विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
बीमा बाँस क्रैश बैरियर
चर्चा में क्यों?
विश्वेश्वरैया राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (Visvesvaraya National Institute of Technology- VNIT) नागपुर के विशेषज्ञ ‘बीमा’ बाँस और कॉयर (नारियल की जटा) से बने क्रैश बैरियर के डिज़ाइन पर काम कर रहे हैं।
- इन्हें राजमार्गों पर दुर्घटना से होने वाली मौतों को कम करने के लिये स्टील बैरियर की तुलना में कम लागत वाले विकल्प के रूप में विकसित किया जा रहा है।
प्रमुख बिंदु:
पृष्ठभूमि:
- सड़क दुर्घटना:
- भारत में हर वर्ष 5 लाख के करीब सड़क दुर्घटनाओं में लगभग डेढ़ लाख लोग मारे जाते हैं। उन दुर्घटनाओं में से लगभग एक-तिहाई राजमार्गों पर घटित होती हैं।
- वर्तमान में भारत एशियाई विकास बैंक और विश्व बैंक द्वारा प्रदत्त 14,000 करोड़ रुपए के ऋण के माध्यम से दुर्घटना संभावित "ब्लैक स्पॉट्स’ की समस्या को दूर करने और राजमार्गों पर सड़क के डिज़ाइन में सुधार के लिये एक परियोजना में संलग्न है।
- पारंपरिक क्रैश बैरियर की कीमत:
- क्रैश बैरियर आमतौर पर वाहनों को राजमार्गों पर जाने से रोकने के लिये होते हैं ताकि दुर्घटनाओं में कमी लाई जा सके।
- धातु और मिश्र धातु से बने पारंपरिक क्रैश बैरियर की कीमत लगभग 2,000 रुपए प्रति मीटर हो सकती है, भारत में राजमार्गों में लगने वाली कुल लागत का 5% भाग सड़क संबधी उपकरणों में व्यय हो जाता है।
बीमा बाँस क्रैश बैरियर
- क्रैश बैरियर:
- कंक्रीट के खंडों में बाँस की पाँच फीट बाड़ लगाने का कार्य किया जाएगा तथा उन्हें मज़बूत कॉयर रस्सियों से एक साथ बाँधा जाएगा।
- बीमा बाँस क्रैश बैरियर की अनुमानित लागत पारंपरिक क्रैश बैरियर की तुलना में एक-तिहाई है।
- बीमा बाँस:
- बीमा या भीमा बाँस का एक प्रकार है जो भारतीय उपमहाद्वीप विशेष रूप से उत्तर-पूर्व में पाए जाने वाले पारंपरिक बाँस, जो कि मज़बूत, टिकाऊ, तेज़ी से विकसित होने वाला और लंबा होता है , का प्रतिरूप है। बाँस की इस किस्म की दक्षिण भारत में अच्छी पैदावार है।
- यह मुख्य रूप से कर्नाटक और उसके आसपास के क्षेत्रों का स्थानीय उत्पाद है।
- बीमा या भीमा बाँस का एक प्रकार है जो भारतीय उपमहाद्वीप विशेष रूप से उत्तर-पूर्व में पाए जाने वाले पारंपरिक बाँस, जो कि मज़बूत, टिकाऊ, तेज़ी से विकसित होने वाला और लंबा होता है , का प्रतिरूप है। बाँस की इस किस्म की दक्षिण भारत में अच्छी पैदावार है।
कॉयर:
- कॉयर या ‘कोकोनट फाइबर’ एक प्राकृतिक फाइबर है जिसे नारियल की बाहरी जटा से प्राप्त किया जाता है और फर्शमैट, डोरमैट, ब्रश एवं गद्दे आदि उत्पादों के निर्माण में उपयोग किया जाता है।
- कॉयर शब्द तमिल और मलयालम में कॉर्ड या रस्सी के लिये प्रयुक्त होने वाले शब्द ‘कायर’ से लिया गया है।
महत्त्व:
- तन्यता (लचीलापन):
- बाँस में स्टील की तुलना में अधिक तन्यता होती है क्योंकि इसके फाइबर गतिशील होते हैं।
- अग्नि प्रतिरोधक:
- अग्नि प्रतिरोधक के रूप में बाँस की क्षमता बहुत अधिक होती है और यह 400 डिग्री सेल्सियस तापमान का सामना कर सकता है।
- लोचनीयता:
- बाँस अपनी लोचदार विशेषताओं के कारण भूकंप प्रवण क्षेत्रों में व्यापक रूप से पसंद किया जाता है।
- बाँस का भार:
- कम वज़न के कारण बाँस का आसानी से विस्थापन हो जाता है जो परिवहन और निर्माण क्षेत्र के लिये बहुत आवश्यक है।
स्रोत-इंडियन एक्सप्रेस
कृषि
प्रमाणित जूट बीज
चर्चा में क्यों?
