कच्चे तेल की कीमतें और भारत का आयात बिल
प्रीलिम्स के लियेइंडियन क्रूड आयल बास्केट मेन्स के लियेतेल की कीमतों का भारत के आयात बिल पर प्रभाव |
चर्चा में क्यों?
भारत ने कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट के मद्देनज़र मार्च के मध्य से अपने रणनीतिक तेल भंडार में वृद्धि की है और मई के अंत तक इसे बढ़ाने की उम्मीद है, किंतु इसके बावजूद वित्तीय वर्ष 2020 में देश का तेल आयात बिल 100 बिलियन डॉलर के आसपास रह सकता है, जो कि वित्तीय वर्ष 2019 के तेल आयात बिल (111.9 बिलियन डॉलर) से बहुत कम है।
प्रमुख बिंदु
- वित्तीय वर्ष 2020 के लिये अनुमानित 111.3 बिलियन डॉलर (233 मिलियन टन) के मुकाबले भारत ने अब तक कच्चे तेल का मात्र 95.5 बिलियन डॉलर (207 मिलियन टन) का आयात किया है।
- हालाँकि सरकार द्वारा मार्च माह के आयात के संदर्भ में अभी तक आधिकारिक आँकड़े जारी नहीं किये गए हैं, किंतु वैश्विक तेल बाज़ार अनुसंधान संस्थाओं के अनुसार, भारत द्वारा मार्च माह में 20.3 मीट्रिक टन कच्चे तेल का आयात किया गया, जो कि अक्तूबर 2019 के बाद से एक महीने में आयात की गई तेल की सबसे अधिक मात्रा है।
- मार्च माह के साथ-साथ अप्रैल में भी तेल की खरीद काफी तेज़ी से की जा रही है। चालू वित्तीय वर्ष में अब तक प्रतिमाह तेल की औसत खरीद 18.8 मीट्रिक टन रही है।
प्रभाव
- वैश्विक तेल बाज़ार अनुसंधान संस्थाओं के अनुसार, भारत तेल की कम कीमतों का लाभ उठाने वाले कुछ प्रमुख देशों में से एक है।
- यदि इंडियन क्रूड आयल बास्केट (Indian Crude Oil Basket) की कीमत मौजूदा वित्तीय वर्ष में 25 डॉलर प्रति बैरल से कम रहती है तो वित्तीय वर्ष 2021 में भारत के कच्चे तेल का आयात बिल 57 प्रतिशत घटकर 43 बिलियन डॉलर पहुँच सकता है, जिससे भारत के चालू खाते (Current Account) को काफी लाभ प्राप्त होगा।
- इंडियन क्रूड आयल बास्केट की कीमत जनवरी माह में औसतन 64 डॉलर प्रति बैरल थी, जो कि 20 डॉलर प्रति बैरल पर पहुँच गई है।
- यद्यपि वर्तमान में कोरोनावायरस (COVID-19) के प्रकोप को रोकने के लिये लागू किये गए लॉकडाउन के कारण पेट्रोलियम उत्पादों की मांग काफी कम हो गई है, किंतु भारतीय रिफाइनर्स ने वैश्विक बाज़ार से कच्चे तेल का काफी अधिक आयात किया है, जिससे भारत के तेल भंडार पूरी तरह से भर गए हैं।
- ध्यातव्य है कि भारत अपने आवश्यक कच्चे तेल का लगभग 82 प्रतिशत आयात करता है और भारत द्वारा आयात किये जाने वाले सभी सामानों में कच्चे तेल की हिस्सेदारी लगभग 20 प्रतिशत है।
इंडियन क्रूड आयल बास्केट
- इंडियन क्रूड आयल बास्केट या इंडियन बास्केट का अभिप्राय सोर क्रूड आयल (Sour Crude Oil) और स्वीट क्रूड आयल (Sweet Crude Oil) अर्थात् ब्रेंट क्रूड आयल (Brent Crude Oil) के भारित औसत से होता है।
- सल्फर की उच्च मात्रा वाले कच्चे तेल को सोर क्रूड आयल (Sour Crude Oil) कहा जाता है, जबकि सल्फर की कम मात्रा वाले कच्चे तेल को स्वीट क्रूड आयल (Sweet Crude Oil) अर्थात् ब्रेंट क्रूड आयल (Brent Crude Oil) कहा जाता है।
- भारतीय क्रूड बास्केट का उपयोग भारत में कच्चे तेल के आयात की कीमत के संकेतक के रूप में किया जाता है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
‘ट्रेंड इन वर्ल्ड मिलिट्री एक्सपेंडेचर’ रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु
प्रीलिम्स के लिये:‘ट्रेंड इन वर्ल्ड मिलिट्री एक्सपेंडेचर’ रिपोर्ट, रक्षा बजट मेन्स के लिये:सैन्य शक्ति में निरंतर वृद्धि और वैश्विक शांति, भारतीय रक्षा क्षेत्र का विकास |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय शोध संस्थान ‘स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट’ (Stockholm International Peace Research Institute- SIPRI) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019 में विश्व में सर्वाधिक सैन्य खर्च वाले देशों की सूची में भारत तीसरे स्थान पर रहा है।
मुख्य बिंदु:
- हाल ही में SIPRI ने ‘ट्रेंड इन वर्ल्ड मिलिट्री एक्सपेंडेचर, 2019’ (Trends in World Military Expenditure, 2019) नामक रिपोर्ट जारी की है।
- SIPRI की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019 में वैश्विक स्तर पर सैन्य खर्च बढ़कर 1,917 बिलियन अमेरिकी डॉलर पर पहुँच गया।
- रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019 में चीन का सैन्य खर्च वर्ष 2018 की तुलना में 5.1% की वृद्धि के साथ 261 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच गया।
- वर्ष 2019 में भारत का कुल सैन्य खर्च 71.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर रहा, वर्ष 2018 की तुलना में भारतीय सैन्य खर्च में 6.8% की वृद्धि देखी गई।
वैश्विक आँकड़े:
- SIPRI रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019 में सर्वाधिक सैन्य खर्च के मामले में शीर्ष 5 देश निम्नलिखित हैं:
- संयुक्त राज्य अमेरिका (USA): 732 बिलियन अमेरिकी डॉलर
- चीन: 261 बिलियन अमेरिकी डॉलर
- भारत: 71.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर
- रूस: 65.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर
- सऊदी अरब: 61.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर
