दिल्ली मास्टर प्लान-2041
प्रिलिम्स के लिये:मास्टर प्लान फॉर दिल्ली- 2041, ‘सतत् विकास लक्ष्य’ मेन्स के लिये:शहरी विकास और प्रदूषण से संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
दिल्ली विकास प्राधिकरण (Delhi Development Authority- DDA) द्वारा ‘मास्टर प्लान फॉर दिल्ली- 2041’ (Master Plan for Delhi 2041) पर सार्वजनिक परामर्श लिया जा रहा है, गौरतलब है कि ‘मास्टर प्लान फॉर दिल्ली- 2041’ अगले दो दशकों के लिये शहर के विकास का एक विज़न डॉक्यूमेंट है।
प्रमुख बिंदु:
- ध्यातव्य है कि दिल्ली विकास प्राधिकरण का वर्तमान ‘मास्टर प्लान-2021’ (Master Plan 2021) अगले वर्ष समाप्त हो जाएगा।
- गौरतलब है कि दिल्ली के विकास के लिये पहला मास्टर प्लान 1 सितंबर, 1962 (वर्ष 1981 के परिपेक्ष्य में) को तथा दूसरा मास्टर प्लान 1 अगस्त, 1990 को जारी किया गया था।
- इस मसौदे में कई विशेषताएँ हैं परंतु इसमें जल स्रोतों और उसके आस-पास की भूमि पर विशेष ध्यान देकर शहर को नया आकार देने की बात कही गई है।
- मसौदे में जल स्रोतों और उसके आस-पास की भूमि से जुड़ी इसी नीति को ‘ग्रीन-ब्लू पॉलिसी’ (Green-Blue Policy) कहा गया है।
- DDA के अनुसार, नए मास्टर प्लान के अंतर्निहित मुख्य सिद्धांत स्थिरता, समावेशिता और निष्पक्षता हैं।
क्या है ‘ग्रीन-ब्लू इंफ्रास्ट्रक्चर?
- नीली अवसंरचना या ब्लू इंफ्रास्ट्रक्चर (Blue Infrastructure) से आशय नदियों, नहरों, तालाबों, वेटलैंड्स, बाढ़, और जल उपचार केंद्रों जैसे जल निकायों से है।
- वहीं पेड़, लॉन, झाड़ियों, पार्क, खेत, और जंगल आदि को हरी अवसंरचना या ग्रीन इंफ्रास्ट्रक्चर (Green Infrastructure) में शामिल किया गया है।
- यह शहरी नियोजन की एक अवधारणा है, जहाँ जल निकाय और भूमि ‘अन्योन्याश्रित’ (Interdependent) होते हैं तथा पर्यावरणीय एवं सामाजिक लाभ उपलब्ध कराते हुए एक दूसरे की सहायता से विकसित होते हैं।
कार्य योजना:
- DDA द्वारा इसके पहले चरण के तहत ‘एजेंसियों की बहुलता’ (Multiplicity of Agencies) (जैसे- दिल्ली जल बोर्ड, बाढ़ और सिंचाई विभाग, और नगर निगम आदि) की समस्या से निपटने की योजना बनाई जा रही है।
- इसके तहत DDA द्वारा पहले क्षेत्राधिकार से जुड़े मुद्दों पर, नालियों और उसके आस-पास के क्षेत्र पर विभिन्न एजेंसियों द्वारा किये जा रहे काम पर जानकारी जुटाने का कार्य किया जाएगा।
- इसके पश्चात एक व्यापक नीति तैयार की जाएगी, जो सभी एजेंसियों के लिये एक सामान्य दिशा-निर्देश के रूप में कार्य करेगी
- उदाहरण के लिये-वर्तमान में दिल्ली में लगभग 50 बड़े नाले हैं जिनका प्रबंधन अलग-अलग एजेंसियों द्वारा किया जाता है, इनकी खराब स्थिति और अतिक्रमण जैसी समस्याओं के कारण इनके आस-पास की भूमि भी प्रभावित होती है।
- DDA द्वारा अन्य एजेंसियों के सहयोग से इन्हें एकीकृत किया जाएगा और अनुपचारित अपशिष्ट जल के स्त्रोत की जाँच कर इन्हें प्रदूषण मुक्त किया जाएगा।
विकास के अन्य प्रयास:
- वर्तमान योजना के अनुसार, इन क्षेत्रों में योग, खेल , साइकिल चलाने और पैदल चलने की सुविधा, नौका विहार की सुविधा आदि के विकास का प्रयास किया जा सकता है।
- साथ ही इन क्षेत्रों में संग्रहालय, सूचना केंद्र, खुले थिएटर, ग्रीनहाउस, सामुदायिक सब्जी उद्यान, रेस्तरां आदि के विकास को इस परियोजना के हिस्से के रूप में प्रोत्साहित किया जा सकता है।
- DDA के अनुसार, सार्वजनिक पहुंच की सीमा, वनस्पति का प्रकार, जल प्रबंधन आदि का निर्धारण अलग-अलग मामलों के आधार पर और वैज्ञानिक आकलन के माध्यम से किया जाएगा तथा इसके पश्चात एकीकृत गलियारों के आस-पास रियल स्टेट का विकास किया जाएगा।
लाभ:
- DDA के इस प्रयास के माध्यम से अलग-अलग निकायों और विभागों के बीच बेहतर समन्वय स्थापित कर विकास कार्यों को गति प्रदान करने में सहायता प्राप्त होगी।
- जल निकास बेहतर प्रबंधन और ग्रीन मोबिलिटी (Green Mobility) को बढ़ावा देने जैसे प्रयास ‘संयुक्त राष्ट्र’ द्वारा निर्धारित ‘सतत् विकास लक्ष्य’ (Sustainable Development Goal-SDG) को प्राप्त करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम है।
चुनौतियाँ:
- DDA के लिये विभिन्न निकायों (दिल्ली जल बोर्ड, नगर निगम आदि) को इस परियोजना में हितधारकों के रूप में साथ लाना एक बड़ी चुनौती होगी, विशेषकर जब DDA के पास इन निकायों के ऊपर कोई पर्यवेक्षी शक्ति नहीं है।
- लंबे समय से खराब प्रबंधन और अतिक्रमण जैसी समस्याओं के कारण DDA के लिये नालों और अन्य जल निकायों की सफाई भी एक जटिल चुनौती होगी।
- इससे पहले भी DDA द्वारा यमुना नदी में कचरा पाटने की निगरानी के लिये एक विशेष कार्य बल का गठन किया गया था परंतु यह योजना सफल नहीं हो सकी।
आगे की राह:
- राष्ट्रीय राजधानी के विकास हेतु विभिन्न निकायों के बीच समन्वय बढ़ाना बहुत अधिक आवश्यक होगा।
- अपशिष्ट जल में प्रदूषण स्तर की जाँच और कचरे के प्रबंधन हेतु आधुनिक तकनीकों जैसे- सेंसर, ड्रोन कैमरे और सैटेलाइट आदि के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- जल प्रदूषण और सतत् विकास की अन्य चुनौतियों के संदर्भ में जन जागरूकता पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये।
दिल्ली विकास प्राधिकरण (Delhi Development Authority- DDA):
