भारतीय अर्थव्यवस्था
निजी क्षेत्र के बैंकों की कॉर्पोरेट संरचना की समीक्षा
प्रिलिम्स के लिये:पी. के. मोहंती आंतरिक कार्य समूह, विभेदित बैंक, सार्वभौमिक बैंक, नॉन-ऑपरेटिव फाइनेंसियल होल्डिंग कंपनी मेन्स के लिये:निजी क्षेत्र के बैंकों की कॉर्पोरेट संरचना पर RBI की रिपोर्ट |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारतीय निजी क्षेत्र के बैंकों के स्वामित्त्व और कॉर्पोरेट ढाँचे पर मौज़ूदा दिशानिर्देशों की समीक्षा के लिये गठित 'आंतरिक कार्य समूह' (Internal Working Group- IWG) द्वारा अपनी रिपोर्ट पेश की गई।
प्रमुख बिंदु:
- भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा इस पाँच सदस्यीय आंतरिक कार्य समूह (Internal Working Group -IWG ) का गठन सेंट्रल बोर्ड के निदेशक पी. के. मोहंती की अध्यक्षता में किया गया था।
- IWG द्वारा निजी क्षेत्र के बैंकों के लिये स्वामित्त्व और नियंत्रण, प्रवर्तकों की धारिता, कंपनी के मौजूदा शेयरधारकों के स्वामित्त्व प्रतिशत में कमी, नियंत्रण और मतदान के अधिकार आदि से संबंधित मौजूदा लाइसेंसिंग और विनियामक दिशा-निर्देशों की समीक्षा की गई है।
समूह के लिये के संदर्भ की शर्तें
(Terms of Reference- ToR):
- भारतीय निजी क्षेत्र के बैंकों में स्वामित्त्व और नियंत्रण से संबंधित मौज़ूदा लाइसेंसिंग दिशा-निर्देशों और नियमों की समीक्षा करना।
- प्रवर्तकों/प्रमोटर्स की शेयरधारिता से संबंधित नियमों तथा उनकी शेयरधारिता घटाने की समय-सीमा की समीक्षा करना।
- बैंकिंग लाइसेंस के लिये आवेदन करने और इससे संबंधित मुद्दों पर पर व्यक्तियों तथा संस्थाओं को आवश्यक पात्रता मानदंडों की जाँच और समीक्षा करना।
- नॉन-ऑपरेटिव फाइनेंसियल होल्डिंग कंपनी (Non-operative Financial Holding Company- NOFHC) में शेयरधारिता से संबंधित नियमों का अध्ययन करना और सभी बैंकों के लिये एक समान विनियमन को लागू करने से संबंधित सुझाव देना।
- NOFHC, एक प्रकार की गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी (NBFC) होती है। इस प्रकार की NBFC में प्रमोटर्स को एक नया बैंक स्थापित करने की अनुमति दी जा सकती है।
- बैंकिंग क्षेत्र से जुड़े किसी भी अन्य सार्थक मुद्दे की पहचान करना और उससे संबंधित सिफारिशें करना।
समिति की प्रमुख सिफारिशें:
- वर्तमान में प्रवर्तकों/प्रमोटर्स के लिये निजी क्षेत्र के बैंकों में अधिकतम शेयरधारिता की सीमा बैकों के पेड-अप वोटिंग इक्विटी पूंजी का 15 प्रतिशत है, इसे मौजूदा स्तर से बढ़ाकर 26 प्रतिशत किया जा सकता है।
- गैर-प्रवर्तक शेयरधारकों के लिये अधिकतम शेयरधारिता की सीमा बैंक के पेड-अप वोटिंग इक्विटी पूंजी के 15 प्रतिशत की एक समान कैप निर्धारित की जा सकती है।
