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दिवाला और दिवालियापन संहिता संबंधित अस्पष्ट ग्राहक अधिकार

  • 14 May 2018
  • 6 min read

संदर्भ 
वर्ष 2016 में पारित दिवाला और दिवालियापन संहिता (आईबीसी),  सभी सुधारों में एक अत्यंत प्रमुख पहल है, किंतु इसमें बहुत से क्षेत्रों को अपरिभाषित ही छोड़ दिया गया है, जिनको लेकर हाल के दिनों में चर्चाएँ शुरू हो गई है और इसमें शामिल ऐसा ही एक अपरिभाषित क्षेत्र ग्राहकों के अधिकारों से संबंधित है।

प्रमुख तथ्य 

  • जब आईबीसी 2016 पेश किया गया था, तो उसमें कंपनी के लेनदारों को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है जिसमें पहला, वित्तीय लेनदारों (बैंक और वित्तीय संस्थाएँ) और दूसरा परिचालन लेनदारों (आपूर्तिकर्ताओं और विक्रेताओं) से संबंधित है।
  • आईबीसी ने अन्य लेनदारों या ग्राहकों की स्थिति को संबोधित नहीं किया था जो इन दो श्रेणियों में से किसी एक में भी फिट नहीं हो सके हैं।
  • इन अन्य लेनदारों में होमबॉयर्स, जमा धारक और ग्राहक जैसे सेगमेंट शामिल थे, जिन्होंने खरीदारी के लिये अग्रिम भुगतान भी किया था।
  • गौरतलब है कि ग्राहकों संबंधी यह मुद्दा जेपी इंफ्राटेक के होमबॉयर्स, टेलीकॉम फर्म एयरसेल और नाथला ज्वैलर्स के मामले के दौरान प्रकाश में आया और अगस्त 2017 में कॉर्पोरेट दिवालियापन प्रक्रिया नियमों में एक संशोधन के तहत एक नया नियम जोड़ा गया।
  • इस संशोधन के तहत विनियमन 9ए में लेनदारों की एक नई अवशिष्ट श्रेणी अर्थात् अन्य लेनदारों (वित्तीय और परिचालन के अलावा सभी लेनदारों) को शामिल किया गया।
  • यह विनियम रीजोल्यूशन प्रोफेशनल (RP) के साथ फॉर्म एफ को भरकर दिवालियापन संहिता के तहत अन्य लेनदारों को एक फर्म के खिलाफ दावा दायर करने हेतु सक्षम बनाता है।
  • अन्य लेनदारों संबंधी इस नियम के बावजूद, अभी भी उन ग्राहकों के लिए अनिश्चितता है जिन्होंने कंपनी को अग्रिम भुगतान किया था।
  • अभी भी मुख्य मुद्दा यह बना हुआ है कि क्या अग्रिम भुगतान करने वाले ग्राहकों को कंपनी के कर्जदार बैंकों और अन्य विक्रेताओं के सामान ही व्यापार के सामान्य नियमों के अनुसार समान व्यवहार किया जाएगा और क्या इस प्राथमिकता क्रम के अनुसार दिवालियापन प्रक्रिया के तहत पुनर्भुगतान किया जाएगा।

क्या है ‘द इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड 2016’?

  • पिछले ही वर्ष केंद्र सरकार ने आर्थिक सुधारों की दिशा में कदम उठाते हुए एक नया दिवालियापन संहिता संबंधी विधेयक पारित किया था।
  • गौरतलब है कि यह नया कानून 1909 के 'प्रेसीडेंसी टाउन इन्सॉल्ववेन्सी एक्ट’ और 'प्रोवेंशियल इन्सॉल्ववेन्सी एक्ट 1920 को रद्द करता है और कंपनी एक्ट, लिमिटेड लाइबिलिटी पार्टनरशिप एक्ट और 'सेक्यूटाईजेशन एक्ट' समेत कई कानूनों में संशोधन करता है।
  • दरअसल, कंपनी या साझेदारी फर्म व्यवसाय में नुकसान के चलते कभी भी दिवालिया हो सकते हैं। यदि कोई आर्थिक इकाई दिवालिया होती है तो इसका मतलब यह है कि वह अपने संसाधनों के आधार पर अपने ऋणों को चुका पाने में असमर्थ है।
  • ऐसी स्थिति में कानून में स्पष्टता न होने पर ऋणदाताओं को भी नुकसान होता है और स्वयं उस व्यक्ति या फर्म को भी तरह-तरह की मानसिक एवं अन्य प्रताडऩाओं से गुज़रना पड़ता है।
  • देश में अभी तक दिवालियापन से संबंधित कम से कम 12 कानून थे जिनमें से कुछ तो 100 साल से भी ज़्यादा पुराने हैं।

संबंधित कानूनी सुरक्षा क्या है?
इसमें कोई शक नहीं कि जमाकर्त्ताओं के हितों की रक्षा के लिये कानूनी सुरक्षा प्रदान करना ज़रूरी है। आईबीसी अभी अपने शुरुआती दिनों में है और इससे संबंधित मूल प्रश्न यह है कि वह अपने भिन्न-भिन्न ग्राहकों को किस तरह वर्गीकृत करता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इन फर्मों के लिये ग्राहकों का व्यक्तिगत संपर्क छोटा हो सकता है लेकिन, सामूहिक रूप से वे बकाया धन का एक बड़ा हिस्सा भी बनाते हैं। सुप्रीम कोर्ट से उम्मीद है कि वह कोड इस बड़े अछूते भाग को स्पष्ट करने के लिये शीघ्र ही आवश्यक कदम उठाएगा, जो मिश्रित प्रकार के इन ग्राहकों से संबंधित अहम मुद्दा रहा है और जहाँ त्वरित समाधान की ज़रूरत है।

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