हाल ही में कपड़ा मंत्रालय द्वारा जूट आई केयर कार्यक्रम (Jute ICARE Program) के तहत प्रमाणित जूट बीज वितरण योजना (Certified Jute Seed Distribution Plan) की शुरुआत की गई है।
- वर्ष 2019 में जूट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (Jute Corporation of India-JCI) द्वारा वर्ष 2021-22 हेतु 1,000 मीट्रिक टन जूट के प्रमाणित बीजों (Certified Seeds) के व्यावसायिक वितरण हेतु राष्ट्रीय बीज निगम के साथ एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये गए थे।
प्रमुख बिंदु:
प्रमाणित जूट बीज वितरण योजना:
- इस योजना के तहत जूट के उत्पादन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से 55% से अधिक क्षेत्र में प्रमाणित बीजों का उपयोग किया जाएगा।
- प्रमाणित बीज (Certified Seed) आधारीय बीज (Foundation Seed) की संतति (Progeny) होता है तथा इसका उत्पादन विशिष्ट आनुवंशिक पहचान और शुद्धता को बनाए रखने के उद्देश्य से फसल के प्रमाणित मानकों के अनुसार निर्धारित किया जाता है।
- इस योजना के तहत लगभग 5 लाख किसानों को प्रमाणित बीजों का वितरण किया जाएगा।
- प्रमाणित जूट बीजों का उपयोग करने से जूट की गुणवत्ता में 1 ग्रेड की वृद्धि के साथ इसकी उत्पादकता में 15% की वृद्धि हुई है जिससे जूट किसानों की आय में लगभग 10,000 रुपए प्रति हेक्टेयर की वृद्धि हुई है।
जूट आई केयर कार्यक्रम:
- वर्ष 2015 में ‘बेहतर खेती और उन्नत रेटिंग अभ्यास’ (जूट आई केयर) कार्यक्रम की शुरुआत की गई।
- कार्यक्रम की शुरुआत नेशनल जूट बोर्ड (National Jute Board- NJB) ने सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च इन जूट एंड एलाइड फाइबर्स ( Central Research Institute for Research in Jute and Allied Fibres- CRIJAF) और जूट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया ( Jute Corporation of India- JCI) के सहयोग से की थी।
- उद्देश्य: मशीनीकरण द्वारा किसानों के अनुकूल जूट की खेती को बढ़ावा देना तथा जूट की खेती करने वाले किसानों की आय में वृद्धि के लिये माइक्रोबियल कंसोर्टियम (Microbial Consortium) के त्वरित उपयोग को बढ़ावा देना।
- जूट आई केयर कार्यक्रम के तहत उपलब्ध आगत:
- रियायती दर पर 100% प्रमाणित बीज उपलब्ध कराना।
- बीज ड्रिल/नेल वीडर/साइकल वीडर जैसे यंत्रों के वितरण के साथ किसानों के खेतों का अधिग्रहण कर जूट की खेती के विभिन्न वैज्ञानिक तरीके का प्रदर्शन करना।
- CRIJAF SONA जो कि एक माइक्रोबियल कंसोर्टियम है, का उपयोग करते हुए माइक्रोबियल रिटेनिंग (Microbial Retting) का प्रदर्शन करना तथा किसानों में इसका वितरण करना।
- जूट के पौधों के तने से फाइबर निकालने की प्रक्रिया को रिटेनिंग (Retting) कहा जाता है।
- जूट आई केयर कार्यक्रम के अंतर्गत सरकार द्वारा अब तक 2.60 लाख किसानों की मदद की गई है।
जूट उद्योग को बढ़ावा देने हेतु उठाए गए अन्य कदम:
- न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि: जूट हेतु न्यूनतम समर्थन मूल्य (Minimum Support Price- MSP) को वर्ष 2014-15 के 2400 रुपए से बढ़ाकर वर्ष 2020-21 के लिये 4225 रुपए कर दिया गया है।
- रिटेनिंग टैंक: जूट किसानों की उत्पादकता, गुणवत्ता और आय को बढ़ाने हेतु 46000 रिटेनिंग टैंकों के निर्माण को मंज़ूरी दी गई है, जिनका निर्माण केंद्र सरकार की योजनाओं जैसे- मनरेगा, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, आरकेवीवाई और आईसीएआर के तहत किया जाएगा।
- इससे जूट रिटेनिंग के समय में 7 दिनों की कमी आएगी और जूट का उत्पादन करने वाले राज्यों के ग्रामीण लोगों के लिये 46 लाख मानव-दिनों (Man-days of Employment) का रोज़गार उत्पन्न होगा।
- जूट पैकेजिंग सामग्री अधिनियम, 1987: इस अधिनियम के तहत सरकार लगभग 4 लाख श्रमिकों और 40 लाख कृषक परिवारों के हितों की रक्षा कर रही है।
- यह अधिनियम कच्चे जूट और जूट पैकेजिंग सामग्री के उत्पादन और इस कार्य में लगे व्यक्तियों के हितों को देखते हुए कुछ वस्तुओं की आपूर्ति और वितरण हेतु जूट पैकेजिंग सामग्री के अनिवार्य उपयोग का प्रावधान करता है।
- जूट जियो-टेक्सटाइल्स (JGT): आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (Cabinet Committee on Economic Affairs- CCEA) द्वारा एक तकनीकी कपड़ा मिशन को मंज़ूरी दी गई है जिसमें जूट जियो-टेक्सटाइल्स शामिल हैं।
