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डेली न्यूज़

  • 18 Mar, 2021
  • 48 min read
शासन व्यवस्था

एमपीलैड कार्यक्रम

चर्चा में क्यों?

हाल ही में गोवा की ग्राम पंचायतों में ‘सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम’ (Members of Parliament Local Area Development Scheme- MPLADS) की धनराशि वितरित की गई है ।

  • वर्तमान में MPLADS फंड योजना ( कोविड-19 महामारी के कारण) जिसके अंतर्गत महामारी से पूर्व निर्धारित धनराशि का आवंटन किया जाना था, निलंबित है। 

प्रमुख बिंदु:

MPLAD के बारे में:

  • MPLAD एक केंद्रीय क्षेत्र की योजना है जिसकी घोषणा दिसंबर 1993 में की गई थी।
  • प्रारंभ में इसका क्रियान्वयन ग्रामीण विकास मंत्रालय (Ministry of Rural Development) के अंतर्गत किया गया जिसे अक्तूबर 1994 में सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (Ministry of Statistics and Programme Implementation) को स्थानांतरित कर दिया गया।

कार्य पद्धति: 

  • MPLADS के तहत संसद सदस्यों (Member of Parliaments- MPs) को  प्रत्येक वर्ष 2.5 करोड़ रुपए की दो किश्तों में 5 करोड़ रुपए की राशि वितरित की जाती है। MPLADS के तहत आवंटित राशि नॉन-लैप्सेबल (Non-Lapsable) होती है।  
  • लोकसभा सांसदों से इस राशि को अपने लोकसभा क्षेत्रों में ज़िला प्राधिकरण परियोजनाओं (district authorities projects) में व्यय करने की सिफारिश की जाती है, जबकि राज्यसभा संसदों द्वारा इस राशि का उपयोग उस राज्य क्षेत्र में किया जाता है जहाँ से वे चुने गए हैं।  
  • राज्यसभा और लोकसभा के मनोनीत सदस्य देश में कहीं भी कार्य करने की सिफारिश कर सकते हैं।

MPLADS

प्राथमिक परियोजनाएँ:

  • इन परियोजनाओं में पीने के पानी की सुविधा, प्राथमिक शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य स्वच्छता और सड़कों आदि का निर्माण किया जाना शामिल है।
  • जून 2016 से MPLAD फंड का उपयोग स्वच्छ भारत अभियान (Swachh Bharat Abhiyan), सुगम्य भारत अभियान (Sugamya Bharat Abhiyan), वर्षा जल संचयन के माध्यम से जल संरक्षण और संसद आदर्श ग्राम योजना (Sansad Aadarsh Gram Yojana) आदि योजनाओं के कार्यान्वयन में भी किया जाता है।

आलोचना:

  • कार्यान्वयन में चूक: भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (Comptroller and Auditor-General of India- CAG) द्वारा खर्च की गई राशि के वित्तीय कुप्रबंधन और  कृत्रिम मुद्रास्फीति के उदाहरणों को चिह्नित किया गया है
  • वैधानिक समर्थन नहीं: इस योजना को किसी भी सांविधिक कानून द्वारा विनियमित नहीं किया जाता है, बल्कि इसका क्रियान्वयन तत्कालीन सरकार की इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है।
  • निगरानी और विनियमन: यह  योजना विकास में भागीदारी को बढ़ावा देने हेतु शुरू की गई थी लेकिन भागीदारी के स्तर को मापने के लिये कोई संकेतक उपलब्ध नहीं है।
  • संघवाद का उल्लंघन: MPLADS स्थानीय स्वशासी संस्थाओं के क्षेत्र का अतिक्रमण करता है जो संविधान के भाग IX और IX-A का उल्लंघन है।
  • शक्तियों के पृथक्करण सिद्धांत से टकराव: संसद सदस्यों का कार्यकारी कार्यों (Executive Functions) में हस्तक्षेप बढ़ रहा है।

संवैधानिकता पर बहस:

  • संविधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा हेतु राष्ट्रीय आयोग, 2002: आयोग द्वारा MPLADS योजना को इस आधार पर तत्काल बंद करने की सिफारिश की गई कि यह केंद्र और राज्य के मध्य संघवाद और शक्तियों के वितरण के मामले में तर्कसंगत नहीं है। 
  • द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट "शासन में नीतिशास्त्र", 2005: रिपोर्ट के अनुसार, यह योजना शक्तियों के पृथक्करण की धारणा को गंभीरता से प्रभावित करती है, क्योंकि इसके तहत विधायिका प्रत्यक्ष तौर पर कार्यकारी शक्तियाँ और भूमिका ग्रहण कर लेती है।
  • वर्ष 2010 में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय: सर्वोच्च न्यायालय के पांँच-न्यायाधीशों वाली पीठ ने फैसला सुनाया है कि शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा का उल्लंघन नहीं हुआ क्योंकि इस मामले में एक सांसद की भूमिका अनुशंसात्मक है और वास्तविक कार्य पंचायतों तथा नगरपालिकाओं द्वारा किया जाता है जो कि कार्यपालिका के  अंग है 

स्रोत: पी.आई.बी


भूगोल

मुल्लापेरियार बाँध

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने मुल्लापेरियार बाँध पर्यवेक्षक समिति (Mullaperiyar Dam Supervisory Committee) को बाँध की सुरक्षा से संबंधित मुद्दों पर निर्देश जारी करने का आदेश दिया है।

  • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2014 में मुल्लापेरियार बाँध से संबंधित सभी मुद्दों की देख-रेख के लिये एक स्थायी पर्यवेक्षी समिति का गठन किया था। यह बाँध तमिलनाडु और केरल के बीच विवाद का एक स्रोत है।

प्रमुख बिंदु

पृष्ठभूमि:

  • केरल के इडुक्की ज़िले के निवासियों ने मुल्लापेरियार बाँध के जल स्तर को 130 फीट तक कम करने के लिये एक याचिका दायर की थी, जिसमें कहा गया था कि मानसूनी अवधि में वृद्धि के कारण राज्य के इस क्षेत्र में भूकंप (Earthquake) और बाढ़ (Flood) का खतरा है।
  • याचिकाकर्त्ता ने कहा कि बाँध के सुरक्षा निरीक्षण और सर्वेक्षण के मामले में पर्यवेक्षी समिति की गतिविधि "सुस्त" पड़ गई थी।
    • इसने अपनी ज़िम्मेदारी को स्थानीय अधिकारियों की एक उप-समिति पर डाल दिया था।
    • पिछले छह वर्षों से इंस्ट्रूमेंटेशन स्कीम (Instrumentation Scheme), सुरक्षा तंत्र आदि को अंतिम रूप नहीं दिया गया है।

तमिलनाडु का पक्ष:

  • तमिलनाडु ने बाँध के नियम वक्र (Rule Curve) को अंतिम रूप देने में देरी के लिये केरल को दोषी ठहराया।
    • नियम वक्र एक बाँध में उसके जल के भंडारण स्तर में उतार-चढ़ाव को तय करता है। बाँध का गेट खोलने का कार्यक्रम नियम वक्र पर आधारित होता है।
    • यह एक बाँध के "मुख्य सुरक्षा" तंत्र का हिस्सा है।
    • बाढ़ जैसी आपातकालीन स्थिति में डैम शटर को खोलने से बचने के लिये नियम वक्र स्तर निर्धारित किया जाता है। यह मानसून के दौरान बाँध में जल स्तर को नियंत्रित करने में मदद करता है।
  • केरल ने इस बाँध के माध्यम से तमिलनाडु के विकास कार्यों को लगातार बाधित करने का कार्य किया है।
  • तमिलनाडु, केरल से उन इलाकों का डेटा प्राप्त नहीं कर पा रहा जो इस बाँध के जल प्रवाह के अंतअंतर्गत आते हैं, इसकी वजह से इन क्षेत्रों में न तो कोई सड़क बनी है और न ही बिजली की आपूर्ति बहाल हुई है, जबकि तमिलनाडु ने इसके लिये भुगतान किया है।

केरल का पक्ष:

  • केरल ने आरोप लगाया है कि तमिलनाडु ने वर्ष 1939 में "अप्रचलित" गेट ऑपरेशन शेड्यूल (Gate Operation Schedule ) को अपनाया।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय:

  • मुल्लापेरियार बाँध पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त पर्यवेक्षी समिति को वक्र नियम की जानकारी देने में विफल रहने पर तमिलनाडु के मुख्य सचिव “व्यक्तिगत रूप से ज़िम्मेदार” होंगे और  इस संबंध में “उचित कार्रवाई” की जाएगी।
  • पर्यवेक्षक समिति को तीन मुख्य सुरक्षा मुद्दों को संबोधित करने के लिये कदम उठाने तथा चार सप्ताह में एक अनुपालन रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया गया।
  • मुख्य मुद्दे:
    • निगरानी और बाँध उपकरणों का रख-रखाव।
    • नियम वक्र को अंतिम रूप देना।
    • गेट ऑपरेटिंग शेड्यूल को ठीक करना।
  • कारण:
    • तीन मुख्य मुद्दे सीधे तौर पर बाँध की सुरक्षा से संबंधित हैं और इनका प्रभाव आस-पास के क्षेत्रों में रहने वाले व्यक्तियों पर पड़ेगा।

मुल्लापेरियार बाँध

  • लगभग 123 साल पुराना मुल्लापेरियार बाँध केरल के इडुक्की ज़िले में मुल्लायार और पेरियार नदियों के संगम पर स्थित है।
    • इस बाँध की लंबाई 365.85 मीटर और ऊँचाई 53.66 मीटर है।
  • इसके माध्यम से तमिलनाडु राज्य अपने पाँच दक्षिणी ज़िलों के लिये पीने के पानी और सिंचाई की आवश्यकताओं को पूरा करता है।
    • ब्रिटिश शासन के दौरान 999 साल के लिये किये गए एक समझौते के अनुसार, इसके परिचालन का अधिकार तमिलनाडु को सौंपा गया था।
  • इस बाँध का उद्देश्य पश्चिम की ओर बहने वाली पेरियार नदी (Periyar River) के पानी को तमिलनाडु में वृष्टि छाया क्षेत्रों में पूर्व की ओर मोड़ना है।

पेरियार नदी

  • पेरियार नदी 244 किलोमीटर की लंबाई के साथ केरल राज्य की सबसे लंबी नदी है।
  • इसे ‘केरल की जीवनरेखा’ (Lifeline of Kerala) के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि यह केरल राज्य की बारहमासी नदियों में से एक है।
    • यह बारहमासी नदी प्रणाली है जो पूरे वर्ष अपने प्रवाह के कुछ हिस्सों में निरंतर बहती रहती है।
  • पेरियार नदी पश्चिमी घाट (Western Ghat) की शिवगिरी पहाड़ियों (Sivagiri Hill) से निकलती है और ‘पेरियार राष्ट्रीय उद्यान’ (Periyar National Park) से होकर बहती है।
  • पेरियार की मुख्य सहायक नदियाँ- मुथिरपूझा, मुल्लायार, चेरुथोनी, पेरिनजंकुट्टी हैं।

Periyar-Lake

स्रोत: द हिंदू


सामाजिक न्याय

NCC अधिनियम में संशोधन संबंधी केरल उच्च न्यायालय का आदेश

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को राष्ट्रीय कैडेट कोर अधिनियम, (NCC अधिनियम) 1948 में संशोधन करने का आदेश दिया, जो ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को राष्ट्रीय कैडेट कोर (NCC) में शामिल होने से प्रतिबंधित करता है।