- वर्ष 2019 के कुल वैश्विक सैन्य खर्च का 62% इस सूची के शीर्ष 5 देशों द्वारा किया गया है।
- रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019 में वैश्विक जीडीपी (GDP) का 2.2% वैश्विक स्तर पर सैन्य खर्च के रूप में इस्तेमाल किया गया।
- वर्ष 2018 की तुलना में वर्ष 2019 के कुल वैश्विक सैन्य खर्च में 3.8% की वृद्धि देखी गई है, जो वर्ष 2010 के बाद अब तक की सबसे अधिक वृद्धि है।
भारत का सैन्य खर्च:
- SIPRI के अनुसार, हाल के कुछ दशकों में भारतीय सैन्य खर्च में लगातार वृद्धि हुई है, पिछले 30 वर्षों (वर्ष 1990-2019) के बीच भारतीय सैन्य खर्च में 259% की वृद्धि और वर्ष 2010-19 के बीच 37% की वृद्धि दर्जकी गई है।
- हालाँकि पिछले एक दशक में भारत की जीडीपी पर सैन्य खर्च का भार कम हुआ है (वर्ष 2010 में 2.7% जबकि वर्ष 2019 में मात्र 2.4%)।
- फरवरी 2020 में संसद में प्रस्तुत वित्तीय वर्ष 2020-21 के कुल 30,42,230 करोड़ रुपए बजट में से 3,37,553 करोड़ रुपए (रक्षा पेंशन को छोड़कर) सैन्य खर्च के रूप में आवंटित किये गए, इसके अतिरिक्त 1,33,825 करोड़ रुपए रक्षा पेंशन के रूप में आवंटित किये गए हैं।
- वित्तीय वर्ष 2020-21 का कुल रक्षा बजट केंद्र सरकार के कुल खर्च (वित्तीय वर्ष 2020-21) का 15.49% है।
अन्य प्रमुख देश:
- SIPRI की इस सूची में पाकिस्तान वर्ष 2019 में सैन्य खर्च के मामले में विश्व में 24वें स्थान पर रहा जबकि वर्ष 2018 में वह इस सूची में 19वें स्थान पर था।
- वर्ष 2010 से 2019 के बीच पाकिस्तान के सैन्य खर्च में 70% की वृद्धि के साथ 10.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच गया है।
- हालाँकि सैन्य खर्च में हुई इस वृद्धि का प्रभाव सरकारी कोष पर भी पड़ा है। इस दौरान देश की जीडीपी पर सैन्य खर्च का दबाव 3.4% (वर्ष 2010) से बढ़कर 4% (वर्ष 2019) तक पहुँच गया है।
- इस वर्ष ईरान के सैन्य खर्च में पिछले वर्ष की तुलना में वर्ष 15% की गिरावट देखने को मिली, वर्ष 2019 में ईरान का कुल सैन्य खर्च 12.6 बिलियन अमेरिकी डॉलर दर्ज किया गया।
- SIPRI की इस सूची में यूरोप के देशों में फ्राँस (50.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर/1.6% की वृद्धि) और जर्मनी (49.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर/10% की वृद्धि) क्रमशः छठे और सातवें स्थान पर रहे।
- इसके साथ ही जापान (47.6 बिलियन अमेरिकी डॉलर) और दक्षिण कोरिया (43.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर) इस सूची में क्रमशः 9वें और 10वें स्थान पर रहे।
सैन्य खर्च में वृद्धि के कारण:
- चीन और पाकिस्तान से भारत के तनावपूर्ण संबंध भारतीय सैन्य खर्च में हो रही लगातार वृद्धि का प्रमुख कारण हैं।
- विशेषज्ञों के अनुसार, जर्मनी द्वारा सैन्य खर्च में वृद्धि किये जाने का एक कारण यूरोप और नाटो (NATO) के कुछ देशों के बीच रूस की बदलती छवि का प्रभाव भी हो सकता है।
- हालाँकि COVID-19 की वैश्विक महामारी का प्रभाव भविष्य में देशों के सैन्य खर्च पर भी देखा जा सकता है।
स्रोत: द हिंदू
महाराष्ट्र का राजनीतिक संकट
प्रीलिम्स के लियेसंविधान का अनुच्छेद 164 और 171, जनप्रतिनिधित्त्व अधिनियम, 1951 की धारा 151A मेन्स के लियेराज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों की सीमा, मुख्यमंत्री की योग्यता से संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाली महाराष्ट्र सरकार को आगामी समय में राजनीतिक संकट का सामना करना पड़ सकता है।
प्रमुख बिंदु
- ध्यातव्य है कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने 28 नवंबर, 2019 को राज्य विधानमंडल के किसी भी सदन का सदस्य हुए बिना राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली थी।
- किंतु संविधान के अनुच्छेद 164(4) के अनुसार, उन्हें 27 मई से पहले राज्य विधानमंडल के किसी भी सदन में निर्वाचित होना होगा, यदि ऐसा नहीं होता है तो मुख्यमंत्री के तौर पर उनका कार्यकाल समाप्त हो जाएगा।
- हालाँकि, चुनाव आयोग ने पहले ही COVID-19 महामारी के मद्देनज़र राज्यसभा चुनाव, उपचुनाव और नागरिक निकाय चुनाव स्थगित कर दिये हैं, जिसके कारण महाराष्ट्र सरकार और उद्धव ठाकरे के समक्ष बड़ा राजनीतिक और संवैधानिक संकट उत्पन्न हो गया है।
संविधान का अनुच्छेद 164
- संविधान के अनुच्छेद 164 (1) के अनुसार, मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाएगी और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री की सलाह पर की जाएगी।
- अनुच्छेद 164(2) के अनुसार, राज्य मंत्रिपरिषद राज्य की विधानसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होगा।
- अनुच्छेद 164(3) के अनुसार, किसी मंत्री द्वारा पद ग्रहण करने से पहले, राज्यपाल तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिये दिये गए प्रारूपों के अनुसार उसको पद और गोपनीयता की शपथ दिलाएगा।
- अनुच्छेद 164(4) के अनुसार, कोई मंत्री यदि निरंतर 6 माह की अवधि तक राज्य के विधानमंडल का सदस्य नहीं होता है तो उस अवधि की समाप्ति पर मंत्री का कार्यकाल भी समाप्त हो जाएगा, मौजूदा स्थिति में संविधान का यही प्रावधान महाराष्ट्र सरकार के समक्ष चुनौती उत्पन्न कर रहा है।
क्या है विकल्प?