- JGT सबसे महत्त्वपूर्ण विविध जूट उत्पादों में से एक है। इसे कई क्षेत्रों में लागू किया जा सकता है जैसे- सिविल इंजीनियरिंग, मृदा अपरदन नियंत्रण, सड़क फुटपाथ निर्माण और नदी तटों का संरक्षण।
- जूट स्मार्ट:
- जूट स्मार्ट (Jute SMART) एक ई-गवर्नमेंट पहल है जिसे दिसंबर 2016 में जूट क्षेत्र में पारदर्शिता को बढ़ावा देने हेतु शुरू किया गया था।
- यह सरकारी एजेंसियों द्वारा सैकिंग (टाट बोरा बनाने का कपड़ा) की खरीद के लिये एकीकृत मंच प्रदान करता है।
- राष्ट्रीय जूट बोर्ड और राष्ट्रीय डिज़ाइन संस्थान, अहमदाबाद के मध्य सहयोग:
- नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिज़ाइन (National Institute of Design- NID), अहमदाबाद के इनोवेटिव सेंटर फॉर नेचुरल फाइबर्स (Innovative Centre for Natural Fibres- ICNF) में जूट शॉपिंग बैग्स और लाइफस्टाइल एक्सेसरीज़ के विकास हेतु एक जूट डिजाइन सेल की स्थापना की गई है।
जूट:
- तापमान: 25-35°C के मध्य।
- वर्षा की मात्रा: 150-250 cm में मध्य।
- मृदा: जलोढ़ प्रकार की।
- उत्पादन:
- भारत जूट का बड़ा उत्पादक देश है।
- इसका उत्पादन मुख्य रूप से पूर्वी भारत में गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा की समृद्ध जलोढ़ मिट्टी पर केंद्रित है।
- प्रमुख जूट उत्पादक राज्यों में पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा, असम, आंध्र प्रदेश, मेघालय और त्रिपुरा शामिल हैं।
- अनुप्रयोग:
- इसे गोल्डन फाइबर के रूप में जाना जाता है। इसका उपयोग जूट की थैली, चटाई, रस्सी, सूत, कालीन और अन्य कलाकृतियों को बनाने में किया जाता है।
- सरकारी पहल:
- जूट के उत्पादों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से सरकार द्वारा स्वर्ण फाइबर क्रांति (Golden Fibre Revolution) तथा जूट और मेस्टा पर प्रौद्योगिकी मिशन (Technology Mission on Jute and Mesta) नामक योजनाओं का संचालन किया जा रहा है।
- अपनी उच्च लागत की वजह से यह सिंथेटिक फाइबर और पैकिंग सामग्री, विशेष रूप से नायलॉन के उत्पादन के कारण बाज़ार खो रहा है।
- जूट के उत्पादों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से सरकार द्वारा स्वर्ण फाइबर क्रांति (Golden Fibre Revolution) तथा जूट और मेस्टा पर प्रौद्योगिकी मिशन (Technology Mission on Jute and Mesta) नामक योजनाओं का संचालन किया जा रहा है।
स्रोत: पी.आई.बी
भारतीय अर्थव्यवस्था
भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा HFCs को निर्देश
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारतीय रिज़र्व बैंक (Reserve Bank of India- RBI) ने आवास वित्त कंपनियों (Housing Finance Company) को निर्देश जारी किये हैं।
- एचएफसी एक गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी (Non-Banking Financial Company) है, जिसकी वित्तीय संपत्ति का लगभग 60% का उपयोग आवासीय व्यवसाय के वित्तपोषण में जाता है।
- आरबीआई द्वारा दिये गए निर्देश तत्काल प्रभाव से लागू होंगे, इन निर्देशों का लक्ष्य HFCs के कामकाज से निवेशकों और जमाकर्त्ताओं के हितों को किसी भी तरह के नुकसान से बचाना है।
प्रमुख बिंदु
तरलता जोखिम प्रबंधन:
- तरलता जोखिम प्रबंधन नियम (Liquidity Risk Management) 100 करोड़ रुपये या इससे अधिक की संपत्ति के आकार वाले सभी वित्तीय संस्थानों पर लागू होंगे।
- इसमें अंतराल सीमा (Gap Limit) के पालन को शामिल करना चाहिये, जिससे तरलता जोखिम के लिये तरलता जोखिम निगरानी उपकरणों (Liquidity Risk Monitoring Tool) और स्टॉक अप्रोच (Stock Approach) को अपनाया जा सके।
तरलता कवरेज अनुपात:
- HFCs को तरलता कवरेज अनुपात (Liquidity Coverage Ratio) के लिये एक लिक्विटी बफर बनाए रखना होगा। इससे भविष्य में नकदी से जुड़ी किसी भी तरह की समस्या उत्पन्न होने पर उन्हें इस फंड से मदद मिलेगी।
लोन टू वैल्यू अनुपात:
- सूचीबद्ध शेयरों की गारंटी लेकर लोन देने वाले एचएफसी को 50 फीसद का लोन-टू-वैल्यू (Loan-To-Value) अनुपात मेंटेन करना होगा।
- स्वर्ण आभूषणों की गारंटी पर लोन देने के लिये HFCs को 75 फीसद का लोन-टू-वैल्यू अनुपात मेंटेन करना होगा।
निवेश ग्रेड रेटिंग:
