लखनऊ शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 23 दिसंबर से शुरू :   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली न्यूज़

  • 09 May, 2022
  • 53 min read
सामाजिक न्याय

NFHS-5 राष्ट्रीय रिपोर्ट

प्रिलिम्स के लिये:

NFHS-5 राष्ट्रीय रिपोर्ट।

मेन्स के लिये:

NFHS-5 के निष्कर्ष, स्वास्थ्य, महिलाओं से संबंधित मुद्दे, जनसंख्या और संबंधित मुद्दे। 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) के पांँचवें दौर के दूसरे चरण की राष्ट्रीय रिपोर्ट जारी की गई है।

  • राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (National Family Health Survey- NFHS) बड़े पैमाने पर किया जाने वाला एक बहु-स्तरीय सर्वेक्षण है जो पूरे भारत में परिवारों के प्रतिनिधि नमूने के रूप में किया जाता है।

NFHS-5 रिपोर्ट के बारे में:

  • परिचय:
    • सर्वेक्षण में भारत की राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर प्रजनन क्षमता, शिशु एवं बाल मृत्यु दर, परिवार नियोजन की प्रथा, मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य, प्रजनन स्वास्थ्य, पोषण, एनीमिया, स्वास्थ्य व  परिवार नियोजन सेवाओं का उपयोग तथा गुणवत्ता आदि से संबंधित जानकारी प्रदान की गई है
    • NFHS-5 के दायरे को सर्वेक्षण के पहले दौर (NFHS-4) के संबंध में नए आयाम जोड़कर विस्तारित किया गया है जैसे:
      • मृत्यु पंजीकरण, पूर्व-विद्यायी शिक्षा, बाल टीकाकरण के विस्तारित डोमेन, बच्चों के लिये सूक्ष्म पोषक तत्त्वों के घटक, मासिक धर्म स्वच्छता, शराब और तंबाकू के उपयोग की आवृत्ति, गैर-संचारी रोगों (NCD) के अतिरिक्त घटक, 15 वर्ष तथा  उससे अधिक आयु के सभी लोगों में उच्च रक्तचाप व मधुमेह को मापने हेतु विस्तारित आयु सीमा।
    • यह 30 सतत् विकास लक्ष्यों (Sustainable Development Goals- SDG) जिन्हें देश को वर्ष 2030 तक हासिल करना है, को तय करने के लिये एक निर्देशक का काम करती है।
    • राष्ट्रीय रिपोर्ट सामाजिक-आर्थिक एवं अन्य परिप्रेक्ष्य से संबंधित आंकडे़ भी प्रदान करती है जो  नीति निर्माण और प्रभावी कार्यक्रम कार्यान्वयन हेतु उपयोगी है।
    • NFHS-5 राष्ट्रीय रिपोर्ट NFHS-4 (2015-16) से NFHS-5 (2019-21) तक की प्रगति को सूचीबद्ध करती है।
  • उद्देश्य:
    • NFHS के उत्तरोत्तर चरण का मुख्य उद्देश्य भारत में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण एवं अन्य उभरते क्षेत्रों से संबंधित विश्वसनीय व तुलनीय डेटा प्रदान करना है।

NFHS-5 राष्ट्रीय रिपोर्ट की मुख्य विशेषताएँ:

  • कुल प्रजनन दर (TFR):
    • समग्र:
      • NFHS-4 और NFHS-5 के मध्य राष्ट्रीय स्तर पर कुल प्रजनन दर (TFR) 2.2 से घटकर 2.0 हो गई है।
      • भारत में केवल पांच राज्य हैं जो 2.1 प्रजनन क्षमता के प्रतिस्थापन स्तर से ऊपर हैं। ये राज्य हैं- बिहार, मेघालय, उत्तर प्रदेश, झारखंड और मणिपुर
        • प्रतिस्थापन स्तर की क्षमता कुल प्रजनन दर है, जो प्रति महिला पैदा हुए बच्चों की औसत संख्या, जिस पर एक आबादी बिना प्रवास के पूरी तरह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में प्रतिस्थापित हो जाती है।
    • उच्चतम और निम्नतम प्रजनन दर:
      •  देश में बिहार और मेघालय में प्रजनन दर सबसे अधिक,है, जबकि सिक्किम व अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में सबसे कम है।
    • क्षेत्रवार: 
      • ग्रामीण क्षेत्रों में कुल प्रजनन दर 1992-93 के प्रति महिला 3.7 बच्चों से घटकर 2019-21 में 2.1 बच्चे हो गई है।
      • जबकि शहरी क्षेत्रों की महिलाओं में कुल प्रजनन दर1992-93 के 2.7 बच्चों से 2019-21 में 1.6 बच्चे हो गई।
    • समुदायवार:
      • पिछले दो दशकों में सभी धार्मिक समुदायों में मुसलमानों की प्रजनन दर में सबसे तेज़ गिरावट देखी गई है।