- ऐसी स्थिति, जिसमें कोई व्यक्ति विधायिका का सदस्य नहीं है और सरकार का मुख्य कार्यकारी बन जाता है, स्वयं में काफी सामान्य है। भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसे कई उदाहरण देखने को मिलते हैं-
- जून, 1996 में जब एच.डी. देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया तब वे संसद सदस्य नहीं थे।
- इसके अतिरिक्त जब सुशील कुमार शिंदे और पृथ्वीराज चव्हाण को क्रमशः वर्ष 2003 और वर्ष 2010 में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के तौर पर नियुक्त किया गया था, तब भी वे राज्य विधायिका के सदस्य नहीं थे।
- इस प्रकार उद्धव ठाकरे को अपने कार्यकाल को बचाने में कोई समस्या नहीं थी, किंतु COVID-19 महामारी ने महाराष्ट्र के इस संकट को और अधिक गंभीर बना दिया है।
- अब मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के समक्ष नामांकन मार्ग (Nomination Route) शेष है, जो कि अपेक्षाकृत कम सामान्य है, किंतु यह असंवैधानिक नहीं है।
- इस मार्ग का प्रयोग सर्वप्रथम वर्ष 1952 में हुआ जब सी. राजगोपालाचारी को राज्यपाल श्री प्रकाश (Sri Prakasa) द्वारा मद्रास के मुख्यमंत्री के रूप में नामित किया गया था।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 171(5) के तहत राज्यपाल ‘साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारी आंदोलन और सामाजिक सेवा’ जैसे क्षेत्रों में विशेष ज्ञान तथा व्यावहारिक अनुभव वाले लोगों को सदन में नामित कर सकता है।’
- ऐसी स्थिति में आवश्यकता को पूरा करने का एकमात्र तरीका है कि राज्यपाल द्वारा ठाकरे को उच्च सदन में नामित किया जाए। हालाँकि उद्धव ठाकरे संविधान के अनुच्छेद 171(5) में वर्णित किसी भी क्षेत्र (साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारी आंदोलन और सामाजिक सेवा) से संबंधित नहीं हैं, किंतु हर शरण वर्मा बनाम चंद्रभान गुप्ता (15 फरवरी, 1961) मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा था कि राजनीति को भी 'सामाजिक सेवा' के रूप में देखा जा सकता है।
राज्यपाल की भूमिका
- ध्यातव्य है कि वर्तमान में महाराष्ट्र के राज्यपाल के कोटे में दो विधान परिषद सीटें रिक्त हैं; हालाँकि इन रिक्तियों की अवधि 6 जून को समाप्त हो जाएगी और इसलिये इन सीटों पर नियुक्ति केवल शेष अवधि के लिये ही की जा सकती है।
- किंतु कई लोगों द्वारा यह तर्क दिया जा रहा है कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 151(A) इन रिक्त पदों को भरने पर प्रतिबंध लगाती है यदि रिक्ति से जुड़े किसी सदस्य का शेष कार्यकाल एक वर्ष से कम हो।
- हालाँकि, यह राज्यपाल के लिये नामांकन को अस्वीकार करने का एक कारण नहीं हो सकता है, क्योंकि यह प्रतिबंध रिक्ति को भरने के लिये उपचुनाव के संबंध में है, न कि नामांकन के संबंध में।
- यद्यपि राज्यपाल द्वारा यह तर्क दिया जा सकता है कि वे मंत्रिपरिषद की सलाह पर तेज़ी से कार्य करने के लिये संविधान के तहत बाध्य नहीं हैं और यह भी कि, उन्हें उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री पद को बचाने के लिये नामांकित क्यों करना चाहिये, किंतु हमें मौज़ूदा असाधारण परिस्थितियों को ध्यान में रखना चाहिये, भारत वर्तमान में आधुनिक इतिहास के सबसे गंभीर स्वास्थ्य संकट का सामना कर रहा है।
आगे की राह
- महाराष्ट्र का राजनीतिक और संवैधानिक संकट आवश्यक ही महाराष्ट्र की जनता और वहाँ के प्रशासन के लिये एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है किंतु मौजूदा समय में संपूर्ण देश एक अलग स्वास्थ्य चुनौती का सामना कर रहा है, विदित हो कि महाराष्ट्र इस महामारी के कारण सर्वाधिक प्रभावित हुआ है।
- महाराष्ट्र में इस वायरस के संक्रमण के 8000 से अधिक मामले सामने आ चुके हैं और राज्य में इस वायरस के कारण 342 लोगों की मृत्यु हो चुकी है।
- आवश्यक है कि सभी हितधारक अपने राजनीतिक हितों को अलग रखकर महाराष्ट्र के इस संकट को सुलझाने के लिये यथासंभव प्रयास करे और संतुलित उपाय खोजने का प्रयास करे।
- इसके अतिरिक्त राज्य में कोरोनावायरस के रोगियों की बढ़ती संख्या भी वहाँ के नीति-निर्माताओं के लिये एक बड़ी चुनौती है, जिससे निपटने के लिये सभी दिशा-निर्देशों का सही ढंग से पालन किया जाना आवश्यक है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
अलगावादियों द्वारा दक्षिण यमन में स्व-शासन की घोषणा
प्रीलिम्स के लिये:यमन संकट, अरब स्प्रिंग मेन्स के लिये:यमन संकट का भारत पर प्रभाव |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में यमन के ‘सदर्न ट्रांज़िशनल काउंसिल’ (Southern Transitional Council- STC) अलगाववादी समूह ने घोषणा की है कि वह अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों में स्व-शासन स्थापित करेगा।
मुख्य बिंदु:
- STC ने अपनी सेनाओं को दक्षिणी बंदरगाह ‘अदन’ (Aden) के लिये रवाना किया है।
- STC सऊदी अरब के नेतृत्व वाले गठबंधन के प्रमुख समूहों में से एक है जो हूती (Houthi) विद्रोहियों के खिलाफ लड़ रहा है।
- सऊदी अरब के नेतृत्त्व वाले गठबंधन ने COVID-19 महामारी के चलते संयुक्त राष्ट्र की पहल पर एक तरफ युद्ध विराम की घोषणा की थी तथा उसे पुन: एक महीने के लिये और बढ़ा दिया लेकिन हूती विद्रोहियों ने इस बात को स्वीकार नहीं किया और हिंसा जारी रही है।
