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ध्यान दें:

डेली न्यूज़

  • 20 Jul, 2021
  • 45 min read
भारतीय इतिहास

टीपू सुल्तान

प्रिलिम्स के लिये

टीपू सुल्तान, सहायक संधि

मेन्स के लिये

टीपू सुल्तान द्वारा किये गए प्रमुख सुधार और इतिहास में उनकी भूमिका

चर्चा में क्यों?

हाल ही में मुंबई में एक उद्यान का नामकरण टीपू सुल्तान के नाम से किये जाने के कारण विवाद उत्पन्न हो गया।

प्रमुख बिंदु

संक्षिप्त परिचय

Tipu-Sultan

  • नवंबर 1750 में जन्मे टीपू सुल्तान हैदर अली के पुत्र और एक महान योद्धा थे, जिन्हें ‘मैसूर के बाघ’ के रूप में भी जाना जाता है।
  • वह अरबी, फारसी, कन्नड़ और उर्दू में पारंगत एक सुशिक्षित व्यक्ति थे।
  • हैदर अली (शासनकाल- 1761 से 1782 तक) और उनके पुत्र टीपू सुल्तान (शासनकाल- 1782 से 1799 तक) जैसे शक्तिशाली शासकों के नेतृत्व में मैसूर की शक्ति में काफी बढ़ोतरी हुई।
    • टीपू सुल्तान ने अपने शासनकाल के दौरान कई प्रशासनिक नवाचारों की शुरुआत की, जिसमें उनके द्वारा शुरू किये गए सिक्के, एक नया मौलूदी चंद्र-सौर कैलेंडर और एक नई भूमि राजस्व प्रणाली शामिल थी, जिसने मैसूर रेशम उद्योग के विकास की शुरुआत की।
  • पारंपरिक भारतीय हथियारों के साथ-साथ उन्होंने तोपखाने और रॉकेट जैसे पश्चिमी सैन्य तरीकों को अपनाया ताकि उनकी सेनाएँ प्रतिद्वंद्वियों को मात दे सकें और उनके विरुद्ध भेजी गई ब्रिटिश सेनाओं का मुकाबला कर सकें।

सशस्त्र बलों का रखरखाव:

  • टीपू सुल्तान ने अपनी सेना को यूरोपीय मॉडल के आधार पर संगठित किया।
    • यद्यपि उन्होंने अपने सैनिकों को प्रशिक्षित करने के लिये फ्राँसीसी अधिकारियों की मदद ली, किंतु उन्होंने फ्राँसीसी अधिकारियों को कभी भी एक दबाव समूह के रूप में विकसित होने की अनुमति नहीं दी।
  • वह नौसैनिक बल के महत्त्व से अच्छी तरह वाकिफ थे।
    • वर्ष 1796 में उन्होंने ‘नौवाहन विभाग बोर्ड’ की स्थापना की और 22 युद्धपोतों तथा 20 फ्रिगेट के बेड़े के निर्माण की योजना बनाई।
    • उन्होंने मैंगलोर, वाजेदाबाद और मोलिदाबाद में तीन डॉकयार्ड स्थापित किये। हालाँकि उनकी योजनाएँ साकार नहीं हो सकीं।

मराठों के खिलाफ युद्ध:

  • वर्ष 1767 में टीपू ने पश्चिमी भारत के कर्नाटक क्षेत्र में मराठों के खिलाफ घुड़सवार सेना की कमान संभाली और वर्ष 1775-79 के बीच कई मौकों पर मराठों के खिलाफ युद्ध किया।

आंग्ल-मैसूर युद्धों में भूमिका:

  • अंग्रेज़ों ने हैदर और टीपू को एक ऐसे महत्त्वाकांक्षी, अभिमानी और खतरनाक शासकों के रूप में देखा जिन्हें नियंत्रित करना अंग्रेज़ों के लिये आवश्यक हो गया था।
  • चार आंग्ल-मैसूर युद्ध हुए जिनके आधार पर निम्नलिखित संधियाँ की गईं।
    • 1767-69: मद्रास की संधि।
    • 1780-84: मैंगलोर की संधि।
    • 1790-92: श्रीरंगपटनम की संधि।
    • 1799: सहायक संधि।
  • कंपनी ने अंततः श्रीरंगपटनम के युद्ध में जीत हासिल की और टीपू सुल्तान अपनी राजधानी श्रीरंगपटनम की रक्षा करते हुए मारा गया।
  • मैसूर को वाडियार वंश के पूर्व शासक वंश के अधीन रखा गया था और राज्य के साथ एक सहायक गठबंधन किया गया।

अन्य संबंधित बिंदु:

  • वह विज्ञान और प्रौद्योगिकी के संरक्षक भी थे तथा उन्हें भारत में 'रॉकेट प्रौद्योगिकी के अग्रणी' के रूप में श्रेय दिया जाता है।
    • उन्होंने रॉकेट के संचालन की व्याख्या करते हुए एक सैन्य मैनुअल (फतुल मुजाहिदीन) लिखा।
  • टीपू लोकतंत्र के एक महान प्रेमी और महान राजनयिक थे जिन्होंने वर्ष 1797 में जैकोबिन क्लब की स्थापना में श्रीरंगपटनम में फ्राँसीसी सैनिकों को समर्थन दिया था।
    • टीपू स्वयं जैकोबिन क्लब के सदस्य बने और स्वयं को सिटीज़न टीपू कहलाने की अनुमति दी।
    • उन्होंने श्रीरंगपटनम में ट्री ऑफ लिबर्टी का रोपण किया।