- बैंकों के प्रवर्तकों के रूप में बड़े कॉर्पोरेट/औद्योगिक घरानों के प्रवेश के लिये 'बैंकिंग विनियमन अधिनियम' (Banking Regulation Act)- 1949 में संशोधन किया जाना चाहिये तथा निजी बैंकों के सभी बड़े प्रमोटर्स के समेकित पर्यवेक्षण के लिये मौजूदा तंत्र को मज़बूत किया जाना चाहिये।
- अच्छा ट्रैक रिकॉर्ड रखने वाली बड़ी NBFCs जिनकी संपत्ति का आकार 50,000 करोड़ रुपए या इससे अधिक है, उन्हें परिचालन के 10 वर्ष पूरे करने तथा इस संबंध में निर्दिष्ट अतिरिक्त शर्तों का अनुपालन करने पर बैंकों में रूपांतरण के लिये योग्य माना जा सकता है।
- भुगतान बैंकों (Payments Banks) को ‘लघु वित्त बैंक’ (Small Finance Bank) में बदलने के लिये आवश्यक मानदंडों के रूप में 3 वर्ष का अनुभव पर्याप्त है।
- लघु वित्त बैंक और भुगतान बैंक की पूंजी का आकार 6 वर्ष के भीतर 'सार्वभौमिक बैंकों' की शुरुआत के लिये आवश्यक न्यूनतम प्रचलित एंट्री कैपिटल के समतुल्य नेटवर्थ तक पहुँच जाए या परिचालन को 10 वर्ष पूरे हो जाए (जो भी पहले हो), तो उसे सार्वभौमिक बैंक के रूप में मान्यता दी जा सकती है।
- गौरतलब है कि भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा दो प्रकार के लाइसेंस जारी किये जाते हैं: ‘सार्वभौमिक बैंक लाइसेंस’ (universal Bank Licence) और ‘विभेदित बैंक लाइसेंस’ (Differentiated Bank Licence)। भुगतान बैंक और लघु वित्त बैंक एक विशेष प्रकार के बैंक हैं, जिन्हें कुछ सीमित बैंकिंग क्रियाकलापों की अनुमति है।
- नए बैंकों को लाइसेंस देने के लिये आवश्यक न्यूनतम प्रारंभिक पूंजी की आवश्यकता को सार्वभौमिक बैंकों के लिये 500 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 1000 करोड़ रुपए और छोटे वित्त बैंकों के लिये 200 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 300 करोड़ रुपए तक किया जाना चाहिये।
- NOFHC को सार्वभौमिक बैंकिंग के लिये लाइसेंस जारी करने में वरीयता दी जा सकती है। वर्तमान में NOFHC संरचना के अंतर्गत आने वाले ऐसे बैंक, जिनके पास अन्य समूह इकाइयाँ नहीं हैं, उन्हें सार्वभौमिक बैंकिंग प्रणाली से बाहर निकलने की सुविधा देनी चाहिये।
निष्कर्ष:
- भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा गठित इस कार्य समूह की सिफारिशों को लागू करने से विभिन्न समयावधि में स्थापित बैंकों के लिये बनाए गए नियमों को तर्कसंगत एवं उचित रूप से लागू किया जा सकेगा जिससे बैंकिंग लाइसेंस प्रणाली में पारदर्शिता को बढ़ावा मिलेगा।
स्रोत:इंडियन एक्सप्रेस
सामाजिक न्याय
कोरोना वायरस महामारी और बच्चों पर प्रभाव
प्रिलिम्स के लियेयूनिसेफ, कुपोषण, बहुआयामी गरीबी मेन्स के लियेबच्चों पर कोरोना वायरस महामारी का प्रभाव |
चर्चा में क्यों?