Downward

  • कम उम्र में शादियाँ: 
    • समग्र:   
      • कम उम्र में विवाह के राष्ट्रीय औसत में गिरावट देखी गई है। 
      • NFHS-5 के अनुसार, सर्वेक्षण में शामिल 23.3% महिलाओं की शादी 18 वर्ष की कानूनी आयु प्राप्त करने से पहले हो गई, जो NFHS-4 में रिपोर्ट किये गए 26.8% से कम है।
      • पुरुषों में कम उम्र में विवाह का प्रतिशत 17.7 (NFHS-5) और 20.3 (NFHS-4) है।
    • उच्चतम वृद्धि:
      • पंजाब, पश्चिम बंगाल, मणिपुर, त्रिपुरा और असम में यह दर बढ़ी है।
      • त्रिपुरा में महिलाओं के विवाह में 33.1% (NFHS-4) से 40.1% और पुरुषों में 16.2% से 20.4% तक की सर्वाधिक वृद्धि देखी गई है। 
    • कम उम्र में विवाह की उच्चतम दर वाले राज्य: 
      • बिहार के साथ पश्चिम बंगाल कम उम्र में विवाह की उच्चतम दर वाले राज्यों में से एक है।
    • कम उम्र में विवाह की न्यूनतम दर वाले राज्य:  
      • जम्मू-कश्मीर, लक्षद्वीप, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, गोवा, नगालैंड, केरल, पुद्दुचेरी और तमिलनाडु।
  • किशोर गर्भावस्था: 
    • किशोर गर्भधारण की दर 7.9% से घटकर 6.8% हो गई है। 
  • गर्भनिरोधक विधियों का उपयोग:
    • रोज़गार कारक: 53.4% महिलाएंँ जो कार्यरत नहीं है, की तुलना में कार्यरत 66.3% महिलाओं द्वारा आधुनिक गर्भनिरोधक पद्धति (Contraceptive Method) का उपयोग किया जाता है।
      • उन समुदायों और क्षेत्रों में गर्भनिरोधक का उपयोग अधिक बढ़ रहा है जिन समुदायों में अधिक सामाजिक आर्थिक प्रगति देखी गई है। 
    • आय कारक: परिवार नियोजन विधियों की अपूर्ण आवश्यकता सबसे कम वेल्थ  क्विन्टाइल (Wealth Quintile) में सर्वाधिक (11.4%) तथा सबसे ज़्यादा वेल्थ   क्विन्टाइल (8.6%) में सबसे कम देखी गई है। क्विन्टाइल डेटा की एक श्रेणी को पांँच बराबर भागों में विभाजित करता है अर्थात् जनसख्या का पांँचवांँ (20%) हिस्सा है
      • आधुनिक गर्भ निरोधकों का उपयोग भी सबसे कम वेल्थ क्विन्टाइल में 50.7% महिलाओं से उच्चतम क्विन्टाइल में 58.7% महिलाओं की आय के साथ बढ़ता है।
  • महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा:
    • समग्र: वर्ष 2015-16 में घरेलू हिंसा की 31.2% घटनाएँ हुईं जो मामूली गिरावट के साथ वर्ष 2019-21 में 29.3% हो गई हैं।
    • उच्चतम और निम्नतम (राज्य):
      • महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा की सर्वाधिक घटनाएँ 48% कर्नाटक में देखी गईं, इसके बाद बिहार, तेलंगाना, मणिपुर और तमिलनाडु का स्थान है।
      • लक्षद्वीप में सबसे कम (2.1%) घरेलू हिंसा की घटनाएँ दर्ज हुई हैं।
  • संस्थागत जन्म: 
    • समग्र: भारत में इसकी दर 79% से बढ़कर 89% हो गई है।
    • क्षेत्रवार: ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 87% जन्म, संस्थानों में दिया जा रहा है और शहरी क्षेत्रों में यह 94% है।
  • टीकाकरण स्तर:  
    • NFHS-4 के 62% की तुलना में 12-23 महीने की उम्र के तीन-चौथाई (77%) से अधिक बच्चों का पूर्ण टीकाकरण किया गया था।
  • स्टंटिंग: 
    • पिछले चार वर्षों से देश में पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में स्टंटिंग का स्तर 38 फीसदी से घटकर 36 फीसदी हो गया है। 
      • 2019-21 में शहरी क्षेत्रों (30%) की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों (37%) के बच्चों में स्टंटिंग अधिक देखी गई है।
  • मोटापा: 
    • NFHS-4 की तुलना में NFHS-5 में अधिकतर राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों में अधिक वज़न या मोटापे की व्यापकता बढ़ी है। 
      • राष्ट्रीय स्तर पर यह महिलाओं में 21 प्रतिशत से बढ़कर 24 प्रतिशत और पुरूषों में 19 प्रतिशत से बढ़कर 23 प्रतिशत हो गया।
  • सतत् विकास लक्ष्य: 
    • NFHS-5 सभी राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में सतत् विकास लक्ष्य संकेतकों में समग्र सुधार दर्शाता है।
    • यह दर्शाता है कि विवाहित महिलाएँ आमतौर पर तीन घरेलू निर्णयों में किस सीमा तक भाग लेती हैं और निर्णय लेने में उनकी भागीदारी अधिक है।
      • घरेलू निर्णयों में खुद के लिये स्वास्थ्य देखभाल, प्रमुख घरेलू खरीदारी, अपने परिवार या रिश्तेदारों से मिलने जाने से संबंधित निर्णय शामिल है।
      • निर्णय लेने में भागीदारी लद्दाख में 80% से लेकर नगालैंड और मिज़ोरम में 99% तक बढ़ जाती है।
      • ग्रामीण (77%) और शहरी (81%) क्षेत्र में सीमांत अंतर पाया गया है।
      • पिछले चार वर्षों में महिलाओं के पास बैंक या बचत खाता होने का प्रचलन 53% से बढ़कर 79% हो गया है।