- दिल्ली विकास प्राधिकरण की स्थापना ‘दिल्ली विकास अधिनियम, 1957’ के तहत वर्ष 1957 में की गई थी।
उद्देश्य:
- दिल्ली के विकास हेतु एक मास्टर प्लान तैयार करना और इसके अनुरूप विकास को बढ़ावा देना।
- भवन, इंजीनियरिंग, खनन और अन्य कार्यों को पूरा करना।
- भूमि और अन्य संपत्ति के अधिग्रहण, धारण, प्रबंधन और निपटान आदि।
स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस
भारत-चीन रक्षा मंत्रालय स्तरीय बैठक
प्रिलिम्स के लिये:शंघाई सहयोग संगठन मेन्स के लिये:भारत चीन संबंध |
चर्चा में क्यों
4 सितंबर 2020 को मास्को (रूस) में भारत-चीन के मध्य शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक के समय रक्षा मंत्री स्तर की बैठक हुई।
प्रमुख बिंदु
- बैठक का महत्त्व: पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर सीमा विवाद के शुरू होने के बाद से भारत और चीन के मध्य यह पहली उच्च स्तरीय राजनीतिक आमने-सामने की बैठक हुई।
- भारत ने पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के साथ सभी बिंदुओं पर यथास्थिति की बहाली के लिये ज़ोर दिया और सैनिकों की शीघ्र वापसी के लिये आह्वान किया।
- पृष्ठभूमि:
- भारतीय और चीनी सेनाएँ पूर्वी लद्दाख के पैंगोंग त्सो, गलवान घाटी, डेमचोक और दौलत बेग ओल्डी में गतिरोध की स्थिति में हैं।
- पैंगोंग त्सो के उत्तरी तट पर कार्रवाई न केवल क्षेत्रीय लाभ के लिये है, बल्कि इस संसाधन-समृद्ध झील पर अधिक वर्चस्व से संबंधित विवाद है।
- पैंगोंग त्सो को ऊपरी तौर पर फिंगर एरिया के रूप में देखा जाता है - सिरिजाप श्रृंखला (झील के उत्तरी किनारे पर) से विस्तृत आठ चट्टानों का एक समूह।
- हाल के वर्षों में भारत ने जो बुनियादी ढाँचा परियोजनाएँ शुरू की हैं, उसके कारण लद्दाख की गलवान घाटी में गतिरोध बढ़ गया है। भारत एक रणनीतिक महत्त्व की सड़क, दारबुक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी (डीएसडीबीओ) का निर्माण कर रहा है जो गलवान घाटी के माध्यम से चीन के नज़दीकी क्षेत्र को हवाई पट्टी से जोड़ती है।
- चीन क्षेत्र में किसी भी भारतीय निर्माण का विरोध करता है। गलवान क्षेत्र में एक गतिरोध वर्ष 1962 के युद्ध के सबसे बड़े उत्तेजक कारणों में से एक था।
- भारतीय और चीनी सेनाएँ पूर्वी लद्दाख के पैंगोंग त्सो, गलवान घाटी, डेमचोक और दौलत बेग ओल्डी में गतिरोध की स्थिति में हैं।
वास्तविक नियंत्रण रेखा
- LAC वह सीमांकन है जो भारतीय-नियंत्रित क्षेत्र को चीनी-नियंत्रित क्षेत्र से अलग करती है। भारत LAC को 3,488 किमी. लंबा मानता है, जबकि चीन इसे लगभग 2,000 किमी. लंबा मानता है।
- इसे तीन क्षेत्रों में बाँटा गया है:
- पूर्वी क्षेत्र जो अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम में नियंत्रण रेखा का सीमांकन करता है।
- मध्य क्षेत्र उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में ।
- लद्दाख में पश्चिमी क्षेत्र।
- लद्दाख में भारत-चीन LAC वर्ष 1962 के युद्ध के बाद चीन द्वारा अवैध रूप से अतिक्रमित किये गये क्षेत्र का एक परिणाम है।
SCO में भारत का वक्तव्य
- शांति एवं समृद्धि: भारत ने शंघाई सहयोग संगठन के सदस्य देशों के मध्य शांतिपूर्ण, स्थिर एवं सुरक्षित क्षेत्र पर बल दिया।
- इस क्षेत्र में समृद्धि एवं स्थिरता, विश्वास और सहयोग, गैर-आक्रामकता, अंतर्राष्ट्रीय नियमों के प्रति सम्मान, एक-दूसरे के हितों के प्रति संवेदनशीलता तथा मतभेदों के शांतिपूर्ण समाधान की माँग करती हैं।
- भारत एक वैश्विक सुरक्षा ढाँचे के विकास के लिये प्रतिबद्ध है जो मुक्त, पारदर्शी, समावेशी, नियम आधारित एवं अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के अनुसार होगा।
- क्षेत्रीय स्थिति
- अफगानिस्तान में सुरक्षा की स्थिति
- एससीओ सदस्य देशों के मध्य औपचारिक समझौते पर पहुँचने के लिये अफगानिस्तान पर एससीओ संपर्क समूह उपयोगी है।
- वर्ष 2005 में इसकी कल्पना की गई थी और वर्ष 2017 में उप विदेश मंत्रियों के स्तर पर इसे कार्रवाई के लिये लाया गया था।
- यह समूह सुरक्षा, व्यापार, अर्थव्यवस्था के साथ-साथ सांस्कृतिक और मानवीय संबंधों में सहयोग बढ़ाने के लिये संयुक्त कार्यों की परिकल्पना करता है।
- खाड़ी क्षेत्र: भारत ने खाड़ी देशों से "आपसी सम्मान, संप्रभुता एवं एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में गैर-हस्तक्षेप" पर आधारित संवाद द्वारा उनके मध्य मतभेदों को हल करने का आह्वान किया।
- आतंकवाद: भारत आतंकवाद के सभी रूपों एवं आविर्भाव की निंदा करता है, और आतंकवाद प्रस्तावकों की निंदा करता है तथा भारत पारंपरिक, गैर-पारंपरिक दोनों खतरों से निपटने के लिये संस्थागत क्षमता का निर्माण करने की आवश्यकता पर बल देता है - इन सबसे भी ऊपर भारत आतंकवाद, नशीले पदार्थों की तस्करी और अंतरराष्ट्रीय अपराध पर बल देता है।
शंघाई सहयोग संगठन
- इसका गठन वर्ष वर्ष 2001 में हुआ था और इसका मुख्यालय बीजिंग, चीन में है।
- भौगोलिक विस्तार: एससीओ एक महत्त्वपूर्ण संगठन है जिसका एक विशाल भौगोलिक विस्तार है और मध्य एशिया, दक्षिण-एशिया और एशिया-प्रशांत क्षेत्र के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- यह एक प्रमुख यूरेशियाई संगठन है जो विश्व की आधी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है।
