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डेली न्यूज़

  • 22 Sep, 2020
  • 30 min read
सामाजिक न्याय

आदिम जनजातियों में संक्रमण का खतरा

प्रिलिम्स के लिये

विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह (PVTG) 

मेन्स के लिये

भारत में आदिम जनजातीय समूहों की स्थिति और उन पर महामारी का प्रभाव

चर्चा में क्यों?

ओडिशा में दो आदिम जनजातियों के छह सदस्यों के कोरोना वायरस (COVID-19) से संक्रमित होने के बाद राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (National Commission for Scheduled Tribes- NCST) ने राज्य सरकार से इस संबंध में रिपोर्ट मांगी है। 

प्रमुख बिंदु

  • राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) के अनुसार, विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह (Particularly Vulnerable Tribal Groups- PVTGs) के अंतर्गत वर्गीकृत दो आदिम जनजातियों के छह सदस्यों का इस तरह वायरस से संक्रमित होना एक ‘गंभीर चिंता का विषय’ है।
  • ध्यातव्य है कि अगस्त माह के अंतिम सप्ताह में बोंडा (Bonda) जनजाति का एक सदस्य और दीदाई (Didayi) जनजाति के पाँच सदस्य कोरोना वायरस (COVID-19) से संक्रमित पाए गए थे।

आदिम जनजातियों में संक्रमण- चिंता का विषय

  • अधिकांश आदिम जनजाति के लोग सामुदायिक जीवन जीते हैं और यदि उनमें से कोई व्यक्ति भी संक्रमित होता है तो सभी के बीच संक्रमण फैलने की संभावना काफी बढ़ जाती है, जिसके कारण जनजाति के लोगों पर विशेष ध्यान देना काफी आवश्यक हो जाता है।
  • पिछले 20-30 वर्षों में आदिम जनजातियों के लोगों के जीवन जीने का तरीका पूरी तरह से बदल गया है, अब वे भी प्रशासन द्वारा उपलब्ध कराए गए राशन पर निर्भर हैं, हालाँकि उनकी प्रतिरक्षा (Immunity) क्षमता अभी भी काफी कम है, जिसके कारण वे वायरस के प्रति काफी संवेदनशील हैं।

आदिम जनजाति की संवेदनशील स्थिति

  • ओड़िशा सरकार की गरीबी और मानव विकास निगरानी एजेंसी (PHDMA) के वर्ष 2018 के संवादपत्र (Newsletter) के अनुसार, राज्य में विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूहों  (PVTGs) की स्वास्थ्य स्थिति विभिन्न कारकों जैसे- गरीबी, निरक्षरता, सुरक्षित पेयजल की कमी, कुपोषण, मातृत्त्व एवं शिशु स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं की खराब स्थिति, अंधविश्वास और निर्वनीकरण आदि के कारण काफी निम्न है।
  • सरकारी एजेंसी द्वारा जारी किये गए संवादपत्र (Newsletter) के अनुसार, इस प्रकार के जनजाति समूहों में श्वसन समस्या, मलेरिया, जठरांत्र संबंधी विकार, सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी और त्वचा संक्रमण जैसे रोग काफी आम हैं।
  • ऐसी स्थिति में विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूहों  (PVTGs) के लोग किसी भी प्रकार के वायरस और महामारी के प्रति काफी संवेदनशील हो जाते हैं।
  • दूरदराज के आवासीय क्षेत्रों में रहने वाले अनुसूचित जनजाति के लोगों के पास आवश्यक न्यूनतम प्रशासनिक सेट-अप और बुनियादी ढाँचे की भी कमी है। 

कैसे संक्रमित हुए ओड़िशा के आदिवासी?

  • पहले आदिम जनजातियों के लोग केवल अपने समुदाय और निवास स्थान तक सीमित रहते थे, किंतु बीते कुछ वर्षों में आजीविका के अवसरों की कमी के कारण अब लोगों ने अन्य ज़िलों में पलायन करना शुरू कर दिया है। 
  • हालाँकि अभी भी ओडिशा की आदिम जनजातियों में प्रसारित संक्रमण का स्रोत ज्ञात नहीं हुआ है, किंतु अनुमान के अनुसार इस क्षेत्र में संक्रमण का स्रोत वही लोग हैं जो आजीविका की तलाश में किसी दूसरे स्थान पर गए थे।

विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह (PVTGs) 

