के प्रतिशत को दर्शाता है। यहाँ श्रम बल का अर्थ उन लोगों से है जो या तो कार्य कर रहे हैं या काम की तलाश कर रहे हैं अथवा काम के लिये उपलब्ध हैं।  
  2. श्रमिक जनसंख्या अनुपात (Worker Population Ratio- WPR): WPR को जनसंख्या में नियोजित व्यक्तियों के प्रतिशत के रूप में परिभाषित किया गया है।  
  3. बेरोज़गारी दर (UR) : इसे श्रम बल में शामिल कुल लोगों में बेरोज़गार व्यक्तियों के प्रतिशत के रूप में परिभाषित किया जाता है। 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


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