सहायक संधि

  • लॉर्ड वेलेजली ने वर्ष 1798 में भारत में सहायक संधि प्रणाली की शुरुआत की, जिसके तहत सहयोगी भारतीय राज्य के शासकों को अपने शत्रुओं के विरुद्ध अंग्रेज़ों से सुरक्षा प्राप्त करने के बदले ब्रिटिश सेना के रखरखाव के लिये आर्थिक भुगतान करने को बाध्य किया गया था।
  • सहायक संधि करने वाले देशी राजा अथवा शासक किसी अन्य राज्य के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करने या अंग्रेज़ों की सहमति के बिना समझौते करने के लिये स्वतंत्र नहीं थे।
  • यह संधि राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति थी, लेकिन इसका पालन अंग्रेज़ों ने कभी नहीं किया।
  • मनमाने ढंग से निर्धारित एवं भारी-भरकम आर्थिक भुगतान ने राज्यों की अर्थव्यवस्था को नष्ट कर दिया एवं राज्यों के लोगों को गरीब बना दिया।
  • वहीं ब्रिटिश अब भारतीय राज्यों के व्यय पर एक बड़ी सेना रख सकते थे।
    • वे संरक्षित सहयोगी की रक्षा एवं विदेशी संबंधों को नियंत्रित करते थे तथा उनकी भूमि पर शक्तिशाली सैन्य बल की तैनाती करते थे।
  • सहायक संधि पर हस्ताक्षर करने वाला पहला भारतीय शासक हैदराबाद का निजाम था।
  • इस संधि पर वर्ष 1801 में अवध के नवाब को हस्ताक्षर करने के लिये मजबूर किया गया।
  • पेशवा बाजीराव द्वितीय ने वर्ष 1802 में बेसिन में सहायक संधि पर हस्ताक्षर किये।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भूगोल

आल्प्स के बदलते भू-दृश्य

प्रिलिम्स के लिये:

डेन्यूब नदी, बाल्कन क्षेत्र

मेन्स के लिये:

वैश्विक जलवायु परिवर्तन का पृथ्वी की भौगोलिक संरचनाओं पर प्रभाव 

चर्चा में क्यों?   

हाल ही में स्विट्ज़रलैंड के ज़्यूरिख में स्थित ईटीएच तकनीकी विश्वविद्यालय (ETH Technical University) द्वारा किये गए एक अध्ययन में इस बात की पुष्टि की गई है कि जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के कारण आल्प्स (Alps) पर्वत के भू-दृश्यों/लैंडस्केप (Landscape) में नाटकीय रूप से परिवर्तन हुआ है।

प्रमुख बिंदु: 

महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष:

  •  ग्लेशियरों (Glaciers) के पिघलने से पहाड़ों में 1,000 से अधिक नई झीलें निर्मित हुई हैं। 
    • स्विस ग्लेशियल झीलों की सूची से पता चला है कि आल्प्स के पूर्व हिमाच्छादित क्षेत्रों में वर्ष 1850 के आसपास लिटिल आइस ऐज ( Little Ice Age) की समाप्ति के बाद लगभग 1,200 नई झीलें निर्मित हुई हैं जिनमें से लगभग 1,000 आज भी मौज़ूद हैं।
  • स्विस आल्प्स क्षेत्र में पाए जाने वाले ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं, मात्र पिछले साल उनकी मात्रा में  2% की कमी आई है।
  • भले ही वर्ष 2015 के पेरिस समझौते (Paris Agreement) को पूरी तरह से लागू कर दें, बावजूद इसके  दो-तिहाई अल्पाइन ग्लेशियरों के नष्ट होने की संभावना बनी हुई है।
    • पेरिस समझौता जलवायु परिवर्तन पर कानूनी रूप से बाध्यकारी एक अंतर्राष्ट्रीय संधि है। इसे दिसंबर 2015 में पेरिस में सीओपी-21 में 196 पार्टियों (देशों) द्वारा अपनाया गया था।

आल्प्स पर्वत:

Alps

  • आल्प्स पर्वत अल्पाइन ऑरोजेनी (पर्वत-निर्माण घटना) के दौरान उभरा, यह घटना लगभग 65 मिलियन वर्ष पहले शुरू हुई थी जो  मेसोज़ोइक युग (Mesozoic Era) के पास आने के दौरान घटित हुई।
  • आल्प्स ऊबड़-खाबड़ और ऊँची शंक्वाकार चोटियों से निर्मित एक युवा वलित पर्वत शृंखला  है।
  • यह  पश्चिमी यूरोप के भौगोलिक क्षेत्रों में सबसे प्रमुख है। जो लगभग 750 मील लंबी और 125 मील से अधिक चौड़ी है जिसकी सबसे ज़्यादा चौड़ाई जर्मनी के गार्मिश-पार्टेनकिर्चेन क्षेत्र तथा वेरोना, इटली के मध्य है, आल्प्स पर्वत शृंखला 80000 वर्ग मील से अधिक के क्षेत्र को कवर करती है।
    • आल्प्स पर्वत शृंखला पूरब, उत्तर-पूर्व में विएना, ऑस्ट्रिया की ओर मुड़ने से पहले उत्तर में नीस, फ्रांँस के पास उपोष्णकटिबंधीय भूमध्यसागरीय तट से जिनेवा झील तक फैली हुई है जहाँ यह डेन्यूब नदी (Danube River) को छूते हुए उससे लगे मैदानी भागों में मिल जाती है।
  • अपने चापाकार आकार के कारण आल्प्स यूरोप की पश्चिमी समुद्री तट की जलवायु को फ्रांँस, इटली और बाल्कन क्षेत्र ( Balkan Region) के भूमध्यसागरीय क्षेत्रों से अलग करता है।
  • संबंधित देश:
    • आल्प्स फ्राँस, इटली, स्विट्ज़रलैंड, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, स्लोवेनिया, क्रोएशिया, बोस्निया और हर्जेगोविना, मोंटेनेग्रो, सर्बिया तथा अल्बानिया का हिस्सा है।
    • केवल स्विट्ज़रलैंड तथा ऑस्ट्रिया को ही ‘ट्रू अल्पाइन’ देश माना जा सकता है।
  • महत्त्वपूर्ण चोटियाँ:
    • ‘मोंट ब्लांक’ (Mont Blanc) आल्प्स और यूरोप की सबसे ऊँची चोटी है जो समुद्र तल से 4,804 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यह ग्रेयन आल्प्स में फ्राँस, स्विट्ज़रलैंड और इटली में स्थित है।
    • मोंटे रोज़ा (Monte Rosa) एक ‘मैसिफ’ (पहाड़ों का एक संयुक्त समूह) है, जिसमें कई चोटियाँ हैं। इस श्रेणी की सबसे ऊँची चोटी डुफोरस्पित्ज़ (Dufourspitze) की ऊँचाई 4,634 मीटर है, जिसके स्विट्ज़रलैंड की सबसे ऊँची चोटी होने का दावा किया जाता है।
    • डोम जो मोंटे रोजा के पास स्थित है,  4,545 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और इसे अपने सीधे मार्गों के कारण आल्प्स में ‘सुगम’ ऊँची चोटियों में से एक के रूप में जाना जाता है।
    • अन्य प्रमुख चोटियाँ लिस्कम, वीशोर्न, मैटरहॉर्न, डेंट ब्लैंच, ग्रैंड कॉम्बिन आदि हैं।