  • PVTGs (जिन्हें पूर्व में आदिम जनजातीय समूह (PTG) के रूप में जाना जाता था) भारत सरकार द्वारा किया जाने वाला वर्गीकरण है जो विशेष रूप से निम्न विकास सूचकांकों वाले कुछ समुदायों की स्थितियों में सुधार को सक्षम करने के उद्देश्य से सृजित किया गया है।
  • ऐसे समूह की प्रमुख विशेषताओं में एक आदिम-कृषि प्रणाली का प्रचलन, शिकार और खाद्य संग्रहण का अभ्यास, शून्य या नकारात्मक जनसंख्या वृद्धि, अन्य जनजातीय समूहों की तुलना में साक्षरता का अत्यंत निम्न स्तर और लिखित भाषा की अनुपस्थिति आदि शामिल हैं।
  • इसका सृजन ढेबर आयोग की रिपोर्ट (1960) के आधार पर किया गया था, जिसमें कहा गया था कि अनुसूचित जनजातियों के भीतर भी विकास दर में काफी असमानता है।
  • चौथी पंचवर्षीय योजना के दौरान विकास के निचले स्तर पर मौजूद समूहों की पहचान करने के लिये अनुसूचित जनजातियों के भीतर एक उप-श्रेणी बनाई गई थी। इस उप-श्रेणी को आदिम जनजाति समूह (PTG) कहा जाता था, जिसका नाम बदलकर बाद में विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह (PVTGs) कर दिया गया।
  • ओडिशा में 62 आदिवासी समूहों में से 13 को PVTGs के रूप में मान्यता प्रदान की गई है, जो कि देश में सबसे अधिक है। वर्तमान में ओडिशा में PVTGs से संबंधित 2.5 लाख की आबादी है, जो कि 11 ज़िलों के लगभग 1,429 गांवों में रहते हैं।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय अर्थव्यवस्था

अंतर्राष्ट्रीय खुदरा व्यापार विकास पर IFSCA समिति की अंतरिम रिपोर्ट

प्रिलिम्स के लिये

गुजरात इंटरनेशनल फाइनेंस टेक-सिटी कंपनी लिमिटेड, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र प्राधिकरण

मेन्स के लिये 

IFSC की भारत के लिये महत्ता 

चर्चा में क्यों? 

अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र (International Financial Services Centre-IFSC) में ‘अंतर्राष्ट्रीय खुदरा व्यापार विकास’ पर अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र प्राधिकरण (IFSCA) की विशेषज्ञ समिति ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट IFSCA के अध्यक्ष को सौंप दी है। अंतरिम रिपोर्ट में IFSC में    अंतर्राष्ट्रीय खुदरा व्यवसायों के तीव्र और कुशल विकास के उद्देश्य से कई सुझावों को सम्मिलित किया गया  है। यह प्रमुख रूप से बैंकिंग क्षेत्र पर केंद्रित है। बीमा, परिसंपत्ति प्रबंधन और पूंजी बाज़ार आदि अन्य प्रमुख व्यावसायिक क्षेत्र हैं, जिन्हें समिति की रिपोर्ट में कवर किया जाएगा ।

प्रमुख बिंदु

  • IFSCA द्वारा IFSC में अंतर्राष्ट्रीय खुदरा व्यापार को विकसित करने, IFSC को अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवाओं के लिये आकर्षक बनाने हेतु संभावित रणनीतियों का निर्माण करने,  IFSC में अंतर्राष्ट्रीय खुदरा व्यापार के विकास के लिये एक रोडमैप प्रदान करने और IFSC के विकास में महत्वपूर्ण अन्य मुद्दों का परीक्षण और अनुशंसा करने के उद्देश्य से विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया था। 
  • समिति के सुझावों के अनुसार IFSC को निम्न लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये-
    1. भारत में अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों और व्यापार के विकास के लिये स्वयं को एक प्रवेश द्वार के रूप में स्थापित करना।  
    2. भारतीय डायस्पोरा और एशिया तथा अफ्रीका के व्यक्तियों को IFSC से वित्तीय सेवाओं की एक व्यापक श्रेणी प्रदान करना।
    3. उदारीकृत प्रेषण योजना को उपलब्ध कराते हुए घरेलू निवासियों की सेवा करना।

अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र (IFSC)