स्रोत: द हिंदू


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

टिशू कल्चर प्लांट्स

प्रिलिम्स के लिये:

एपीडा, डीबीटी,  टिशू कल्चर।

मेन्स के लिये:

टिशू कल्चर प्लांट्स और उनका महत्त्व।

चर्चा में क्यों? 

हाल ही केंद्र ने कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (Agricultural and Processed Food Products Export Development Authority- APEDA) के माध्यम से टिशू कल्चर प्लांट्स/पौधों (Tissue Culture Plants) के निर्यात को प्रोत्साहन देने के क्रम में बायोटेक्नोलॉजी विभाग (Department of Biotechnology- DBT) से मान्यता प्राप्त भारत भर की टिशू कल्चर लैबोरेटरीज़ के साथ मिलकर “वनस्पति, जीवित पौधों, कट फ्लॉवर्स जैसे टिशू कल्चर पौधों और रोपण सामग्री का निर्यात संवर्द्धन” पर एक वेबिनार का आयोजन किया।  

  • इसका उद्देश्य टिशू कल्चर प्लांट्स (Tissue Culture Plants) के निर्यात को बढ़ावा देना है।

प्रमुख बिंदु

टिशू कल्चर:

  • यह ‘उपयुक्त विकास माध्यम’ में पौधे के ऊतक के एक छोटे से टुकड़े से या पौधे की बढ़ती युक्तियों से कोशिकाओं को हटाकर नए पौधों के उत्पादन की एक प्रक्रिया है।
  • इस प्रक्रिया में ‘विकास माध्यम’ या ‘कल्चर सॉल्यूशन’ बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसका उपयोग पौधों के ऊतकों को उगाने के लिये किया जाता है और इसमें 'जेली' के रूप में पौधों के विभिन्न पोषक तत्त्व होते हैं जिन्हें पौधों के हार्मोन के रूप में जाना जाता है जो पौधों की वृद्धि के लिये आवश्यक हैं।

‘प्लांट टिशू कल्चर’ के अनुप्रयोग:

  • पौधों के श्वसन और उपापचय का अध्ययन करना।
  • पौधों के अंगों के कार्यों का मूल्यांकन करना।
  • विभिन्न पादप रोगों का अध्ययन करना और उनके उन्मूलन के लिये विधियों पर कार्य करना।
  • एकल कोशिका क्लोन आनुवंशिक, रूपात्मक और रोग संबंधी अध्ययनों के लिये उपयोगी होते हैं।
  • बड़े पैमाने पर ‘क्लोनल’ प्रसार के लिये भ्रूण कोशिका निलंबन का उपयोग किया जा सकता है।
  • कोशिका निलंबन से दैहिक भ्रूणों को ‘जर्मप्लाज़्म’ बैंकों में लंबे समय तक संग्रहीत किया जा सकता है।
  • नई विशेषताओं के साथ भिन्न क्लोन उत्पादन की घटनाओं को ‘सोमाक्लोनल’ विविधताओं के रूप में जाना जाता है।
  • फसलों में सुधार के लिये अगुणित (गुणसूत्रों के एक समुच्चय के साथ) का उत्पादन। 
  • उत्परिवर्ती कोशिकाओं को संवर्द्धनों से चुना जा सकता है और फसल सुधार के लिये इनका उपयोग किया जा सकता है।
  • अपरिपक्व भ्रूणों को पादपों की संकर प्रजाति पैदा करने के लिये इन विट्रो में संवर्द्धित (cultured) किया जा सकता है, यह एक प्रक्रिया जिसे एम्ब्रयो रेस्क्यू (Embryo Rescue) कहा जाता है।