- यह एक स्थायी अंतर सरकारी संगठन है।
- सदस्य राष्ट्र: एससीओ में भारत, कजाकिस्तान, चीन, किर्गिस्तान, पाकिस्तान, रूस, ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान सहित आठ सदस्य राष्ट्र हैं एवं चार पर्यवेक्षक राष्ट्र- अफगानिस्तान, बेलारूस, ईरान और मंगोलिया हैं।
- रूस के आग्रह पर भारत वर्ष 2017 में एससीओ में शामिल हुआ और चीन ने पाकिस्तान के प्रवेश के साथ एससीओ में भारत के प्रवेश को संतुलित किया।
- स्थायी निकाय: संगठन के दो स्थायी निकाय हैं - बीजिंग (चीन) स्थित SCO सचिवालय और ताशकंद (उजबेकिस्तान) में स्थित क्षेत्रीय आतंकवाद रोधी संरचना (RATS) की कार्यकारी समिति।
- महत्त्व: इसमें उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन को संतुलित करने की क्षमता है।
- अधिदेश: SCO का एक उभरता अधिदेश है जो इसके आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं क्षेत्रीय सुरक्षा संगठन होने के कारण शुरू हुआ।
आगे की राह
- अप्रैल 2020 में, भारत और चीन ने अपने 70 साल के राजनयिक संबंधों को पूरा किया। दोनों पक्षों को स्वीकार करना चाहिये कि स्थिति संकटपूर्ण है, और विशेष रूप से हाल के दिनों में विश्वास-योग्य तंत्र के दशकों का श्रम व्यर्थ हुआ है।
- एससीओ के मंच के माध्यम से, भारत के पास भारतीय विदेश नीति के वास्तविक मूल्यों को उजागर करने का एक स्पष्ट अवसर है।
स्रोत-द हिंदू
रियल मैंगो: एक अवैध सॉफ्टवेयर
प्रिलिम्स के लिये:रियल मैंगो/रेअर मैंगो, सॉफ्टवेयर, रेलवे सूचना प्रणाली केंद्र, CAPTCHA मेन्स के लिये:रियल मैंगो/रेअर मैंगो, सॉफ्टवेयर |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में 'रेलवे सुरक्षा बल' (Railway Protection Force- RPF) ने एक देशव्यापी अन्वेषण में एक अवैध सॉफ्टवेयर 'रियल मैंगो' (Real Mango); जिसका उपयोग रेलवे में आरक्षण की पुष्टि के लिये किया जाता है, के संचालन को नाकाम किया है।
प्रमुख बिंदु:
- सॉफ्टवेयर को पहले 'रेअर मैंगो' (Rare Mango) के नाम से संचालित किया जा रहा था, बाद में जिसका नाम बदलकर 'रियल मैंगो' कर दिया गया।
- आरपीएफ की फील्ड इकाइयों द्वारा 9 अगस्त, 2020 को अवैध सॉफ्टवेयर के संचालन का पता लगाया गया।
- रेलवे सुरक्षा बल (RPF) एक सुरक्षा बल (Security Force) है, जिसे रेलवे सुरक्षा बल अधिनियम, 1957 द्वारा स्थापित किया गया है।
- आरपीएफ रेलवे संपत्ति और यात्री सुरक्षा प्रदान करने की दिशा में कार्य करती है।
- यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि पूर्व में आरपीएफ द्वारा दिसंबर 2019 से मार्च 2020 के बीच की गई ‘समन्वित राष्ट्रव्यापी कार्रवाई’ में एएनएमएस/ रेड मिर्ची / ब्लैक टीएस, टिक-टॉक, आई-बॉल, रेड बुल, मैक जैसे कई अवैध सॉफ्टवेयरों का पता लगाया गया था।
सॉफ्टवेयर की विशेषताएँ:
- अवैध सॉफ्टवेयर के संचालन के खिलाफ आरपीएफ द्वारा किये गए अन्वेषण में इससे संबंधित निम्नलिखित विशेषताओं का पता चला:
- सॉफ्टवेयर V3 और V2 कैप्चा (CAPTCHA) को बाईपास करता है।
- कैप्चा का पूरा नाम- Completely Automated Public Turing test to tell Computers and Humans Apart, है।
- कैप्चा यह निर्धारित करता है कि उपयोगकर्ता वास्तविक है या स्पैम रोबोट है।
- यह एक मोबाइल ऐप की मदद से बैंक जनित वन-टाइम पासवर्ड (OTP) को सिंक्रोनाइज़ अर्थात एक साथ एक से अधिक एप पर OTP को भेजता है और इसे स्वचालित प्रक्रिया से प्रयोजनीय बनाता है।
- सॉफ्टवेयर स्वतः ही यात्री विवरण और भुगतान विवरण को फॉर्म में भर देता है।
- सॉफ्टवेयर 'भारतीय रेलवे खानपान एवं पर्यटन निगम’ (Indian Railway Catering & Tourism Corporation-IRCTC) की आईडी के माध्यम से IRCTC वेबसाइट पर लॉग इन करता है।
- इस अवैध सॉफ्टवेयर को पाँच स्तरीय संरचना के माध्यम से बेचा जा रहा था, जिसमें सिस्टम एडमिन और उनकी टीम, मावेंस, सुपर सेलर्स, सेलर्स और एजेंट्स आदि शामिल हैं।
- इस संपूर्ण संरचना में सॉफ्टवेयर एडमिन बिटकॉइन में भुगतान प्राप्त कर रहा है।
- सॉफ्टवेयर V3 और V2 कैप्चा (CAPTCHA) को बाईपास करता है।
RPF द्वारा की गई कार्यवाही:
- उत्तर मध्य रेलवे, पूर्वी रेलवे, और पश्चिमी रेलवे की आरपीफ इकाइयों द्वारा इसके बाद कुछ संदिग्धों को पकड़ा गया तथा 'रेअर मैंगो'/'रियल मैंगो' सॉफ्टवेयर के संचालन को समझने और जानने की प्रक्रिया शुरू की गई।
- आरपीएफ की फील्ड इकाइयों द्वारा अब तक इस अवैध सॉफ्टवेयर के संचालन में शामिल किंग पिन (सिस्टम डेवलपर) और प्रमुख प्रबंधकों सहित अब तक 50 अपराधियों को पकड़ लिया गया है।
- अब तक पाँच लाख रुपए से अधिक मूल्य के टिकटों को ब्लॉक किया जा चुका है और सॉफ्टवेयर की कार्यप्रणाली को अब पूरी तरह से समाप्त किया जा चुका है।
निष्कर्ष:
- अवैध रूप से चलाए जा रहे सॉफ्टवेयर का आरपीएफ द्वारा पर्दाफाश करने से रेलवे सूचना प्रणाली केंद्र' (Centre for Railway Information Systems- CRIS) को 'यात्री आरक्षण प्रणाली' (Passenger Reservation System- PRS) में सुरक्षा सुविधाओं को मज़बूत करने में मदद मिलेगी।
रेलवे सूचना प्रणाली केंद्र (Centre for Railway Information Systems- CRIS):