‘विश्व बाल दिवस’ के अवसर पर यूनिसेफ (UNICEF) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, कोरोना वायरस के 9 में 1 मामला 20 वर्ष से कम आयु के बच्चों और किशोरों से संबंधित है।
प्रमुख बिंदु
- रिपोर्ट में कहा गया है कि 3 नवंबर, 2020 तक 87 देशों में आए 25.7 मिलियन संक्रमण के मामलों में से 11% मामले बच्चों और किशोरों से संबंधित हैं।
- रिपोर्ट संबंधी प्रमुख निष्कर्ष
- कोरोना वायरस महामारी के कारण बच्चों से संबंधित स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाओं में आए व्यवधान के कारण बच्चों पर एक गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है।
- रिपोर्ट में प्रस्तुत आँकड़ों के अनुसार, कोरोना वायरस संक्रमण के कारण विश्व के लगभग एक-तिहाई देशों में नियमित टीकाकरण जैसी स्वास्थ्य सेवाओं के कवरेज़ में तकरीबन 10 प्रतिशत की गिरावट देखने को मिली है।
- विश्व के 135 देशों में महिलाओं और बच्चों के लिये पोषण सेवाओं के कवरेज़ में 40 प्रतिशत की गिरावट है, जिसका दीर्घकाल में खतरनाक परिणाम हो सकता है।
- रिपोर्ट में कहा गया है कि महामारी के कारण वर्ष 2020 में 5 वर्ष से कम आयु के 6 से 7 मिलियन से अधिक बच्चे वेस्टिंग (Wasting) और कुपोषण से पीड़ित हो सकते हैं, इसका सबसे अधिक प्रभाव सब-सहारा अफ्रीका और दक्षिण एशिया में देखने को मिल सकता है।
महामारी का सामाजिक व आर्थिक प्रभाव
- शिक्षा के क्षेत्र में
- अप्रैल माह के अंत में जब विश्व के अधिकांश देशों में लॉकडाउन लागू किया गया तो विद्यालयों को पूरी तरह से बंद कर दिया गया था, जिसके कारण विश्व के लगभग 90 प्रतिशत छात्रों की शिक्षा बाधित हुई थी और विश्व के लगभग 1.5 बिलियन से अधिक स्कूली छात्र प्रभावित हुए थे।
- कोरोना वायरस के कारण शिक्षा में आई इस बाधा का सबसे अधिक प्रभाव गरीब छात्रों पर देखने को मिला है और अधिकांश छात्र ऑनलाइन शिक्षा के माध्यमों का उपयोग नहीं कर सकते हैं, इसके कारण कई छात्रों विशेषतः छात्राओं के वापस स्कूल न जाने की संभावना बढ़ गई है।
- नवंबर 2020 तक 30 देशों के 572 मिलियन छात्र इस महामारी के कारण प्रभावित हुए हैं, जो कि दुनिया भर में नामांकित छात्रों का 33% है।
- लैंगिक हिंसा में वृद्धि
- लॉकडाउन और स्कूल बंद होने से बच्चों के विरुद्ध लैंगिक हिंसा की स्थिति भी काफी खराब हुई है। कई देशों ने घरेलू हिंसा और लैंगिक हिंसा के मामलों में वृद्धि दर्ज की गई है।
- जहाँ एक ओर बच्चों के विरुद्ध अपराध के मामलों में वृद्धि हो रही है, वहीं दूसरी ओर अधिकांश देशों में बच्चों एवं महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा की रोकथाम से संबंधित सेवाएँ भी बाधित हुई हैं।
- आर्थिक प्रभाव
- वैश्विक स्तर महामारी के कारण वर्ष 2020 में बहुआयामी गरीबी में रहने वाले बच्चों की संख्या में 15% तक बढ़ोतरी हुई है और इसमें अतिरिक्त 150 मिलियन बच्चे शामिल हो गए हैं।
- बहुआयामी गरीबी के निर्धारण में लोगों द्वारा दैनिक जीवन में अनुभव किये जाने वाले सभी अभावों/कमी जैसे- खराब स्वास्थ्य, शिक्षा की कमी, निम्न जीवन स्तर, कार्य की खराब गुणवत्ता, हिंसा का खतरा आदि को समाहित किया जाता है।
उपाय:
- सभी देशों की सरकारों को डिजिटल डिवाइड को कम करके यह सुनिश्चित करने का प्रयास करना चाहिये कि सभी बच्चों को सीखने के समान अवसर प्राप्त हों और किसी भी छात्र के सीखने की क्षमता प्रभावित न हो।
- सभी की पोषण और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच सुनिश्चित की जानी चाहिये और जिन देशों में टीकाकरण अभियान प्रभावित हुए हैं उन्हें फिर से शुरू किया जाना चाहिये।
- बच्चों और युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिये और बच्चों के साथ दुर्व्यवहार और लैंगिक हिंसा जैसे मुद्दों को संबोधित किया जाना चाहिये।
- सुरक्षित पेयजल और स्वच्छता आदि तक बच्चों की पहुँच को बढ़ाने का प्रयास किया जाए और पर्यावरणीय अवमूल्यन तथा जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों को संबोधित किया जाए।
- बाल गरीबी की दर में कमी करने का प्रयास किया जाए और बच्चों की स्थिति में समावेशी सुधार सुनिश्चित किया जाए।
विश्व बाल दिवस
- बाल अधिकारों के प्रति जागरूकता और सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिये प्रत्येक वर्ष 20 नवंबर को विश्व बाल दिवस (World Children’s Day) मनाया जाता है।
- इसे सबसे पहले वर्ष 1954 में मनाया गया था।
स्रोत: द हिंदू
आंतरिक सुरक्षा
भारत में कट्टरता
प्रिलिम्स के लियेगैरकानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, 1967 मेन्स के लियेकट्टरता का अर्थ उसके प्रकार, इसे समाप्त करने के उपाय |
चर्चा में क्यों?