- एचएफसी को जब तक किसी स्वीकृत क्रेडिट रेटिंग एजेंसीज़ (Credit Rating Agency) से कम-से-कम एक वर्ष में एक बार फिक्स्ड डिपॉज़िट के लिये न्यूनतम निवेश ग्रेड रेटिंग (Investment Grade Rating) प्राप्त न हो तब तक उसे सार्वजनिक जमा को स्वीकार करने या नवीनीकृत करने से रोक दिया गया है।
कवर फॉर पब्लिक डिपॉज़िट्स:
- एचएफसी के लिये आवश्यक होगा कि स्वीकार किये गए सार्वजनिक जमा पर पूर्ण सुरक्षा कवर सुनिश्चित करे।
- एचएफसी शर्तों के अनुसार यदि कोई सार्वजनिक जमा या उसके हिस्से को चुकाने में विफल रहता है तो वह किसी भी ऋण या अन्य क्रेडिट सुविधा को तब तक मंज़ूरी नहीं देगा, कोई निवेश नहीं करेगा और कोई अन्य संपत्ति नहीं बनाएगा जब तक कि बकाया (Default) भुगतान नहीं किया जाता है।
- एचएफसी को अपने स्वयं के शेयरों के खिलाफ उधार देने से रोक दिया गया है।
पूंजी पर्याप्तता अनुपात:
- प्रत्येक हाउसिंग फाइनेंस कंपनी एक निरंतर आधार पर न्यूनतम पूंजी पर्याप्तता अनुपात (Capital Adequacy Ratio) बनाए रखेगी।
- यह मार्च 2020 तक 13%, मार्च 2021 से पहले 14% और मार्च 2022 तक 15% से कम नहीं होगा।
ऋण सीमा:
- एक एचएफसी किसी भी उधारकर्त्ता को अपने स्वामित्व वाले फंड का 15% से अधिक उधार नहीं दे सकता है और यह उधारकर्त्ता के समूह को अपने स्वामित्व फंड का 25% से अधिक उधार नहीं दे सकता है।
अन्य कंपनियों में निवेश:
- एक एचएफसी अपने स्वामित्व वाले फंड का किसी कंपनी में 15% और कंपनियों के एक समूह में 25% से अधिक का निवेश नहीं कर सकती है।
मार्केट एक्सपोज़र:
- एक एचएफसी का कुल निवेश सभी प्रकार के पूंजी बाज़ार में (निधि आधारित और गैर-निधि आधारित दोनों) पिछले वर्ष के 31 मार्च की तुलना में अपने निवल मूल्य का 40% से अधिक नहीं होना चाहिये।
मुख्य शब्द
तरलता:
- यह एक फर्म, कंपनी और एक व्यक्ति की किसी नुकसान के बिना अपने ऋण का भुगतान करने की क्षमता है।
तरलता जोखिम:
- यह एक ऐसे शेयर की बिक्री-योग्यता (Marketability) को संदर्भित करता है जिसे मूल्यह्रास को रोकने या कम करने के लिये जल्दी से खरीदा या बेचा नहीं जा सकता है। इसे आमतौर पर अधिक मूल्य के शेयरों के मामले में देखा जाता है।
तरलता जोखिम प्रबंधन:
- तरलता जोखिम प्रबंधन (Liquidity Risk Management) का आशय उन प्रक्रियाओं और रणनीतियों को शामिल करना है जिनका उपयोग बैंक करता है:
- यह सुनिश्चित करता है कि संस्था को अनुचित अस्थिरता से बचाते हुए बैलेंसशीट एक वांछित शुद्ध ब्याज मार्जिन अर्जित करती है।
- विकासशील संस्थान के जोखिम को अनुकूलित करने के लिये संपत्ति और देनदारियों के उचित समन्वय के साथ एक बैलेंसशीट की योजना और संरचना तैयार करना।
- इसकी दिन-प्रतिदिन के परिचालन या संपूर्ण वित्तीय स्थिति पर नकारात्मक प्रभाव डाले बिना नकदी प्रवाह और संपार्श्विक ज़रूरतों (सामान्य तथा तनाव दोनों स्थितियों में) को पूरा करने की क्षमता का आकलन करना।
- रणनीतियों को विकसित कर और उचित कार्रवाई द्वारा उस जोखिम को कम करना जो यह सुनिश्चित करने के लिये डिज़ाइन किया गया है कि आवश्यकता होने पर ज़रूरी धन और संपार्श्विक (Collateral) उपलब्ध होगा।
तरलता कवरेज अनुपात:
- यह वित्तीय संस्थानों द्वारा संचालित अत्यधिक तरल संपत्ति के अनुपात को संदर्भित करता है, ताकि अल्पकालिक दायित्वों को पूरा करने की उनकी निरंतर क्षमता सुनिश्चित हो सके।
ऋण-मूल्य अनुपात:
- यह एक वित्तीय शब्द है जिसका उपयोग उधारदाताओं द्वारा खरीदी गई संपत्ति के मूल्य-ऋण अनुपात को व्यक्त करने हेतु किया जाता है।
तरलता बफर:
- यह तरल संपत्तियों के स्टॉक को संदर्भित करता है जो एक बैंकिंग संगठन को अपेक्षित और अप्रत्याशित नकदी प्रवाह को पूरा करने में सक्षम बनाता है तथा बैंकिंग संगठन के दैनिक कार्यों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना संपार्श्विक ज़रूरतों को पूरा करता है।
पूंजी पर्याप्तता अनुपात:
- पूंजी पर्याप्तता अनुपात (Capital Adequacy Ratio) को पूंजी-से-जोखिम भारित संपत्ति अनुपात (Capital-To-Risk Weighted Assets Ratio-CRAR) के रूप में भी जाना जाता है। इसका उपयोग जमाकर्त्ताओं की सुरक्षा और विश्व में वित्तीय प्रणालियों की स्थिरता और दक्षता को बढ़ावा देने के लिये किया जाता है।
स्रोत: द हिंदू
भारतीय अर्थव्यवस्था
इंडिया एनर्जी आउटलुक 2021
चर्चा में क्यों?
हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (International Energy Agency- IEA) द्वारा ‘भारत एनर्जी आउटलुक 2021’ रिपोर्ट जारी की गई है, जो भारत की बढ़ती आबादी हेतु विश्वसनीय, सस्ती और टिकाऊ ऊर्जा सुनिश्चित करने के लक्ष्य के समक्ष मौजूद चुनौतियों के समाधान के साथ-साथ संभावनाओं पर ज़ोर देती है।
- भारत एनर्जी आउटलुक 2021 अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की विश्व ऊर्जा आउटलुक शृंखला की एक नई एवं विशेष रिपोर्ट है।
प्रमुख बिंदु:
वर्ष 2030 तक तीसरा सबसे बड़ा ऊर्जा उपभोक्ता:
- अगले दो दशकों में भारत की ऊर्जा मांग में 25% की वृद्धि होगी और वर्ष 2030 तक भारत यूरोपीय संघ को पीछे छोड़ते हुए विश्व का तीसरा सबसे बड़ा ऊर्जा उपभोक्ता देश बन जाएगा।
- वर्तमान में चीन, अमेरिका और यूरोपीय संघ के बाद भारत चौथा सबसे बड़ा वैश्विक ऊर्जा उपभोक्ता देश है।
- मौजूदा परिदृश्य को देखते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वर्ष 2040 तक भारत का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) 8.6 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच जाएगा, जिससे भारत की ऊर्जा खपत में भी लगभग दोगुनी बढ़ोतरी होने का अनुमान है।
- वैश्विक महामारी से पहले भारत की ऊर्जा मांग वर्ष 2019 - 2030 के बीच मध्य लगभग 50 प्रतिशत बढ़ने का अनुमान था, लेकिन महामारी के पश्चात् अब यह 35 प्रतिशत के करीब पहुँच गई है।
औद्योगीकरण एक मुख्य कारक:
- पिछले तीन दशकों में क्रय शक्ति समता (PPP) के मामले में भारत ने वैश्विक औद्योगिक मूल्यवर्द्धन (Industrial Value-added) में 10 प्रतिशत का योगदान दिया है।
- अनुमान के मुताबिक, वर्ष 2040 तक भारत वैश्विक औद्योगिक मूल्यवर्द्धन में 20 प्रतिशत का योगदान देगा, साथ ही भारत औद्योगिक ऊर्जा खपत में वैश्विक विकास का नेतृत्त्व करेगा।
आयात पर निर्भरता:
- भारत की बढ़ती ऊर्जा ज़रूरत उसे जीवाश्म ईंधन के आयात पर अधिक निर्भर बना देगी, क्योंकि पेट्रोलियम अन्वेषण और उत्पादन तथा नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिये सरकार की नीतियों के बावजूद भारत का घरेलू तेल और गैस उत्पादन वर्षों से स्थिर बना हुआ है।
- तेल की बढ़ती मांग वर्ष 2019 की तुलना में वर्ष 2030 तक भारत के तेल आयात बिल को दोगुना (181 बिलियन डॉलर) और वर्ष 2040 तक तिगुना (255 बिलियन डॉलर) कर सकती है।
तेल की मांग
- मौजूदा नीतिगत परिदृश्य में वर्ष 2040 तक भारत की तेल मांग 74 प्रतिशत तक बढ़कर 8.7 मिलियन बैरल प्रतिदिन पर पहुँच सकती है।
- भारत में प्रति व्यक्ति कार स्वामित्व में पाँच गुना वृद्धि होने का अनुमान है, जिससे भारत वैश्विक स्तर पर तेल की मांग में हो रही वृद्धि का नेतृत्त्व करेगा।
- वर्ष 2040 तक तेल आयात पर भारत की शुद्ध निर्भरता (कच्चे तेल के आयात और तेल उत्पादों के निर्यात दोनों को ध्यान में रखते हुए) वर्तमान के 75% से बढ़कर 90% से अधिक के स्तर पर पहुँच सकती है क्योंकि उत्पादन की तुलना में घरेलू खपत बहुत अधिक हो जाएगी।
प्राकृतिक गैस की मांग
- 2040 तक कोयले की मांग में तीन गुना वृद्धि के साथ, भारत प्राकृतिक गैस के क्षेत्र में सबसे तेज़ी से विकसित बाज़ार बन जाएगा।
- भारत में प्राकृतिक गैस आयात निर्भरता वर्ष 2010 के 20 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2019 में लगभग 50 प्रतिशत पर पहुँच गई है और अनुमान के अनुसार, वर्ष 2040 तक यह 60 प्रतिशत से अधिक हो जाएगी।
कोयले की मांग
- वर्तमान में भारत के ऊर्जा क्षेत्र में कोयले का वर्चस्व है, जो कि कुल उत्पादन के 70 प्रतिशत से अधिक है।
- कोयले की मांग वर्ष 2040 तक 772 मिलियन टन तक पहुँच सकती है जो कि वर्तमान में 590 मिलियन टन है।
अक्षय ऊर्जा संसाधन की मांग
- अक्षय ऊर्जा की मांग में वृद्धि के मामले में भारत की हिस्सेदारी चीन के बाद दुनिया में सबसे अधिक है।
अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA)
- अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी वर्ष 1974 में पेरिस (फ्राँस) में स्थापित एक स्वायत्त अंतर-सरकारी संगठन है।
- IEA मुख्य रूप से ऊर्जा नीतियों पर ध्यान केंद्रित करता है, जिसमें आर्थिक विकास, ऊर्जा सुरक्षा और पर्यावरण संरक्षण आदि शामिल हैं।
- भारत मार्च 2017 में IEA का एसोसिएट सदस्य बना था, हालाँकि भारत इससे पूर्व ही संगठन के साथ कार्य कर रहा था।
- हाल ही में भारत ने वैश्विक ऊर्जा सुरक्षा और स्थिरता के क्षेत्र में सहयोग को मज़बूत करने के लिये IEA के साथ एक रणनीतिक समझौता किया है।
- ‘वर्ल्ड एनर्जी आउटलुक’ (World Energy Outlook- WEO) रिपोर्ट ‘अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी’ द्वारा जारी की जाती है।
- IEA का इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी क्लीन कोल सेंटर, कोयले को सतत् विकास लक्ष्यों के अनुकूल ऊर्जा का स्वच्छ स्रोत बनाने पर स्वतंत्र जानकारी और विश्लेषण प्रदान करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहा है।
आगे की राह
- वर्तमान में संपूर्ण विश्व ऊर्जा क्षेत्र में परिवर्तन की गति को तेज़ करने के माध्यमों की तलाश कर रहा है, ऐसे में भारत को निम्न-कार्बन आधारित समावेशी विकास के लिये एक नवीन मॉडल विकसित करना चाहिये। यदि भारत इस तरह के मॉडल को विकसित करने में सफल रहता है तो यह विश्व के अन्य विकासशील देशों के लिये एक उदाहरण प्रस्तुत करेगा कि किस तरह कार्बन उत्सर्जन में कमी करते हुए आर्थिक विकास में बढ़ोतरी की जा सकती है।
- भारत पहले से ऊर्जा के क्षेत्र में अग्रणी है तथा सौर उर्जा के माध्यम से भारत की स्थिति और भी मज़बूत हो सकती है, हालाँकि भारत को इस लक्ष्य को पूरा करने के लिये अत्याधुनिक तकनीक एवं नवीनतम नीतियों की आवश्यकता होगी।
- उभरते नए औद्योगिक क्षेत्र के साथ ही स्वच्छ ऊर्जा से संबंधित रोज़गार में भी बढ़ोतरी हो रही है, भारत को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता होगी कि विकास की इस प्रकिया में कोई भी पीछे न रहे और इसमें वे क्षेत्र भी शामिल हों जो वर्तमान में कोयले पर निर्भर हैं।
स्रोत : इंडियन एक्सप्रेस
शासन व्यवस्था
ब्लू इकॉनमी नीति का मसौदा
चर्चा में क्यों?