- रेल मंत्रालय ने एक सोसायटी के रूप में जुलाई 1986 में CRIS की स्थापना की थी। यह भारतीय रेलवे की सूचना प्रौद्योगिकी शाखा है।
- यह भारतीय रेलवे के प्रमुख कार्यों जैसे यात्री टिकटिंग, माल परिचालन, ट्रेन प्रेषण एवं नियंत्रण, चालक दल प्रबंधन और ई-प्रोक्योरमेंट आदि का कार्य करता है।
- इसका मुख्यालय नई दिल्ली में है।
स्रोत: पीआईबी
भारत में टीकाकरण अभियान
प्रिलिम्स के लियेराष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय, एक्सपेंडेड प्रोग्राम ऑफ इम्यूनाइज़ेशन, यूनिवर्सल टीकाकरण कार्यक्रम मेन्स के लियेटीकाकरण कार्यक्रमों का महत्त्व और उनकी आवश्यकता, भारत में टीकाकरण कार्यक्रमों का इतिहास |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (National Statistics Office-NSO) द्वारा प्रकाशित ‘हेल्थ इन इंडिया’ रिपोर्ट के अनुसार, भारत में पाँच में से दो बच्चे अपना टीकाकरण कार्यक्रम पूरा नहीं करते हैं।
प्रमुख बिंदु
- रिपोर्ट के अनुसार, अपना टीकाकरण अभियान पूरा न करने वाले अधिकांश बच्चे खसरे के विरुद्ध और आंशिक रूप से अन्य बीमारियों के विरुद्ध असुरक्षित हैं।
- देश की राजधानी में आधे से भी कम बच्चों को सभी आठ आवश्यक टीके दिये गए हैं, हालाँकि भारत में लगभग सभी बच्चों को तपेदिक और पोलियो का टीका प्राप्त हो रहा है।
- देश में पाँच वर्ष से कम आयु के केवल 59.2 प्रतिशत बच्चे ही पूरी तरह से प्रतिरक्षित हैं, यह आँकड़ा केंद्र सरकार के स्वास्थ्य प्रबंधन सूचना प्रणाली के पोर्टल पर उपलब्ध डेटा से बिल्कुल अलग स्थिति प्रदर्शित करता है, जिसमें दावा किया गया है कि वित्तीय वर्ष 2017-18 के लिये पूर्ण टीकाकरण कवरेज 86.7 प्रतिशत था।
पूर्ण टीकाकरण का अर्थ
- पूर्ण टीकाकरण का मतलब है कि एक बच्चा अपने जीवन के पहले वर्ष में कुल आठ टीकों की खुराक का एक समूह प्राप्त करे, इस समूह में शामिल हैं-
- जन्म के कुछ समय बाद ही एकल खुराक के रूप में तपेदिक का बीसीजी टीका,
- पोलियो टीका जिसकी पहली खुराक जन्म के समय दी जाती है,
- चार सप्ताह के अंतराल पर दो और पोलियो टीके,
- डिफ्थीरिया (Diphtheria), काली-खाँसी (Pertussis) और टेटनस (Tetanus) को रोकने के लिये टीके की तीन खुराकें
- खसरे के टीके की एक खुराक
- रिपोर्ट के अनुसार, देश भर में लगभग 97 प्रतिशत बच्चों को कम-से-कम एक टीका की खुराक प्राप्त हुई, जिसमें अधिकतर तपेदिक का बीसीजी टीका या जन्म के समय पोलियो का पहला टीका होता है, वहीं केवल 67 प्रतिशत बच्चों को ही खसरे का टीका प्राप्त होता है।
- केवल 58 प्रतिशत लोगों को ही पोलियो के टीके की दो अन्य खुराकें और मात्र 54 प्रतिशत को डिफ्थीरिया (Diphtheria), काली-खाँसी (Pertussis) और टेटनस (Tetanus) से बचने के लिये टीके की खुराक प्राप्त होती है।
- राज्यों में, मणिपुर (75 प्रतिशत), आंध्रप्रदेश (73.6 प्रतिशत) और मिज़ोरम (73.4 प्रतिशत) ने पूर्ण टीकाकरण के मामले में शीर्ष स्थान प्राप्त किया है।
- पूर्ण टीकाकरण के मामले में नगालैंड का प्रदर्शन सबसे खराब रहा, जहाँ केवल 12 प्रतिशत बच्चों को ही सभी टीकों की खुराक प्राप्त हुईं।
- ग्रामीण भारत में करीब 95 प्रतिशत नागरिक भारत में लगभग 86 प्रतिशत बच्चों का टीकाकरण सरकार/सार्वजनिक अस्पताल में हुआ है।
टीकाकरण का महत्त्व
- टीकाकरण को उन सबसे अच्छे तरीकों में से एक के रूप में जाना जाता है जिससे हम आम लोगों, बच्चों और आने वाली पीढ़ियों को संक्रामक रोगों से बचाया जा सकता हैं।
- टीकाकरण अभियानों को सही ढंग से कार्यान्वित करने से उन सभी बीमारियों समाप्त करने में मदद मिल सकती है, जो वर्तमान में प्रसारित है अथवा भविष्य में फैल सकती है।
- टीकाकरण न केवल बच्चों को पोलियो और टेटनस जैसी घातक बीमारियों से बचाता है, बल्कि इसके माध्यम से खतरनाक बीमारियों को समाप्त कर अन्य बच्चों को भी इन बिमारियों से सुरक्षित रखता है।
भारत में टीकाकरण कार्यक्रम
- भारत में टीकाकरण कार्यक्रम सर्वप्रथम वर्ष 1978 में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा ‘एक्सपेंडेड प्रोग्राम ऑफ इम्यूनाइज़ेशन’ (Expanded Programme of Immunization-EPI) के रूप में पेश किया गया था।
- वर्ष 1985 में इस कार्यक्रम का नाम बदलकर यूनिवर्सल टीकाकरण कार्यक्रम (Universal Immunization Programme) कर दिया गया। इस कार्यक्रम के घोषित उद्देश्यों में शामिल है-
- टीकाकरण कवरेज को तेज़ी से बढ़ाना।
- सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार करना।
- प्रदर्शन की निगरानी के लिये एक ज़िलेवार प्रणाली का निर्माण,
- वैक्सीन के निर्माण में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना।
- भारत का यूनिवर्सल टीकाकरण कार्यक्रम (UPI) सबसे बड़े सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों में से एक है, जो कि प्रति वर्ष 2.67 करोड़ नवजात शिशुओं और 2.9 करोड़ गर्भवती महिलाओं को लक्षित करता है।
- पूर्व टीकाकरण के कवरेज को 90 प्रतिशत तक बढाने के लिये मिशन इंद्रधनुष (Mission Indradhanush) को लागू किया गया।
स्रोत: द हिंदू
त्रिपुरा का बांग्लादेश के साथ जलमार्ग खोलना
प्रिलिम्स के लिये:इंडो-बांग्ला प्रोटोकॉल मार्ग, गुमटी नदी, मेघना नदी मेन्स के लिये:जलमार्ग खोलने का त्रिपुरा के लिये अर्थ |
चर्चा में क्यों?