  • IFSC घरेलू अर्थव्यवस्था के क्षेत्राधिकार से बाहर के ग्राहकों की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। यह देश की सीमाओं के पार वित्त, वित्तीय उत्पादों और सेवाओं के प्रवाह संबंधी मामले देखता है।
  • गुजरात इंटरनेशनल फाइनेंस टेक-सिटी कंपनी लिमिटेड (Gujarat International Finance Tech (GIFT)-City Company Limited) को देश के पहले अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र के रूप में विकसित किया गया है।
  • लंदन, न्यूयॉर्क और सिंगापुर की गिनती विश्व के प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय केंद्रों में की जाती है। विश्व भर में कई उभरते IFSCs, जैसे- शंघाई और दुबई, आने वाले वर्षों में एक वैश्विक भूमिका निभाने की ओर अग्रसर हैं। 
  •  वर्ष 2007 में विश्व बैंक के पूर्व अर्थशास्त्री पर्सी मिस्त्री (Percy Mistry) की अध्यक्षता में विशेषज्ञ पैनल ने मुंबई को एक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय केंद्र बनाने के बारे में एक रिपोर्ट प्रस्तुत की। वर्ष 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट ने भारत सहित विश्व के अन्य देशों को अपने वित्तीय क्षेत्रों को तेज़ी से खोलने के बारे में सतर्क किया था।

रिपोर्ट के अनुसार भारत के लिये महत्ता 

  • IFSC अपने ‘FinServe from IFSC’ के दृष्टिकोण के साथ भारत सरकार के 'मेक इन इंडिया' कार्यकम को पूरा करने में सहायता करेगा। 
  • IFSC में अंतर्राष्ट्रीय खुदरा व्यापार विकास को बढ़ावा देने के संदर्भ में काफी क्षमताएँ विद्यमान हैं और यदि कुशलतापूर्वक कार्य किया जाए तो यह प्रमुख रूप से तीन उद्देश्यों को पूरा करेगा -
    • रोज़गार सृजन में वृद्धि करना।  
    •  भारत के लिये अतिरिक्त राजस्व का सृजन करना। 
    • भारत में आधारभूत ढाँचे के निर्माण के लिये वित्त (विशेष रूप से भारतीय प्रवासियों से) को आकर्षित करना। 
  • विशेषज्ञ समिति के अध्यक्ष प्रदीप शाह के अनुसार, IFSC को अपने वर्ग क्षेत्राधिकार में प्रतिष्ठा, विनियामक वातावरण, कराधान और परिचालन में आसानी आदि कारकों के माध्यम से स्वयं को प्रतिस्पर्द्धात्मक बनाने का लक्ष्य रखना चाहिये।
  • भारत सरकार ने IFSC में वित्तीय सेवा बाज़ार के विकास और विनियमन के लिये इस वर्ष की शुरुआत में श्री आई. श्रीनिवास की अध्यक्षता में अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र प्राधिकरण (IFSCA) का गठन किया था। 
  • IFSCA प्राधिकरण गिफ्ट सिटी (GIFT City) स्थित IFSC को भारत के अपतटीय व्यवसाय को चैनलाइज़ करने और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय सेवाओं के लिये इसे प्रवेश द्वार बनाने के अलावा लंदन, हांगकांग, सिंगापुर की तर्ज पर अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवाओं के लिये एक वैश्विक केंद्र बनाने का उद्देश्य रखता है। 

आगे की राह

  • भारत में IFSC को अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवाओं के लिये एक पसंदीदा वैश्विक केंद्र के रूप में विकसित करने के लिये इसी वर्ष अप्रैल में स्थापित IFSCA कुशल नियामक प्रणाली प्रदान करने के लिये  काम कर रहा है।
  • समिति की अनुशंषाओं के आधार पर IFSC में अंतर्राष्ट्रीय खुदरा बाज़ार विकास और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवाओं और निवेशकों के लिये IFSC को आकर्षक बनाने का प्रयास किया जाना चाहिये।

स्रोत: पीआईबी 


भारतीय अर्थव्यवस्था

रबी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी

प्रिलिम्स के लिये

न्यूनतम समर्थन मूल्य, कृषि लागत एवं मूल्य आयोग, स्वामीनाथन आयोग

मेंस के लिये

न्यूनतम समर्थन मूल्य का महत्त्व और इसका निर्धारण

चर्चा में क्यों?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने वित्तीय वर्ष 2020-21 में बेची जाने वाली छह रबी फसलों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य (Minimum Support Prices-MSP) में बढ़ोतरी की घोषणा की है।