हाल ही में पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (MoES) ने विभिन्न हितधारकों से सुझाव और इनपुट आमंत्रित करते हुए ब्लू इकॉनमी नीति का मसौदा जारी किया है।
- यह नीति वर्ष 2030 तक भारत सरकार के नए भारत के विज़न के अनुरूप है।
प्रमुख बिंदु
ब्लू इकॉनमी नीति का मसौदा
- इस नीतिगत दस्तावेज़ में ब्लू इकॉनमी को राष्ट्रीय विकास के दस प्रमुख आयामों में से एक के रूप में स्वीकार किया गया है।
- यह नीति भारतीय अर्थव्यवस्था के समग्र विकास हेतु कई प्रमुख क्षेत्रों में नीतिगत हस्तक्षेप पर ज़ोर देती है। इस नीति में निम्नलिखित सात विषयगत क्षेत्रों की पहचान की गई है:
- ब्लू इकॉनमी और ओसियन गवर्नेंस के लिये राष्ट्रीय लेखा ढाँचा।
- तटीय समुद्री स्थानिक योजना और पर्यटन।
- समुद्री मत्स्य पालन, जलीय कृषि और मछली प्रसंस्करण।
- विनिर्माण, उभरते उद्योग, व्यापार, प्रौद्योगिकी, सेवाएँ और कौशल विकास।
- लॉजिस्टिक्स, इन्फ्रास्ट्रक्चर और शिपिंग जिसमें ट्रांस-शिपमेंट भी शामिल है।
- तटीय और गहरे समुद्र में खनन एवं अपतटीय ऊर्जा।
- सुरक्षा, रणनीतिक आयाम और अंतर्राष्ट्रीय जुड़ाव।
उद्देश्य
- भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में ब्लू इकॉनमी के योगदान में बढ़ोतरी करना।
- ब्लू इकॉनमी जिसमें समुद्री संसाधनों पर निर्भर आर्थिक गतिविधियाँ शामिल हैं, भारतीय अर्थव्यवस्था में कुल 4.1 प्रतिशत योगदान देती है।
- तटीय समुदायों के जीवन में सुधार करना।
- समुद्री जैव विविधता का संरक्षण करना।
- राष्ट्रीय समुद्री क्षेत्रों और संसाधनों की सुरक्षा बनाए रखना।
ब्लू इकॉनमी नीति की आवश्यकता
- विशाल तटरेखा
- लगभग 7.5 हज़ार किलोमीटर लंबी समुद्री तटरेखा के साथ भारत की समुद्री स्थिति काफी विशिष्ट है।
- भारत के कुल 28 राज्यों में से नौ तटीय राज्य हैं और देश की संपूर्ण भौगोलिक सीमा में 1,382 द्वीप शामिल हैं।
- देश में कुल 12 प्रमुख बंदरगाहों समेत लगभग 199 बंदरगाह हैं, जहाँ से प्रतिवर्ष लगभग 1,400 मिलियन टन कार्गो गुज़रता है।
- निर्जीव संसाधनों का उपयोग
- तकरीबन 2 मिलियन वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले भारत के अनन्य आर्थिक क्षेत्र (SEZ) में कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधनों के साथ-साथ जीवित और निर्जीव संसाधनों का एक विशाल भंडार मौजूद है।
- तटीय समुदायों की आजीविका
- भारत की तटीय अर्थव्यवस्था देश भर के 4 मिलियन से अधिक मछुआरों और तटीय समुदायों की आजीविका का महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
भारत द्वारा शुरू की गईं अन्य महत्त्वपूर्ण पहलें
- सतत् विकास के लिये ब्लू इकॉनमी पर भारत-नॉर्वे टास्क फोर्स
- भारत और नॉर्वे के बीच ब्लू इकॉनमी को लेकर संयुक्त पहल विकसित करने के उद्देश्य से वर्ष 2020 में दोनों देशों द्वारा संयुक्त रूप से इस टास्क फोर्स का गठन किया गया था।
- सागरमाला परियोजना
- सागरमाला परियोजना केंद्र सरकार द्वारा प्रारंभ की गई योजना है जो बंदरगाहों के आधुनिकीकरण से संबंधित है।
- इस परियोजना का उद्देश्य अंतर्देशीय जलमार्ग और तटीय नौवहन को विकसित करना है, जो समुद्री लॉजिस्टिक्स क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करेगा, इसके परिणामस्वरूप रोज़गार के लाखों नए अवसर पैदा होंगे और साथ ही लॉजिस्टिक्स की लागत में भी कमी आएगी।
