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डेली न्यूज़

  • 17 Dec, 2020
  • 46 min read
अंतर्राष्ट्रीय संबंध

तुर्की पर CAATSA प्रतिबंध

चर्चा में क्यों?

हाल ही में संयुक्त राज्य अमेरिका प्रशासन (USA) ने तुर्की पर रूस से एस-400 मिसाइल प्रणाली ( S-400 Missile System) की खरीद के लिये प्रतिबंध लगाए हैं

  • रूसी हथियारों की खरीद के लिये अमेरिका द्वारा अपने प्रतिद्वंद्वियों के विरोध हेतु बनाए गए दंडात्मक अधिनियम (Countering America’s Adversaries Through Sanctions Act- CAATSA) की धारा 231 के तहत प्रतिबंधों का मुद्दा भारत के लिये विशेष महत्व रखता है, क्योंकि भारत भी रूस से S-400 खरीदने की प्रक्रिया में है।

प्रमुख बिंदु:

पृष्ठभूमि:

  • इससे पहले संयुक्त राज्य अमेरिका ने तुर्की को स्पष्ट कर दिया था कि S-400 प्रणाली की खरीद संयुक्त राज्य अमेरिका की सुरक्षा को खतरे में डालेगी।
    • यह खरीद रूस के रक्षा क्षेत्र को पर्याप्त वित्त प्रदान करने के साथ-साथ तुर्की के सशस्त्र बलों और रक्षा उद्योग तक रूस की पहुँच को बढ़ाएगी।
  • तुर्की ने अपनी रक्षा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये नाटो-इंटरऑपरेबल सिस्टम (NATO-interoperable systems) [यथा- USA की पैट्रियट ( Patriot) मिसाइल रक्षा प्रणाली] जैसे विकल्पों की उपलब्धता के बावजूद S-400 की खरीद और परीक्षण के साथ आगे बढ़ने का फैसला किया।
  • वर्ष 2019 में USA ने तुर्की को अपने एफ -35 जेट कार्यक्रम (F-35 Jet Program) से इस चिंता के कारण हटा दिया था  कि यदि तुर्की USA जेट विमानों के साथ-साथ रूसी प्रणालियों का उपयोग भी करता है तो संवेदनशील जानकारी रूस तक पहुँच सकती है।
  • S-400 प्रणाली को रूस द्वारा डिज़ाइन किया है। यह  सतह से हवा में मार करने वाली लंबी दूरी की मिसाइल प्रणाली (SAM) है। 
  • यह 30 किमी. तक की ऊँचाई और 400 किमी. की सीमा के अंदर विमानों, चालक रहित हवाई यानों (UAV), बैलिस्टिक तथा क्रूज़ मिसाइलों सहित सभी प्रकार के हवाई लक्ष्यों को भेद सकती है।
  • वर्तमान में यह विश्व की अत्यंत शक्तिशाली और अत्याधुनिक मिसाइल रक्षा प्रणाली है। यह अमेरिका द्वारा विकसित ‘टर्मिनल हाई एल्टीट्यूड एरिया डिफेंस सिस्टम’ (THAAD) से भी अधिक उन्नत है।
  • इसके अलावा यह प्रणाली एक ही समय में 100 हवाई लक्ष्यों को ट्रैक कर सकती है तथा छह लक्ष्यों को एक साथ भेद सकती है। यह रूस की लंबी दूरी की मिसाइल रक्षा प्रणाली की चौथी पीढ़ी है।

तुर्की पर प्रतिबंध:

  • ये प्रतिबंध तुर्की की मुख्य रक्षा खरीद एजेंसी, रक्षा उद्योग विभाग (Presidency of Defense Industries- SSB) पर लगाए गए थे।
  • इन प्रतिबंधों में किसी भी सामान या प्रौद्योगिकी के लिये विशिष्ट अमेरिकी निर्यात लाइसेंस और प्राधिकरण के लिये अनुमोदन शामिल है।
  • इसके अलावा किसी अमेरिकी वित्तीय संस्थान द्वारा 12 महीने की अवधि में 10 मिलियन अमेरिकी डाॅलर से अधिक के ऋण या क्रेडिट पर प्रतिबंध शामिल है।

अमेरिका द्वारा प्रतिद्वंद्वियों के विरोध हेतु बनाए गए दंडात्मक अधिनियम (CAATSA):

  • 2 अगस्त, 2017 को अधिनियमित और जनवरी 2018 से लागू इस कानून का उद्देश्य दंडनीय उपायों के माध्यम से ईरान, रूस और उत्तरी कोरिया की आक्रामकता का सामना करना है। 
    • विशेषज्ञ मानते हैं कि यह अधिनियम प्राथमिक रूप से रूसी हितों जैसे कि तेल और गैस उद्योग, रक्षा क्षेत्र एवं वित्तीय संस्थानों पर प्रतिबंध लगाने से संबंधित है।
  • यह अधिनियम अमेरिकी राष्ट्रपति को रूसी रक्षा और खुफिया क्षेत्रों से संबंधित महत्त्वपूर्ण लेन-देनों में शामिल व्यक्तियों पर अधिनियम में उल्लिखित 12 सूचीबद्ध प्रतिबंधों में से कम-से-कम पाँच प्रतिबंध लागू करने का अधिकार देता है।
  • इनमें से एक ‘निर्यात लाइसेंस’ प्रतिबंध है जिसके द्वारा अमेरिकी राष्ट्रपति को युद्ध, दोहरे उपयोग और परमाणु शक्ति संबंधी वस्तुओं के निर्यात लाइसेंस निलंबित करने के लिये अधिकृत किया गया है। 