भारत में टिशू कल्चर का भविष्य:

  • भारत  ज्ञान, बायोटेक विशेषज्ञों के साथ विशाल टिशू कल्चर के अनुभव के साथ-साथ निर्यात-उन्मुख गुणवत्तायुक्त पादप सामग्री के उत्पादन में मदद करने के लिये कम लागत वाली श्रम शक्ति से युक्त देश है।
  • ये सभी कारक भारत को अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में गुणवत्तापूर्ण वनस्पतियों की एक विस्तारित और विविध श्रेणी का संभावित वैश्विक आपूर्तिकर्त्ता बनाते हैं तथा बदले में विदेशी मुद्रा का अर्जन करते हैं।
  • कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण(APEDA) एक वित्तीय सहायता योजना (FAS) चला रहा है ताकि प्रयोगशालाओं  को उन्नत बनाने में मदद मिल सके जिससे निर्यात करने के लिये गुणवत्तायुक्त टिशू कल्चर पादप सामग्री का उत्पादन किया जा सके।  
    • यह विविध देशों को टिशू कल्चर रोपण सामग्री के निर्यात के संबंध में सुविधा प्रदान करता है जैसे- बाज़ार के विकास, अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में ऊतक संवर्द्धन पौधों का बाज़ार विश्लेषण और प्रचार एवं प्रदर्शनी तथा विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर क्रेता-विक्रेता बैठक के माध्यम से आदि। 
  • भारत से टिशू कल्चर पौधों का आयात करने वाले शीर्ष दस देश हैं:
    • नीदरलैंड, अमेरिका, इटली, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जापान, केन्या, सेनेगल, इथियोपिया और नेपाल। 
  • भारत का 2020-2021 में टिशू कल्चर पौधों का निर्यात 17.17 मिलियन अमेरिकी डाॅलर था, जिसमें नीदरलैंड का लगभग 50% शिपमेंट था।

भारत में टिशू कल्चर निर्यातकों के समक्ष चुनौती:

  • बिजली की बढ़ती लागत
  • प्रयोगशालाओं में कुशल कार्यबल का निम्न दक्षता स्तर
  • प्रयोगशालाओं में संदूषण के मुद्दे
  • सूक्ष्म प्रचारित (Micro-Propagated) रोपण सामग्री के परिवहन की लागत 
  • अन्य देशों के साथ भारतीय रोपण सामग्री के HS-कोड में सामंजस्य का अभाव
  • वन एवं क्वारेंटाइन विभागों का प्रतिरोध

स्रोत: पी.आई.बी.


भूगोल

चक्रवात असानी

प्रिलिम्स के लिये:

चक्रवात आसनी,भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD), चक्रवात नामकरण।

मेन्स के लिये:

चक्रवात का निर्माण, उष्णकटिबंधीय चक्रवात।

चर्चा में क्यों? 

भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) ने चक्रवात असानी के बंगाल की खाड़ी के दक्षिण-पूर्वी क्षेत्रों में 'गंभीर चक्रवात' के रूप में बदलने की भविष्यवाणी की है।

  • चक्रवात असानी का नामकरण श्रीलंका ने किया है। सिंहली में इसका अर्थ 'क्रोध' होता है।
  • 2020-21 में भारत में आने वाले चक्रवात थे: तौकते, यास, निसर्ग, अम्फान

भारत में चक्रवात की घटना:

  • भारत में द्विवार्षिक चक्रवात का मौसम होता है जो मार्च से मई और अक्तूबर से दिसंबर के बीच का समय है लेकिन दुर्लभ अवसरों पर जून और सितंबर के महीनों में भी चक्रवात आते हैं।
    • चक्रवात गुलाब वर्ष 2018 में उष्णकटिबंधीय चक्रवात ‘डे’ (DAYE) और वर्ष 2005 के चक्रवात ‘प्यार’ के बाद सितंबर में पूर्वी तट पर पहुँचने वाला 21वीं सदी का तीसरा चक्रवात बन गया।
  • सामान्यत: उत्तर हिंद महासागर क्षेत्र (बंगाल की खाड़ी और अरब सागर) में उष्णकटिबंधीय चक्रवात पूर्व-मानसून (अप्रैल से जून माह) तथा मानसून पश्चात् (अक्तूबर से दिसंबर) की अवधि के दौरान विकसित होते हैं।
  • मई-जून और अक्तूबर-नवंबर के माह गंभीर तीव्र चक्रवात उत्पन्न करने के लिये जाने जाते हैं जो भारतीय तटों को प्रभावित करते हैं।