यमन संकट:
- अरब क्षेत्र के लोकतांत्रिक आंदोलन; जिसे ‘अरब स्प्रिंग’ (Arab Spring) के रूप में जाना जाता है, के बाद यमन के शासक ने सत्ता हादी (Hadi's) के विरुद्ध शिया मुसलमानों (हूती) को सत्ता स्थानांतरित कर दी। हूती को ईरान का समर्थन है, जबकि सऊदी अरब हूती के विरुद्ध है।
- वर्ष 2014 के अंत में सना में हादी की सरकार को सत्ता से बेदखल करने के बाद से यमन हिंसा में घिर गया है जिससे सऊदी के नेतृत्त्व वाले गठबंधन को हस्तक्षेप करने के लिये प्रेरित किया।
- इस विद्रोह को सऊदी अरब और ईरान के बीच छद्म युद्ध के रूप में देखा गया।
सऊदी अरब का हस्तक्षेप:
- शिया हूती विद्रोहियों ने यमन की राजधानी सना (Sanaa) पर कब्जा कर लिया और राष्ट्रपति हादी की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त सरकार को दक्षिणी हिस्से में सिमटना पड़ा, तब सऊदी अरब ने यमन में हस्तक्षेप करना शुरू किया।
- सऊदी अरब ने ईरान पर अरब प्रायद्वीप में अस्थिरता लाने और शिया हूती विद्रोहियों को आर्थिक सहायता देने का आरोप लगाया था। वस्तुतः इस प्रायद्वीप में स्थिरता स्थापित करना सऊदी अरब की योजना थी।
सऊदी अरब और ईरान के बीच झगड़े का कारण:
- सऊदी अरब सुन्नी प्रधान देश है तथा स्वयं को इस्लामी नेतृत्त्वकर्त्ता के रूप में प्रदर्शित करता है।
- दोनों देशों की शासन प्रणाली में अंतर है।
- पर्शियन गल्फ में स्थित द्वीपों को लेकर भी दोनों देशों में मतभेद है ।
- ईरान परंपरागत रूप से अमेरिकी विरोधी रहा है जबकि सऊदी अरब अमेरिका का प्रमुख सामरिक सहयोगी रहा है।
भारत का हित:
- पश्चिमी एशिया के संबंध में कोई भी निर्णय करते समय भारत इन देशों के साथ जटिल संबंधों के निम्नलिखित पहलुओं पर विचार करके ही कोई निर्णय लेता है।
- भारतीय डायस्पोरा
- ‘इस्लामी सहयोग संगठन’ (Organisation of Islamic Cooperation) की भूमिका
- भारतीय तेल आयात
- अमेरिका का हस्तक्षेप
- भारत में अल्पसंख्यकों की उपस्थिति
आगे की राह:
- पिछले कुछ समय से आर्थिक प्रतिबंधों को झेल रहे ईरान के कारण भारत का तेल आयात प्रभावित हो रहा है। ऐसे में दक्षिण-पश्चिम एशिया में स्थित सऊदी अरब भारत के लिये एक बेहतर विकल्प उपलब्ध कराता है। यह न सिर्फ तेल की दृष्टि से बल्कि भारतीय कामगारों की दृष्टि से भी पश्चिम एशिया में महत्त्व रखता है।
स्रोत: द हिंदू
परमाणु हथियारों की नवीन दौड़ का प्रारंभ
प्रीलिम्स के लिये:व्यापक परमाणु-परीक्षण-प्रतिबंध संधि (CTBT) मेन्स के लिये:व्यापक परमाणु-परीक्षण-प्रतिबंध संधि की प्रासंगिकता |
चर्चा में क्यों?
हाल ‘संयुक्त राज्य अमेरिका के विदेश विभाग’ द्वारा जारी एक रिपोर्ट में इस बात पर चिंता व्यक्त की है कि चीन ‘व्यापक परमाणु-परीक्षण-प्रतिबंध संधि’ (Comprehensive Nuclear-Test-Ban Treaty- CTBT) के नियमों का उल्लंघन करके लोप नूर (Lop Nur) नामक परीक्षण स्थल पर परमाणु परीक्षण कर रहा है।
मुख्य बिंदु:
- रिपोर्ट में दावा किया गया है कि चीन के अलावा रूस ने भी ‘कम-प्रभाव उत्पन्न करने वाले परमाणु परीक्षण’ (Low-Yield Nuclear Testing) किये हैं, अत: इस प्रकार का परमाणु परीक्षण CTBT में अंतर्निहित 'शून्य प्रभाव (Zero Yield) की अवधारणा से असंगत हैं।
- हालांकि रिपोर्ट में इस बात का निश्चित रूप से उल्लेख नहीं है कि इन देशों द्वारा कितने परमाणु परीक्षण किये गए हैं।
- रूस और चीन ने अमेरिका के दावों को खारिज कर दिया है, लेकिन यह रिपोर्ट प्रमुख परमाणु शक्तियों के बीच बढ़ती प्रतिद्वंद्विता के साथ परमाणु हथियारों की नवीन प्रतिस्पर्धा की ओर संकेत करती है।
शून्य-प्रभाव (Zero-Yield):
- ‘शून्य-प्रभाव’ की अवधारणा उस परमाणु परीक्षण को संदर्भित करती है, जहां परमाणु बम हथियारों के कारण कोई विस्फोटक अभिक्रिया श्रृंखला प्रारंभ नहीं होती है।
- यह अवधारणा ‘सुपरक्रिटिकल हाइड्रो-न्यूक्लियर टेस्ट’ (Supercritical Hydro-Nuclear Test) प्रतिबंध की बात करता है लेकिन ‘सब-क्रिटिकल हाइड्रोडायनामिक न्यूक्लियर टेस्ट’ (Sub-Critical Hydrodynamic Nuclear Tests) पर प्रतिबंध नहीं लगाता है।
CTBT की पृष्ठभूमि:
- परमाणु परीक्षणों पर प्रतिबंध लगाने की दिशा में दशकों से प्रयास किये जा रहे हैं लेकिन शीत युद्ध की राजनीति के कारण यह संभव नहीं हो सका। हालाँकि वर्ष 1963 में ‘आंशिक परीक्षण प्रतिबंध संधि’ (Partial Test Ban Treaty- PTBT) को अपनाया गया।
आंशिक परीक्षण प्रतिबंध संधि (PTBT):
- इस संधि को सभी प्रकार के क्षेत्रों में परमाणु परीक्षण के उद्देश्य से लाया गया था लेकिन राष्ट्रों के मध्य पानी के अंदर (महासागरों) तथा वायुमंडलीय परीक्षणों पर रोक लगाई गई लेकिन भूमिगत परीक्षण को इस संधि में शामिल नहीं किया गया।
‘शीतयुद्ध’ की समाप्ति और CTBT पर वार्ता:
- जब वर्ष 1994 में जेनेवा में CTBT पर वार्ता शुरू हुई तो वैश्विक भू-राजनीति में काफी बदलाव आ चुका था। शीत युद्ध समाप्त हो गया था जिससे परमाणु हथियारों की दौड़ भी समाप्त हो गई थी।
- वर्ष 1991 में रूस ने परमाणु परीक्षण पर एकतरफा स्थगन की घोषणा की तथा इसके बाद 1992 में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा द्वारा भी इसी प्रकार की घोषणा की गई। शीतयुद्ध की समाप्ति तक अमेरिका 1,054 और रूस 715 परमाणु परीक्षण कर चुके थे।