प्रमुख बिंदु:

पृष्ठभूमि:

  • वर्ष 2020 में एक छात्र द्वारा उसके कॉलेज में लिंग (ट्रांसजेंडर) के आधार पर NCC यूनिट से बहिष्कार के विरोध में एक रिट याचिका दायर की गई थी।
  • याचिका में NCC अधिनियम, 1948 की धारा 6 को चुनौती दी गई जो केवल पुरुष ’या’ महिला ’कैडेट को NCC में शामिल होने की अनुमति देती है।
  • केंद्र सरकार ने तर्क दिया कि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को NCC में शामिल होने की अनुमति नहीं दी जा सकती है क्योंकि इसके लिये कोई प्रावधान नहीं है।

उच्च न्यायालय का आदेश:

  • न्यायालय ने इस स्थिति को अपवाद माना और ज़ोर देते हुए कहा कि यह अधिनियम केरल की ट्रांसजेंडर नीति और अन्य कानूनों के विपरीत है।
    • NCC अधिनियम, 1948 के प्रावधान ट्रांसजेंडर अधिकार अधिनियम, 2019 के क्रियान्वयन को प्रतिबंधित नहीं कर सकते हैं।
    • ट्रांसजेंडर अधिकार अधिनियम का उद्देश्य संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19 और 21 के तहत ट्रांसजेंडरों के अधिकारों को प्रभाव में लाना था।
  • एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति भी अपनी नैसर्गिक समानता के अनुसार NCC में शामिल होने का हकदार है।
  • न्यायालय ने केंद्र सरकार को छह महीने के भीतर NCC अधिनियम, 1948 की धारा 6 में संशोधन करने का आदेश दिया ताकि कानून सभी को समान अवसर प्रदान करे।

केरल की ट्रांसजेंडर नीति:

  • केरल वर्ष 2015 में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिये कल्याणकारी नीति तैयार करने और उसे लागू करने वाला देश का पहला राज्य था।
    • इस कदम को वर्ष 2014 के राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का पालन करते हुए उठाया गया, जिसमें अनुच्छेद 14, 15 और 16 के तहत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिये समानता और समान सुरक्षा का अधिकार बरकरार रखा गया था तथा ट्रांसजेंडर को 'थर्ड जेंडर' शीर्षक आवंटित किया।
  • न्यायिक बोर्ड:
    • एक ट्रांसजेंडर जस्टिस बोर्ड का गठन किया गया था, जिसका उद्देश्य उन नीतियों की निगरानी करना और पता लगाना है, जिन्हें इनके उचित कार्यान्वयन के लिये आवश्यक समझा गया है।
  • भेदभाव रहित:
    • इस नीति में सभी सरकारी कार्यालयों और सार्वजनिक पदाधिकारियों को निर्देश दिया गया कि वे ट्रांसजेंडर के लिये गैर-भेदभावपूर्ण निवारक सुविधाओं का विस्तार करें और उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन एवं सामाजिक सुरक्षा तक आसान पहुँच प्रदान करें।
  • सामाजिक लाभ:
    • इसके तहत भेदभाव से लड़ने वालों को मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करना, ट्रांसजेंडरों के खिलाफ होने वाले अपराधों के लिये स्थानीय पुलिस स्टेशन स्तर पर रिकॉर्डिंग, एक 24 × 7 हेल्पलाइन और संकट प्रबंधन केंद्र, बेसहारा लोगों और 55 वर्ष से अधिक आयु के लोगों के लिये मासिक पेंशन योजना तथा आश्रय घरों की स्थापना करने जैसे कुछ नीतिगत आश्वासन दिये गए।
  • शैक्षिक कार्यक्रम:
    • वर्ष 2018 में सरकार ने विश्वविद्यालयों तथा कला और विज्ञान महाविद्यालयों में पाठ्यक्रमों के लिये सभी ट्रांसजेंडर आवेदकों हेतु दो अतिरिक्त सीटें निर्धारित करने का निर्णय लिया।
    • ट्रांसजेंडर के लिये एक साक्षरता सहायता कार्यक्रम भी चलाया गया है, जिसके तहत 1,250 रुपए तक की मासिक छात्रवृत्ति और आश्रयगृह प्रदान किया जाता है।

राष्ट्रीय कैडेट कोर:

राष्ट्रीय कैडेट कोर अधिनियम, 1948

  • यह राष्ट्रीय कैडेट कोर को एक संविधान प्रदान करने हेतु एक अधिनियम है।
    • इसका प्रभाव पूरे भारत में है और यह इस अधिनियम के तहत नामांकित या नियुक्त सभी व्यक्तियों पर लागू होता है।
  • धारा 6:
    • किसी भी विश्वविद्यालय में कोई भी छात्र (पुरुष) सीनियर डिवीज़न में कैडेट के रूप में नामांकन के लिये खुद को प्रस्तुत कर सकता है और किसी भी स्कूल का कोई पुरुष छात्र खुद को जूनियर डिवीजन में कैडेट के रूप में नामांकन के लिये प्रस्तुत कर सकता है ।
    • महिला डिवीज़न में कैडेट के रूप में किसी भी विश्वविद्यालय या स्कूल की छात्रा खुद को नामांकन के लिये प्रस्तुत कर सकती है:
      • बशर्ते कि बाद के मामले में वह निर्धारित उम्र या उससे अधिक की हो।