वर्गीकरण: 

  • भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) चक्रवातों को उनके द्वारा उत्पन्न अधिकतम निरंतर सतही हवा की गति (Maximum Sustained Surface Wind Speed- MSW) के आधार पर वर्गीकृत करता है। 
  • चक्रवातों को गंभीर (48-63 समुद्री मील का MSW), बहुत गंभीर (64-89 समुद्री मील का MSW), अत्यंत गंभीर (90-119 समुद्री मील का MSW) और सुपर साइक्लोनिक स्टॉर्म (120 समुद्री मील का MSW) के रूप में वर्गीकृत किया गया है। एक नॉट (knot) 1.8 किमी. प्रति घंटे के बराबर होता है।

उष्णकटिबंधीय चक्रवात: 

  • उष्णकटिबंधीय चक्रवात एक तीव्र गोलाकार तूफान है जो गर्म उष्णकटिबंधीय महासागरों में उत्पन्न होता है और कम वायुमंडलीय दबाव, तेज़ हवाएँ व भारी बारिश इसकी विशेषताएँ हैं।
  • उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की विशिष्ट विशेषताओं में एक चक्रवात की आंँख (Eye) या केंद्र में साफ आसमान, गर्म तापमान और कम वायुमंडलीय दबाव का क्षेत्र होता है।
  • इस प्रकार के तूफानों को उत्तरी अटलांटिक और पूर्वी प्रशांत में हरिकेन (Hurricanes) तथा दक्षिण-पूर्व एशिया एवं चीन में टाइफून (Typhoons) कहा जाता है। दक्षिण-पश्चिम प्रशांत व हिंद महासागर क्षेत्र में इसे उष्णकटिबंधीय चक्रवात (Tropical Cyclones) तथा उत्तर-पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में विली-विलीज़ (Willy-Willies) कहा जाता है। 
  • इन तूफानों या चक्रवातों की गति उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सुई की दिशा के विपरीत अर्थात् वामावर्त (Counter Clockwise) और दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिणावर्त (Clockwise) होती है।
  • उष्णकटिबंधीय तूफानों के बनने और उनके तीव्र होने हेतु अनुकूल परिस्थितियाँ निम्नलिखित हैं: 
    • 27 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान वाली एक बड़ी समुद्री सतह।
    • कोरिओलिस बल की उपस्थिति।
    • ऊर्ध्वाधर/लंबवत हवा की गति में छोटे बदलाव।
    • पहले से मौजूद कमज़ोर निम्न-दबाव क्षेत्र या निम्न-स्तर-चक्रवात परिसंचरण।
    • समुद्र तल प्रणाली के ऊपर विचलन (Divergence)।

Tropical-Cyclone

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2020)

  1. जेट धाराएँ केवल उत्तरी गोलार्द्ध में उत्पन्न होती हैं।
  2. केवल कुछ चक्रवातों में ही आँख विकसित होती है।
  3. चक्रवात की आँख के अंदर का तापमान आसपास के तापमान की तुलना में लगभग 10ºC कम होता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(A) केवल 1
(B) केवल 2 और 3
(C) केवल 2
(D) केवल 1 और 3

उत्तर: (C) 