भारत के लिये चिंता:

  • भारत ने अक्तूबर 2018 में अल्माज़-एंटेई कोर्पोरेशन रूस से S-400 ट्रायम्फ लंबी दूरी की सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल सिस्टम खरीदने के लिये 39,000 करोड़ रुपए का सौदा किया था जिसकी डिलीवरी वर्ष 2021 में होने की उम्मीद है।
    • S-400 एयर डिफेंस सिस्टम के अलावा प्रोजेक्ट 1135.6 युद्ध-पोत ( Project 1135.6 Frigates) और Ka226T हेलीकॉप्टर की खरीद भी इससे प्रभावित होगी। साथ ही यह इंडो रूसी एविएशन लिमिटेड, मल्टी-रोल ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट लिमिटेड और ब्रह्मोस एयरोस्पेस जैसे संयुक्त उपक्रमों को भी प्रभावित करेगा। यह भारत के स्पेयर पार्ट्स, पुर्जों, कच्चे माल और अन्य सहायक उपकरणों की खरीद को भी प्रभावित करेगा।
    • स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (SIPRI) आर्म्स ट्रांसफर डेटाबेस के अनुसार, 2010-17 की अवधि के दौरान रूस भारत का शीर्ष हथियार आपूर्तिकर्त्ता था।
    • रूसी मूल के भारतीय हथियार: 
      • परमाणु पनडुब्बी INS चक्र, किलो-क्लास पारंपरिक पनडुब्बी, सुपरसोनिक ब्रह्मोस क्रूज़ मिसाइल, मिग 21/27/29 और Su-30 MKI फाइटर, IL-76/78 परिवहन विमान, T-72 और T-90 टैंक, Mi हेलीकॉप्टर तथा विक्रमादित्य विमानवाहक पोत।
  • CAATSA में 12 प्रकार के प्रतिबंध हैं। इनमें से 10 का रूस या अमेरिका के साथ भारत के वर्तमान संबंधों पर बहुत कम या कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। केवल दो प्रतिबंध हैं जो भारत-रूस संबंधों या भारत-अमेरिका संबंधों को प्रभावित कर सकते हैं।
    • इनमें से पहला, जिसका भारत-रूस संबंधों पर प्रभाव पड़ने की संभावना है, वह है "बैंकिंग लेनदेन का निषेध"।
      • इसका मतलब भारत को S-400 सिस्टम की खरीद के लिये रूस को अमेरिकी डॉलर में भुगतान करने में कठिनाई होगी।
    • दूसरे प्रतिबंध के भारत-अमेरिका संबंधों पर अधिक प्रभाव होंगे।
      • यह "निर्यात प्रतिबंध" भारत-अमेरिका रणनीतिक व रक्षा साझेदारी को पूरी तरह से पटरी से उतारने की क्षमता रखता है, क्योंकि यह अमेरिका द्वारा नियंत्रित किसी भी वस्तु के निर्यात के लिये व्यक्ति के लाइसेंस को प्रतिबंधित कर देगा।
        • सभी दोहरे उपयोग वाले उच्च प्रौद्योगिकी वस्तुएँ और प्रौद्योगिकी,
        • सभी रक्षा संबंधी वस्तुएँ,
        • परमाणु से संबंधित सभी वस्तुएँ
        • अन्य सभी वस्तुएँ जिन्हें संयुक्त राज्य अमेरिका की पूर्व समीक्षा और अनुमोदन की आवश्यकता है।
      • यह भारत को अमेरिका से किसी भी बड़े रक्षा उपकरण खरीदने से प्रभावी रूप से रोक देगा, भारत और अमेरिका के मध्य किसी भी रक्षा और सामरिक भागीदारी पर रोक लगाएगा। प्रमुख रक्षा सहयोगी (Major Defence Partner- MDP) पदनाम उस संदर्भ में अपनी प्रासंगिकता खो देगा।

आगे की राह:

रूस सदैव SCO में चीन की उपस्थिति के बीच संतुलन कायम करने के लिये भारत की भूमिका को महत्त्वपूर्ण मानता है, इसीलिये रूस ने SCO में भारत के समावेश और RIC सिद्धांत के गठन की सुविधा प्रदान की। भारत आज एक अनन्य स्थिति में है जहाँ उसका सभी महान शक्तियों के साथ एक अनुकूल संबंध है और उसे इस स्थिति का लाभ एक शांतिपूर्ण विश्व व्यवस्था के निर्माण के लिये उठाना चाहिये। अंत में भारत को न केवल रूस के साथ बल्कि संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ भी घनिष्ठ संबंध विकसित करने की आवश्यकता है, जो चीन और रूस के मध्य रणनीतिक साझेदारी की दिशा में किसी भी कदम को संतुलित कर सके।

स्रोत: द हिंदू


कृषि

पंजाब में एकल कृषि की समस्या

चर्चा में क्यों?