त्रिपुरा ने सिपाहीज़िला के सोनमुरा से बांग्लादेश के साथ अपने अंतर्देशीय जलमार्ग को खोल दिया है। बांग्लादेश के मुंशीगंज बंदरगाह से 50 MT सीमेंट के साथ एक बड़ी नाव 5 सितंबर को ट्रायल रन के हिस्से के रूप में सोनपुरा पहुँची। इसके साथ ही इस महत्त्वाकांक्षी परियोजना और इसकी व्यापार क्षमता के बारे में भी सवाल उपन्न हुए हैं।
परियोजना के बारे में
- यह जलमार्ग भारत में अगरतला से लगभग 60 किलोमीटर दूर सोनमुरा को बांग्लादेश में चटगाँव के डौकंडी से जोड़ता है।
- यह पहला अंतर्राष्ट्रीय जलमार्ग है जिसमें गुमटी नदी को इंडो-बांग्ला प्रोटोकॉल मार्ग के रूप में मंज़ूरी दी गई है।
- भारत और बांग्लादेश के बीच हस्ताक्षरित ‘अंतर्देशीय जल पारगमन और व्यापार प्रोटोकॉल’ दीर्घकालिक व्यापार सुनिश्चितता की दिशा में किया गया प्रोटोकॉल है। यह समझौता किसी तीसरे देश में भी माल परिवहन की अनुमति देता है।
- इस प्रोटोकॉल पर पहली बार वर्ष 1972 (बांग्लादेश की आज़ादी के तुरंत बाद) में हस्ताक्षर किये गए थे। अंतिम बार वर्ष 2015 में पाँच वर्षों के लिये नवीनीकरण किया गया था।
- समझौते का प्रत्येक पाँच वर्षों की अवधि के बाद स्वचालित रूप से नवीनीकरण किया जाता है।
त्रिपुरा के लिये इसके अर्थ
- प्रस्तावित जलमार्ग परियोजना त्रिपुरा की गुमटी नदी को बांग्लादेश की मेघना नदी से जोड़ती है। इससे पड़ोसी देश के आशुगंज बंदरगाह तक पहुँच बनाई जा सकेगी।
- वर्ष 1995 में त्रिपुरा का सीमा पार से व्यापार शुरू हुआ। वर्तमान में राज्य प्रतिवर्ष 30 करोड़ रूपए मूल्य की वस्तुएँ और सामग्री निर्यात करता है, लेकिन 645 करोड़ रूपए का आयात करता है।
- यह भारी व्यापार घाटा बांग्लादेश में असामान्य रूप से उच्च आयात शुल्क तंत्र के कारण है। निर्यात के लिये दी गई वस्तुओं की सूची में राज्य में कई वस्तुओं की अनुपस्थिति है। इसके अलावा बंदरगाह प्रतिबंध भी प्रमुख कारण है।
- कोलकाता से गुवाहाटी होकर अगरतला की दूरी 1650 किलोमीटर है, जबकि कोलकाता से होकर अगरतला की दूरी मात्र 620 किलोमीटर है। जलमार्ग से वस्तुओं की आवाजाही में 25-30% की बचत होने का अनुमान है।
- इस महत्त्वाकांक्षी परियोजना को BJP-IPFT सरकार द्वारा त्रिपुरा को उत्तर-पूर्व के प्रवेश द्वार के रूप में स्थापित करने के लिये एक प्रमुख उत्प्रेरक के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
- अखौरा एकीकृत चेक पोस्ट सोनमुरा जेट्टी के व्यापार की मात्रा से 150 गुना अधिक आयात करता है। राज्य में छह अन्य भूमि क्रॉसिंग भी हैं। इसलिये जलमार्ग परियोजना की व्यापार मात्रा कम होने से बड़े पैमाने पर स्थानीय रोज़गार सृजन होने पर अभी संशय है। यह भी उल्लेखनीय है कि नदी मार्ग पूरे वर्ष चालू नहीं रहेगा।
- इस योजना में सोनमुरा से लेकर बांग्लादेश में आशुगंज नदी बंदरगाह तक छोटे जहाज़ और नौकाओं के लिये रास्ता बनाने के लिये नदी किनारे ड्रेज़िंग करना भी शामिल है। नदी की उथली गहराई और निरंतर अवसादन को देखते हुए योजना में ड्रेज़िंग को आवश्यक माना गया है।
- आयातित सामानों के सीमा शुल्क की जाँच के लिये एक टर्मिनल भवन भी बनाने की योजना थी। सामान को चढाने और उतारने के लिये स्थायी जेट्टी के निर्माण में बहुत अधिक समय लगने के कारण त्रिपुरा ने 4 जुलाई को एक अस्थायी जेट्टी का निर्माण किया। अन्य बुनियादी ढाँचे का एक बड़ा हिस्सा अभी भी बनाया जाना शेष है।
गुमटी नदी
- गुमटी नदी त्रिपुरा के उत्तर-पूर्वी पहाड़ी क्षेत्र में दुम्बुर से निकलती है।
- यह त्रिपुरा और बांग्लादेश से होकर बहने वाली नदी है। नदी पर दुम्बुर के पास एक बाँध का निर्माण किया गया है।
मेघना नदी
- सुरमा-मेघना नदी प्रणाली के एक हिस्से के रूप में मेघना नदी का निर्माण बांग्लादेश के किशोरगंज ज़िले में सुरमा और कुशियारा नदियों के संगम से होता है।
- मेघना चांदपुर ज़िले में अपनी प्रमुख सहायक नदी पद्मा से मिलती है। मेघना की अन्य प्रमुख सहायक नदियाँ धलेश्वरी, गुमटी और फेनी हैं।
आगे की राह
- इस नए प्रोटोकॉल मार्ग का परिचालन बांग्लादेश के साथ समग्र द्विपक्षीय व्यापार को और सुविधाजनक बनाने के अलावा, परिवहन को एक किफायती, तीव्र, सुरक्षित और पर्यावरण अनुकूल मोड प्रदान करेगा, जिसके परिणामस्वरूप दोनों पक्षों के स्थानीय समुदायों को काफी आर्थिक लाभ होगा।
- यह त्रिपुरा और भारत एवं बांग्लादेश के आर्थिक केंद्रों के साथ सटे राज्यों की कनेक्टिविटी में सुधार करने के साथ-साथ दोनों देशों के पहाड़ी इलाकों के विकास में भी मदद करेगा।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
9 राज्यों में 22 बाँस क्लस्टर्स लॉन्च
प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रीय बाँस मिशन मेन्स के लिये:स्थानीय समुदायों के विकास में बाँस की भूमिका |
चर्चा में क्यों:
केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण, ग्रामीण विकास तथा पंचायती राज मंत्री श्री नरेंद्र सिंह तोमर ने 9 राज्यों (मध्य प्रदेश, असम, कर्नाटक, नगालैंड, त्रिपुरा, ओडिशा, गुजरात, उत्तराखंड व महाराष्ट्र) के 22 बाँस क्लस्टर्स की मंगलवार को वर्चुअल शुरूआत की। साथ ही राष्ट्रीय बाँस मिशन (NBM) के लोगो का विमोचन किया।
भारत में बाँस उत्पादन
- भारत में प्रतिवर्ष लगभग 14.6 मिलियन टन बाँस का उत्पादन होता है और लगभग 70,000 किसान बाँस के रोपण के कार्य में सलंग्न हैं। देश में बाँस की लगभग 136 किस्में पाई जाती हैं।
- भारतीय वन सर्वेक्षण रिपोर्ट-2019 के अनुसार भारत में बाँस उत्पादन के अंतर्गत 16 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र अनुमानित है।
- मध्यप्रदेश बाँस उत्पादन के अंतर्गत सर्वाधिक क्षेत्रफल (2 मिलियन हेक्टेयर) रखता है। इसके पश्चात् महाराष्ट्र (1.54 मिलियन हेक्टेयर), अरुणाचल प्रदेश (1.49 मिलियन हेक्टेयर) और ओडिशा (1.18 हेक्टेयर) का स्थान है।
- ISFR-2017 के अनुमानों की तुलना में बाँस के अंतर्गत क्षेत्रफल में 0.32 मिलियन क्षेत्रफल की वृद्धि हुई है।
बाँस उद्योग
- बाँस उद्योग से आशय उन सभी फर्मों से है जो उच्च मूल्य वाले उत्पादों के माध्यम से बाँस के मूल्य संवर्द्धन में संलग्न हैं।
- देश में तीव्र सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन से कच्चे माल के रूप में बाँस का महत्त्व न केवल कुटीर उद्योगों में बढ़ा है, बल्कि बड़े उद्योगों में भी इसके महत्त्व में वृद्धि हुई है।