NCC

  • NCC का गठन वर्ष 1948 (हृदयनाथ कूंज़रू समिति, 1946 की सिफारिश पर) में किया गया था और इसकी जड़ें ब्रिटिश युग की ‘यूनिवर्सिटेड कॉरपोरेट्स’ या ‘यूनिवर्सिटी ऑफिसर ट्रेनिंग कॉर्प्स’ जैसी वर्दीधारी युवा संस्थाओं में छिपी हुई हैं।
    • वर्तमान में इसकी क्षमता सेना, नौसेना और वायु सेना के विंग से लगभग 14 लाख कैडेट्स की है।
  • NCC रक्षा मंत्रालय के दायरे में आता है और इसका नेतृत्व ‘थ्री स्टार’ सैन्य रैंक के महानिदेशक द्वारा की जाती है।
  • यह हाईस्कूल और कॉलेज स्तर पर कैडेटों का नामांकन करता है और विभिन्न चरणों के पूरा होने पर प्रमाण पत्र भी प्रदान करता है।
    • NCC कैडेट विभिन्न स्तरों पर बुनियादी सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं और उनके शैक्षणिक पाठ्यक्रम में सशस्त्र बलों एवं उनके कामकाज से संबंधित मूल बातें भी होती हैं।
    • विभिन्न प्रशिक्षण शिविर, साहसिक गतिविधियाँ और सैन्य प्रशिक्षण शिविर NCC प्रशिक्षण के महत्त्वपूर्ण पहलू हैं।

महत्त्व:

  • NCC कैडेटों द्वारा विभिन्न आपातकालीन स्थितियों के दौरान राहत प्रयासों में कई वर्षों से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जाती रही है।
  • वर्तमान महामारी के दौरान देश भर में ज़िला और राज्य अधिकारियों के समन्वय में स्वैच्छिक राहत कार्य के लिये 60,000 से अधिक NCC कैडेटों को तैनात किया गया।

स्रोत- द हिंदू


भारतीय राजव्यवस्था

दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र शासन (संशोधन) विधेयक, 2021

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्र सरकार ने दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र शासन अधिनियम, 1991 में संशोधन के लिये दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र शासन (संशोधन) विधेयक, 2021 को लोकसभा में पेश किया।

  • इसका उद्देश्य दिल्ली में निर्वाचित सरकार और उपराज्यपाल के दायित्त्वों को और अधिक स्पष्ट करना है।

Center-vs-Delhi-govt

प्रमुख बिंदु

विधेयक के प्रावधान

  • ‘सरकार’ का अर्थ ‘उपराज्यपाल’: विधानसभा द्वारा बनाए जाने वाले किसी भी कानून में संदर्भित 'सरकार' का अर्थ उपराज्यपाल (LG) से होगा।
  • उपराज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का विस्तार: यह विधेयक उपराज्यपाल को उन मामलों में भी विवेकाधीन शक्तियाँ प्रदान करता है, जहाँ कानून बनाने का अधिकार दिल्ली विधानसभा को दिया गया है।
  • उपराज्यपाल से विमर्श: यह विधेयक सुनिश्चित करता है कि मंत्रिपरिषद (अथवा दिल्ली मंत्रिमंडल) द्वारा लिये गए किसी भी निर्णय को लागू करने से पूर्व उपराज्यपाल को अपनी ‘राय देने हेतु उपयुक्त अवसर प्रदान किया जाए।
  • प्रशासनिक निर्णयों के संबंध में: संशोधन के मुताबिक, दिल्ली विधानसभा राजधानी के दैनिक प्रशासन के मामलों पर विचार करने अथवा प्रशासनिक निर्णयों के संबंध में स्वयं को सक्षम करने के लिये कोई नियम नहीं बनाएगी।

संशोधन की आवश्यकता

  • संरचनात्मक स्पष्टता के लिये: विधेयक के ‘उद्देश्य और कारणों’ को लेकर गृह मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना के मुताबिक, वर्ष 1991 के अधिनियम में प्रक्रिया और व्यवसाय के संचालन से संबंधित प्रावधान किये गए हैं, हालाँकि उक्त खंड के प्रभावी समयबद्ध कार्यान्वयन के लिये कोई संरचनात्मक तंत्र स्थापित नहीं किया गया है।
    • इसके अलावा इस बारे में भी स्पष्टता नहीं है कि आदेश जारी करने से पूर्व किस प्रकार के प्रस्ताव अथवा मामलों को उपराज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत करना आवश्यक है।
    • 1991 के अधिनियम की धारा 44 में कहा गया है कि उपराज्यपाल की सभी कार्यकारी कार्रवाइयाँ, चाहे वे मंत्रिपरिषद की सलाह पर हों अथवा नहीं, उपराज्यपाल के नाम पर ही की जाएंगी।

घटनाओं की पृष्ठभूमि

  • वर्ष 2018 में सर्वोच्च न्यायालय के पाँच न्यायाधीशों की एक खंडपीठ ने अपने निर्णय में कहा था कि पुलिस, सार्वजनिक व्यवस्था और भूमि के अलावा अन्य किसी भी मुद्दे पर उपराज्यपाल की सहमति की आवश्यकता नहीं है।
    • हालाँकि न्यायालय ने कहा था कि मंत्रिपरिषद के निर्णयों के बारे में उपराज्यपाल को सूचित करना आवश्यक होगा।
    • मंत्रिपरिषद की सलाह उपराज्यपाल के लिये बाध्यकारी है। 
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि दिल्ली के उपराज्यपाल की स्थिति किसी अन्य राज्य के राज्यपाल जैसी नहीं है, बल्कि सीमित अर्थ में वह केवल एक प्रशासक है।
    • खंडपीठ ने यह भी कहा था कि निर्वाचित सरकार को यह ध्यान में रखना होगा कि दिल्ली एक राज्य नहीं है।
  • सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय के बाद दिल्ली सरकार ने किसी भी निर्णय के लागू होने से पूर्व उपराज्यपाल के पास कार्यकारी मामलों की फाइलें भेजना बंद कर दिया था।
    • दिल्ली सरकार उपराज्यपाल को सभी प्रशासनिक घटनाक्रमों से अवगत तो करा रही थी, किंतु यह कार्य किसी भी निर्णय को लागू करने या निष्पादित करने के बाद किया जा रहा था, न कि उससे पूर्व। 
    • यदि केंद्र सरकार हालिया संशोधन को मंज़ूरी दे देती है, तो निर्वाचित सरकार के लिये मंत्रिमंडल के किसी भी फैसले पर कोई कार्रवाई करने से पूर्व उपराज्यपाल की सलाह लेना आवश्यक हो जाएगा।

दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र शासन अधिनियम, 1991

  • एक विधानसभा के साथ केंद्रशासित प्रदेश के रूप में दिल्ली की वर्तमान स्थिति 69वें संविधान संशोधन अधिनियम का परिणाम है, जिसके माध्यम से संविधान में अनुच्छेद 239AA और 239BB शामिल किये गए थे।
  • दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र शासन अधिनियम को राष्ट्रीय राजधानी में विधानसभा और मंत्रिपरिषद से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों के पूरक के रूप में पारित किया गया था।
  • सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिये यह अधिनियम दिल्ली विधानसभा की शक्तियों, उपराज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों और उपराज्यपाल को जानकारी देने से संबंधित मुख्यमंत्री के कर्तव्यों की रूपरेखा प्रस्तुत करता है।

स्रोत: द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

जल से भारी धातुओं का निष्कासन

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान ( Indian Institute of Technology- IIT), मंडी के शोधकर्त्ताओं के एक समूह द्वारा जल से भारी धातुओं (Heavy Metals) को निकालने हेतु एक नई विधि विकसित की गई है।

प्रमुख बिंदु:

पृष्ठभूमि:

  • दूषित जल से भारी धातुओं को हटाने हेतु रासायनिक अवक्षेपण (Chemical Precipitation), आयन विनिमय (Ion exchange), अधिशोषण (Absorption), झिल्ली निस्पंदन (Membrane Filtration), रिवर्स ऑस्मोसिस ( Reverse Osmosis), सॉल्वेंट एक्सट्रैक्शन (Solvent Extraction) और विद्युत रासायनिक उपचार (Electrochemical Treatment) जैसे कई तरीकों का उपयोग किया गया है।
  • इनमें से कई विधियाँ उच्च पूंजी और परिचालन लागत वाली हैं। 
  • कम खर्चीली होने के कारण अधिशोषण (Adsorption) सबसे उपयुक्त विधियों में से एक है।  

शोध के बारे में:

  • शोध दल द्वारा एक बायोपॉलीमर आधारित सामग्री का उपयोग कर रेशेदार झिल्ली युक्त फिल्टर (Fibrous Membrane Filter) विकसित किया गया है जो जल के नमूनों से भारी धातुओं को अलग करने में मदद करता है।
    • इन झिल्लियों में अवशोषक (Adsorbents) सामग्री का उपयोग किया गया है जो जल से मिश्रित धातुओं को अलग करती है।
    • इन अवशोषकों में बड़े पैमाने पर चिटोसन नामक एक बायोपॉलीमर का प्रयोग किया गया है, जो केकड़े के खोल (Crab Shells ) से प्राप्त होता है और इसे बहुलक (नायलॉन) के साथ मिश्रित किया जाता है।
  • वित्तपोषण: इस अध्ययन का वित्तपोषण भारत सरकार के वित्त मंत्रालय द्वारा किया गया है। 

अध्ययन में शामिल प्रक्रिया:  

  • इस अध्ययन में शोधकर्ताओं द्वारा ‘सॉल्यूशन ब्लोइंग’ (Solution Blowing) नामक एक प्रक्रिया का उपयोग किया गया है, जबकि नियमित फाइबर आधारित अवशोषक का उत्पादन ‘मेल्ट  ब्लोइंग’ (Melt Blowing) विधि द्वारा किया जाता है।
  • मेल्ट  ब्लोइंग: 
    • यह 0.5 माइक्रोन से पतले (माइक्रोमीटर की सीमा में) तंतुओं द्वारा सामग्री के निर्माण हेतु एक विशेष तकनीक है।
    • तंतुओं/फाइबर पर तीव्रता के साथ गर्म हवा को प्रवाहित किया जाता है जिससे इनकी लंबाई में वृद्धि होती है।
  • सॉल्यूशन ब्लोइंग: 
    • यह विलायक में बहुलक को मिश्रित करता है, जैसे- आयनिक तरल में सेल्यूलोज़।
    • विलयन को एक स्पिन नोज़ल (Spin Nozzle) के माध्यम से पंप किया जाता है जिसमें हवा को उच्च गति के साथ प्रवाहित किया जाता है।
    • सॉल्यूशन ब्लोइंग द्वारा ऐसे फाइबर का निर्माण किया जाता है जो व्यास में नैनोमीटर जितने होते हैं तथा एक मानव बाल की तुलना में सौ हज़ार गुना पतले होते हैं। ये मेल्ट  ब्लोइंग से प्राप्त उत्पादों की तुलना में अधिक महीन होते हैं। इनके तंतुओं की सतह का क्षेत्रफल काफी बढ़ जाता है, परिणामस्वरूप भारी जल से धातुओं को बेहतर तरीके से सोखा जा सकता है।
    • यह विधि नायलॉन जैसे सिंथेटिक पॉलीमर के साथ चिटोसन और लिग्निन जैसे प्राकृतिक पॉलीमर की उच्च सांद्रता के सम्मिश्रण में सक्षम है।
  • लाभ:
    • उच्च धातु निष्कासन क्षमता: सामान्य अवशोषक तंतु,  नैनोफाइबर झिल्लियों की सतह पर ही धातुओं को रोकने का कार्य करते हैं।
      • जबकि बायोपॉलीमर आधारित सामग्री जल की सतह के ऊपर ही भारी धातुओं को सोखने का कार्य करती है । 
    • झिल्ली का पुन: उपयोग: धातुओं को सोखने की क्षमता में कमी आने से पहले झिल्ली को कम-से-कम आठ बार पुन: उपयोग किया जा सकता है। 
    • अवशोषित तत्त्वों की प्राप्ति : मेटल-हाइड्रॉक्सिल नाइट्रेट फॉर्म (Metal-Hydroxyl Nitrat) में अवशोषक धातु को आसानी से अलग किया जा सकता है। 
    • औद्योगिक उत्पादन: शोधकर्त्ताओं ने धातु-दूषित जल के उच्च संस्करणों को साफ करने हेतु बड़े पैमाने पर फाइबर-आधारित अवशोषकों का उत्पादन करने के लिये एक विधि प्रदान की है।
    • पर्यावरण अनुकूल: सॉल्यूशन ब्लोइंग तकनीक सिंथेटिक पॉलीमर को प्राकृतिक पॉलीमर में परिवर्तित करने में सक्षम है।
      • जो वर्तमान समय में पर्यावरण जागरूकता के इस युग में एक स्वागत योग्य कदम होगा। 