राजधानी दिल्ली की सीमा पर चल रहे विरोध प्रदर्शन के बीच खासतौर पर पंजाब में धान-गेहूँ की खेती की संवहनीयता पर प्रश्न उठाए जा रहे हैं।

प्रमुख बिंदु

पंजाब में एकल कृषि 

  • एकल कृषि एक विशेष कृषि पद्धति है, जो कि एक विशिष्ट भूमि अथवा खेत पर एक समय में केवल एक ही प्रकार की फसल उगाने के विचार पर आधारित है। 
    • हालाँकि यहाँ यह ध्यान दिया जाना महत्त्वपूर्ण है कि एकल कृषि पद्धति केवल फसलों पर ही लागू नहीं होती है, बल्कि इसमें एक समय में विशिष्ट भूमि अथवा खेत पर केवल एक ही प्रजाति के जानवरों के प्रजनन की पद्धति भी शामिल है।
  • वर्ष 2018-19 में पंजाब का सकल कृषि क्षेत्र तकरीबन 78.30 लाख हेक्टेयर था, जिसमें से तकरीबन 35.20 लाख हेक्टेयर क्षेत्र गेहूँ के लिये और तकरीबन 31.03 लाख हेक्टेयर क्षेत्र धान के लिये प्रयोग किया गया, जो कि कुल कृषि क्षेत्र का लगभग 84.6 प्रतिशत था।
    • इस तरह पंजाब में गेहूँ और धान की खेती इतने व्यापक स्तर पर की जाती है जिसका खामियाजा अन्य फसलों जैसे- दाल, मक्का, बाजरा और तिलहन आदि की कमी के रूप में उठाना पड़ता है।

एकल कृषि की समस्या

  • एक ही भूमि अथवा खेत में वर्ष-दर-वर्ष एक ही प्रकार की फसल उगाने से कीट और रोगों के हमलों की संभावना बढ़ जाती है, वहीं फसल और आनुवंशिक विविधता जितनी अधिक होती है, कीटों और रोगजनकों के लिये फसल को नुकसान पहुँचाना उतना ही मुश्किल होता है।
  • गेहूँ एवं धान के पौधे अन्य फसलों [जैसे दाल एवं फलीदार (legumes) फसलें] के समान नाइट्रोजन स्थिरीकरण की प्रकिया में सक्षम नहीं होते हैं। अतः फसल विविधता के बिना  निरंतर गेहूँ एवं धान की खेती करने से मिट्टी में पोषक तत्त्वों की कमी हो जाती है, जिससे किसानों को रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर निर्भर होना पड़ता है।

गेंहूँ बनाम धान

  • गेंहूँ
    • यह प्राकृतिक रूप से पंजाब की मिट्टी और कृषि जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल है।
      • यह एक ठंडे मौसम की फसल है, जिसे उन स्थानों पर उगाया जा सकता है, जहाँ मार्च माह में तापमान 30 डिग्री की रेंज में रहता है।
    • इसकी खेती राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है।
      • पंजाब में प्रति हेक्टेयर औसतन 5 टन से अधिक गेहूँ का उत्पादन किया जाता है, जबकि राष्ट्रीय औसत 3.4-3.5 टन के आसपास है।
  • धान
    • धान की खेती के लिये भारी मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है।
      • किसान आमतौर पर पाँच बार गेहूँ की सिंचाई करते हैं, जबकि धान के लिये 30 या उससे भी अधिक बार सिंचाई की आवश्यकता होती है।
      • धान की खेती और सिंचाई के लिये मुफ्त बिजली उपलब्ध कराने संबंधी राज्य सरकार की नीति के कारण पंजाब के भूजल स्तर में प्रतिवर्ष औसतन 0.5 मीटर की गिरावट दर्ज हो रही है।
    • सरकार की इस नीति ने राज्य के किसानों को धान की लंबी अवधि की किस्मों जैसे- पूसा-44 की उपज के लिये प्रेरित किया है। 
      • पूसा-44 धान की उपज काफी अधिक होती है, किंतु इसकी अवधि काफी लंबी होती है। 
      • लंबी अवधि का अर्थ है कि मई माह के मध्य तक इसकी रोपाई की जाती है और अक्तूबर माह तक इसकी कटाई कर ली जाती है, जिससे समय रहते गेहूँ की अगली फसल की रोपाई भी हो जाती है। हालाँकि इसमें सिंचाई के लिये पानी की काफी अधिक आवश्यकता पड़ती है।

सरकार के प्रयास

  • पंजाब प्रिज़र्वेशन ऑफ सबसॉयल वॉटर एक्ट, 2009 के तहत पंजाब के किसानों को प्रत्येक वर्ष 15 मई से पूर्व धान की बुवाई और 15 जून से पूर्व धान की रोपाई करने से मना किया गया है।
    • इस अधिनियम का प्राथमिक उद्देश्य भू-जल संरक्षण को बढ़ावा देना है।
  • संबंधित समस्याएँ
    • जब जून के मध्य में बारिश के बाद ही धान की रोपाई की अनुमति दी जाती है, तो धान की कटाई भी अक्तूबर माह के अंत तक होती है, जिससे 15 नवंबर की समय-सीमा से पूर्व गेहूँ की बुवाई के लिये काफी कम समय बचता है।
    • ऐसी स्थिति में किसानों के पास धान की पराली जलाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। इस तरह पंजाब में भू-जल संरक्षण दिल्ली में वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण है।

आगे की राह

  • गेहूँ की खेती के लिये एकड़ क्षेत्र को कम करने और पंजाब में मोटे अनाजों जैसी वैकल्पिक फसलों को बढ़ावा देने से इस क्षेत्र में फसल विविधीकरण संभव हो सकेगा, जिससे मिट्टी की उर्वरता में बढ़ोतरी होगी और स्थानीय लोगों की पोषण संबंधी आवश्यकताएँ भी पूरी हो सकेंगी।
  • धान की खेती को पूर्वी तथा दक्षिणी राज्यों में स्थानांतरित करने, धान की फसल की केवल छोटी अवधि की किस्मों का रोपण करने और सिंचाई के लिये मुफ्त बिजली उपलब्ध कराने की सरकार की नीति में कुछ संशोधन करने से एकल कृषि की समस्याओं और घटते भू-जल स्तर जैसे मुद्दों को संबोधित किया जा सकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय अर्थव्यवस्था