प्रमुख बिंदु

  • केंद्र सरकार के अनुसार, न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में यह वृद्धि स्वामीनाथन आयोग की अनुशंसाओं के अनुरुप हैं।
  • गेहूँ: वर्ष 2020-21 के लिये गेहूँ के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को 1,975 रूपए प्रति क्विंटल तय किया गया है, जो कि वर्ष 2019-20 में 1,925 रूपए प्रति क्विंटल से 2.6 प्रतिशत अधिक है।
    • ध्यातव्य है कि गेहूँ के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में सरकार द्वारा की गई वृद्धि बीते 11 वर्ष में सबसे कम है।
  • मसूर: सरकार ने सबसे अधिक बढ़ोतरी मसूर (Lentil) के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में की है, इसका न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) 5100 रूपए प्रति क्विंटल निर्धारित किया गया है, जो कि वर्ष 2019-20 की अपेक्षा 6.25 प्रतिशत अथवा 300 रूपए अधिक है।
    • बीते वर्ष मसूर के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में 325 रूपए प्रति क्विंटल या 7.26 प्रतिशत की बढ़ोतरी की गई थी।
  • चना: चने के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में बीते वर्ष की तुलना में  225 रूपए अथवा 4.62 प्रतिशत की बढ़ोतरी की गई है, और इसका मूल्य 5,100 रूपए प्रति क्विंटल पर पहुँच गया है। 
    • वर्ष 2019-20 में चने के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में 255 रुपए प्रति क्विंटल या 5.52 फीसद की वृद्धि की गई थी। 
  • सरसों: इस वर्ष सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) 4,650 रूपए प्रति क्विंटल निर्धारित किया गया है, जो कि वर्ष 2019-20 की तुलना में 225 रूपए या 5.08 प्रतिशत अधिक है।
    • प्रतिशत के लिहाज़ से सरसों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में वृद्धि बीते वर्ष की तुलना में 5.36 प्रतिशत अधिक है।
  • कुसुम: कुसुम का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) 112 रूपए अथवा 2.15 प्रतिशत बढ़ाकर 5,327 रूपए प्रति क्विंटल कर दिया गया है, जबकि पिछले वर्ष इसमें 270 रूपए अथवा 5.46 प्रतिशत की वृद्धि की गई थी।
  • जौ: वर्ष 2020-21 के लिये जौ के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 75 रूपए (4.92 प्रतिशत) वृद्धि कर इसे 1,600 रूपए निर्धारित किया गया है, जो कि बीते वर्ष 1,525 रूपए प्रति क्विंटल पर था।

स्वामीनाथन आयोग

  • 18 नवंबर, 2004 को भारत सरकार ने एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय कृषक आयोग (NCF) का गठन किया था, जिसे स्वामीनाथन आयोग के नाम से भी जाना जाता है। आयोग का मुख्य उद्देश्य कृषि प्रणाली को स्थिरता प्रदान करने हेतु एक व्यवस्था का निर्माण करना और कृषि क्षेत्र को अधिक लाभदायक और लागत प्रतिस्पर्द्धी बनाना था। 
  • आयोग की सिफारिशें:
    • स्वामीनाथन आयोग अथवा राष्ट्रीय कृषक आयोग द्वारा प्रस्तुत सिफारिशों के अंतर्गत इस बात पर विशेष ज़ोर दिया गया था कि छोटे किसान को प्राप्त होने वाले लाभ तथा उसकी उत्पादन क्षमता के आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की गणना की जानी चाहिये।
    • आयोग ने अपनी सिफारिशों में किसानों को फसल लागत मूल्य से 50 प्रतिशत अधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की बात कही थी। 
    • किसानों हेतु लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करने के लिये उन्हें अनुबंध कृषि की ओर प्रोत्साहित करने की भी सिफारिश की गई थी। 

महत्त्व

  • सरकार का यह निर्णय ऐसे समय में आया है जब सरकार द्वारा लाए गए कृषि विधेयकों को लेकर किसानों द्वारा काफी विरोध प्रदर्शन किया जा रहा है। किसानों का मत है कि सरकार द्वारा किये जा रहे नए कृषि विपणन सुधारों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) और सार्वजनिक खरीद पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। 
  • इस प्रकार सरकार अपने इस निर्णय से किसानों के मध्य यह संकेत देना चाहती है कि सरकार द्वारा लाए गए कृषि विधेयकों से न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) और सार्वजनिक खरीद पर किसी भी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ेगा। 