CTBT पर विवाद:
- CTBT की दिशा में की जाने वाली बातचीत अक्सर विवादास्पद रही। क्योंकि फ्राँस और चीन ने परमाणु परीक्षण जारी रखा तथा दावा किया कि उन्होंने बहुत कम परीक्षण किये हैं और CTBT के संबंध में नवीन मापदंडों को अपनाने की आवश्यकता पर बल दिया।
- फ्राँस और अमेरिका ने CTBT के लिये 500 टन TNT समकक्ष से कम सीमा के परमाणु परीक्षण की अनुमति देने के विचार का समर्थन किया।
- यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि 500 टन TNT की सीमा 'लिटिल बॉय' (Little Boy) बम जो 6 अगस्त, 1945 को हिरोशिमा पर अमेरिका द्वारा गिराये गए बम जिसकी क्षमता 15,000 टन TNT के बराबर थी, की एक-तिहाई है।
- नागरिक समाज और गैर-परमाणु हथियार संपन्न देशों ने इस तरह के विचार पर नकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की तथा बाद में इस सीमा को हटा दिया गया।
- कुछ देशों ने प्रस्तावित किया कि व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध लगाने के लिये स्थायी रूप से सभी परीक्षण स्थलों को बंद कर दिया जाना चाहिये। हालाँकि इस तरह के विचारों से परमाणु हथियार संपन्न देश सहमत नहीं हैं।
- अमेरिका द्वारा CTBT के संबंध में 'व्यापक परीक्षण प्रतिबंध' को 'शून्य प्रभाव' परीक्षण प्रतिबंध के रूप में परिभाषित करने का विचार दिया गया। अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम और फ्राँस के समर्थन के आधार पर रूस और चीन के परमाणु परीक्षणों पर प्रतिबंध लागू करना चाहता है।
- 'CTBT’ सभी पक्षों को किसी भी प्रकार के परमाणु हथियार परीक्षण या किसी अन्य परमाणु विस्फोट से रोकता है। हालाँकि इन शब्दों को सही से परिभाषित नहीं किया गया हैं।
भारत का CTBT के संबंध में पक्ष:
- CTBT संधि का अनुच्छेद 14 भी इस संधि को अपनाने में प्रमुख बाधा उत्पन्न करता है। क्योंकि भारत के अनुसार संधि बहुत ही संकीर्ण है, क्योंकि यह केवल नए विस्फोट रोकने की बात करती है, पर नए तकनीकी विकास एवं नए परमाणु शस्त्रों के विषय में संधि मौन है ।
- भारत पूर्ण परमाणु निशस्त्री:करण ढाँचे को अपनाने पर बल देता है, परंतु भारत के प्रस्तावों को स्वीकृति नहीं मिलने पर जून 1996 में भारत ने वार्ता से हटने के अपने निर्णय की घोषणा कर दी।
CTBT को अपनाने की प्रणाली पर विवाद:
- भारत के वार्ता से हटने के बाद CTBT को लागू करने करने के लिये आवश्यक प्रावधानों को संशोधित करने का निर्णय लिया।
- नवीन प्रावधानों में 44 देशों को सूचीबद्ध किया गया है, जिनका अनुसमर्थन संधि को लागू करने के लिये आवश्यक था, जिसमें भारत को भी शामिल किया गया है।
- भारत ने इस निर्णय का विरोध किया है परंतु भारत के विरोध को दरकिनार करते हुए CTBT को बहुमत से अपनाया गया और हस्ताक्षर के लिये खोला गया।
CTBT की वर्तमान स्थिति:
- 44 सूचीबद्ध देशों में से अब तक केवल 36 देशों ने संधि की पुष्टि की है। चीन, मिस्र, ईरान, इज़रायल और अमेरिका ने संधि पर हस्ताक्षर तो किये हैं, लेकिन इसकी अभिपुष्टि नहीं की है। चीन का मानना है कि वह अमेरिका की अभिपुष्टि के बाद ही इस संधि को अनुसमर्थन देगा।
- उत्तर कोरिया, भारत और पाकिस्तान तीन ऐसे देश हैं, जिन्होंने संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं। तीनों देशों द्वारा वर्ष 1996 के बाद परमाणु परीक्षण भी किये गए हैं; भारत और पाकिस्तान मई 1998 तथा उत्तर कोरिया ने वर्ष 2006 से वर्ष 2017 के बीच छह बार परमाणु परीक्षण किये हैं।
CTBT में अमेरिका का वर्चस्व:
- CTBT को सत्यापित करने के लिये ‘व्यापक परमाणु-परीक्षण-प्रतिबंध संधि संगठन’ (Comprehensive Nuclear-Test-Ban Treaty Organisation- CTBTO) को 130 मिलियन डॉलर के वार्षिक बजट के साथ वियना में स्थापित किया गया था। 17 मिलियन डॉलर की हिस्सेदारी के साथ अमेरिका CTBT में सबसे बड़ा योगदानकर्त्ता है।
परमाणु हथियारों के वर्चस्व की नवीन दौड़:
- 1990 के दशक के बाद वर्तमान में सबसे प्रमुख परिवर्तन यह देखने को मिला है कि वर्तमान में अमेरिका की एकध्रुवीय व्यवस्था (अमेरिका का वर्चस्व) समाप्त हो गई तथा प्रमुख शक्तियों के बीच फिर से रणनीतिक प्रतिस्पर्द्धा देखने को मिल रही है। वर्तमान में अमेरिका रूस और चीन को अपने प्रमुख 'प्रतिद्वंद्वियों' के रूप में मानता है।
- अमेरिका के परमाणु विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका वर्तमान में नवीन परमाणु खतरों का सामना कर रहा है क्योंकि रूस और चीन दोनों परमाणु हथियारों पर अपनी निर्भरता बढ़ा रहे हैं। अत: अमेरिका को अपने परमाणु हथियारों का विस्तार करना होगा। ट्रंप प्रशासन ने इस दिशा में 1.2 ट्रिलियन डॉलर की 30-वर्षीय शस्त्र आधुनिकीकरण योजना शुरू की है।
- रूस और चीन भी अमेरिका की बढ़ती तकनीकी क्षमता; विशेष रूप से मिसाइल रक्षा और पारंपरिक वैश्विक परिशुद्धता-स्ट्राइक क्षमताओं, (Global Precision-Strike Capabilities) को लेकर चिंतित हैं।
- अमेरिका की प्रतिक्रिया में रूस ने ‘हाइपरसोनिक डिलीवरी सिस्टम’ संबंधी कार्य जबकि चीन ने अपने शस्त्रागार के आधुनिकीकरण कार्यक्रम शुरू किये हैं। इसके अलावा दोनों देश आक्रामक साइबर क्षमताओं में भी भारी निवेश कर रहे हैं।