विश्व की प्रमुख पर्वत शृंखलाएँ:

Rift-Valley

स्रोत- द हिंदू


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

नासा का नया अंतरिक्षयान: NEA स्काउट

प्रिलिम्स के लिये 

राष्ट्रीय वैमानिकी एवं अंतरिक्ष प्रशासन (NASA), नियर-अर्थ  एस्टेरॉयड स्काउट ,  स्पेस लॉन्च सिस्टम, लो-अर्थ ऑर्बिट

मेन्स के लिये 

नियर-अर्थ एस्टेरॉयड स्काउट का संक्षिप्त परिचय एवं इसका महत्त्व, क्षुद्रग्रह के प्रकार  

चर्चा में क्यों?

हाल ही में राष्ट्रीय वैमानिकी एवं अंतरिक्ष प्रशासन (NASA) ने घोषणा की है कि उसके नए अंतरिक्षयान (नियर-अर्थ  एस्टेरॉयड स्काउट या NEA स्काउट) ने सभी आवश्यक परीक्षण पूरे कर लिये हैं तथा इसे स्पेस लॉन्च सिस्टम (SLS) रॉकेट के अंदर सुरक्षित रूप से स्थापित कर दिया गया है।

प्रमुख बिंदु 

NEA स्काउट के बारे में :

  • नियर-अर्थ एस्टेरॉयड स्काउट या NEA स्काउट, एक छोटा अंतरिक्षयान है, जिसे क्यूबसैट (CubeSat) के रूप में जाना जाता है, इसे नासा के एडवांस्ड एक्सप्लोरेशन सिस्टम (AES) प्रोग्राम के तहत विकसित किया गया है।
    • AES तेज़ी से विकसित प्रोटोटाइप सिस्टम, प्रमुख क्षमताओं का प्रदर्शन तथा लो-अर्थ ऑर्बिट से परे भविष्य के मानव मिशनों के लिये परिचालन अवधारणाओं को मान्य करने हेतु नए दृष्टिकोणों का अग्रदूत है।
  • इसका मुख्य उद्देश्य नियर-अर्थ  एस्टेरॉयड से उड़ान भरना और डेटा एकत्र करना है।
    • इसे क्षुद्रग्रह तक पहुँचने में लगभग दो वर्ष लगेंगे और क्षुद्रग्रह से संपर्क के दौरान यह पृथ्वी से लगभग 93 मिलियन मील दूर होगा।
  • यह विशेष सौर सेल प्रणोदन का उपयोग करने वाला अमेरिका का पहला अंतरग्रहीय मिशन भी होगा।
    • अब तक अंतरिक्षयान सौर ऊर्जा का उपयोग करके उन्हें बिजली देने तथा महत्त्वपूर्ण कार्यों को निष्पादित करने के लिये करता रहा है। 
    • यह पहली बार होगा जब कोई अंतरिक्षयान जोर या थ्रस्ट (Thrust)  उत्पन्न करने और आगे बढ़ने के लिये हवा के रूप में इसका इस्तेमाल करेगा।
  • यह कई पेलोड में से एक है जो आर्टेमिस-I (Artemis I) पर उड़ान भरेगा, जिसे नवंबर 2021 में लॉन्च किये जाने की संभावना है।
    • आर्टेमिस I ओरियन अंतरिक्षयान और SLS रॉकेट की एक मानव रहित परीक्षण उड़ान होगी।
    • यह तीव्र गति से उड़ने वाली जटिल मिशनों की शृंखला में पहला है जो चंद्रमा और मंगल पर मानव अन्वेषण को सक्षम करेगा।
  • NEA स्काउट (NEA Scout) को वर्ष 2021 में आर्टेमिस 1 पर सवार अन्य छोटे उपग्रहों के बेड़े के साथ चंद्रमा के लिये लॉन्च किया गया।
    • NEA स्काउट चंद्रमा पर अपने 86-वर्ग-मीटर सौर सेल को तैनात कर धीरे-धीरे सर्पिलाकार गति करते हुए चंद्रमा की कक्षा से बाहर हो जाएगा।
    • यह एक नियर-अर्थ क्षुद्रग्रह की यात्रा करेगा और सतह की नज़दीकी छवियों को कैप्चर करते हुए धीमी गति से उड़ान भरेगा।