गृह मंत्रालय ने हाल ही में ‘भारत में कट्टरता की स्थिति’ पर अपनी तरह के पहले शोध अध्ययन को मंज़ूरी दे दी है, जिसके माध्यम से कानूनी रूप से ‘कट्टरता’ को परिभाषित करने का प्रयास किया जाएगा और उसी आधार पर गैरकानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, 1967 में संशोधन किया जाएगा।
प्रमुख बिंदु
- यह अध्ययन पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष होगा और इसमें किसी भी प्रकार के निष्कर्ष तक पहुँचने के लिये तथ्यों और रिपोर्ट को आधार के रूप में प्रयोग किया जाएगा।
- आवश्यकता
- भारत में अभी भी ‘कट्टरता’ को कानूनी रूप से परिभाषित किया जाना शेष है, जिसके कारण प्रायः पुलिस और प्रशासन द्वारा इस स्थिति का दुरुपयोग किया जाता है।
- इसलिये भारतीय कानूनों में ‘कट्टरता’ को परिभाषित किया जाना और उस परिभाषा के आधार पर गैरकानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) जैसे कानूनों में संशोधन किया जाना आवश्यक है।
- ‘कट्टरता’ के किसी भी रूप से प्रभावित लोगों खासतौर पर युवाओं को कठिन-से-कठिन सज़ा देकर ही इस समस्या को हल नहीं किया जा सकता है, इस समस्या को हल करने के लिये समाज में सकारात्मक माहौल तैयार करने तथा लोगों को लामबंद करने की आवश्यकता है। इस कार्य के लिये सर्वप्रथम ‘कट्टरता’ को परिभाषित करना होगा।
क्या होती है ‘कट्टरता’?
- दुनिया भर के चिंतकों के लिये कट्टरता सदैव एक महत्त्वपूर्ण विषय रहा है, और इस पर काफी विमर्श किया गया है, हालाँकि वैश्विक स्तर पर ‘कट्टरता’ की कोई सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत परिभाषा मौजूद नहीं है, जिसके कारण प्रत्येक व्यक्ति द्वारा इसे अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग ढंग से परिभाषित किया जाता है।
- संक्षेप में हम कट्टरता को ‘समाज में अतिवादी ढंग से कट्टरपंथी परिवर्तन लाने के विचार को आगे बढ़ाने और/अथवा उसका समर्थन करने के रूप में परिभाषित कर सकते हैं, जिसके लिये आवश्यकता पड़ने पर अलोकतांत्रिक माध्यमों का प्रयोग किया जाता है और जो किसी देश की लोकतांत्रिक कानून व्यवस्था के लिये खतरा पैदा कर सकता है।
- भारतीय संदर्भ में ‘कट्टरता’ के प्रकार
- राइट विंग अतिवाद: यह ‘कट्टरता’ का वह रूप है, जिसे प्रायः हिंसक माध्यमों से नस्लीय, जातीय या छद्म राष्ट्रीय पहचान की रक्षा करने की विशेषता के रूप में परिभाषित किया जाता है और यह राज्य के अल्पसंख्यकों, प्रवासियों और वामपंथी राजनीतिक समूहों के प्रति कट्टर शत्रुता से भी जुड़ा है।
- राजनीतिक-धार्मिक अतिवाद: ‘कट्टरता’ का यह स्वरूप धर्म की राजनीतिक व्याख्या और हिंसक माध्यमों से धार्मिक पहचान से जुड़ा हुआ है, क्योंकि इससे प्रभावित लोग यह मानते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष, विदेश नीति और सामाजिक बहस आदि के कारण उनकी धार्मिक पहचान खतरे में है।
- लेफ्ट विंग अतिवाद: ‘कट्टरता’ का यह स्वरूप मुख्य रूप से पूंजीवादी विरोधी मांगों पर ध्यान केंद्रित करता है और सामाजिक विषमताओं के लिये उत्तरदायी राजनीतिक प्रणाली में परिवर्तन की बात करता है, और यह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिये हिंसक साधनों का भी समर्थन करता है। इसमें अराजकतावादी, माओवादी और मार्क्सवादी-लेनिनवादी समूह शामिल हैं जो अपने उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिये हिंसा का उपयोग करते हैं।