- ‘नई सामरिक शस्त्र न्यूनीकरण संधि’ (New Strategic Arms Reduction Treaty- New START) जो अमेरिका और रूसी शस्त्रागार को सीमित करती है, वर्ष 2021 में समाप्त हो जाएगी तथा अमेरिकी राष्ट्रपति ने संकेत दिया है कि वह इसे आगे विस्तारित नहीं करना चाहते हैं। यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि अमेरिका और रूस का अभी भी वैश्विक परमाणु हथियारों में 90% से अधिक का योगदान है,इस कारण अब तक चीन को अमेरिका द्वारा परमाणु संधि वार्ताओं में अधिक महत्त्व नहीं दिया है।
वर्तमान संदर्भ:
- चीन और रूस ने अमेरिका के अन्य परमाणु समझौते जैसे कि ‘ईरान परमाणु समझौते’ या अमेरिका-रूस की ‘मध्यम दूरी परमाणु शक्ति संधि’ (Intermediate-Range Nuclear Forces- INF) की ओर इशारा करते हुए अमेरिका के आरोपों को खारिज कर दिया है।
- चीन-अमेरिका के बीच चल रहे तनाव, व्यापार एवं प्रौद्योगिकी विवाद, दक्षिण चीन सागर विवाद और COVID-19 महामारी के कारण चरम स्तर पर है। अमेरिका भी नेवादा (Nevada) परीक्षण स्थल को फिर से शुरू करने की तैयारी कर सकता है।
निष्कर्ष:
- 1950 के दशक में परमाणु हथियारों की दौड़ शीत युद्ध के प्रारंभ होने के पहले से ही दिखाई दे रही थी। नवीन परमाणु परीक्षण प्रतिद्वंद्विता नए परमाणु हथियारों की नवीन दौड़ की शुरुआत तथा CTBT की अप्रांसगिकता की ओर संकेत करता है।
स्रोत: द हिंदू
विश्व पुस्तक और कॉपीराइट दिवस
प्रीलिम्स के लिये:विश्व पुस्तक और कॉपीराइट दिवस, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, कोरोना अध्ययन श्रृंखला मेन्स के लिये:COVID-19 के दौर में पुस्तक और कॉपीराइट की प्राथमिकताएँ |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (National Book Trust) और फिक्की (FICCI) द्वारा विश्व पुस्तक और कॉपीराइट दिवस (World Book And Copyright Day) के अवसर पर एक वेबिनार (WEBINAR) का आयोजन किया गया।
प्रमुख बिंदु:
- वेबिनार में COVID-19 के बाद की परिदृश्य पर चर्चा की गई जिसमें किताबों के प्रकाशन एवं स्कूलों/कॉलेजों में पाठ्यक्रम से संबंधित मुद्दे शामिल थे।
- ध्यातव्य है कि दुनियाभर में जिस तरह से तकनीक के माध्यम से सभी क्षेत्रों में विकास हुआ है ठीक उसी तरह से अब किताबों के प्रकाशन एवं स्कूलों/कॉलेजों में पाठ्यक्रम हेतु तकनीक का उपयोग आवश्यक हो गया है।
- गौरतलब है कि NBT ने ‘कोरोना अध्ययन श्रृंखला’ (Corona Studies Series) नामक एक प्रकाशन श्रृंखला के शुभारंभ की योजना बनाई है। इस अध्ययन श्रंखला में कोरोना के बाद के समय में सभी आयु-वर्गों के लिये प्रासंगिक पठन सामग्री से युक्त पुस्तकें प्रकाशित की जाएंगी।
वेबिनार (Webinar):
- वेबिनार एक ऐसा सॉफ्टवेयर है, जिसकी मदद से इंटरनेट पर संगोष्ठियाँ/सेमिनार, प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किये जा सकते हैं या उनमें भाग लिया जा सकता है।
कोरोना अध्ययन श्रृंखला
(Corona Studies Series):
- ‘कोरोना अध्ययन श्रृंखला’ के तहत COVID-19 के समय के विभिन्न पहलुओं से पाठकों को रूबरू कराया जाएगा।
- चिह्नित विषय-वस्तु पर विभिन्न भारतीय भाषाओं में किफायती पुस्तकें प्रकाशित की जाएंगी।
- सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तकों को पीडीएफ फॉर्मेट में लोगों को निःशुल्क डाउनलोड की सुविधा प्रदान की जाएगी।
- COVID-19 के कारण समाज के विभिन्न वर्गों पर मनोवैज्ञानिक-सामाजिक प्रभाव के अलावा बच्चों से संबंधित पुस्तकें भी तैयार की जाएंगी, जो उन्हें कोरोना-योद्धाओं के बारे में जानकारी देगा।
- नेशनल बुक ट्रस्ट के अनुसार, इस विषय पर योगदान देने के इच्छुक लेखकों तथा शोधकर्त्ताओं को भी यह उपयुक्त मंच प्रदान करेगा।
- ध्यातव्य है कि इससे पूर्व नेशनल बुक ट्रस्ट ने ‘स्टे होम इंडिया विद बुक्स’ (#StayHomeIndiaWithBooks) पहल भी लॉन्च की थी।
विश्व पुस्तक और कॉपीराइट दिवस
(World Book And Copyright Day):
- 23 अप्रैल को दुनिया भर में विश्व पुस्तक दिवस का आयोजन किया जाता है।
- इस वर्ष विश्व पुस्तक दिवस का स्लोगन ‘KL Baca – caring through reading’ है।
- यूनेस्को हर वर्ष इस मौके पर कार्यक्रमों का आयोजन करता है। किताबी दुनिया में कॉपीराइट एक अहम मुद्दा है, इसलिये विश्व पुस्तक दिवस पर इस मुद्दे पर भी ज़ोर दिया जाता है। इसी वज़ह से दुनिया के कई हिस्सों में इसे विश्व पुस्तक और कॉपीराइट दिवस के तौर पर भी मनाया जाता है।
- इस अवसर पर मलेशिया की राजधानी कुआलालंपुर शहर को वर्ष 2020 के लिये ‘वर्ल्ड बुक कैपिटल’ (World Book Capital) के तौर पर चुना गया है।
- ज्ञातव्य है कि पहला विश्व पुस्तक दिवस 23 अप्रैल, 1995 को मनाया गया था।
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास
(National Book Trust-NBT):
- राष्ट्रीय पुस्तक न्यास मानव संसाधन विकास मंत्रालय के उच्च शिक्षा विभाग के अंतर्गत एक सर्वोच्च निकाय है। NBT की स्थापना भारत सरकार द्वारा वर्ष 1957 में की गयी थी।
- NBT का उद्देश्य मध्यम कीमतों पर अंग्रेजी, हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में अच्छे साहित्य का प्रकाशन और प्रोत्साहन करना है।
स्रोत: पीआईबी
आर्कटिक क्षेत्र तथा ओज़ोन छिद्र
प्रीलिम्स के लिये:पोलर वर्टेक्स, ओज़ोन, समतापमंडल मेन्स के लिये:ओज़ोन छिद्र के आकार में कमी आने का कारण |
चर्चा में क्यों?