महत्त्व:

  • NEA स्काउट द्वारा एकत्र की गई छवियाँ क्षुद्रग्रह के भौतिक गुणों जैसे- कक्षा, आकार, मात्रा, रोटेशन, इसके आसपास की धूल और मलबे के क्षेत्र, साथ ही इसकी सतह के गुणों के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करेंगी।
  • अंतरिक्षयान सौर क्रूज़र के लिये मार्ग प्रशस्त करेगा, जो वर्ष 2025 में उड़ान भरते समय 16 गुना बड़े पाल (Sail) का उपयोग करेगा।
  • नियर-अर्थ क्षुद्रग्रहों का अध्ययन एक प्रभाव की स्थिति में होने वाले संभावित क्षति को कम करने के लिये रणनीति विकसित करने में मदद कर सकता है।
  • डेटा का उपयोग यह निर्धारित करने के लिये किया जा सकता है कि जोखिम को कम करने, प्रभावशीलता बढ़ाने और रोबोटिक तथा मानव अंतरिक्ष अन्वेषण के डिज़ाइन एवं संचालन में सुधार हेतु क्या आवश्यक है।

नियर-अर्थ ऑब्जेक्ट्स (NEOs):

  • ‘नियर अर्थ ऑब्जेक्ट’ ऐसे पिंड/क्षुद्रग्रह या धूमकेतु होते हैं जो पृथ्वी पर खतरा उत्पन्न करते हुए उसकी कक्षा के करीब से गुज़रते हैं। ये क्षुद्रग्रह ज़्यादातर बर्फ और धूल कण से मिलकर बने होते हैं।
  • NEO कभी-कभी पृथ्वी के करीब पहुँचते हैं क्योंकि वे सूर्य की परिक्रमा करते हैं।
  • नासा का सेंटर फॉर नियर-अर्थ ऑब्जेक्ट स्टडी (CNEOS) क्षुद्रग्रह वॉच विजेट के माध्यम से उस स्थिति में इन ऑब्जेक्ट्स का समय और दूरी निर्धारित करता है, जब ये पृथ्वी के नज़दीक होते हैं।

क्षुद्रग्रह 

  • ये सूर्य की परिक्रमा करने वाले चट्टानी पिंड हैं जो ग्रहों की तुलना में काफी छोटे होते हैं। इन्हें लघु ग्रह (Minor Planets) भी कहा जाता है।
  • नासा के अनुसार, अब तक ज्ञात क्षुद्रग्रहों (4.6 बिलियन वर्ष पहले सौरमंडल के निर्माण के दौरान के अवशेष) की संख्या 9,94,383 है।
  • क्षुद्रग्रहों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है:
    • पहली श्रेणी में वे क्षुद्रग्रह आते हैं जो मंगल तथा बृहस्पति के बीच क्षुद्रग्रह बेल्ट/पट्टी में पाए जाते हैं। अनुमानतः इस बेल्ट में 1.1-1.9 मिलियन क्षुद्रग्रह मौजूद हैं। 
    • दूसरी श्रेणी के तहत ट्रोजन्स को शामिल किया गया है। ट्रोजन्स ऐसे क्षुद्रग्रह हैं जो एक बड़े ग्रह के साथ कक्षा (Orbit) साझा करते हैं। 
    • तीसरी श्रेणी पृथ्वी के निकट स्थित क्षुद्रग्रहों यानी नियर अर्थ एस्टेरॉयड्स (NEA) की है जिनकी कक्षा ऐसी होती है जो पृथ्वी के निकट से होकर गुज़रती है। वे क्षुद्रग्रह जो पृथ्वी की कक्षा को पार कर जाते हैं उन्हें अर्थ क्रॉसर (Earth-crosser) कहा जाता है।
      • इस तरह के 10,000 से अधिक क्षुद्रग्रह ज्ञात हैं जिनमें से 1,400 को संभावित खतरनाक क्षुद्रग्रह (Potentially Hazardous Asteroid- PHA) के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
      • PHA ऐसे क्षुद्रग्रह होते हैं जिनके पृथ्वी के करीब से गुज़रने से पृथ्वी पर खतरा उत्पन्न होने की संभावना बनी रहती है। 
      • PHA की श्रेणी में उन क्षुद्रग्रहों को रखा जाता है जिनकी  ‘न्यूनतम कक्षा अंतर दूरी’ (Minimum Orbit Intersection Distance- MOID) 0.05 AU या इससे कम हो। साथ ही ‘निरपेक्ष परिमाण’ (Absolute Magnitude-H) 22.0 या इससे कम हो। 
        • पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी को खगोलीय इकाई (Astronomical Unit-AU) से इंगित करते हैं।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

‘हाई एल्टीट्यूड बैलून’ के माध्यम से इंटरनेट

प्रिलिम्स के लिये:

हाई एल्टीट्यूड बैलून, लून बैलून, कोविड-19

मेन्स के लिये:

‘हाई एल्टीट्यूड बैलून’ के माध्यम से इंटरनेट सर्विस प्रदान करने की विधि

चर्चा में क्यों?