भारत में कट्टरता
- संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी एक हालिया रिपोर्ट में केरल और कर्नाटक में इस्लामिक स्टेट (IS) और अलकायदा जैसे आतंकी संगठनों के सदस्यों की उपस्थिति को लेकर चिंता ज़ाहिर की गई थी।
- रिपोर्ट में कहा गया था कि इस्लामिक स्टेट (IS) के भारतीय सहयोगी (हिंद विलायाह) में 180 से 200 के बीच सदस्य हैं। हालाँकि सितंबर माह में गृह राज्य मंत्री जी. किशन रेड्डी ने संसद को सूचित किया था कि संयुक्त राष्ट्र जारी आँकड़े तथ्यात्मक रूप से सही नहीं है।
- जी. किशन रेड्डी ने लोकसभा को सूचित किया था कि राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (NIA) ने तेलंगाना, केरल, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में इस्लामिक स्टेट (IS) की उपस्थिति से संबंधित 17 मामले दर्ज किये गए हैं और इन मामलों से संबंधित 122 आरोपी व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया है।
- साथ ही सरकार के निरंतर हस्तक्षेप के बावजूद भारत के कई राज्यों में लेफ्ट विंग अतिवाद की समस्या को अब तक समाप्त नहीं किया जा सका है। वामपंथी अतिवाद से प्रभावित ज़िलों में लगातार पुलिस प्रशासन द्वारा गिरफ्तारियाँ की जा रही है, इसके बावजूद भारत में नक्सलवाद की समस्या प्रशासन के लिये बड़ी चुनौती बनी हुई है।
- वहीं दूसरी ओर लगातार बढ़ती मॉब लिंचिंग की घटनाएँ, लोगों के मन में धर्म विशेष के प्रति पैदा होती घृणा और नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और गौरी लंकेश जैसे मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं की हत्या के मामले राइट विंग अतिवाद की ओर इशारा करते हैं।
कट्टरता से निपटने के उपाय
- भारत में ‘कट्टरता’ के अलग-अलग स्वरूपों की मौजूदगी सदैव ही एक ऐसा विषय रहा है, जिस पर नीति निर्माताओं ने अधिक ध्यान नहीं दिया और न ही इस विषय पर सही ढंग से कोई अध्ययन किया गया है।
- कट्टरता और उससे निपटने को लेकर किसी भी प्रकार की आधिकारिक नीति की अनुपस्थिति में यह समस्या और भी गंभीर हो गई है।
- यद्यपि भारत के कई राज्यों द्वारा अलग-अलग पहलों के माध्यम से कट्टरपंथ की समस्या से निपटने का प्रयास किया गया है, किंतु ये पहलें सफल होती नहीं दिख रही हैं।
- ऐसे में इन चुनौतियों से निपटने के लिये भारत को एक व्यापक नीति की आवश्यकता है, जिससे न केवल उन लोगों को बचाया जा सके जो कट्टरता के किसी रूप से प्रभावित हैं, बल्कि अन्य लोगों को भी इस रास्ते पर जाने से रोका जा सके।
- इस नीति के तहत व्यक्ति, परिवार, धर्म और मनोविज्ञान जैसे पहलुओं पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये और इसके माध्यम से कट्टरता से प्रभावित किसी व्यक्ति के विश्वास में स्थायी परिवर्तन लाने का प्रयास होना चाहिये।
आगे की राह
- गृह मंत्रालय द्वारा शुरू किया गया अध्ययन, भारत में कट्टरता को समाप्त करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है, जिसके माध्यम से भविष्य में ‘कट्टरता’ को रोकने के लिये बनाने वाली सभी नीतियों को एक तथ्यात्मक आधार मिल सकेगा और साथ ही भारत में कट्टरता को कानूनी रूप से परिभाषित भी किया जा सकेगा।