परिसंपत्ति गुणवत्ता और क्रेडिट चैनल पर भारतीय रिज़र्व बैंक का वर्किंग पेपर

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय रिज़र्व बैंक (Reserve Bank of India- RBI) ने 'भारत में मौद्रिक नीति हस्तांतरण के एसेट क्वालिटी और क्रेडिट चैनल' (Asset quality and credit channel) पर वर्किंग पेपर जारी किया है।

  • RBI ने मार्च 2011 में RBI वर्किंग पेपर्स शृंखला की शुरुआत की।

प्रमुख बिंदु:

क्रेडिट चैनल:

  • भारत में मौद्रिक संचरण का एक मज़बूत क्रेडिट चैनल मौजूद है जो बैंकों के एसेट की निम्नस्तरीय गुणवत्ता से प्रभावित होता है। 
    • क्रेडिट चैनल दो तरीके से कार्य कर सकते हैं: समग्र बैंक ऋण (बैंक ऋण चैनल) को प्रभावित करके और ऋण के आवंटन (बैलेंस शीट चैनल) को प्रभावित करके।

क्रेडिट मंदी:

  • भारत में 2013 से क्रेडिट ग्रोथ में मंदी की स्थिति को बैंकिंग प्रणाली में संपत्ति की गुणवत्ता पर तनाव, आर्थिक गतिविधियों में मंदी और बैंक जमा में विमंदन (Moderation) द्वारा समझाया गया है।
  • क्रेडिट ग्रोथ में उतार-चढ़ाव की दर वर्ष 2013 के 14.2% की तुलना में नवंबर 2020 में घटकर 5.8% रह गई।
  • सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बैंकों की क्रेडिट ग्रोथ में भी व्यापक गिरावट देखी गई है।

क्रेडिट ग्रोथ के संभावित निर्धारक:

  • परिसंपत्ति गुणवत्ता तनाव:
    • भारत में बैंकों की संपत्ति की गुणवत्ता वर्ष 2010 की शुरुआत से ही धीरे-धीरे खराब होने लगी, जिससे उनकी लाभप्रदता प्रभावित हुई।
    • अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों (Scheduled Commercial Banks) की परिसंपत्ति की गुणवत्ता को सकल अग्रिमों के लिये गैर- निष्पादित परिसंपत्तियों (Gross Non-Performing Assets) के अनुपात के रूप में मापा जाता है।
  • सांकेतिक सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि:
    • सांकेतिक सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product- GDP) में अधिक वृद्धि से क्रेडिट की मांग बढ़ जाती है।
    • क्रेडिट वृद्धि के बाद 2013 में GDP में गिरावट का कारण मुख्य रूप से खराब ऋणों में वृद्धि थी और यह वृद्धि मंदी के कारण हुई थी।
    • सांकेतिक GDP का आशय एक अर्थव्यवस्था में आर्थिक उत्पादन के  आकलन से है, इसकी गणना में वर्तमान मूल्य को शामिल किया जाता है।
      • सांकेतिक GDP की जगह वास्तविक GDP में मुद्रास्फीति के कारण कीमतों में परिवर्तन होना शामिल है जो अर्थव्यवस्था में मूल्य वृद्धि की दर को दर्शाती है।
  • जमा वृद्धि:
    • जमा वृद्धि 2015 की दूसरी छमाही से अत्यधिक अस्थिर रही है।
    • यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि धन की अधिक उपलब्धता वाला एक वित्तीय संस्थान उधारकर्ताओं को अधिक क्रेडिट उपलब्ध करा सकता है।
  • निवेश की वृद्धि:
    • निवेश वृद्धि में तेज़ी ने क्रेडिट ग्रोथ में मंदी को बढ़ाया है।
    • बैंक प्रतिभूतियों में निवेश करने के लिये क्रेडिट के रूप में कम संसाधन उपलब्ध होंगे।
    • भारत में बैंकों द्वारा किये जाने वाले निवेश में सरकारी प्रतिभूतियों में वैधानिक दायित्वों (वैधानिक तरलता अनुपात या SLR) के तहत निर्धारित निवेश व सरकारी प्रतिभूतियों तथा बॉण्ड/डिबेंचर/कॉरपोरेट निकायों के शेयरों में स्वैच्छिक निवेश शामिल हैं।
  • ब्याज दर:
    • अधिक ब्याज दर से ऋण लेने की लागत बढ़ जाएगी, जिससे क्रेडिट की मांग कम हो जाएगी।
  • बैंक का आकार और पूंजीकरण (किसी व्यवसाय के मूल्य का अनुमान) अन्य बैंक-विशिष्ट विशेषताएँ हैं।

किये गए उपाय:

  • उदार मौद्रिक नीति और नीति रेपो दर (Policy Repo Rate- 2019 से शुरू) में कमी ने क्रेडिट मंदी को दूर करने में मदद की है।
    • उदार रुख के अंतर्गत केंद्रीय बैंक वित्तीय प्रणाली में पैसा डालने के लिये अपनी दरों में कटौती करता है।
    • रेपो दर ब्याज की प्रमुख मौद्रिक नीति दर है, जिस पर RBI बैंकों को अल्पकालिक धन उधार देता है।
    • रेपो दर में कटौती कर RBI बैंकों को यह संदेश देता है कि उन्हें आम लोगों और कंपनियों के लिये ऋण की दरों को आसान करना चाहिये।
    • केंद्रीय बैंक ने अब नीति रेपो रेट को 350 बेसिस पॉइंट घटाकर 4% कर दिया है जो मार्च 2013 में  7.50% था ।