न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की व्यवस्था

  • न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) एक प्रकार का बाज़ार हस्तक्षेप होता है, जिसमें सरकार किसानों को एक तरह से मूल्य सुरक्षा प्रदान करने का प्रयास करती है। 
  • सरल शब्दों में कहें तो न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) वह न्यूनतम मूल्य होता है, जिस पर सरकार किसानों द्वारा बेचे जाने वाले अनाज को खरीदने की गारंटी देती है। 
  • जब बाज़ार में कृषि उत्पादों का मूल्य गिर रहा हो, तब सरकार किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषि उत्पादों को क्रय कर उनके हितों की रक्षा करती है।
    • सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा फसल बोने से पहले करती है। सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की घोषणा सर्वप्रथम 1960 के दशक में की थी।
  • इस न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा सरकार द्वारा कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (Commission for Agricultural Costs and Prices-CACP) की संस्तुति पर वर्ष में दो बार रबी और खरीफ के मौसम में की जाती है। 

कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (CACP)

  • कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (CACP) भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय का एक संलग्न कार्यालय है, जो कि जनवरी 1965 में अस्तित्त्व में आया था। 
  • इस आयोग की स्थापना कृषि उत्पादों की संतुलित एवं एकीकृत मूल्य संरचना तैयार करने के उद्देश्य से की गई थी। 
  • कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (CACP) भारत सरकार को रबी और खरीफ के मौसम में कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर सलाह देता है।

महामारी और भारतीय कृषि क्षेत्र

  • वैश्विक कोरोना वायरस (COVID-19) महामारी और उसके कारण लागू किये गए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के बावजूद सरकार द्वारा समय पर किये गए हस्‍तक्षेप के परिणामस्‍वरूप वर्ष 2020-21 के लिये लगभग 39 मिलियन टन गेहूँ की सर्वकालिक रिकार्ड खरीद हुई है।
  • स्‍वास्‍थ्‍य महामारी की वर्तमान स्‍थिति में किसानों के समक्ष मौजूद समस्‍याओं का निराकरण करने की दिशा में सरकार द्वारा समन्वित प्रयास किये जा रहे हैं। 
  • भारतीय कृषि क्षेत्र में सुधार हेतु सरकार द्वारा किये गए कुछ हालिया प्रयास
    • न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में बढ़ोतरी करने के साथ-साथ खरीद प्रक्रिया को भी दुरुस्त किया जा रहा ताकि अधिक-से-अधिक किसानों को इसका लाभ मिल सके।
    • प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना की शुरुआत से अब तक 10 करोड़ किसानों को लाभ प्राप्त हुआ है, और इस योजना के तहत अब तक कुल 93,000 करोड़ रूपए वितरित किये गए हैं।
    • पिछले 6 माह में 1.25 करोड़ नए किसान क्रेडिट कार्ड (KCC) जारी किये गए हैं।
    • महामारी के दौरान ई-नाम मार्केट्स की संख्या 585 से बढकर 1000 हो गई है। गौरतलब है कि बीते वर्ष में ई-प्लेटफॉर्म पर लगभग 35 हजार करोड़ रूपए का व्यापार हुआ था।
    • आगामी पांच वर्षों के दौरान 10,000 नए किसान-उत्पादक संगठन (FPO) के गठन के लिये 6,850 करोड़ रूपए खर्च करने की योजना बनाई गई है।
    • फल-सब्जियों, मछली-मांस और दूध जैसी जल्द खराब होने वाली वस्तुओं के परिवहन को आसान बनाने के लिये किसान रेल की शुरुआत की गई है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भूगोल

मेडिकेंस की आवृत्ति में वृद्धि

प्रिलिम्स के लिये

मेडिकेंस, भूमध्यसागरीय हरिकेन, लानोस, अल नीनो दक्षिणी दोलन

मेन्स के लिये 

वैश्विक तापन एवं मेडिकेंस की आवृत्ति में वृद्धि

चर्चा में क्यों?

हाल ही में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन के कारण भूमध्य सागर में अतिरिक्त उष्णकटिबंधीय तूफान (Extra Tropical Cyclone), जिसे 'मेडिकेंस' (Medicanes) या 'भूमध्यसागरीय हरिकेन' (Mediterranean Hurricanes) के रूप में जाना जाता है, की आवृत्ति में बढ़ोतरी हो सकती है।

Mediterranean

प्रमुख बिंदु:

मेडिकेंस (Medicanes):