- बाँस पर आधारित करीब 25,000 उद्योग 2 करोड़ लोगों को रोज़गार के अवसर प्रदान कर रहे हैं जबकि 20 लाख लोग बाँस पर आधारित दस्तकारी में संलग्न हैं।
- बाँस के पेड़ के आकार और मज़बूती के कारण भवन और आधारभूत ढाँचा निर्माण सामग्री के रूप में इसके उपयोग की व्यापक संभावनाएँ हैं। बाँस की दस्तकारी और बाँस पर आधारित संसाधनों का उपयोग करने वाले उद्योगों में लुगदी और कागज उद्योग अग्रणी हैं।
स्थानीय समुदायों के लिये बाँस उत्पादन का महत्त्व
- बाँस की 50 प्रतिशत से अधिक प्रजातियाँ पूर्वी भारत में पाई जाती है। इस क्षेत्र में बाँस के बने बर्तन, मछली पकड़ने के जाल, मर्तबान, गुलदस्ते और टोकरियाँ बनाने की उत्कृष्ट सांस्कृतिक परंपरा रही है।
- पृथ्वी पर सबसे तीव्र गति से बढ़ने वाले पौधों में से एक बाँस का उपयोग रोज़गार सृजित करने, महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने और पर्यावरण की रक्षा करने के लिये किया जा सकता है।
- अवनयित भूमि पर उगने की क्षमता और मृदा अपरदन में कमी करने की विशेषता के कारण यह संकटग्रस्त वनों पर स्थानीय समुदायों की निर्भरता को कम करता है।
- यह भोजन और पशु आहार के रूप में खाद्य और पोषण सुरक्षा भी प्रदान करता है।
- भूकंपरोधी होने के साथ-साथ इसमें स्टील की तुलना में अधिक तन्य शक्ति होती है। यह कंक्रीट के विकल्प के रूप में उपयोग किया जा सकता है।
- यह ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को भी कम करता है।
- उपर्युक्त कई कारणों से ही बाँस को ‘गरीब आदमी की लकड़ी’ कहा जाता है।
प्रमुख सरकारी प्रयास
- वृक्ष की परिभाषा से बाँस को हटाने के लिये भारतीय वन अधिनियम, 1927 में वर्ष 2017 में संशोधन किया गया, जिससे किसानों को बाँस व बाँस आधारित उत्पादों की सुगम आवाजाही में सहायता मिली है।
- आयात नीति में भी परिवर्तन के साथ ही बाँस मिशन की उपयोगिता को दृष्टिगत रखते हुए सरकार तेज़ी से काम कर रही है, जिससे यह व्यवसाय बढ़ रहा है और रोज़गार के अवसर भी उपलब्ध हो रहे हैं।
- खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग ने अगले 3-4 वर्षों में बाँस की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिये भारत को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में एक बाँस वृक्षारोपण अभियान भी शुरू किया है।
राष्ट्रीय बाँस मिशन
- अक्तूबर 2006 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय बाँस मिशन (NBM) को राष्ट्रीय बाँस तकनीकी और व्यापार विकास रिपोर्ट, 2003 के आधार पर लॉन्च किया था।
- राष्ट्र्रीय बाँस मिशन का मुख्य उद्देश्य देश में बाँस उद्योग के विकास से संबंधित मुद्दों को संबोधित करना, बाँस उद्योग को नई गति एवं दिशा प्रदान करना तथा बाँस उत्पादन में भारत की संभावनाओं को साकार करना है।
- बहु-अनुशासनात्मक और बहुआयामी दृष्टिकोण के साथ यह मिशन संयुक्त वन प्रबंधन समितियों (JFMCs) या ग्राम विकास समितियों (VDCs) के माध्यम से योजनाबद्ध हस्तक्षेप, अनुसंधान और विकास, वन तथा गैर-वन भूमि पर वृक्षारोपण पर बल देता है।
- यह मिशन केंद्रीकृत और किसान/महिला नर्सरी की स्थापना करके गुणवत्तापूर्ण रोपण सामग्री की आपूर्ति भी सुनिश्चित करता है।
लोगो का विवरण:
- लोगो में बाँस की छवि भारत के विभिन्न हिस्सों में बाँस की खेती को चित्रित करती है।
- लोगो के चारों ओर औद्योगिक पहिया बाँस क्षेत्र के औद्योगीकरण के महत्त्व को दर्शाता है।
- लोगो में सुनहरे पीले व हरे रंग का संयोजन दर्शाता है कि बाँस 'हरा सोना' है।
- आधा औद्योगिक पहिया और आधा किसान सर्कल किसानों और उद्योग दोनों के लिये बाँस के महत्त्व को दर्शाता है।
आगे की राह
स्थानीय उद्यमियों की प्रगति, उनका सरंक्षण और देशी उत्पाद आगे बढ़ाने के लिये बाँस उत्पादों को बढ़ावा देना महत्त्वपूर्ण है इसके लिये परंपरागत तकनीकों को बढ़ावा देना बाँस उत्पादों की निर्यात वृद्धि तथा कारीगरों का कौशल विकास महत्त्वपूर्ण उपाय हो सकते हैं।
स्रोत: पीआईबी
क्षोभमंडलीय ओज़ोन की सांद्रता में गिरावट
प्रिलिम्स के लिये:ओज़ोन परत, बैड ओज़ोन मेन्स के लिये:पर्यावरण प्रदूषण और इसके दुष्प्रभाव, वायु प्रदूषण से निपटने हेतु सरकार के प्रयास |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में ‘आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान शोध संस्थान’ से जुड़े कुछ शोधकर्त्ताओं ने एक अध्ययन के दौरान पाया कि ‘ब्रह्मपुत्र नदी घाटी’ (Brahmaputra River Valley- BRV) क्षेत्र में क्षोभमंडलीय ओज़ोन (Tropospheric Ozone) की सांद्रता देश में अन्य स्थानों की तुलना में कम है।
प्रमुख बिंदु:
- शोधकर्त्ताओं के अनुसार, इस अध्ययन में पाया गया कि गुवाहाटी (असम) में ओज़ोन की सांद्रता देश के अन्य शहरी क्षेत्रों की तुलना में काफी कम है।
- यह शोध भारत सरकार के ‘विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग’ (Department of Science and Technology -DST) के अधीन नैनीताल स्थित स्वायत्त अनुसंधान संस्थान ‘आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान शोध संस्थान’ (Arayabhatta Research Institute of Observational Sciences- ARIES) के शोधकर्त्ताओं द्वारा किया गया था।
- इस अध्ययन के दौरान शोधकर्त्ताओं ने ब्रह्मपुत्र नदी घाटी क्षेत्र में ओज़ोन और अन्य वायु प्रदूषक तत्त्वों की परिवर्तनशीलता का विश्लेषण किया।
- अध्ययन के दौरान ओज़ोन के उत्सर्जन स्रोत [विशेष रूप से मीथेन (CH4) और 'गैर-मीथेन हाइड्रोकार्बन'(NMHCs)] की पहचान के लिये मौसमी/सामायिक और सप्ताह के दिनों के आधार पर ओज़ोन गुणों का अध्ययन किया गया।
- इस अध्ययन में ‘भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान-नई दिल्ली’, ‘यूनिवर्सिटी ऑफ रोचेस्टर स्कूल ऑफ मेडिसिन एंड डेंटिस्ट्री-यूएसए’, ‘वाशिंगटन यूनिवर्सिटी-यूएसए’ से जुड़े कुछ प्रोफेसर तथा वैज्ञानिकों ने भी हिस्सा लिया।
कारण:
- इस अध्ययन के दौरान क्षेत्र में नाइट्रिक ऑक्साइड ( NO), नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (NO2) और ओज़ोन सांद्रता के परीक्षण में पाया गया कि यह क्षेत्र बड़े पैमाने पर निकटवर्ती प्रमुख राष्ट्रीय राजमार्ग से प्रभावित है।
- दिन के समय में यह क्षेत्र एक ‘फोटो-स्टेशनरी अवस्था’ (Photostationary State) में या उसके करीब रहता है, जिससे यह संकेत मिलता है कि ओज़ोन सांद्रता पर जैविक प्रजातियों का प्रभाव कम ही होता है।
क्या है क्षोभमंडलीय ओज़ोन?
