सामाजिक न्याय
विशेष विवाह अधिनियम और समलैंगिक विवाह
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में विशेष विवाह अधिनियम और समलैंगिक विवाह से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
बीते कुछ वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रेम, लैंगिकता और विवाह के मामलों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लेकर कई महत्त्वपूर्ण निर्णय दिये हैं, इनमें शफीन जहान बनाम अशोकन वाद (2018), शक्ति वाहिनी बनाम भारत संघ वाद (2018) और नवतेज जोहर बनाम भारत संघ वाद (2018) आदि शामिल हैं। वर्ष 2018 के नवतेज जोहर बनाम भारत संघ वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने न केवल भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 377 को असंवैधानिक करार दिया बल्कि LGBTIQ समुदाय के अधिकारों जैसे- व्यक्तित्व को ज़ाहिर करने का अधिकार आदि को मौलिक अधिकारों के रूप में मान्यता भी प्रदान की। हालाँकि विभिन्न प्रयासों के बावजूद देश में LGBTIQ समुदाय की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन नहीं लाया जा सका है। हाल ही में केरल उच्च न्यायालय के समक्ष एक समलैंगिक जोड़े द्वारा विशेष विवाह अधिनियम (Special Marriage Act) की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए याचिका दायर की गई है। याचिका के अनुसार, विशेष विवाह अधिनियम उन समलैंगिक जोड़ों के साथ भेदभाव करता है जो विवाह के माध्यम से अपने संबंधों को औपचारिक मान्यता देना चाहते हैं।
विशेष विवाह अधिनियम, 1954- एक नज़र से
भारतीय सामाजिक परिप्रेक्ष्य में ‘विवाह’ को एक पवित्र एवं धार्मिक संस्था माना जाता है, यह भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। भारत विविधता से परिपूर्ण देश है और यहाँ विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के लोग रहते हैं। जाति और धर्म का भारतीय समाज पर काफी अधिक प्रभाव है तथा देश के अधिकांश हिस्सों में इन्हें विवाह का सबसे महत्त्वपूर्ण मापदंड माना जाता है। देश में कई जगहों पर आज भी अंतर-जातीय विवाह को सामाजिक अपराध माना जाता है और इसके चलते कई बेकसूर लोगों को अपनी जान भी गँवानी पड़ती है। भारत जाति व्यवस्था की काफी कठोर संरचना का अनुसरण करता है, लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी जाति में ही विवाह करें, ज्ञात हो कि हरियाणा जैसे राज्यों में अंतर-जातीय विवाह को लेकर प्रत्येक वर्ष रिकॉर्ड संख्या में ऑनर किलिंग के मामले दर्ज होते हैं। इस प्रकार हमें एक ऐसे कानून की आवश्यकता है जो जाति और धर्म के विभाजन से ऊपर उठकर प्रेम आधारित विवाहों को मान्यता प्रदान कर सके। इसी के मद्देनज़र संसद ने विशेष विवाह अधिनियम, 1954 लागू किया जो भारत के नागरिकों के लिये विवाह का एक विशेष रूप प्रदान करता है, चाहे वह किसी भी जाति और धर्म का पालन करता हो।
- विशेष विवाह अधिनियम मुख्य रूप से अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक विवाह से संबंधित है। यह अधिनियम पंजीकरण के माध्यम से विवाह को मान्यता प्रदान करने के लिये अधिनियमित किया गया है। इसमें विवाह के दोनों पक्षों को अपने-अपने धर्म को छोड़ने की ज़रूरत नहीं होती है।
- यह अधिनियम हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, जैन और बौद्धों आदि सभी पर लागू होता है तथा इसके दायरे में भारत के सभी राज्य आते हैं।
- इस अधिनियम के तहत वैध विवाह के लिये मूल आवश्यकता है कि विवाह के लिये दोनों पक्ष इस संबंध में सहमत हों। यदि दोनों पक्ष विवाह के लिये तैयार हैं, तो जाति, धर्म और नस्ल आदि उत्पन्न नहीं कर सकते।
- इस अधिनियम के तहत पंजीकृत किसी भी विवाहित व्यक्ति के उत्तराधिकारी और उसकी संपत्ति को भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के तहत नियंत्रित किया जाएगा। हालाँकि यदि विवाह के पक्ष हिंदू, बौद्ध, सिख या जैन धर्म से संबंधित हैं, तो उनकी संपत्ति का उत्तराधिकार हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत शासित होगा।
- अधिनियम के तहत विवाहित जोड़े तलाक के लिये तब तक याचिका नहीं दे सकते जब तक कि उनकी शादी की तारीख से एक वर्ष की अवधि समाप्त नहीं हो जाती है।
क्या है विवाद?