भारी धातुएंँ

भारी धातुओं के बारे में:

  • भारी धातु शब्द किसी भी धात्विक रासायनिक तत्त्व (metallic chemical element) को संदर्भित करता है जिसका अपेक्षाकृत उच्च घनत्व (> 5 ग्राम / सेमी. 3) होता है तथा यह कम सांद्रता के साथ विषाक्त या ज़हरीली होती है।
  • भारी धातुओं के उदाहरणों में पारा (Hg), कैडमियम (Cd), आर्सेनिक (As), क्रोमियम (Cr), थैलियम (Tl), और सीसा (Pb) शामिल हैं।

भारी धातुओं का स्रोत: 

  • भारी धातुएँ पर्यावरण में प्राकृतिक तरीकों से या मानवीय गतिविधियों द्वारा शामिल होती हैं।
  • प्राकृतिक स्रोत
    • इसमें भौगोलिक घटनाएंँ जैसे- ज्वालामुखी विस्फोट, चट्टानों का अपक्षय आदि  शामिल हैं और नदियों के प्रवाह के कारण ये झीलों एवं महासागरों के जल में मिल जाती हैं।
    • मानवजनित स्रोत:
      • धातुओं का  खनन, विनिर्माण, इलेक्ट्रॉनिक्स, घरेलू अपशिष्ट, कृषि अपशिष्ट और उर्वरक उत्पादन जैसी मानव गतिविधियों के माध्यम से इन्हें जल में प्रवाहित किया जाता है।
      • केंद्रीय जल आयोग (CWC) के अनुसार, भारत की कई प्रमुख नदियों में स्थित जल गुणवत्ता केंद्रों से एकत्रित किये गए दो-तिहाई जल के नमूनों में भारी धातुओं की उपस्थिति मिली है, जिनकी मात्रा भारतीय मानक ब्यूरो (Bureau of Indian Standards- BIS) द्वारा निर्धारित सुरक्षित सीमा से अधिक है।
      • पश्चिम बंगाल के कई ग्रामीण इलाकों में पीने के पानी में आर्सेनिक विषाक्तता (Arsenic Poisoning ) के कारण लोग अल्सर (Ulcers) की समस्या से पीड़ित हैं। एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, भारत में आर्सेनिक प्रभावित बस्तियों की संख्या में पिछले पांँच वर्षों (वर्ष 2015 से वर्ष 2020) में 145% तक की वृद्धि हुई है।

मानव पर भारी धातुओं का प्रभाव:

  • कुछ आवश्यक भारी धातुएँ कोबाल्ट, तांबा, जस्ता और मैंगनीज़ मानव शरीर के लिये  आवश्यक होती हैं, लेकिन इनकी अधिकता स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हो सकती है।
  • पीने के पानी में पाई जाने वाली भारी धातु जैसे- सीसा, पारा, आर्सेनिक और कैडमियम का हमारे शरीर पर कोई लाभकारी प्रभाव नहीं पड़ता है बल्कि शरीर में इन धातुओं का संचय गंभीर स्वास्थ्य समस्याएंँ उत्पन्न कर सकता है

धातु 

रोग 

पारा 

मिनीमाता 

कैडमियम

इटाई-इटाई 

लेड 

रक्ताल्पता

आर्सेनिक 

ब्लैक फुट

नाइट्रेट

ब्लू बेरी सिंड्रोम

स्रोत: डाउन टू अर्थ


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

गतिशील ब्लैकहोल

चर्चा में क्यों?

हाल ही में वैज्ञानिकों ने पहले गतिशील सुपरमैसिव ब्लैकहोल (Supermassive Black Hole) की खोज की है, जिसका द्रव्यमान हमारे सूर्य से लगभग तीन मिलियन गुना अधिक है।

  • यह ब्लैकहोल अपनी आकाशगंगा (J0437 + 2456) के भीतर घूम रहा था जो पृथ्वी से लगभग 228 मिलियन प्रकाश वर्ष दूर है।

प्रमुख बिंदु

वैज्ञानिकों द्वारा संचालित अध्ययन:

  • वैज्ञानिकों ने केंद्र में सुपरमैसिव ब्लैकहोल वाले दूर स्थित 10 आकाशगंगाओं का अध्ययन किया, उन्हें उम्मीद थी कि इन ब्लैकहोल का वेग उनकी आवासीय आकाशगंगाओं के वेग के समान होगा।
  • उनके अध्ययन का मुख्य केंद्र अभिवृद्धि डिस्क (Accretion Disk-एक सुपरमैसिव ब्लैकहोल के चारों ओर सर्पिल द्रव्यमान जो कि ब्लैकहोल द्वारा अंतत: अंतर्ग्रहण कर लिया जाता है) के अंदर पानी पर था।
    • जब अभिवृद्धि डिस्क (जल युक्त) ब्लैकहोल के चारों ओर परिक्रमा करता है, तो यह लेर प्रकाश जैसी किरण का उत्पादन करता है, जिसे मेसर (Maser) कहा जाता है। ये मेसर ब्लैकहोल के वेग को बहुत सटीक रूप से बता सकते हैं।

गतिमान सुपरमैसिव ब्लैकहोल के विषय में:

  • वैज्ञानिकों ने जिन 10 ब्लैकहोल का अध्ययन किया, उनमें से J0437 + 2456 आकाशगंगा के केंद्र में केवल एक ब्लैकहोल असामान्य वेग से गति कर रहा था, जो कि अपनी आकाशगंगा के समान वेग से नहीं चल रहा था।
    • इन ब्लैकहोल के विशाल आकार ने इन्हें अंतरिक्ष में इधर-उधर तैरती वस्तुओं के विपरीत आकाशगंगाओं के मध्य में स्थिर वस्तुओं के रूप में कल्पना करने के लिये लोगों को प्रेरित किया।
  • यह अपनी आकाशगंगा के अंदर लगभग 1,10,000 मील प्रति घंटे की गति से घूम रहा है।
  • गति के संभावित कारण:
    • दो सुपरमैसिव ब्लैकहोल का विलय: वैज्ञानिकों ने कहा कि हो सकता है जिस ब्लैकहोल को देखा गया है वह दो ब्लैकहोल के विलय के बाद इस  स्थिति में गतिशील हुआ हो।
    • दूसरा, अधिक रोमांचक सिद्धांत एक बाइनरी ब्लैकहोल सिस्टम का है जहाँ एक नहीं बल्कि दो सुपरमैसिव ब्लैकहोल मौजूद हो सकते हैं, जो एक साझा गुरुत्त्वाकर्षण केंद्र वाली आकाशगंगाओं के भीतर मौजूद होते हैं।
      • नव अन्वेषित गतिशील ब्लैकहोल की वजह से मेसर का उत्सर्जन नहीं हो सकता है, इसे रेडियो एंटीना नेटवर्क द्वारा पता लगाया जा सकता है।

ब्लैकहोल

  • ब्लैकहोल्स अंतरिक्ष में उपस्थित ऐसे छिद्र हैं जहाँ गुरुत्व बल इतना अधिक होता है कि यहाँ से प्रकाश का पारगमन नहीं होता।
  • इस अवधारणा को वर्ष 1915 में अल्बर्ट आइंस्टीन द्वारा प्रमाणित किया गया था लेकिन ब्लैकहोल शब्द का इस्तेमाल सबसे पहले अमेरिकी भौतिकविद् जॉन व्हीलर ने वर्ष 1960 के दशक के मध्य में किया था।
  • आमतौर पर ब्लैकहोल की दो श्रेणियों होती है:
    • पहली श्रेणी- ऐसे ब्लैकहोल जिनका द्रव्यमान सौर द्रव्यमान (एक सौर द्रव्यमान हमारे सूर्य के द्रव्यमान के बराबर होता है) से दस सौर द्रव्यमान के बीच होता है। बड़े पैमाने पर तारों की समाप्ति से इनका निर्माण होता है।
    • अन्य श्रेणी सुपरमैसिव ब्लैकहोल की है। ये जिस सौरमंडल में पृथ्वी है उसके सूर्य से भी अरबों गुना बड़े होते हैं।
  • ईवेंट होरिज़न टेलीस्कोप प्रोजेक्ट के वैज्ञानिकों ने अप्रैल 2019 में  ब्लैकहोल की पहली छवि (अधिक सटीक रूप से) जारी की।
    • ईवेंट होरिज़न टेलीस्कोप विश्व के विभिन्न हिस्सों में स्थित 8 रेडियो टेलीस्कोप (अंतरिक्ष से रेडियो तरंगों का पता लगाने के लिये इस्तेमाल किया जाने वाला टेलीस्कोप) का समूह है।
  • गुरुत्वाकर्षण तरंगें (Gravitational Waves) का निर्माण तब होता है जब दो ब्लैकहोल एक-दूसरे की परिक्रमा करते हैं और आपस में विलय करते हैं।

Black-Hole

स्रोत: डाउन टू अर्थ


भारतीय अर्थव्यवस्था

डिफॉल्टर्स की बैक-डोर एंट्री पर प्रतिबंध

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने इन्सॉल्वेंसी कार्यवाही के परिसमापन चरण के दौरान समझौता या व्यवस्था के विशेष प्रावधान का उपयोग करके बैक-डोर एंट्री करने वाले डिफॉल्टर्स पर रोक लगा दी है। 

  • न्यायालय का यह निर्णय दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता, 2016 के मूल भाव को और स्पष्ट करता है। 

प्रमुख बिंदु

पृष्ठभूमि

  • एक लिमिटेड कंपनी के परिसमापन से जुड़े विवाद में नेशनल कंपनी लॉ अपीलेट ट्रिब्यूनल (NCLAT) ने वर्ष 2019 में कहा था कि कोई भी व्यक्ति जो दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता,  2016 की धारा 29A के तहत अपनी ही कंपनी की परिसमापन में बोली लगाने के लिये अयोग्य है, वह कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 230 के तहत समझौता और व्यवस्था हेतु एक योजना का प्रस्ताव देने के लिये भी अयोग्य होगा। 
    • कंपनी अधिनियम 2013 एक भारतीय कंपनी कानून है जो ‘कंपनी’ के निगमन, दायित्व, निदेशकों और कंपनी के विघटन आदि पहलुओं को नियंत्रित करता है।
      • यहाँ कंपनी का आशय इस अधिनियम के तहत अथवा पूर्व के किसी अधिनियम के तहत निगमित कानूनी इकाई से है।
    • कंपनी अधिनियम की धारा 230 कंपनी के प्रमोटरों या लेनदारों को व्यवस्था या समझौता प्रस्ताव देने की अनुमति देती है, जिसके तहत कंपनी के ऋण का पुनर्गठन किया जा सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय का हालिया निर्णय