हाल ही में अमेरिका ने क्यूबा में ‘हाई एल्टीट्यूड बैलून’ के माध्यम से लोगों तक इंटरनेट के प्रसार की योजना बनाई है जब उनकी सरकार ने इंटरनेट की पहुँच को अवरुद्ध कर दिया है।

  • क्यूबा में लंबे समय से अधिकारों पर प्रतिबंध, भोजन और दवाओं की कमी तथा कोविड-19 महामारी को लेकर सरकार की खराब प्रतिक्रिया के खिलाफ विरोध प्रदर्शन चल रहा है।

प्रमुख बिंदु:

इंटरनेट हेतु हाई एल्टीट्यूड बैलून:

  • इन्हें आमतौर पर ‘लून बैलून’ के रूप में जाना जाता है क्योंकि इंटरनेट प्रदान करने के लिये पहले ‘हाई एल्टीट्यूड बैलून’ का इस्तेमाल ‘प्रोजेक्ट लून’ के तहत किया गया था।
  • वे सामान्य प्लास्टिक की पॉलीथीन से बने होते हैं और एक टेनिस कोर्ट के आकार के होते हैं।
  • वे सौर पैनलों द्वारा संचालित होते हैं एवं ज़मीन पर सॉफ्टवेयर द्वारा नियंत्रित होते हैं।
  • हवा में ऊपर रहते हुए वे ‘फ्लोटिंग सेल टावरों’ के रूप में कार्य करते हैं तथा इंटरनेट सिग्नल को ग्राउंड स्टेशनों और व्यक्तिगत उपकरणों तक पहुँचाते हैं।
    • वे वाणिज्यिक जेटलाइनर मार्गों (पृथ्वी से 60000 से 75000 फीट ऊपर) के ऊपर उड़ते रहते हैं।
  • पृथ्वी पर वापस आने से पहले वे समताप मंडल में 100 दिनों से अधिक समय तक रहते हैं।
  • प्रत्येक गुब्बारा हज़ारों लोगों की सेवा कर सकता है लेकिन समताप मंडल में कठोर परिस्थितियों के कारण उन्हें हर पाँच महीने में बदलना और गुब्बारों को नियंत्रित करना मुश्किल हो सकता है।

आवश्यकताएँ:

  • नेटवर्क:
    • गुब्बारों से परे इसे क्षेत्र में ज़मीन पर सेवा और कुछ उपकरण प्रदान करने के लिये दूरसंचार के साथ नेटवर्क एकीकरण की आवश्यकता थी।
  • अनुमति:
    • इसे स्थानीय नियामकों से भी अनुमति की आवश्यकता है पर क्यूबा सरकार द्वारा अनुमति दिये जाने की संभावना नहीं है।

महत्त्व:

  • सुलभ:
    • फोन कंपनियों को ज़रूरत पड़ने पर अपने कवरेज का विस्तार करने की अनुमति देकर, इस बैलून का उद्देश्य देशों को केबल बिछाने या सेल टावर बनाने की तुलना में एक सस्ता विकल्प प्रदान करना है।
  • दूरस्थ क्षेत्रों तक पहुँच:
    • ये दूरस्थ और ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ मौजूदा प्रावधानों के तहत खराब सेवा प्रदान की जा रही है, इंटरनेट का उपयोग करने में सक्षम हैं और प्राकृतिक आपदाओं के दौरान प्रभावित क्षेत्रों में संचार में सुधार करने में सक्षम हैं।

चुनौतियाँ:

  • अप्रयुक्त बैंड की आवश्यकता:
    • इसे क्यूबा से एक कनेक्शन संचारित करने के लिये स्पेक्ट्रम या रेडियो फ्रीक्वेंसी के अप्रयुक्त बैंड की आवश्यकता होगी और स्पेक्ट्रम का उपयोग प्रायः राष्ट्रीय सरकारों द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
    • इस प्रकार की कोशिश करने वाले किसी भी व्यक्ति को स्पेक्ट्रम का एक फ्री ब्लॉक ढूँढना होगा जिसमें हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा।
  • अलाभकारी:
    • लंबी अवधि में बैलून या ड्रोन-संचालित नेटवर्क के किफायती होने की संभावना नहीं है।
  • परिचालन चुनौतियाँ:
    • बैलून की स्थिति को उचित रूप से मैप करने के लिये एल्गोरिदम विकसित करना, खराब मौसम से निपटने के लिये एक अच्छी रणनीति निर्धारित करना और गैर-नवीकरणीय संसाधनों पर भरोसा करने की चिंता को संबोधित करना अन्य चुनौतियों हैं।

प्रोजेक्ट लून (Project Loon):

  • इसकी शुरुआत वर्ष 2011 में गूगल (Google) की पैरेंट कंपनी एल्फाबेट (Alphabet) ने की थी। यह समताप मंडल में बैलून्स का एक नेटवर्क था जिसे ग्रामीण और दूरदराज़ के क्षेत्रों में इंटरनेट कनेक्टिविटी प्रदान करने के लिये डिज़ाइन किया गया था।
  • जनवरी 2020 में इस परियोजना को बंद कर दिया गया\ क्योंकि यह व्यावसायिक रूप से व्यवहार्य नहीं थी।
  • शटडाउन से पहले लून बैलून एक स्थानीय दूरसंचार के साथ साझेदारी के माध्यम से केन्या के पर्वतीय क्षेत्रों में सेवा प्रदान कर रहा था।
  • इस सेवा ने तूफान मारिया के बाद प्यूर्टो रिको में वायरलेस संचार प्रदान करने में भी मदद की।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


कृषि

ड्रैगन फ्रूट

प्रिलिम्स के लिये:

ड्रैगन फ्रूट की मुख्य विशेषताएँ, एकीकृत बागवानी विकास मिशन, ड्रिप सिंचाई  

मेन्स के लिये:

ड्रैगन फ्रूट की कृषि को बढ़ावा देने हेतु सरकार के प्रयास 

चर्चा में क्यों?   