- केरल के समलैंगिक जोड़े ने अपनी याचिका में कहा कि उन्होंने वर्ष 2018 में सामाजिक डर से एक मंदिर में गुप्त रूप से शादी की। हालाँकि धार्मिक पिछड़ेपन के कारण धार्मिक प्राधिकारियों ने समलैंगिक जोड़े को मान्यता प्रदान करने से इनकार कर दिया, जिसके पश्चात् उन्होंने अपने विवाह को विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत पंजीकृत करवाने का निर्णय लिया।
- उन्होंने जब इस संबंध में ज़िला स्तर के अधिकारी से संपर्क किया तो उसने अधिनियम के तहत विवाह को पंजीकृत करने से इनकार कर दिया, क्योंकि उक्त अधिनियम के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता प्रदान नहीं की गई है।
- याचिकाकर्त्ताओं के अनुसार, समलैंगिक विवाह को मंज़ूरी प्रदान न करने से यह अधिनियम भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 (विधि के समक्ष समता), अनुच्छेद-15(1)(a) (धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का
- प्रतिषेध), अनुच्छेद-19(1) (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद-21 (जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन करता है।
- याचिका में कहा गया है कि यद्यपि यह अधिनियम स्पष्ट तौर पर समलैंगिकों को प्रावधानों के दायरे से बाहर नहीं करता है, किंतु अधिनियम के विभिन्न खंडों में प्रयुक्त भाषा पर गौर करें तो यह स्पष्ट होता है कि इसमें समलैंगिक विवाह को शामिल नहीं किया गया है।
- उदाहरण के लिये अधिनियम के तहत विवाह को “स्त्री और पुरुष अथवा दूल्हा और दुल्हन के मध्य संबंधों के रूप में परिभाषित किया गया है। इससे यह स्पष्ट ज़ाहिर होता है कि अधिनियम में समलैंगिक विवाह को शामिल नहीं किया गया है।
- भारत में LGBTIQ (Lesbian, Gay, Bisexual, Transgender, Intersex, Queer) समुदाय को लेकर आज भी सामाजिक जागरूकता की कमी दिखाई देती है। देश के अधिकांश हिस्सों में इसे एक मानसिक बीमारी के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। LGBTIQ समुदाय ने अपनी पहचान स्थापित करने के लिये एक लंबी लड़ाई लड़ी है, जो अभी भी जारी है।
भारत में LGBTIQ समुदाय से संबंधित मुद्दे
- प्रत्येक वर्ष जून के महीने में LGBTIQ समुदाय के हज़ारों लोग एकत्र होकर LGBTIQ के गौरव का जश्न मनाते हैं और यह उम्मीद करते हैं कि समाज उन्हें उनकी यथास्थिति में स्वीकार करे। भारत में LGBTIQ समुदाय के लोग तमाम समस्याओं का सामना करते हैं, जिनमें समुदाय से बाहर के लोगों द्वारा स्वीकृति न मिलना सबसे प्रमुख है।
- LGBTIQ समुदाय से संबंधित लोग समान अधिकारों और सामाजिक स्वीकृति के लिये लगातार लड़ रहे हैं। ट्रांस समुदाय के लोगों को विशेष रूप से समाज में अपनी पहचान ढूँढने में खासी परेशानी का सामना करना पड़ता है। वर्षों तक भारत की जनगणनाओं में ट्रांसजेंडर को तीसरे समुदाय के रूप में मान्यता नहीं दी गई।
- भारत में आज भी ट्रांसजेंडर होना एक सामाजिक बीमारी समझी जाती है और उन्हें सामाजिक तौर पर बहिष्कृत कर दिया जाता है। इसका मुख्य कारण है कि इन्हें न तो पुरुषों की श्रेणी में रखा जा सकता है और न ही महिलाओं की, जो लैंगिक आधार पर विभाजन की पुरातन व्यवस्था का अंग है।
- प्रत्येक वर्ष हज़ारों की संख्या में LGBTIQ समुदाय के लोग हिंसा, बेरोज़गारी, भेदभाव, गरीबी और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी से संबंधित मुद्दों का सामना करते हैं। देश में अभी भी ऐसे कई स्थान हैं जहाँ लोग LGBTIQ और इससे संबंधित मुद्दों से अवगत नहीं हैं।
अन्य देशों की स्थिति
- दुनिया भर में कई सरकारों ने समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता प्रदान की है। वर्तमान में विश्व भर में कुल 30 देश ऐसे हैं जिन्होंने समलैंगिक लोगों को शादी करने की अनुमति देने संबंधी प्रावधान बनाए हैं।