  • SC ने NCLAT के फैसले को बरकरार रखते हुए कहा कि कंपनी अधिनियम की धारा 230 केवल तब लागू होगी जब कंपनी सामान्य रूप से अपना कामकाज कर रही है, न कि तब जब कंपनी IBC के तहत परिसमापन का सामना कर रही है।

सर्वोच्च न्यायालय का तर्क

  • कंपनी को उसके न्यायिक विघटन या ‘कॉर्पोरेट डेथ’ से बचाना आवश्यक है।
  • यह एक गंभीर विसंगति उत्पन्न करेगा, जो लोग किसी भी प्रकार की रेज़ोल्यूशन योजना प्रस्तुत करने और परिसंपत्ति की बिक्री में हिस्सा लेने के लिये अयोग्य हैं, उन्हें कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 230 के तहत एक समझौता या व्यवस्था का प्रस्ताव प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए।

निर्णय का महत्त्व

  • कंपनी की रेज़ोल्यूशन प्रक्रिया में तीव्रता: 
    • एक दिवालिया कंपनी के परिसमापन प्रक्रिया में प्रमोटरों की भागीदारी के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई स्पष्टता कॉर्पोरेट दिवाला रेज़ोल्यूशन प्रक्रिया को और अधिक तीव्रता प्रदान करेगा। 
  • संपत्ति मूल्य में बढ़ोतरी:
    • चूँकि IBC का उद्देश्य कंपनी के लिये एक उपयुक्त खरीदार ढूँढना है और परिसमापन संबंधी आदेश केवल उन मामलों में दिया जाता है, जहाँ कोई व्यवहार्य योजनाएँ प्रस्तुत नहीं की जाती हैं। विशेषज्ञों का मानना ​​है कि कंपनी की परिसंपत्तियों के मूल्य को अधिकतम करने के लिये त्वरित परिसमापन संबंधी प्रक्रिया बेहद महत्त्वपूर्ण है।
  • परस्पर विरोधी निर्णयों में स्पष्टता
    • सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (NCLT) की विभिन्न पीठों द्वारा दिये गए परस्पर विरोधी निर्णयों को स्पष्टता प्रदान करता है, जिसमें इन पीठों द्वारा संपत्ति के अधिकतम मूल्य के IBC के सिद्धांत का पालन करते हुए परिसमापन चरण के दौरान कुछ प्रमोटरों को कंपनी में फिर से बोली लगाने और कुछ को समझौता या व्यवस्था प्रस्ताव प्रस्तुत करने की अनुमति दी गई थी। 

दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता, 2016

परिचय

  • यह संहिता कंपनियों और आम लोगों के बीच दिवालियापन से संबंधित विषयों के समाधान के लिये एक योजनाबद्ध प्रक्रिया प्रदान करती है।
  • इसमें सभी व्यक्तियों, कंपनियों, सीमित देयता साझेदारी (LLP) और साझेदारी फर्म आदि शामिल हैं।

उद्देश्य

  • असफल व्यवसायों की संकल्प प्रक्रिया को सुव्यवस्थित एवं तीव्र करना।
  • दिवालिया समाधान हेतु सभी देनदारों और लेनदारों का एक सामान्य मंच स्थापित करने के लिये मौजूदा विधायी ढाँचे के प्रावधानों को मज़बूत करना।
  • यह सुनिश्चित करना कि एक तनावग्रस्त कंपनी की संकल्प प्रक्रिया को अधिकतम 270 दिनों में पूरा किया जाए।

धारा 29A

  • यह एक प्रतिबंधात्मक प्रावधान है, यह विशेष रूप से उन व्यक्तियों को सूचीबद्ध करता है जो संकल्प आवेदक होने के योग्य नहीं हैं।
  • धारा 29A न केवल प्रमोटरों को प्रतिबंधित करती है बल्कि प्रमोटरों से संबंधित/जुड़े लोगों को भी प्रतिबंधित करती है।
  • यह धारा उन लोगों को अयोग्य घोषित करती है, जिन्होंने कॉरपोरेट देनदारों के पतन में भूमिका अदा की थी, या वे कंपनी के संचालन के लिये अनुपयुक्त थे।

निर्णयन प्राधिकरण

  • कंपनियों और सीमित दायित्व साझेदारी के लिये नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (NCLT)।
  • व्यक्तियों और साझेदारी फर्मों के लिये ऋण वसूली न्यायाधिकरण (DRT)।

नेशनल कंपनी लॉ अपीलेट ट्रिब्यूनल (NCLAT)

  • नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (NCLT) के आदेशों के विरुद्ध अपील की सुनवाई के लिये कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 410 के तहत NCLAT का गठन किया गया है।
    • यह एक अर्द्ध-न्यायिक निकाय है जो कंपनियों से संबंधित मुद्दों का निपटान करता है।
  • यह दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता, 2016 की धारा 61 के तहत NCLT(s) द्वारा पारित आदेशों के लिये और IBC के अनुभाग 202 और 211 के तहत इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी बोर्ड ऑफ इंडिया (IBBI) द्वारा पारित आदेशों के लिये एक अपीलीय न्यायाधिकरण है।
  • NCLAT के किसी भी आदेश से असंतुष्ट कोई भी व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर कर सकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


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