परिसंपत्ति गुणवत्ता समीक्षा (Asset Quality Review) 2015 के बाद कई खराब ऋण सामने आए थे जिससे सरकार को खराब ऋणों के समाधान के लिये दिवाला और दिवालियापन संहिता (Insolvency and Bankruptcy Code) को लागू करना पड़ा।

RBI द्वारा कोविड-19 महामारी के मद्देनज़र बैंकों को खराब ऋणों की गणना में छूट की अनुमति और ऋण पुनर्गठन योजना की घोषणा से कई इकाइयों में लॉकडाउन, छंटनी तथा बंद होने के बावजूद 31 बैंकों के सकल NPA में 5.25% की गिरावट देखी गई।

आगे की राह

  • भारत जैसे बैंक-प्रभुत्व वाली वित्तीय प्रणाली में क्रेडिट चैनल मौद्रिक नीति के आवेगों (Impulse) को क्रेडिट बाज़ार और उसके बाद वास्तविक अर्थव्यवस्था तक पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • अल्पावधि में संपत्ति की गुणवत्ता को नियंत्रित करने के लिये सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के मौद्रिक हस्तांतरण का क्रेडिट चैनल, निजी क्षेत्र के बैंकों के सापेक्ष अधिक मज़बूत होता है।
  • क्रेडिट चैनल पर अपना पूरा प्रभाव डालने के लिये मौद्रिक नीति की कार्रवाइयों हेतु यह ज़रूरी है कि बैंकों की परिसंपत्ति गुणवत्ता चिंताओं को दूर करने के साथ ही उनकी पूंजी की स्थिति को मज़बूत किया जाए।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


शासन व्यवस्था

प्रेस की स्वतंत्रता के लिये खतरे

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में ‘कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’ (Committee to Protect Journalists) नामक एक संस्था द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2020 के दौरान रिकार्ड संख्या में पत्रकारों को जेलों में बंद किया गया। 

  • ‘कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’  एक स्वतंत्र और गैर-लाभकारी संगठन है जो विश्व भर में प्रेस की स्वतंत्रता को बढ़ावा देने के लिये कार्य करती है।
  • यह पत्रकारों के सुरक्षित रूप से और बिना किसी हिंसा या प्रतिशोध के भय के समाचार को रिपोर्ट करने के अधिकार का समर्थन करती है। 

प्रमुख बिंदु:  

  • वर्ष 2020 में जेलों में बंद पत्रकारों की कुल संख्या 272 तक पहुँच गई।
  • तुर्की राज्य विरोधी आरोपों में कम-से-कम 68 पत्रकारों को कैद करने के साथ प्रेस की स्वतंत्रता के खिलाफ दुनिया का सबसे बड़ा अपराधी बना हुआ है। इसके अतिरिक्त मिस्र में कम-से-कम 25 पत्रकार जेलों में बंद हैं।
  • यमन में हूती विद्रोहियों द्वारा बंदी बनाए गए कई पत्रकारों सहित मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में दर्जनों पत्रकार लापता या अपहृत हैं।
  • COVID-19 महामारी के दौरान सत्तावादी नेताओं ने पत्रकारों को गिरफ्तार करके रिपोर्टिंग को नियंत्रित करने की कोशिश की है।

मीडिया की स्वतंत्रता का महत्त्व: 

  •  स्वतंत्र मीडिया जनता की आवाज़ होने के नाते उन्हें अपनी राय व्यक्त करने के अधिकार के साथ सशक्त बनाता है। इस तरह लोकतंत्र में स्वतंत्र मीडिया की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
  • लोकतंत्र के सुचारु संचालन के लिये विचारों, सूचनाओं, ज्ञान, बहस और विभिन्न दृष्टिकोणों की अभिव्यक्ति का निर्बाध आदान-प्रदान होना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
    •  स्वतंत्र मीडिया विचारों की खुली चर्चा को बढ़ावा देता है जो व्यक्तियों को राजनीतिक जीवन में पूरी तरह से भाग लेने, सूचित निर्णय लेने की अनुमति देता है तथा इसके परिणामस्वरूप यह एक मज़बूत समाज (विशेष रूप से भारत जैसे बड़े लोकतंत्र) की स्थापना का मार्ग प्रसस्त करता है 
  • मीडिया के स्वतंत्र होने से लोग सरकार के निर्णयों पर प्रश्न करने के अपने अधिकारों का उपयोग करने में सक्षम होंगे। ऐसा माहौल तभी बनाया जा सकता है जब प्रेस/मीडिया को  स्वतंत्रता हासिल हो।
  • इसलिये मीडिया को सही रूप में लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जा सकता है, जहाँ अन्य तीन स्तंभ- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका हैं।

मीडिया की स्वतंत्रता के लिये खतरे:

  • मीडिया के प्रति शत्रुता/विद्वेष जिसे राजनीतिक नेताओं द्वारा खुले तौर पर प्रोत्साहित किया जाता है, लोकतंत्र के लिये एक बड़ा खतरा है।
  • सरकार द्वारा विनियमन,  फर्ज़ी खबरों और सोशल मीडिया के अधिक प्रभाव पर नियंत्रण के नाम पर मीडिया पर दबाव बनाया जाना इस क्षेत्र के लिये बहुत ही खतरनाक है। भ्रष्टाचार से प्रेरित पेड न्यूज़, एडवर्टोरियल (लेख/संपादकीय  के रूप में विज्ञापन का प्रकाशन) और फर्ज़ी खबरें स्वतंत्र तथा निष्पक्ष मीडिया के लिये बड़ा खतरा हैं।
  • पत्रकारों की सुरक्षा सबसे बड़ा मुद्दा है, संवेदनशील मुद्दों को कवर करने वाले पत्रकारों पर हमले या उनकी हत्या बहुत आम बात है।
  • कई मामलों में सोशल मीडिया पर पत्रकारों को लक्षित करने वाले घृणास्पद/द्वेषपूर्ण भाषणों को साझा एवं प्रसारित किया जाता है, साथ ही इनके माध्यम से सोशल मीडिया का  उपयोग करने वाले पत्रकारों को लक्षित और प्रताड़ित किया जाता है।
  • व्यावसायिक समूहों और राजनीतिक शक्तियों  का मीडिया के बड़े हिस्से (प्रिंट और विज़ुअल दोनों) पर मज़बूत हस्तक्षेप है,  जिससे निहित स्वार्थ में वृद्धि और मीडिया की स्वतंत्रता को क्षति पहुँचती है।

भारत में मीडिया की स्वतंत्रता:

  • वर्ष 1950 के रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सभी लोकतांत्रिक संगठनों की नींव प्रेस की स्वतंत्रता पर आधारित होती है।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद-19 के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है।
  • प्रेस की स्वतंत्रता को भारतीय कानूनी प्रणाली द्वारा स्पष्ट रूप से संरक्षित नहीं किया गया है, परंतु यह संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत संरक्षित (उपलक्षित रूप में) है, जिसमें कहा गया है - "सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार होगा"।
  • हालाँकि प्रेस की स्वतंत्रता भी असीमित नहीं है। अनुच्छेद-19(2) के तहत कुछ विशेष मामलों में इस पर प्रतिबंध लागू किये जा सकते हैं, जो इस प्रकार हैं-
    • भारत की संप्रभुता और अखंडता से संबंधित मामले, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता या न्यायालय की अवमानना, मानहानि या अपराध के जुड़े मामलों में आदि।
  • भारतीय प्रेस परिषद (PCI):
    • यह एक नियामकीय संस्था है जिसे 'भारतीय प्रेस परिषद अधिनियम 1978' के तहत स्थापित किया गया है।
    • इसका उद्देश्य प्रेस की स्वतंत्रता को बनाए रखना और भारत में समाचार पत्रों तथा समाचार एजेंसियों के मानकों को बनाए रखना और इसमें सुधार करना है।

प्रेस की स्वतंत्रता के लिये अंतर्राष्ट्रीय पहल:

  • विश्व के 180 देशों में मीडिया के लिये उपलब्ध स्वतंत्रता के स्तर का मूल्यांकन करने हेतु पेरिस स्थित 'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' (RWB) वार्षिक रूप से 'विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक’  (WPFI) प्रकाशित करता है, जो सरकारों और अधिकारियों को स्वतंत्रता के खिलाफ उनकी नीतियों  और प्रेस की स्वतंत्रता के बारे में  जागरूक बनाता है। 
    • भारत वर्ष 2020 में 'विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक’ में दो पायदान नीचे गिरकर 180 देशों में 142वें स्थान पर पहुँच गया।

आगे की राह: 

  • पिछले एक दशक में विश्व भर में मीडिया की स्वतंत्रता में लगातार गिरावट देखी गई है। 
  • मीडिया की स्वतंत्रता को प्रभावित किये बगैर इसके प्रति पुनः लोगों के विश्वास को मज़बूत कर सूचनाओं में हेरफेर और फेक न्यूज़ की चुनौती का सामना करने के लिये सार्वजनिक जागरूकता, मज़बूत विनियमन आदि प्रयासों की आवश्यकता होगी।
    • फेक न्यूज़ पर अंकुश लगाने हेतु भविष्य के किसी भी कानून को लागू किये जाने से पहले मीडिया को दोष देने और त्वरित प्रतिक्रिया की बजाय सभी पक्षों का ध्यान रखते हुए  पूरी स्थिति की समीक्षा की जानी चाहिये और वर्तमान में नए मीडिया के इस युग में कोई भी व्यक्ति अपने निजी लाभ के लिये समाचार बना और प्रसारित कर सकता है।
  • मीडिया के लिये सत्य, सटीकता, पारदर्शिता, स्वतंत्रता, निष्पक्षता और  ज़िम्मेदारी जैसे मुख्य सिद्धांतों के साथ खड़े रहना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है  ताकि उन्हें  विश्वसनीयता प्राप्त हो सके।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय राजनीति

SC या HC को कोई उत्तर नहीं: महाराष्ट्र

चर्चा में क्यों?

हाल ही में महाराष्ट्र राज्य विधानमंडल के दोनों सदनों ने यह कहते हुए एक प्रस्ताव पारित किया है कि वे किसी टीवी संपादक या एंकर के खिलाफ विशेषाधिकार के उल्लंघन के मामले में उच्च न्यायालय (High Court- HC) या सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court- SC) द्वारा भेजे गए किसी नोटिस का जवाब नहीं देंगे।

प्रमुख बिंदु:

पृष्ठभूमि:

  • एक टीवी एंकर के खिलाफ राज्य विधानसभा में विशेषाधिकार के उल्लंघन का मामला चलाया गया, जिसमें एक टीवी डिबेट के दौरान राज्य के मुख्यमंत्री के खिलाफ "अपमानजनक भाषा" एवं "आधारहीन टिप्पणी" के इस्तेमाल और "मंत्रियों का अपमान" करने का आरोप लगाया गया।
  • एंकर ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की थी जिसमें विशेषाधिकार के उल्लंघन के प्रस्ताव को चुनौती दी गई थी।
  • विधानसभा के सहायक सचिव ने इस कदम को लेकर अध्यक्ष और सदन विशेषाधिकार समिति के सामने "गोपनीय" संचार का सवाल उठाया।