- ज़मीनी स्तर या वायुमंडल के निम्नतम स्तर में पाई जाने वाली क्षोभमंडलीय ओज़ोन को ‘बैड ओज़ोन’ (Bad Ozone) के नाम से भी जाना जाता है।
- क्षोभमंडलीय ओज़ोन का निर्माण नाइट्रोजन ऑक्साइड (NOx) और वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों (Volatile Organic Compounds- VOC) के बीच रासायनिक प्रतिक्रिया के कारण होता है।
- क्षोभमंडलीय ओज़ोन की सांद्रता कई मानव जनित कारकों जैसे- वाहनों, विद्युत् संयंत्रों, औद्योगिक बॉयलरों, रिफाइनरियों, रासायनिक संयंत्रों और अन्य स्रोतों से निकलने वाले प्रदूषक तत्त्व के सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में क्रिया करने से और अधिक बढ़ जाती है।
दुष्प्रभाव:
- क्षोभमंडलीय ओज़ोन से मनुष्यों और पेड़-पौधों पर कई प्रकार के हानिकारक दुष्प्रभाव हो सकते हैं।
- क्षोभमंडलीय ओज़ोन के दुष्प्रभावों से सांस से संबंधित बीमारियाँ, गले में खरास, खांसी आदि हो सकते हैं।
- इसके अतिरिक्त यह फेफड़ों के कार्य करने की क्षमता को कम करने के साथ फेफड़े के ऊतकों को क्षति पहुँचा सकता है।
- ओज़ोन संवेदनशील वनस्पतियों और पारिस्थितिक तंत्रों को प्रभावित करता है, जिनमें वन, पार्क, वन्यजीवों के वास स्थान आदि शामिल हैं।
आगे की राह:
- वाहनों और कारखानों से उत्सर्जित होने वाले हानिकारक प्रदूषक तत्त्व क्षोभमंडलीय ओज़ोन की सांद्रता में वृद्धि का सबसे बड़ा कारण है, ऐसे में सरकार को परिवहन तथा औद्योगिक क्षेत्र के प्रदूषण को कम करने हेतु नवीन तकनीकों एवं नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- सरकार द्वारा वाहनों में बीएस-6 (BS-VI) मानक के इंजनों को अनिवार्य करना और इलेक्ट्रिक वाहनों पर कर (Tax) में छूट का निर्णय इस दिशा में उठाए गए सकारात्मक कदम हैं।
- ऊर्जा उत्पादन में सौर ऊर्जा और पवन उर्जा जैसे नवीकरणीय स्रोतों को बढ़ावा दिया जाना चाहिये तथा औद्योगिक क्षेत्र में प्रदूषण को कम करने के लिये नियमों में आवश्यक सुधार किये जाने चाहिये।
स्रोत: पीआईबी
डिजिटल डिवाइड: कारण और प्रभाव
प्रिलिम्स के लियेराष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय मेन्स के लियेडिजिटल डिवाइड का अर्थ, उसके कारण और प्रभाव |
चर्चा में क्यों?
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (National Statistics Office-NSO) के 75वें दौर (जुलाई 2017-जून 2018) के सर्वेक्षण के एक हिस्से के रूप में भारत में ‘पारिवारिक सामाजिक उपभोग: शिक्षा’ पर जारी एक रिपोर्ट के आँकड़े भारत में राज्यों, शहरों, गाँवों और विभिन्न आय समूहों के बीच मौजूद गंभीर डिजिटल डिवाइड को दर्शाते हैं।
प्रमुख बिंदु
- रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 10 घरों में से केवल 1 के पास ही कंप्यूटर (डेस्कटॉप, लैपटॉप या टैबलेट) की सुविधा उपलब्ध है। हालाँकि देश के तकरीबन एक-चौथाई घरों में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है, जिसमें स्मार्टफोन समेत अन्य सभी उपकरण शामिल हैं।
- रिपोर्ट के अनुसार, देश की राजधानी दिल्ली में इंटरनेट की पहुँच सबसे अधिक है और यहाँ के 55.7 प्रतिशत घरों में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है।
- हिमाचल प्रदेश और केरल दो अन्य ऐसे राज्य हैं जहाँ आधे से अधिक घरों में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है।
- वहीं दूसरी ओर इंटरनेट तक पहुँच के मामले में सबसे खराब स्थिति ओडिशा की है, जहाँ मात्र 10 प्रतिशत घरों में ही इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है।
डिजिटल डिवाइड का अर्थ
- सरलतम रूप में डिजिटल डिवाइड का अर्थ समाज में सूचना और संचार प्रौद्योगिकियों (ICT) के उपयोग तथा प्रभाव के संबंध में एक आर्थिक और सामाजिक असमानता से है।
- डिजिटल डिवाइड की परिभाषा में प्रायः सूचना और संचार प्रौद्योगिकियों (ICT) तक आसान पहुँच के साथ-साथ उस प्रौद्योगिकी के उपयोग हेतु आवश्यक कौशल को भी शामिल किया जाता है।
- इसके तहत मुख्यतः इंटरनेट और अन्य प्रौद्योगिकियों के उपयोग को लेकर विभिन्न सामाजिक-आर्थिक स्तरों या अन्य जनसांख्यिकीय श्रेणियों में व्यक्तियों, घरों, व्यवसायों या भौगोलिक क्षेत्रों के बीच असमानता का उल्लेख किया जाता है।
डिजिटल डिवाइड के प्रभाव
शिक्षा पर प्रभाव
- इंटरनेट ज्ञान और सूचना का एक समृद्ध भंडार उपलब्ध कराता है, कई विशेषज्ञ मानते हैं कि सूचना और संचार प्रौद्योगिकियों (ICT) की पहुँच और उपलब्धता अकादमिक सफलता और मज़बूत अनुसंधान गतिविधियों से जुड़ी हुई है, क्योंकि इंटरनेट के माध्यम से किसी भी सूचना तक काफी जल्दी पहुँचा जा सकता है।
- शिक्षा एक बहुत ही गतिशील क्षेत्र है और नवीनतम सूचना और ज्ञान प्राप्त करना इस क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिये काफी महत्त्वपूर्ण है।
- सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (ICT) उपकरणों की अपर्याप्तता ने विकासशील देशों में पहले से ही कमज़ोर शिक्षा प्रणाली को और अधिक अप्रभावी बना दिया है। इस प्रकार देश के विद्यालयों के शिक्षा मानकों में सुधार करने के लिये आवश्यक है कि वहाँ कंप्यूटर और इंटरनेट जैसी बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएँ।
अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
- सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (ICT) की उपलब्धता देश के व्यवसायों की सफलता को प्रभावित करती है, संपूर्ण विश्व धीरे-धीरे डिजिटलीकरण की ओर बढ़ रहा है और ऐसी स्थिति में अर्थव्यवस्था के उन क्षेत्रों के लिये लाभ कमाना काफी चुनौतीपूर्ण हो गया है जहाँ सूचना और संचार प्रौद्योगिकी उपकरणों की उपलब्धता काफी कम है।
- इंटरनेट की उपलब्धता न होने के कारण प्रायः व्यापार बाधित होता है और लाभ कमाना काफी मुश्किल हो जाता है और ऐसी स्थिति में अर्थव्यवस्था का विकास खतरे में पड़ सकता है।
सामाजिक प्रभाव
- डिजिटल डिवाइड ने समाज को दो स्तरों पर विभाजित करने का कार्य किया है, जिसमें पहला वर्ग वह है जिसके पास इंटरनेट तक पहुँच है, वहीं दूसरा वह है जो डिजिटल साक्षरता अथवा किसी अन्य कारणवश सूचना और संचार प्रौद्योगिकी उपकरणों का प्रयोग करने में असमर्थ है।
- इस प्रकार डिजिटल डिवाइड के कारण समुदाय में नए संरेखण का उदय हुआ है जिसके तहत लोगों को इंटरनेट सेवाओं का उपयोग करने की क्षमता के आधार पर वर्गीकृत किया जा रहा है।
अन्य प्रभाव
- सोशल मीडिया के युग में, डिजिटल कनेक्टिविटी के बिना राजनीतिक सशक्तीकरण और काफी मुश्किल हो गया है।
- डिजिटल डिवाइड के कारण ग्रामीण भारत आवश्यक सूचना की कमी का सामना कर रहा है, जो कि गरीबी, अभाव और पिछड़ेपन के दुष्चक्र को और मज़बूत करता है।
डिजिटल डिवाइड के कारण
- कम साक्षरता दर: कम साक्षरता दर देश में डिजिटल डिवाइड को बढ़ाने में अतिमहत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है, प्राथमिक अथवा माध्यमिक स्तर की शिक्षा प्राप्त लोगों की अपेक्षा उच्च स्तर की शिक्षा प्राप्त लोग कंप्यूटर और इंटरनेट का अधिक कुशलता से प्रयोग कर सकते हैं।
- आय का स्तर: डिजिटल डिवाइड को बढ़ाने में आय के स्तर का अंतर भी अपनी भूमिका अदा करता है, प्रायः उच्च आय वाले लोगों के लिये कंप्यूटर और इंटरनेट समेत अन्य सभी सेवाएँ काफी आसानी से उपलब्ध होती हैं, जबकि निम्न आय वाले लोगों के लिये ऐसा नहीं होता है।
- कFम आय वाले लोगों के लिये धन काफी दुर्लभ होता है और उनकी कमाई का एक बड़ा हिस्सा उनकी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने में ही चला जाता है। वे प्रौद्योगिकी को एक विलासिता के रूप में देखते हैं।
- भौगोलिक स्थिति: किसी देश की भौगोलिक स्थिति भी उस देश में डिजिटल विभाजन को बढ़ाने में मदद करती है। शहरी क्षेत्रों में ग्रामीण या पहाड़ी क्षेत्रों की तुलना में इंटरनेट तक पहुँच की संभावना अधिक होती है।
- डिजिटल साक्षरता की कमी: डिजिटल साक्षरता का आशय उन तमाम तरह के कौशलों के एक समूह से है, जो इंटरनेट का प्रयोग करने और डिजिटल दुनिया के अनुकूल बनने के लिये आवश्यक हैं। प्रायः यह देखा जाता है कि कंप्यूटर अथवा इंटरनेट सेवाओं तक पहुँच यह सुनिश्चित नहीं करती कि वह व्यक्ति उस उपकरण अथवा सेवा का सही ढंग से प्रयोग भी कर सकता है।
निष्कर्ष
भारत में डिजिटल डिवाइड को कम करने और डिजिटल साक्षरता को बढ़ाने के लिये तमाम तरह के प्रयास किये गए हैं, जिसके कारण बीते कुछ वर्षों में देश में डिजिटल साक्षरता में बढ़ोतरी देखने को मिली है, हालाँकि अभी भी ग्रामीण क्षेत्र में डिजिटल साक्षरता की दृष्टि से बहुत कुछ किया जाना शेष है। केंद्र व राज्य सरकार को चाहिये कि वह इस क्षेत्र में निवेश को प्राथमिकता दें साथ ही देश में दूरसंचार नियमों को और अधिक मज़बूती प्रदान करें ताकि बाज़ार में प्रतिस्पर्द्धा सुनिश्चित हो सके।
स्रोत: द हिंदू
'पत्रिका गेट' जयपुर
प्रिलिम्स के लिये:पत्रिका गेट, मिशन अनुपम, विश्व धरोहर स्थल मेन्स के लिये:जयपुर, नगरीय योजना |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में प्रधानमंत्री द्वारा जयपुर (राजस्थान) में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से 'पत्रिका गेट' (Patrika Gate) का उद्घाटन किया गया।
प्रमुख बिंदु:
- गेट का निर्माण 'राजस्थान पत्रिका प्रकाशन समूह' (मीडिया समूह) द्वारा जवाहर लाल नेहरू मार्ग (जयपुर का प्रमुख सड़क) पर किया गया है।
- यह 'जयपुर विकास प्राधिकरण' (Jaipur Development Authority- JDA) के 'मिशन अनुपम' (Mission Anupam) के तहत एक स्मारक के रूप में बनाया गया एक प्रतिष्ठित द्वार है।
जयपुर, विश्व विरासत स्थल:
- यूनेस्को द्वारा 'विश्व धरोहर स्थल' (World Heritage Site) के रूप में जयपुर को मान्यता दी गई है। 'पत्रिका गेट' का निर्माण इसी को ध्यान में रखते हुए किया गया था।
- वर्ष 2019 में जयपुर ऐसी मान्यता प्राप्त करने वाला अहमदाबाद के बाद देश का दूसरा नगर बन गया है।
- भारत में 38 विश्व धरोहर स्थल हैं, जिनमें 30 सांस्कृतिक स्थल, 7 प्राकृतिक स्थल और 1 मिश्रित स्थल शामिल हैं।
जयपुर, नगरीय योजना के रूप में:
- जयपुर नगर (चारदीवारी वाला नगर) की स्थापना वर्ष 1727 में सवाई जय सिंह द्वितीय द्वारा की गई थी।
- जयपुर नगर को वैदिक वास्तुकला के प्रकाश में व्याख्यायित ग्रिड योजना के अनुसार बसाया गया था।
- नगर की सड़कों के दोनों तरफ उपनिवेश काल से व्यवसाय की सुविधा है। ये सड़कें बड़े चौराहों जिन्हें चौपड़ कहा जाता है, पर एक-दूसरे से मिलती हैं।
- नगर की योजना में प्राचीन हिंदू , मुगल और पश्चिमी संस्कृतियों के तत्त्वों का प्रयोग किया गया है।
- ग्रिड योजना सामान्यत: पश्चिम देशों द्वारा नगरों की स्थापना में अपनाई जाने वाली विधा है, जबकि विभिन्न शहर क्षेत्रों (चौकी) का संगठन पारंपरिक हिंदू अवधारणाओं को संदर्भित करता है।
- नगर को एक वाणिज्यिक राजधानी के रूप में डिज़ाइन किया गया था जो अपनी स्थानीय वाणिज्यिक और सहकारी परंपराओं को अभी तक बनाए हुए है।