यूरोपियन यूनियन की कोपरनिकस एटमॉस्फियर मॉनिटरिंग सर्विस (Copernicus Atmosphere Monitoring Service-CAMS) की एक रिपोर्ट के अनुसार, आर्कटिक के ऊपर निर्मित ओज़ोन छिद्र अब समाप्त हो गया है।
प्रमुख बिंदु:
- जर्मन एयरोस्पेस सेंटर (German Aerospace Center) के वैज्ञानिकों के अनुसार, फरवरी 2020 में उत्तरी ध्रुव की ओज़ोन परत में छिद्र का पता लगाया गया था जो लगभग 1 मिलियन वर्ग किमी में फैला था।
- उल्लेखनीय है कि कोपरनिकस एटमॉस्फियर मॉनिटरिंग सर्विस की रिपोर्ट के अनुसार, COVID-19 की वज़ह से दुनियाभर में किये गए लॉकडाउन से प्रदूषण में गिरावट इसका प्रमुख कारण नहीं है। आर्कटिक के ऊपर बने ओज़ोन छिद्र के ठीक होने की वजह पोलर वर्टेक्स (Polar Vortex) है।
पोलर वर्टेक्स (Polar Vortex):
- यह पृथ्वी के ध्रुवों के आस-पास कम दबाव और ठंडी हवा का एक बड़ा क्षेत्र है।
- यह ध्रुवों पर हमेशा मौजूद होता है जो गर्मियों में कमज़ोर जबकि सर्दियों में प्रबल हो जाता है।
- शब्द ‘वर्टेक्स’ हवा के प्रति प्रवाह (Counter-Clockwise) को संदर्भित करता है जो ठंडी हवाओं को ध्रुवों के पास रोकने में मदद करता है।
- उत्तरी गोलार्द्ध में सर्दियों के दौरान कई बार पोलर वर्टेक्स में विस्तार होता है जो जेट स्ट्रीम के साथ दक्षिण की ओर ठंडी हवा को भेजता है।
- यह मौसम की ऐसी विशेषता के बारे में बताता है, जो हमेशा से मौजूद रही है।
आर्कटिक क्षेत्र में ओज़ोन छिद्र पर वैज्ञानिकों का मत:
- इस वर्ष आर्कटिक क्षेत्र में ओज़ोन परत का क्षरण काफी ज़्यादा हुआ था। वैज्ञानिकों का मानना है कि इसकी वज़ह समतापमंडल के तापमान में गिरावट के साथ-साथ असामान्य वायुमंडलीय परिस्थितियाँ भी थी।
- ध्यातव्य है कि आर्कटिक का तापमान में परिवर्तन अंटार्कटिका की तरह नहीं होता है। परंतु इस वर्ष उत्तरी ध्रुव के चारों ओर बहने वाली कम दबाव वाली शक्तिशाली और ठंडी हवा का एक बड़ा क्षेत्र उत्पन्न हो गया है जिसे ‘पोलर वर्टेक्स’ भी कहा जाता है।
- यूरोपीयन अंतरिक्ष एजेंसी (European Space Agency) की रिपोर्ट के अनुसार, ओज़ोन परत में हो रहे क्षरण के लिये तापमान में गिरावट (-80 डिग्री सेल्सियस से कम), सूरज की रोशनी, क्लोरो फ्लोरो कार्बन गैस, एयर कंडीशनर, रेफ्रिजरेटर इत्यादि ज़िम्मेदार हैं।
ओज़ोन परत (Ozone Layer):
- ओज़ोन परत ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं से मिलकर बनने वाली एक गैस है। ओज़ोन परत वायुमंडल में लगभग 10 किमी. से 50 किमी. (इस मंडल को समतापमंडल (Stratosphere) कहते हैं) तक फैली हुई है।
- यह परत सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों से पृथ्वी की रक्षा करती है। पृथ्वी की सतह के नज़दीक ओज़ोन एक प्रदूषक का कार्य करती है। इसके कारण त्वचा कैंसर और मोतियाबिंद जैसे रोगों को बढ़ावा मिलता है।
वायुमंडल में ओज़ोन परत का महत्त्व:
- हमारे वायुमंडल में ओज़ोन परत का बहुत महत्त्व है क्योंकि यह सूर्य से आने वाले पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित कर लेती है। इन किरणों का पृथ्वी तक पहुँचने का मतलब है अनेक तरह की खतरनाक और जानलेवा बीमारियों का जन्म लेना। इसके अलावा यह पेड़-पौधों और जीवों को भी भारी नुकसान पहुँचाती है। पराबैंगनी विकिरण मनुष्य, जीव जंतुओं और वनस्पतियों के लिये अत्यंत हानिकारक है।
ओज़ोन छिद्र:
- समतापमंडल में ओज़ोन परत की प्रबलता बेहद कम होने के कारण ओज़ोन परत में छिद्र होता है।
- प्रति वर्ष सितंबर, अक्तूबर और नवंबर के महीनों में अंटार्कटिका के ऊपर बनने वाले 'ओज़ोन छिद्र' के बारे में सबसे अधिक चर्चा की जाती है। दक्षिणी ध्रुव पर मौसम संबंधी तथा रासायनिक गतिविधियों के कारण ओज़ोन परत में प्रति वर्ष 20-25 मिलियन वर्ग किमी छिद्र हो जाता है।
ओज़ोन परत का भराव:
- वर्ष 2018 में वैज्ञानिकों के आकलन के अनुसार, वर्ष 2000 के बाद से प्रति दशक समतापमंडल के कुछ हिस्सों में ओज़ोन परत का भराव दर 1-3% है। इस दर से उत्तरी गोलार्द्ध, दक्षिणी गोलार्द्ध तथा ध्रुवीय क्षेत्र में पूर्ण रूप से ओज़ोन परत का भराव क्रमशः वर्ष 2030, 2050 तथा 2060 तक होगा।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
Rapid Fire (करेंट अफेयर्स): 28 अप्रैल, 2020
पाकिस्तान का एंटी-शिप मिसाइल परीक्षण