वर्तमान परिदृश्य और राज्य विधानसभा का रूख:

  • सदन के अध्यक्ष ने ट्रेजरी बेंच से प्रस्ताव की शुरुआत की और संविधान के अनुच्छेद 194, जो विधानमंडलों के सदनों की शक्तियों एवं विशेषाधिकारों से संबंधित है तथा अनुच्छेद 212, जो अदालतों से संबंधित हैं और विधायिका की कार्यवाही की जाँच नहीं करने का प्रावधान करते हैं, का हवाला दिया।
  • इस तरह के नोटिस का जवाब देने के प्रस्तावों का मतलब यह माना जा सकता है कि  वे न्यायपालिका को विधायिका पर निगरानी रखने का अधिकार दे रहे हैं और यह संविधान के आधारभूत ढाँचे का उल्लंघन है।
  • प्रस्तावों को सर्वसम्मति से पारित किया गया था, जिसमें कहा गया था कि अध्यक्ष और उपाध्यक्ष, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी किये गए किसी नोटिस या तलब का जवाब नहीं देंगे।
  • विधान परिषद ने भी सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया और कहा कि उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी किये गए किसी भी नोटिस या तलब पर कोई संज्ञान नहीं लिया जाएगा।

प्रतिक्रियाएँ:

  • महाराष्ट्र विधानसभा द्वारा पारित प्रस्ताव के संदर्भ में राजनेताओं द्वारा यह उल्लेख किया कि नोटिस, पत्र में प्रयुक्त भाषा के अपवाद स्वरुप जारी की गई थी और यह किसी भी तरह से विधायिका के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करती है। ऐसे में यदि विधायिका इस तरह का प्रस्ताव पारित करती है, तो यह एक गलत मिसाल कायम करेगा।
  • संसदीय कार्य मंत्री का मानना है कि यह प्रस्ताव अध्यक्ष के पद के सम्मान को बनाए रखने तक ही सीमित था और इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि पीठासीन प्राधिकरण को कानूनी मामलों में न्यायिक जाँच से सुरक्षित रखा जाए।

विशेषाधिकार प्रस्ताव:

  • इसका संबंध एक मंत्री द्वारा संसदीय विशेषाधिकारों के उल्लंघन से है।
  • विशेषाधिकार का उल्लंघन:
    • संसदीय विशेषाधिकार संसद के प्रत्येक सदन तथा उसकी समितियों को सामूहिक रूप से तथा प्रत्येक सदन के सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से प्राप्त हैं ताकि वे अपने कार्यों का निर्वहन प्रभावी ढंग से कर सकें।
    • जब इनमें से किसी भी अधिकार की अवहेलना की जाती है, तो इसे विशेषाधिकार का उल्लंघन माना जाता है तथा यह संसद के कानून के तहत दंडनीय है।
    • विशेषाधिकार के उल्लंघन के लिये दोषी पाए जाने पर किसी भी सदन के किसी भी सदस्य द्वारा प्रस्ताव के रूप में एक नोटिस दिया जाता है।
  • अध्यक्ष की भूमिका:
    • विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव की जाँच प्रथम स्तर पर लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति द्वारा की जाती है।
    • अध्यक्ष/सभापति स्वयं विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव पर निर्णय ले सकते हैं या इसे संसद की विशेषाधिकार समिति को संदर्भित कर सकते हैं।

विशेषाधिकार समिति:

  • इसकी कार्य प्रकृति अल्प-न्यायिक की तरह है, यह सदन एवं इसके सदस्यों के विशेषाधिकारों के उल्लंघन का परीक्षण करती है एवं उचित कार्यवाही की सिफारिश करती है।
    • लोकसभा समिति में 15 सदस्य होते हैं।
    • राज्यसभा समिति में 10 सदस्य होते हैं।

विशेषाधिकारों के स्रोत:

  • मूल रूप में संविधान (अनुच्छेद 105) में दो विशेषाधिकार बताए गए हैं:
  1. संसद में भाषण देने की स्वतंत्रता।
  2. इसकी कार्यवाही के प्रकाशन का अधिकार।
  • लोकसभा नियम पुस्तिका के अध्याय 20 में नियम संख्या 222 तथा राज्यसभा की नियम पुस्तिका के अध्याय 16 में नियम संख्या 187 विशेषाधिकार को नियंत्रित करते हैं।
  • संसद ने अभी तक विशेषाधिकारों को संहिताबद्ध करने के लिये कोई विशेष विधि नहीं बनाई है। यह पाँच स्रोतों पर आधारित है-
    • संवैधानिक उपबंध, संसद द्वारा निर्मित अनेक विधियाँ, दोनों सदनों के नियम, संसदीय परंपरा, न्यायिक व्याख्या।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

अमेरिका की करेंसी वॉच लिस्ट में भारत

चर्चा में क्यों?