- ज्ञात हो कि उत्तरी आयरलैंड, इक्वाडोर, ताइवान और ऑस्ट्रिया जैसे देशों ने बीते वर्ष 2019 में समलैंगिक विवाह को मान्यता प्रदान करने संबंधी कानून बनाए थे।
- इसके अलावा ऑस्ट्रेलिया, माल्टा और जर्मनी ने वर्ष 2017 में, कोलंबिया ने वर्ष 2016 में, अमेरिका, ग्रीनलैंड, आयरलैंड और फिनलैंड ने वर्ष 2015 में, लक्ज़मबर्ग और स्कॉटलैंड ने वर्ष 2014 में, इंग्लैंड और वेल्स, ब्राज़ील, फ्राँस, न्यूजीलैंड और उरुग्वे ने वर्ष 2013 में, डेनमार्क ने वर्ष 2012 में, अर्जेंटीना, पुर्तगाल और आइसलैंड ने वर्ष 2010 में, स्वीडन ने वर्ष 2009 में, नॉर्वे ने वर्ष 2008 में, दक्षिण अफ्रीका ने वर्ष 2006 में, स्पेन और कनाडा ने वर्ष 2005 में, बेल्जियम ने वर्ष 2003 में, नीदरलैंड्स ने वर्ष 2000 में समलैंगिक विवाह को मान्यता प्रदान की थी।
इस संबंध में प्रमुख वाद
- राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ (2014)
वर्ष 2014 के इस वाद में न्यायालय ने कहा था कि ट्रांसजेंडर समुदाय ने अतीत में एक लंबे समय से भेदभाव का सामना किया है। न्यायालय ने ट्रांसजेंडर समुदाय के साथ स्वास्थ्य, शिक्षा और रोज़गार सहित विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले भेदभाव को भी स्वीकार किया। न्यायालय ने अपने निर्णय में ट्रांसजेंडर समुदाय से संबंधित लोगों को ‘तीसरे लिंग’ (Third Gender) के रूप में मान्यता प्रदान की थी। साथ ही न्यायालय ने केंद्र सरकार को ट्रांसजेंडर समुदाय को सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के रूप में मान्यता देने का आदेश भी दिया था। - नवतेज जोहर बनाम भारत संघ (2018)
वर्ष 2018 के नवतेज जोहर बनाम भारत संघ वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए सर्वसम्मति से भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को असंवैधानिक करार दिया था। ध्यातव्य है कि धारा 377 को ब्रिटिश काल के दौरान वर्ष 1860 में भारतीय दंड संहिता में शामिल किया गया था। यह धारा प्रकृति के विरुद्ध यौन गतिविधियों में संलग्न व्यक्तियों को अपराधी घोषित करती थी। याचिकाकर्त्ता का कहना था कि यह धारा निजता के अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, समानता, मानवीय गरिमा और भेदभाव से सुरक्षा आदि का उल्लंघन करती है।
आगे की राह
- भारत में LGBTIQ समुदाय से संबंधित मुद्दे आम चर्चा का विषय नहीं बन पाते हैं। सामाजिक पिछड़ेपन और रूढ़िवादी मान्यताओं के कारण समलैंगिक विवाह जैसे मुद्दों पर कभी बात नहीं की जाती और इन्हें सामाजिक अपराध समझा जाता है।
- हालाँकि वर्ष 2018 में धारा 377 को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया था, किंतु देश में अभी भी ऐसा कोई अधिनियम नहीं है जो कानूनी तौर पर समलैंगिक विवाह को मान्यता देता हो।
- भारत में समलैंगिक वाले दो वयस्क अपनी सहमति से विवाह तो कर सकते हैं, किंतु उन्हें कानूनी तौर पर मान्यता एवं सुरक्षा प्रदान करने को लेकर कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं है। आज भी भारत में समलैंगिक जोड़ों के पास कोई कानूनी अधिकार जैसे- विवाह का पंजीकरण, विरासत, उत्तराधिकार और गोद लेना आदि नहीं है।
- अतः यह कहा जा सकता है कि हाल ही में केरल में दायर याचिका भारत के समक्ष समलैंगिक विवाह से संबंधित विभिन्न मुद्दों को संबोधित करने का एक अच्छा अवसर हो सकता है। आवश्यक है कि इस संदर्भ में गंभीरता से विचार किया जाए और जल्द-से-जल्द कानून का निर्माण किया जाए।
प्रश्न: समलैंगिक विवाह को लेकर केरल उच्च न्यायालय में दायर याचिका के आलोक में LGBTIQ समुदाय से संबंधित विभिन्न मुद्दों का समग्र मूल्यांकन कीजिये।