हाल ही में भारत ने संयुक्त अरब अमीरात को महाराष्ट्र के एक किसान द्वारा उत्पादित ड्रैगन फ्रूट (Dragon Fruit) की अपनी पहली खेप का निर्यात किया।

Dragon-Fruit

प्रमुख बिंदु: 

 ड्रैगन फ्रूट के बारे में:

  • ड्रैगन फ्रूट (Hylocereus Undatus) अमेरिका का एक स्थानीय/देशज फल है।  यह कैक्टेशिया फेमली (Cactaceae Family) का सदस्य है।
  • विश्व में इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे- 'पिटाया' (Pitaya), 'पिठाया' (Pitahaya), स्ट्रॉबेरी नाशपाती (Strawberry Pear) और रात की रानी (Queen Of The Night)। भारत में इसे 'कमलम' (Kamalam) के नाम से भी जाना जाता है।

जलवायु स्थिति:

  • यह कठोर होता है तथा विभिन्न प्रकार की मृदाओं में विविध जलवायु परिस्थितियों में बढ़ता है, खासकर भारत के अर्द्ध-शुष्क और शुष्क क्षेत्रों में।
  • मृदा में थोड़ी अम्लीयता की मात्रा ड्रैगन फ्रूट के बढ़ने हेतु बेहतर होती है तथा यह मृदा में कुछ लवणों को भी सहन करने में सक्षम है।
  • भारत में ड्रैगन फ्रूट मानसूनी मौसम (जून से नवंबर) तैयार होता है।

विशेषताएंँ

  • इसके फूल की प्रकृति उभयलिंगी ( नर और मादा अंग एक ही फूल में) होती है और इसके फूल रात के समय में ही खिलते हैं।
  • इसका पौधा 20 से अधिक वर्षों तक फल देने में सक्षम होता है, जो उच्च न्यूट्रास्युटिकल गुणों (औषधीय प्रभाव वाले) से युक्त होता है, साथ ही यह मूल्य वर्द्धित  प्रसंस्करण उद्योगों (Value-Added Processing Industries) हेतु भी महत्त्वपूर्ण है।
  • यह विटामिन और खनिजों का एक समृद्ध स्रोत है।

भारत में लोकप्रियता:

  • 1990 के दशक में ड्रैगन फ्रूट को भारत के घरेलू बगीचों में उगाया जाने लगा था।
  • ड्रैगन फ्रूट्स के कम रखरखाव और उच्च लाभप्रदता ने पूरे भारत में कृषक समुदाय को आकर्षित किया है।
  • इससे महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, तमिलनाडु, ओडिशा, गुजरात और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह के साथ-साथ कई उत्तर-पूर्वी राज्यों में ड्रैगन फ्रूट की खेती में भारी वृद्धि हुई है।
  • देश में हर वर्ष लगभग 12,000 टन फलों का उत्पादन होता है।

संबंधित मुद्दे: 

  • उच्च निवेश: ड्रैगन फ्रूट का पौधा लताओं वाला होता है, जिसे बढ़ने के लिये किसी सहारे की आवश्यकता होती है और इसलिये किसानों को इसकी खेती में बुनियादी ढाँचे के निर्माण में प्रति एकड़ लगभग 3.5 लाख रुपए का निवेश करने की आवश्यकता होती है।
    • इसमें ड्रिप सिंचाई (Drip Irrigation) के लिये आवश्यक पूँजी शुरुआती निवेश है।
  • फूल आने में समस्याएँ: सामान्यतः इसके लिये अर्द्ध-शुष्क और शुष्क इलाकों में सूर्यताप एक आम कारण है, जिसे मोरिंगा, सेसबानिया जैसे पेड़ लगाकर या कृत्रिम छाया जाल लगाकर रोका जा सकता है।

सरकार की पहल:

  • महाराष्ट्र सरकार ने एकीकृत बागवानी विकास मिशन (MIDH) के माध्यम से अच्छी गुणवत्ता वाली रोपण सामग्री और इसकी खेती के लिये सब्सिडी प्रदान करके राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में ड्रैगन फ्रूट की खेती को बढ़ावा देने की पहल की है।
  • MIDH फल, सब्जी, जड़ एवं कंद फसलों, मशरूम, मसालों, फूल, सुगंधित पौधों, नारियल, काजू, कोको, बाँस आदि बागवानी क्षेत्र की फसलों के समग्र विकास हेतु एक केंद्र प्रायोजित योजना है।
    • MIDH योजना को कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय वर्ष 2014-15 से लगातार कार्यान्वित कर रहा है।

स्रोत : डाउन टू अर्थ


भारतीय राजनीति

संसदीय सत्र

प्रिलिम्स के लिये: 

संसदीय सत्र, मंत्रिपरिषद, कैबिनेट समितियाँ, कोरम, लोकसभा, राज्यसभा 

मेन्स के लिये: 

संसदीय सत्रों का महत्त्व और आयोजन संबंधी मुद्दे

चर्चा में क्यों?