  • 'मेडिकेंस' (Medicanes) उष्णकटिबंधीय चक्रवात की तरह होते हैं जो भूमध्य सागर के ऊपर बनते हैं।
    • आसपास की शुष्क जलवायु और समुद्र की अपेक्षा उथले जल के साथ उष्णकटिबंधीय चक्रवात जैसी घटनाएँ अक्सर होती रहती हैं।
  • ये आम तौर पर सर्दियों के महीनों में निर्मित होते हैं, ऐसी घटनाएँ वर्ष में एक या दो बार होती हैं।
  • 18 सितंबर, 2020 को लानोस (Lanos) नामक एक मेडिकेन ग्रीस के तट से टकराया था जिसके कारण ग्रीस एवं आसपास के द्वीपों में भारी वर्षा के साथ बाढ़ की स्थिति बन गई थी।

उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के साथ मेडिकेंस की तुलना:

  • ये उष्णकटिबंधीय चक्रवात, हरिकेन एवं टाइफून की तुलना में अपेक्षाकृत ठंडे जल में अधिक विकसित होते हैं। इसलिये उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के गर्म कोर की तुलना में इन तूफानों की कोर भी ठंडी होती है किंतु अतिरिक्त उष्णकटिबंधीय चक्रवातों (Extra Tropical Cyclones) की तुलना में गर्म होती है।
  • आमतौर पर इनका व्यास छोटा होता है और मूल उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की तुलना में इनमें हवा की गति कम होती है।
  • कभी-कभी गर्म-कोर वाले उष्णकटिबंधीय चक्रवात, ठंडे-कोर वाले अतिरिक्त उष्णकटिबंधीय चक्रवातों (Extra Tropical Cyclone) में बदल जाते हैं किंतु कभी-कभी कुछ मामलों में, यह स्थिति विपरीत भी हो सकती है।
    • अतिरिक्त उष्णकटिबंधीय चक्रवात (Extra Tropical Cyclone) के उष्णकटिबंधीय चक्रवात बनने की ऐसी घटना नवंबर, 2011 में हुई थी जिसके कारण स्पेन, इटली एवं फ्राँस के कुछ हिस्सों में भयंकर बाढ़ के कारण 11 लोगों की मृत्यु हो गई थी।

मेडिकेंस की संख्या में वृद्धि:

  • पिछली आधी शताब्दी में मेडिकेंस की संख्या में वृद्धि हुई है।
  • वर्ष 2005 एवं वर्ष 2012 में आए मेडिकेंस काला सागर के ऊपर विकसित हुए थे जो भूमध्य सागर की तुलना में बहुत छोटा जल निकाय है।
  • ग्लोबल वार्मिंग के कारण, भू-मध्य सागर में समुद्री सतह के तापमान में वृद्धि होने के कारण सामान्य तूफान, उष्णकटिबंधीय तूफान में परिवर्तित हो सकते हैं, जिनमें हवा की गति तीव्र होने से तूफानों की तीव्रता में भी वृद्धि हो सकती है जिससे भारी वर्षा की स्थिति बन जाती है।
  • विश्व मौसम विज्ञान संगठन (World Meteorological Organization) के अनुसार, यह वर्ष एक निम्न ला नीना (Mild La Niña) की स्थिति वाला वर्ष है। ला नीना की स्थिति, हरिकेन की आवृति को कम करने की कोशिश करती है। भले ही यह वर्ष निम्न ला नीना का वर्ष हो किंतु हरिकेन का मौसम बहुत सक्रिय है। इसका तात्पर्य यह है कि अल नीनो दक्षिणी दोलन (El Niño Southern Oscillation- ENSO) के प्रभाव भूमध्य सागर सहित सभी महासागरों में ग्लोबल वार्मिंग द्वारा संशोधित किये जा रहे हैं।
  • वर्ष 2019 में बदलती जलवायु में महासागर एवं क्रायोस्फीयर पर विशेष रिपोर्ट (Special Report on the Ocean and Cryosphere in a Changing Climate) जो जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (Intergovernmental Panel on Climate Change- IPCC) द्वारा जारी की जाती है, में बढ़ते तापमान एवं लगातार चरम एल नीनो एवं ला नीना घटनाओं की चेतावनी दी गई थी।

संकट:

  • मेडिकेंस की आवृत्ति में वृद्धि होने से उत्तरी अफ्रीका में रहने वाली पहले से ही कमज़ोर आबादी के लिये संकट उत्पन्न होगा जिससे उनका पलायन बढेगा।
  • मेडिकेंस इटली एवं ग्रीस जैसे यूरोपीय देशों के लिये भी एक खतरा हो सकते हैं।

स्रोत: डाउन टू अर्थ 


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