हाल ही में अमेरिकी ट्रेजरी विभाग ने भारत को अपनी ‘करेंसी मैनिपुलेटर’ वॉच लिस्ट में शामिल किया है। इसने वियतनाम और स्विट्ज़रलैंड को ‘करेंसी मैनिपुलेटर’ के रूप में चिह्नित किया गया है। 

  • ज्ञात हो कि वर्ष 2019 में अमेरिकी ट्रेजरी विभाग ने भारत को अपनी ‘करेंसी मैनिपुलेटर’ वॉच लिस्ट से हटा दिया था।

प्रमुख बिंदु

करेंसी मैनिपुलेटर

  • यह अमेरिकी सरकार द्वारा उन देशों को दिया जाने वाला एक लेबल है, जो जान-बूझकर ‘अनुचित मुद्रा प्रथाओं’ का उपयोग कर डॉलर के मुकाबले उनकी मुद्रा का अवमूल्यन करते हैं, ताकि विनिमय दर के माध्यम से ‘अनुचित लाभ’ प्राप्त किया जा सके।
  • इसके तहत यह माना जाता है कि विचाराधीन देश अन्य देशों पर ‘अनुचित लाभ’ प्राप्त करने के लिये कृत्रिम रूप से अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर रहा है। मुद्रा के अवमूल्यन के कारण उस देश से निर्यात की लागत काफी कम हो जाएगी, जिसके परिणामस्वरूप निर्यात में बढ़ोतरी होगी और व्यापार घाटा कम हो जाएगा।

‘करेंसी मैनिपुलेटर’ वॉच लिस्ट

  • अमेरिकी ट्रेजरी विभाग द्वारा अर्द्धवार्षिक रूप से रिपोर्ट जारी की जाती है, जिसमें वह अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं में विकास की गति को ट्रैक करता है तथा विदेशी विनिमय दरों का निरीक्षण करता है।
  • मानदंड: जो भी देश अमेरिका के ‘ट्रेड फैसिलिटेशन एंड ट्रेंड एनफोर्समेंट एक्ट’ (वर्ष 2015) के तहत निर्धारित तीन मानदंडों में से दो को पूरा करता है, उसे ‘करेंसी मैनिपुलेटर’ वॉच लिस्ट में शामिल किया जाता है। इन मापदंडों में शामिल हैं: 
    • अमेरिका के साथ ‘महत्त्वपूर्ण’ द्विपक्षीय व्यापार अधिशेष- बीते 12 माह की अवधि में कम-से-कम 20 बिलियन डॉलर।
    • 12 माह की अवधि में सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के कम-से-कम 2 प्रतिशत के बराबर चालू खाता अधिशेष।
    • विदेशी मुद्रा बाज़ार में एकपक्षीय-हस्तक्षेप, जब 12 महीने की अवधि में कुल विदेशी मुद्रा की शुद्ध खरीद देश की GDP का कम-से-कम 2 प्रतिशत हो और 12 माह में कम-से-कम छह माह तक लगातार विदेशी मुद्रा की खरीद की जाए।
  • परिणाम: यद्यपि इस सूची में शामिल होना किसी भी तरह के दंड अथवा प्रतिबंधों के अधीन नहीं है, किंतु इसके कारण विदेशी मुद्रा नीतियों के संदर्भ में वैश्विक वित्तीय बाज़ार में देश की छवि को काफी नुकसान पहुँचता है।

भारत की स्थिति

  • भारत के साथ ही ताइवान और थाईलैंड को भी ‘करेंसी मैनिपुलेटर’ वॉच लिस्ट में शामिल किया गया है, जबकि सात देश पहले से ही इस सूची में शामिल हैं। 
    • इस सूची में शामिल अन्य देश है- चीन, जापान, कोरिया, जर्मनी, इटली, सिंगापुर और मलेशिया।
  • अमेरिकी ट्रेजरी विभाग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत और सिंगापुर ने विदेशी मुद्रा बाज़ार में निरंतर और असममित तरीके से हस्तक्षेप किया, किंतु वे ‘करेंसी मैनिपुलेटर’ के रूप में चिह्नित/लेबल किये जाने हेतु अन्य आवश्यक मापदंडों को पूरा नहीं करते हैं।
  • रिपोर्ट की माने तो भारत, जिसने बीते कई वर्षों से अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार अधिशेष को बनाए रखा है, ने हाल ही में 20 बिलियन डॉलर की सीमा को पार कर लिया है।
    • जून 2020 तक दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय माल व्यापार अधिशेष कुल 22 बिलियन डॉलर पर पहुँच गया है।
  • इसके अलावा वर्ष 2019 की दूसरी छमाही में भारत की विदेशी मुद्रा की शुद्ध खरीद में तेज़ी दर्ज की गई थी। इसके पश्चात् महामारी के प्रारंभिक दौर में वर्ष 2020 की पहली छमाही में भी भारत ने विदेशी मुद्रा की खरीद जारी रखी, जिसके परिणामस्वरूप जून 2020 तक भारत की विदेशी मुद्रा की शुद्ध खरीद 64 बिलियन डॉलर या कुल GDP के 2.4 प्रतिशत तक पहुँच गई थी।
  • विशेषज्ञों की माने तो ‘करेंसी मैनिपुलेटर’ वॉच लिस्ट में शामिल होने के बाद रुपए के मूल्य में अभिमूल्यन (Appreciation) हो सकता है, क्योंकि अब रिज़र्व बैंक हस्तक्षेप करेगा और वह अपनी कुछ विदेशी मुद्रा बेच देगा।
    • मुद्रा अभिमूल्यन का आशय किसी अन्य मुद्रा के संबंध में एक मुद्रा के मूल्य में वृद्धि से है। यदि किसी देश की मुद्रा किसी अन्य देश की मुद्रा के सापेक्ष अधिक मूल्यवान हो रही है, तो वह मुद्रा अधिक मज़बूत मानी जाती है।

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स्रोत: इकोनॉमिक टाइम्स


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