हाल ही में पाकिस्तान नौसेना ने उत्तरी अरब सागर में एंटी शिप मिसाइलों की एक श्रृंखला का सफल परीक्षण किया है। इस संबंध में सूचना देते हुए पाकिस्तानी नौसेना के प्रवक्ता ने कहा कि इन मिसाइलों को समुद्र की सतह पर खड़े जहाज़ों तथा स्थिर और रोटरी-विंग हवाई जहाज़ों द्वारा दागा गया था। इस अवसर पर पाकिस्तानी नौसेना के प्रमुख ज़फर महमूद अब्बासी भी मौजूद थे। एंटी-शिप मिसाइलें वे मिसाइलें हैं जिनका प्रयोग बड़ी नावों और जहाज़ों के विरुद्ध किया जाता है। ध्यातव्य है कि हिटलर के शासनकाल के दौरान जर्मनी द्वारा सर्वप्रथम एंटी-शिप मिसाइलें विकसित की गई थीं। पाकिस्तानी नौसेना के अधिकारियों के अनुसार, इस मिसाइल से पाकिस्तान की नौसेना की क्षमता में काफी बढ़ोतरी होगी। भारत के पास भी कई महत्त्वपूर्ण एंटी-शिप मिसाइल मौजूद हैं, जिनमें ब्रह्मोस, निर्भय, धनुष और ब्रह्मोस II शामिल हैं। ब्राह्मोस (BRAHMOS) रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) और रूस के NPOM के मध्य एक संयुक्त उद्यम है, जिसका नाम ब्रह्मपुत्र और मोस्कवा नदियों के नाम पर रखा गया है। इसकी वास्तविक रेंज 290 किलोमीटर है, परंतु इसे लड़ाकू विमान से दागे जाने पर यह लगभग 400 किलोमीटर हो जाती है। इसे भविष्य में 600 किलोमीटर तक बढ़ाने की योजना है।
मनीषा सिंह
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारतीय मूल की मनीषा सिंह को आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (Organisation for Economic Co-operation and Development-OECD) में अमेरिका का अगला दूत नियुक्त किया है। ध्यातव्य है कि मनीषा सिंह वरिष्ठ भारतीय-अमेरिकी राजनयिक हैं। वर्तमान में वे अमेरिका के विदेश विभाग में सहायक मंत्री के तौर पर कार्यरत हैं, जहाँ वे आर्थिक एवं व्यापारिक मामले देखती हैं। मनीषा सिंह ने वाशिंगटन के अमेरिकन विश्वविद्यालय से अंतर्राष्ट्रीय विधि में स्नातक की डिग्री प्राप्त की है और वे इससे पहले सीनेट की विदेश संबंध समिति के उप मुख्य वकील के रूप में कार्य कर चुकी हैं। 14 दिसंबर 1960 को 20 देशों द्वारा मूल रूप से आर्थिक सहयोग और विकास संगठन के कन्वेंशन पर हस्ताक्षर करने के बाद से 16 अन्य देश इस संगठन की सदस्यता ग्रहण कर चुके हैं। जुलाई 2018 में लिथुआनिया की सदस्यता के साथ वर्तमान में इसके सदस्य की देशों कुल संख्या 36 है। इसका मुख्यालय पेरिस (फ्राँस) में है। दुनिया भर में लोगों के आर्थिक और सामाजिक कल्याण में सुधार लाने वाली नीतियों को वैश्विक स्तर पर बढ़ावा देना OECD का प्रमुख उद्देश्य है।
ज़रीना हाशमी
हाल ही में प्रसिद्ध भारतीय चित्रकार और शिल्पकार ज़रीना हाशमी (Zarina Hashmi) का 83 वर्ष की उम्र में निधन हो गया है। ज़रीना हाशमी का जन्म वर्ष 1937 में भारत की आज़ादी से पूर्व अलीगढ़ में हुआ था। उन्होंने वर्ष 1958 में विज्ञान में अलीगढ़ के विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की, जिसके बाद उन्होंने भारत और विदेश से प्रिंटमेकिंग (Printmaking) के क्षेत्र में शिक्षा प्राप्त की। ज़रीना हाशमी ने 1980 के दशक के दौरान ‘न्यूयॉर्क फेमिनिस्ट आर्ट इंस्टीट्यूट’ (New York Feminist Art Institute) के बोर्ड मेंबर के रूप में भी कार्य किया। भारत के विभाजन की कहानी ने अन्य चित्रकारों जैसे-गणेश हलोई, कृष्ण खन्ना और जोगेन चौधरी आदि की तरह ज़रीना हाशमी की कला को भी विशिष्ट आकार देने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
बैंकिंग उद्योग सेवा- सार्वजनिक उपयोगिता सेवा घोषित
केंद्र सरकार ने औद्योगिक विवाद अधिनियम (Industrial Disputes Act) के प्रावधानों के तहत बैंकिंग उद्योग को 21 अक्तूबर तक छह माह की अवधि के लिये सार्वजनिक उपयोगिता सेवा (Public Utility Service) घोषित किया है। केंद्र सरकार द्वारा की गई इस घोषणा का अर्थ है कि अधिनियम लागू रहने की अवधि तक बैंकिंग उद्योग के कर्मचारियों व अधिकारियों द्वारा कोई हड़ताल आयोजित नहीं की जाएगी। यह निर्णय श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय द्वारा कोरोनावायरस (COVID-19) महामारी के मद्देनज़र लिया गया है, ध्यातव्य है कि कोरोनावायरस के कारण लागू किये गए लॉकडाउन के प्रभावस्वरूप, भारत की आर्थिक गतिविधियाँ काफी अधिक प्रभावित हुई हैं। बैंकिंग उद्योग को सार्वजनिक उपयोगिता सेवा घोषित करने के का प्रमुख उद्देश्य COVID-19 महामारी के फलस्वरूप आर्थिक संकट का सामना कर रहे ग्राहकों को सुरक्षा एवं बेहतर सेवा प्रदान करना है। उल्लेखनीय है कि बैंकिंग उद्योग में एक दर्जन से अधिक कर्मचारी और अधिकारी यूनियन संघ हैं, जो समय-समय पर सदस्यों के वेतन जैसे विषयों से संबंधित मुद्दों को लेकर हड़ताल के रूप में अपना विरोध दर्ज कराते हैं, किंतु इस नियम के बाद 6 महीने की अवधि के लिये ऐसा संभव नहीं हो पाएगा।