- यह परियोजना समुद्री संसाधनों, आधुनिक मत्स्य पालन तकनीकों और तटीय पर्यटन के सतत् उपयोग के माध्यम से तटीय समुदायों और लोगों के विकास पर ध्यान केंद्रित करती है।
- ओ-स्मार्ट
- ओ-स्मार्ट एक अम्ब्रेला योजना है जिसका उद्देश्य सतत् विकास के लिये महासागरों और समुद्री संसाधनों का विनियमित उपयोग करना है।
- एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन
- यह तटीय और समुद्री संसाधनों के संरक्षण तथा तटीय समुदायों के लिये आजीविका के अवसरों में सुधार पर केंद्रित है।
- राष्ट्रीय मत्स्य नीति
- भारत में समुद्री और अन्य जलीय संसाधनों से मत्स्य संपदा के सतत् उपयोग पर ध्यान केंद्रित कर 'ब्लू ग्रोथ इनिशिएटिव' को बढ़ावा देने हेतु एक राष्ट्रीय मत्स्य नीति मौजूद है।
वैश्विक प्रयास
- सतत् विकास लक्ष्य (SDG)-14 सतत् विकास के लिये महासागरों, समुद्रों और समुद्री संसाधनों का संरक्षण और सतत् उपयोग पर ध्यान केंद्रित करता है।
ब्लू इकॉनमी
- ब्लू इकॉनमी की अवधारणा को बेल्ज़ियम के अर्थशास्त्री गुंटर पौली द्वारा वर्ष 2010 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘द ब्लू इकॉनमी: 10 इयर्स, 100 इनोवेशन्स और 100 मिलियन जॉब्स’ में प्रस्तुत किया गया था।
- यह अवधारणा आर्थिक विकास, बेहतर आजीविका और नौकरियों के सृजन तथा महासागर पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य के लिये महासागर संसाधनों का सतत् उपयोग को संदर्भित करती है।
- इसमें शामिल है:
- अक्षय ऊर्जा: सतत् समुद्री ऊर्जा देश के सामाजिक और आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
- मत्स्य पालन: सतत् मत्स्य पालन अधिक राजस्व अर्जित करने और मछली उत्पादन बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण हो सकता है, साथ ही यह समुद्रों में मछली भंडारण को बहाल करने में मदद कर सकता है।
- समुद्री परिवहन: 80 प्रतिशत से अधिक अंतर्राष्ट्रीय वस्तुओं का व्यापार समुद्री मार्ग से किया जाता है।
- पर्यटन: महासागरीय और तटीय पर्यटन रोज़गार में बढ़ोतरी करने के साथ-साथ आर्थिक विकास को बल दे सकता है।
- जलवायु परिवर्तन: महासागर एक महत्त्वपूर्ण कार्बन सिंक (ब्लू कार्बन) के रूप में हैं और जलवायु परिवर्तन को कम करने में मददगार हो सकते हैं।
- अपशिष्ट प्रबंधन: भूमि पर बेहतर अपशिष्ट प्रबंधन के माध्यम से महासागरों के पारिस्थितिक तंत्र में सुधार किया जा सकता है।
- ब्लू इकॉनमी, महासागरीय अर्थव्यवस्था के विकास को सामाजिक समावेश और पर्यावरणीय स्थिरता के साथ एकीकृत करने पर ज़ोर देती है।
आगे की राह
- भारत के विशाल समुद्री हितों के कारण ‘ब्लू इकॉनमी’ को देश की आर्थिक वृद्धि में काफी महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है।
- ब्लू इकॉनमी देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) और आम जनजीवन के कल्याण के लिये महत्त्वपूर्ण हो सकती है, हालाँकि यह आवश्यक है कि सतत् विकास एवं सामाजिक-आर्थिक कल्याण को केंद्र में रखा जाए।
- अतः ब्लू इकॉनमी नीति के मसौदे को देश के आर्थिक विकास और कल्याण हेतु एक महत्त्वपूर्ण नीतिगत ढाँचा माना जा सकता है।
स्रोत: पी.आई.बी.