हाल ही में मंत्रिपरिषद और कैबिनेट समितियों में फेरबदल के बाद संसद का मानसून सत्र शुरू हुआ है।

प्रमुख बिंदु

संसदीय सत्र

  • संसद के सत्र के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 85 में प्रावधान किया गया है।
  • संसद के किसी सत्र को बुलाने की शक्ति सरकार के पास है। 
    • यह निर्णय संसदीय मामलों की कैबिनेट समिति द्वारा लिया जाता है जिसे राष्ट्रपति द्वारा औपचारिक रूप दिया जाता है। राष्ट्रपति के नाम पर ही संसद सदस्यों को संसदीय सत्र की बैठक के लिये बुलाया जाता है।
  • भारत में कोई निश्चित संसदीय कैलेंडर नहीं है। परंपरा (अर्थात् संविधान द्वारा प्रदान नहीं किया गया) के मुताबिक संसद के एक वर्ष में तीन सत्र होते हैं।
    • सबसे लंबा, बजट सत्र (पहला सत्र) जनवरी के अंत में शुरू होता है और अप्रैल के अंत या मई के पहले सप्ताह तक समाप्त हो जाता है।
    • दूसरा सत्र तीन सप्ताह का मानसून सत्र है, जो आमतौर पर जुलाई माह में शुरू होता है और अगस्त में खत्म होता है।
    • शीतकालीन सत्र यानी तीसरे सत्र का आयोजन नवंबर से दिसंबर तक किया जाता है।

संसद सत्र आहूत करना:

  • सम्मन (Summoning) संसद के सभी सदस्यों को बैठक के लिये बुलाने की प्रक्रिया है। सत्र को आहूत करने के लिये राष्ट्रपति संसद के प्रत्येक सदन को समय-समय पर सम्मन जारी करता है, परंतु संसद के दोनों सत्रों के मध्य अधिकतम अंतराल 6 माह से ज़्यादा का नहीं होना चाहिये। अर्थात् संसद सत्र का आयोजन वर्ष में कम-से-कम दो बार किया जाना चाहिये।

स्थगन:

  • स्थगन की स्थिति में सभा की बैठक समाप्त हो जाती है और सभा अगली बैठक के लिये नियत समय पर पुन: समवेत होती है। स्थगन एक निर्दिष्ट समय के लिये हो सकता है जैसे घंटे, दिन या सप्ताह।
  •  यदि सभा को अगली बैठक के लिये निर्धारित किसी निश्चित समय/तिथि के बिना समाप्त कर दिया जाता है, तो इसे अनिश्चित काल के लिये स्थगन कहा जाता है।
  • स्थगन और अनिश्चित काल के लिये स्थगन की शक्ति सदन के पीठासीन अधिकारी (अध्यक्ष या सभापति) के पास होती है।

सत्रावसान:

  •  सत्रावसान का आशय सत्र का समाप्त होना है, न कि विघटन (लोकसभा के मामले में क्योंकि राज्यसभा भंग नहीं होती है)।
  • सत्रावसान भारत के राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है।

कोरम:

  • कोरम अथवा गणपूर्ति का तात्पर्य सदन की बैठक आयोजित करने हेतु उपस्थित आवश्यक सदस्यों की न्यूनतम संख्या से है।
  • संविधान द्वारा लोकसभा और राज्यसभा दोनों के लिये कोरम हेतु सदस्यों की संख्या कुल सदस्य संख्या का 1/10 निर्धारित की गई है।
  • इस प्रकार लोकसभा की बैठक के संचालन हेतु कम-से-कम 55 सदस्य, जबकि राज्यसभा की बैठक के संचालन के लिये कम-से-कम 25 सदस्य उपस्थित होने चाहिये।

संसद का संयुक्त सत्र (अनुच्छेद 108):

  • किसी विधेयक पर संसद के दोनों सदनों (लोकसभा तथा राज्यसभा) के मध्य गतिरोध की स्थिति में संविधान द्वारा संयुक्त बैठक की व्यवस्था की गई है।
  • संयुक्त बैठक राष्ट्रपति द्वारा बुलाई जाती है। संयुक्त बैठक की अध्यक्षता लोकसभा का अध्यक्ष करता है तथा उसकी अनुपस्थिति में लोकसभा का उपाध्यक्ष यह दायित्व निभाता है यदि वह भी अनुपस्थित हो तो इस स्थिति में राज्यसभा का उपसभापति इस दायित्व को निभाता है।
    • यदि उपरोक्त में से कोई भी उपस्थित न हो तो दोनों सदनों की सहमति से संसद का कोई अन्य सदस्य इसकी अध्यक्षता कर सकता है।  

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


आंतरिक सुरक्षा

पुलिस सुधार

प्रिलिम्स के लिये:

पुलिस सुधार से संबंधित विभिन्न आयोग और समितियाँ

मेन्स के लिये:

पुलिस बलों से संबंधित मुद्दे, पुलिस सुधार की आवश्यकता, इस संबंध में विभिन्न समितियों की सिफारिशें

चर्चा में क्यों?

हाल ही में संसद में एक प्रश्न के जवाब में सरकार ने खुलासा किया कि 1 अप्रैल से 30 नवंबर, 2015 के बीच पुलिस श्रेणी के तहत 25,357 मामले दर्ज किये गए, जिनमें पुलिस हिरासत में मौत के 111 मामले, हिरासत में यातना के 330 मामले और अन्य 24,916 मामले शामिल हैं।

प्रमुख बिंदु:

पुलिस सुधार (अर्थ):

  • पुलिस सुधारों का उद्देश्य पुलिस संगठनों के मूल्यों, संस्कृति, नीतियों और प्रथाओं को बदलना है।
  • यह पुलिस को लोकतांत्रिक मूल्यों, मानवाधिकारों और कानून के शासन के सम्मान के साथ कर्तव्यों का पालन करने की परिकल्पना करता है।
  • इसका उद्देश्य पुलिस सुरक्षा क्षेत्र के अन्य हिस्सों, जैसे कि अदालतों और संबंधित विभागों, कार्यकारी, संसदीय या स्वतंत्र अधिकारियों के साथ प्रबंधन या निरीक्षण ज़िम्मेदारियों में सुधार करना भी है।
  • पुलिस व्यवस्था भारतीय संविधान की अनुसूची 7 की राज्य सूची के अंतर्गत आती है।

पुलिस सुधार पर समितियाँ/आयोग:

Committee

पुलिस बलों से संबंधित मुद्दे:

  • औपनिवेशिक विरासत: देश में पुलिस प्रशासन की व्यवस्था और भविष्य के किसी भी विद्रोह को रोकने के लिये वर्ष 1857 के विद्रोह के पश्चात् अंग्रेज़ों द्वारा वर्ष 1861 का पुलिस अधिनियम लागू किया गया था।
    • इसका मतलब यह था कि पुलिस को सदैव सत्ता में मौजूद लोगों द्वारा स्थापित नियमों का पालन करना था।
  • राजनीतिक अधिकारियों के प्रति जवाबदेही बनाम परिचालन स्वतंत्रता: द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (2007) ने उल्लेख किया है कि राजनीतिक कार्यपालिका द्वारा अतीत में राजनीतिक नियंत्रण का दुरुपयोग पुलिसकर्मियों को अनुचित रूप से प्रभावित करने और व्यक्तिगत या राजनीतिक हितों की सेवा करने के लिये किया गया है।
  • मनोवैज्ञानिक दबाव: यद्यपि वेतनमान और पदोन्नति में सुधार पुलिस सुधार के आवश्यक पहलू हैं, किंतु मनोवैज्ञानिक स्तर पर आवश्यक सुधार के विषय में बहुत कम बात की गई है।
    • भारतीय पुलिस बल में निचले रैंक के पुलिसकर्मियों को प्रायः उनके वरिष्ठों द्वारा अपनामित किया जाता है या वे अमानवीय परिस्थितियों में काम करते हैं।
    • इस प्रकार की गैर-सामंजस्यपूर्ण कार्य परिस्थितियों का प्रभाव अंततः जनता के साथ उनके संबंधों पर पड़ता है।
  • जनधारणा: द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग के मुताबिक, वर्तमान में पुलिस-जनसंपर्क एक असंतोषजनक स्थिति में है, क्योंकि लोग पुलिस को भ्रष्ट, अक्षम, राजनीतिक रूप से पक्षपातपूर्ण और अनुत्तरदायी मानते हैं।
    • इसके अलावा नागरिक आमतौर पर पुलिस स्टेशन जाने में भी डर महसूस करते हैं।
  • अतिभारित बल: वर्ष 2016 में स्वीकृत पुलिस बल अनुपात प्रति लाख व्यक्तियों पर 181 पुलिसकर्मी था, जबकि वास्तविक संख्या 137 थी।
    • संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रति लाख व्यक्तियों पर 222 पुलिस के अनुशंसित मानक की तुलना में यह बहुत कम है।
    • इसके अलावा पुलिस बलों में रिक्तियों का एक उच्च प्रतिशत अतिभारित पुलिसकर्मियों की मौजूदा समस्या को बढ़ा देता है।
  • कांस्टेबुलरी से संबंधित मुद्दे: राज्य पुलिस बलों में कांस्टेबुलरी का गठन 86% है और इसकी व्यापक ज़िम्मेदारियाँ हैं।
  • अवसंरचनात्मक मुद्दे: आधुनिक पुलिस व्यवस्था के लिये मज़बूत संचार सहायता, अत्याधुनिक या आधुनिक हथियारों और उच्च स्तर की गतिशीलता आवश्यक  है।
    • हालाँकि वर्ष 2015-16 की CAG ऑडिट रिपोर्ट में राज्य पुलिस बलों के पास हथियारों की कमी पाई गई है।
    • उदाहरण के लिये  राजस्थान और पश्चिम बंगाल में राज्य पुलिस के पास आवश्यक हथियारों में क्रमशः 75% और 71% की कमी थी।
    • साथ ही ‘पुलिस अनुसंधान और विकास ब्यूरो’ ने भी राज्य बलों के पास आवश्यक वाहनों के स्टॉक में 30.5% की कमी का उल्लेख किया है।

सुझाव   

  • पुलिस बलों का आधुनिकीकरण: पुलिस बलों के आधुनिकीकरण (MPF) की योजना 1969-70 में शुरू की गई थी और पिछले कुछ वर्षों में इसमें कई संशोधन हुए हैं।
    •  हालाँकि सरकार द्वारा स्वीकृत वित्त का पूरी तरह से उपयोग करने की आवश्यकता है।
    • MPF योजना की परिकल्पना में शामिल हैं:
      • आधुनिक हथियारों की खरीद
      • पुलिस बलों की गतिशीलता
      • लॉजिस्टिक समर्थन, पुलिस वायरलेस का उन्नयन आदि
      • एक राष्ट्रीय उपग्रह नेटवर्क
  • राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता: सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक प्रकाश सिंह मामले (2006) में सात निर्देश दिये जहाँ पुलिस सुधारों में अभी भी काफी काम करने की ज़रूरत है।
    • हालाँकि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण इन निर्देशों को कई राज्यों में अक्षरश: लागू नहीं किया गया।

Seven-Directives-of-Supreme-Court

  • आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार: पुलिस सुधारों के साथ-साथ आपराधिक न्याय प्रणाली में भी सुधार की आवश्यकता है। इस संदर्भ में मेनन और मलीमथ समितियों (Menon and Malimath Committees) की सिफारिशों को लागू किया जा सकता है। कुछ प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार हैं:
    • दोषियों के दबाव के कारण मुकर जाने वाले पीड़ितों को मुआवज़ा देने के लिये एक कोष का निर्माण करना।
    • देश की सुरक्षा को खतरे में डालने वाले अपराधियों से निपटने के लिये राष्ट्रीय स्तर पर अलग प्राधिकरण की स्थापना।
    • संपूर्ण आपराधिक प्रक्रिया प्रणाली में  पूर्ण सुधार।

स्रोत : द हिंदू


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