जैव विविधता और पर्यावरण
गंगा डॉल्फिन
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ ज़िले में एक गंगा डॉल्फिन की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई थी।
- गौरतलब है कि गंगा डॉल्फिन का शिकार करना वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत दंडनीय अपराध है।
प्रमुख बिंदु:
संक्षिप्त परिचय:
- वैज्ञानिक नाम: प्लैटनिस्टा गैंगेटिका (Platanista gangetica)
- गंगा डॉल्फिन की खोज आधिकारिक तौर पर वर्ष 1801 में की गई थी।
- गंगा डॉल्फिन नेपाल, भारत और बांग्लादेश की गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना और कर्नाफुली-सांगु नदी प्रणालियों में रहती है।
- गंगा डॉल्फिन केवल मीठे पानी में रह सकती है और यह वास्तव में दृष्टिहीन होती है।
- ये पराश्रव्य ध्वनियों का उत्सर्जन करके शिकार करती हैं, जो मछलियों और अन्य शिकार से टकराकर वापस लौटती है तथा उन्हें अपने दिमाग में एक छवि "देखने" में सक्षम बनाती है। इन्हें 'सुसु' (Susu) भी कहा जाता है।
- गंगा डॉल्फिन की आबादी लगभग 1200-1800 के बीच है।
महत्त्व:
- यह संपूर्ण नदी पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य का एक विश्वसनीय संकेतक है।
- गंगा डॉल्फिन को वर्ष 2009 में भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय जलीय जीव (National Aquatic Animal) के रूप में मान्यता दी थी।
गंगा डॉल्फिन के लिये खतरे:
- अवांछित शिकार: लोगों की तरह ही ये डॉल्फिन नदी के उन क्षेत्रों को पसंद करती हैं जहाँ मछलियाँ बहुतायत मात्रा में हों और पानी का प्रवाह धीमा हो। इसके कारण लोगों को मछलियाँ कम मिलती हैं और मछली पकड़ने के जाल में गलती से फँस जाने के कारण गंगा डॉल्फिन की मृत्यु हो जाती है, जिसे बायकैच (Bycatch) के रूप में भी जाना जाता है।
- प्रदूषण : औद्योगिक, कृषि एवं मानव प्रदूषण इनके प्राकृतिक निवास स्थान के क्षरण का एक और गंभीर कारण है।
- बाँध: बाँधों और सिंचाई से संबंधित अन्य परियोजनाओं का निर्माण उन्हें सजातीय प्रजनन (Inbreeding) के लिये संवेदनशील बनाने के साथ अन्य खतरों के प्रति भी सुभेद्य बनाता है क्योंकि ऐसे निर्माण के कारण वे अन्य क्षेत्रों में नहीं जा सकते हैं।
- एक बाँध के अनुप्रवाह में भारी प्रदूषण, मछली पकड़ने की गतिविधियों में वृद्धि और पोत यातायात से डॉल्फिन के लिये खतरा उत्पन्न होता है। इसकी वजह से उनके लिये भोजन की भी कमी होती है क्योंकि बाँध मछलियों और अन्य शिकारों के प्रवासन, प्रजनन चक्र तथा निवास स्थान को प्रभावित करता है।
संरक्षण स्थिति:
- भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची-I के तहत गंगा डॉल्फिन का शिकार करना प्रतिबंधित है।
- गंगा डॉल्फिन को IUCN की रेड लिस्ट में संकटग्रस्त (Endangered) की श्रेणी में रखा गया है।
- गंगा डॉल्फिन को ‘वन्यजीवों और वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन’ (The Convention of International Trade in Endangered Species of Wild Fauna and Flora- CITES) के परिशिष्ट-I में शामिल किया गया है।
- वन्यजीवों की प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण पर अभिसमय (CMS): परिशिष्ट II (प्रवासी प्रजातियाँ जिन्हें संरक्षण और प्रबंधन की आवश्यकता है या जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से काफी लाभ होगा)।
संरक्षण के लिये उठाए गए कदम:
- प्रोजेक्ट डॉल्फिन (Project Dolphin): भारतीय प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस-2020 पर दिये गए अपने भाषण में प्रोजेक्ट डॉल्फिन को लॉन्च करने की घोषणा की। यह प्रोजेक्ट टाइगर की तर्ज पर होगा, जिसने बाघों की आबादी बढ़ाने में मदद की।
- डॉल्फिन अभयारण्य: बिहार के भागलपुर ज़िले में विक्रमशिला गंगा डॉल्फिन अभयारण्य की स्थापना की गई है।
- संरक्षण योजना:‘गंगा डॉल्फिन संरक्षण कार्य योजना 2010-2020’ गंगा डॉल्फिन के संरक्षण के प्रयासों में से एक है, इसके तहत गंगा डॉल्फिन और उनकी आबादी के लिये प्रमुख खतरों के रूप में नदी में यातायात, सिंचाई नहरों और शिकार की कमी आदि की पहचान की गई है।.
- राष्ट्रीय गंगा डॉल्फिन दिवस: राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन द्वारा प्रतिवर्ष 5 अक्तूबर को गंगा डॉल्फिन दिवस के रूप में मनाया जाता है।
भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972
- यह अधिनियम पर्यावरण और पारिस्थितिकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये देश में जंगली जानवरों, पक्षियों और पादप प्रजातियों के संरक्षण का प्रावधान करता है। अन्य प्रावधानों के अलावा यह अधिनियम कई पशु प्रजातियों के शिकार को प्रतिबंधित करता है। इस अधिनियम में अंतिम बार वर्ष 2006 में संशोधन किया गया था।
- इस अधिनियम की छह अनुसूचियाँ बनाईं गई हैं जिसके माध्यम से वनस्पतियों और जीवों को उनकी श्रेणी के अनुरूप अलग-अलग सुरक्षा प्रदान की जाती है।
- इसके तहत अनुसूची I और अनुसूची II में शामिल जीवों को पूर्ण संरक्षण प्राप्त है तथा इन अनुसूचियों से जुड़े अपराध के मामलों में अधिकतम दंड दिया जा सकता है।
- अनुसूची 5 में वे प्रजातियाँ शामिल हैं जिनका शिकार किया जा सकता है।
संबंधित संवैधानिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 48 (A):
- यह राज्य को पर्यावरण की रक्षा और सुधार के साथ वन्यजीवों तथा जंगलों की सुरक्षा करने का निर्देश देता है। इस अनुच्छेद को वर्ष 1976 में 42वें संशोधन द्वारा संविधान में जोड़ा गया था।
- अनुच्छेद 51 (A):
- अनुच्छेद 51(A) भारत के लोगों के लिये कुछ मूलभूत कर्तव्यों को लागू करता है। इनमें से एक जंगलों, झीलों, नदियों और वन्य जीवन सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और सुधार करना तथा जीवित प्राणियों के प्रति दया रखना है।