  • जेट स्ट्रीम एक भूस्थैतिक पवन है जो क्षोभमंडल की ऊपरी परतों में पश्चिम से पूर्व की ओर 20,000-50,000 फीट की ऊंँचाई पर क्षैतिज रूप से बहती है। जेट स्ट्रीम विभिन्न तापमान वाली वायुराशियों के मिलने पर विकसित होती है। अतः सतह का तापमान निर्धारित करता है कि जेट स्ट्रीम कहाँ बनेगी। तापमान में जितना अधिक अंतर होता है जेट स्ट्रीम का वेग उतना ही तीव्र होता है। जेट धाराएँ दोनों गोलार्द्धों में 20° अक्षांश से ध्रुवों तक फैली हुई हैं। अतः कथन 1 सही नहीं है।
  • चक्रवात दो प्रकार के होते हैं, उष्णकटिबंधीय चक्रवात और शीतोष्ण चक्रवात। उष्णकटिबंधीय चक्रवात के केंद्र को 'आंँख' के रूप में जाना जाता है, जहांँ केंद्र में हवा शांत होती है और वर्षा नहीं होती है। हालांँकि समशीतोष्ण चक्रवात में एक भी स्थान ऐसा नहीं है जहांँ हवाएंँ और बारिश नहीं होती  अतः शीतोष्ण चक्रवात में आंँख नहीं पाई जाती है। अत: कथन 2 सही है
  • सबसे गर्म तापमान आंँख/केंद्र में ही पाया जाता है, न कि आईवॉल बादलों में जहांँ गुप्त तापमान उत्पन्न होता है। हवा केवल वहीं संतृप्त होती है जहांँ संवहन ऊर्ध्वाधर गति उड़ान स्तर से गुज़रती है। आंँख के अंदर तापमान 28 डिग्री सेल्सियस से अधिक और ओस बिंदु 0 डिग्री सेल्सियस से कम होता है। ये गर्म व शुष्क स्थितियांँ अत्यंत तीव्र उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की आंँख के लिये विशिष्ट हैं। अत: कथन 3 सही नहीं है।

अतः विकल्प (C) सही उत्तर है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


शासन व्यवस्था

मंकीपॉक्स

प्रिलिम्स के लिये:

वायरल ज़ूनोसिस, मंकीपॉक्स, स्मॉल पॉक्स।

मेन्स के लिये:

ज़ूनोटिक रोग, स्वास्थ्य। 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में यूनाइटेड किंगडम में स्वास्थ्य अधिकारियों ने एक व्यक्ति में ‘मंकीपॉक्स’ के मामले की पुष्टि की है, जो चेचक के समान एक दुर्लभ वायरल संक्रमण है, इस व्यक्ति ने हाल ही में नाइजीरिया की यात्रा की थी।

  • मंकीपॉक्स एक वायरल ज़ूनोसिस (जानवरों से मनुष्यों में प्रसारित होने वाला वायरस) है, जिसमें चेचक के रोगियों में अतीत में देखे गए लक्षणों के समान लक्षण होते हैं, हालाँकि यह चिकित्सकीय रूप से कम गंभीर है।
  • वर्ष 1980 में चेचक के उन्मूलन और बाद में चेचक के टीकाकरण की समाप्ति के साथ यह सबसे महत्त्वपूर्ण ऑर्थोपॉक्सवायरस के रूप में उभरा है।
  • ‘जीनस ऑर्थोपॉक्सवायरस’ (Genus Orthopoxvirus) की चार प्रजातियाँ होती हैं जो मनुष्यों को संक्रमित करती हैं: वेरियोला (चेचक), मंकीपॉक्स, वैक्सीनिया (बफेलो पॉक्स) और काऊ पॉक्स।

मंकीपॉक्स:

  • मंकीपॉक्स के विषय में: यह एक वायरल ज़ूनोटिक रोग (Zoonotic Disease- जानवरों से मनुष्यों में संचरण होने वाला रोग) है और बंदरों में चेचक जैसी बीमारी के रूप में पहचाना जाता है, इसलिये इसे मंकीपॉक्स नाम दिया गया है। यह नाइजीरिया की स्थानिक बीमारी है।
    • मंकीपॉक्स वायरस के स्रोत के रूप में पहचाने जाने वाले जानवरों में बंदर और वानर, विभिन्न प्रकार के कृतंक (चूहों, गिलहरियों तथा प्रैरी कुत्तों सहित) एवं खरगोश शामिल हैं।
    • यह रोग मंकीपॉक्स वायरस के कारण होता है, जो पॉक्सविरिडे फैमिली (Poxviridae Family) में ऑर्थोपॉक्सवायरस जीनस (Orthopoxvirus Genus) का सदस्य है।
  • पृष्ठभूमि: मंकीपॉक्स का संक्रमण पहली बार वर्ष 1958 में अनुसंधान के लिये रखे गए बंदरों की कॉलोनियों में चेचक जैसी बीमारी के दो प्रकोपों ​​के बाद खोजा गया जिसे 'मंकीपॉक्स' नाम दिया गया।
  • लक्षण: इससे संक्रमित लोगों में चिकन पॉक्स जैसे दिखने वाले दाने निकल आते हैं लेकिन मंकीपॉक्स के कारण होने वाला बुखार, अस्वस्थता और सिरदर्द आमतौर पर चिकन पॉक्स के संक्रमण की तुलना में अधिक गंभीर होते हैं।
    • रोग के प्रारंभिक चरण में मंकीपॉक्स को चेचक से अलग किया जा सकता है क्योंकि इसमें लिम्फ ग्रंथि (Lymph Gland) बढ़ जाती है।
  • संचरण: मंकीपॉक्स वायरस ज़्यादातर जंगली जानवरों जैसे- कृन्तकों और प्राइमेट्स से लोगों के बीच फैलता है, लेकिन मानव-से-मानव संचरण भी होता है। 
  • मानव से मानव संचरण: पहला मानव संचरण का मामला 1970 में कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य (DRC) में चेचक को खत्म करने के तीव्र प्रयास के दौरान दर्ज किया गया था।
    • मानव-से-मानव संचरण का कारण संक्रमित श्वसन पथ स्राव, संक्रमित व्यक्ति की त्वचा के घावों से या रोगी या घाव से स्रावित तरल पदार्थ द्वारा तथा दूषित वस्तुओं के निकट संपर्क के कारण हो सकता है।
  • रोगोद्भवन अवधि: मंकीपॉक्स के लिये रोगोद्भवनअवधि (संक्रमण से लक्षणों तक का समय) आमतौर पर 7-14 दिनों की होती है लेकिन यह अवधि 5-21 दिनों तक भी हो सकती है। 
  • मृत्यु दर: यह तेज़ी से फैलता है और संक्रमित होने पर दस में से एक व्यक्ति की मौत का कारण बन सकता है। कम आयु वर्ग में सबसे अधिक मौतें होती हैं
  • उपचार: मंकीपॉक्स की नैदानिक ​​प्रस्तुति चेचक से संबंधित ऑर्थोपॉक्सवायरस संक्रमण से मिलती-जुलती है जिसे 1980 में विश्व भर में समाप्त घोषित कर दिया गया था।
    • चेचक उन्मूलन कार्यक्रम के दौरान उपयोग किया जाने वाला वैक्सीनिया टीका भी मंकीपॉक्स के खिलाफ सुरक्षात्मक उपचार है। 
    • चेचक और मंकीपॉक्स की रोकथाम के लिये अब एक नई तीसरी पीढ़ी की वैक्सीनिया वैक्सीन को मंज़ूरी दी गई है तथा एंटीवायरल एजेंट भी विकसित किये जा रहे हैं।

विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs): 

प्रश्न. निम्नलिखित बीमारियों पर विचार कीजिये: (2014)

  1. डिप्थीरिया
  2. छोटी माता (चिकनपॉक्स)
  3. चेचक (स्मॉलपॉक्स)

उपर्युक्त में से किस रोग/किन रोगों का भारत में उन्मूलन हो चुका है?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 3
(c) 1, 2 और 3
(d) कोई नहीं

उत्तर: B

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


जैव विविधता और पर्यावरण

स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स बर्ड्स

प्रिलिम्स के लिये:

स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स बर्ड्स

मेन्स के लिये:

संरक्षण, सरकारी नीतियांँ और हस्तक्षेप

चर्चा में क्यों?

'स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स बर्ड्स' की नई समीक्षा के अनुसार दुनिया भर में मौजूदा पक्षी प्रजातियों की आबादी में लगभग 48% की  गिरावट हुई है या होने का संदेह है।

  • स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स बर्ड्स पर्यावरण संसाधनों की वार्षिक समीक्षा है। 
  • चूंँकि पक्षी अत्यधिक दृश्यमान और पर्यावरणीय स्वास्थ्य के संवेदनशील संकेतक होते हैं, अतः इनका नुकसान जैव विविधता के व्यापक नुकसान तथा मानव स्वास्थ्य एवं कल्याण हेतु खतरे का संकेत देता है।

समीक्षा के प्रमुख बिंदु:

  • परिचय:
    • समग्र:
      • प्राकृतिक दुनिया और जलवायु परिवर्तन पर मानव फुटप्रिंट के बढ़ते प्रभाव के कारण को पक्षियों की 10,994 मान्यता प्राप्त मौजूदा प्रजातियों में से लगभग आधे  पर संकट के लिये ज़िम्मेदार ठहराया गया है।
      • लगभग 4,295 या 39% प्रजातियों में जनसंख्या रुझान स्थिर थे, वहीं 7% या 778 प्रजातियों में जनसंख्या की प्रवृत्ति बढ़ रही थी, जबकि 37 प्रजातियों की जनसंख्या प्रवृत्ति अज्ञात थी।
      • अध्ययन ने सभी वैश्विक पक्षी प्रजातियों के रुझानों में परिवर्तन को प्रकट करने के लिये प्रकृति की लाल सूची के संरक्षण के लिये अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ(IUCN) के डेटा का उपयोग कर एवियन जैव विविधता में परिवर्तन की समीक्षा की।
    • भारत:
      • भारत में पक्षियों की विविधता में गिरावट की प्रवृत्ति उतनी ही चिंताजनक है, जहाँ हाल ही में 146 प्रजातियों के लिए वार्षिक रुझानों की गणना की गई है।
        • इनमें से लगभग 80% पक्षियों की संख्या में गिरावट आ रही है और लगभग 50% में तीव्र स्तर की गिरावट देखी गई हैं। 
        • अध्ययन की गई 6% से अधिक प्रजातियांँ स्थिर आबादी को दर्शाती हैं तथा 14% बढ़ती जनसंख्या प्रवृत्तियों को दर्शाती हैं। 
      • सबसे अधिक संकटग्रस्त प्रजातियों में स्थानिक प्रजातियांँ, शिकार के पक्षी, जंगलों और घास के मैदानों में रहने वाली प्रजातियाँ शामिल थीं।
  • गिरावट का कारण:
    • प्राकृतिक आवासों का ह्रास तथा साथ ही कई प्रजातियों का प्रत्यक्ष अतिदोहन पक्षी जैव विविधता के लिये प्रमुख खतरे हैं।
      • जीवित पक्षी प्रजातियों में से 37% का सामान्य या विदेशी पालतू जानवरों के रूप में तथा 14% भोजन के रूप में उपयोग प्रत्यक्ष रूप से अतिशोषण के उदाहरण हैं। 
    • साथ ही मनुष्य द्वारा विश्व के पक्षियों की जीवित प्रजातियों का 14% हिस्सा भोजन के रूप में प्रयोग किया जाता है।
    • उष्णकटिबंधीय वनों के अलावा उत्तरी अमेरिका, यूरोप और भारत के लिये प्राकृतिक घास के मैदानों का खतरा विशेष रूप से चिंताजनक रहा है। 

सुझाव:

  • जनसंख्या बहुतायत और परिवर्तन के विश्वसनीय अनुमानों का संचालन करना।
  • अनुपयुक्त तरीके से लागू किये जाने पर पक्षियों को प्रभावित कर सकने वाले हरित ऊर्जा संक्रमण की निगरानी करना।
  • आक्रामक विदेशी प्रजातियों की आबादी का उन्मूलन।
  • मानव समाज को आर्थिक रूप से सतत् विकास पथ पर स्थानांतरित करना।

स्रोत: द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

आपदा अनुकूल अवसंरचना पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन

प्रिलिम्स के लिये:

सीडीआरआई, आईसीडीआरआई

मेन्स के लिये:

आपदा प्रबंधन

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में प्रधानमंत्री ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से आपदा प्रतिरोधी अवसंरचना पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन (International Conference on Disaster Resilient Infrastructure) के चौथे संस्करण के उद्घाटन सत्र को संबोधित किया।   

  • ICDRI आपदा और जलवायु अनुकूलन के लिये आवश्यक बुनियादी ढाँचे पर वैश्विक पहल को मज़बूती प्रदान करने हेतु सदस्य देशों, संगठनों तथा संस्थानों के साथ आपदा प्रतिरोधी बुनियादी ढाँचे के लिये गठबंधन (International Coalition for Disaster Resilient Infrastructure-CDRI) हेतु वार्षिक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन है।

आपदा प्रतिरोधी बुनियादी ढाँचे के लिये गठबंधन:

  • यह गठबंधन राष्ट्रीय सरकारों, संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों और कार्यक्रमों, बहुपक्षीय विकास बैंकों तथा वित्तपोषण तंत्र, निजी क्षेत्र आदि की एक बहु-हितधारक वैश्विक भागीदारी है।
  • भारत के प्रधानमंत्री ने 23 सितंबर, 2019 को संयुक्त राष्ट्र जलवायु कार्रवाई शिखर सम्मेलन (UN Climate Action Summit) में अपने भाषण के दौरान CDRI का शुभारंभ किया था।
  • इसका उद्देश्य सतत् विकास के समर्थन में जलवायु और आपदा जोखिमों के लिये नई एवं मौजूदा बुनियादी ढाँचा प्रणालियों की अनुकूलता को बढ़ावा देना है।
  • सदस्य: 22 देश और 7 संगठन।
  • विषयगत क्षेत्र: शासन और नीति, जोखिम की पहचान तथा आकलन, मानक एवं प्रमाणन, क्षमता निर्माण, नवाचार और उभरती प्रौद्योगिकी, रिकवरी व पुनर्निर्माण, वित्त एवं समुदाय आधारित दृष्टिकोण।
  • CDRI का सचिवालय नई दिल्ली, भारत में स्थित है।

आपदा प्रतिरोधी बुनियादी ढाँचे (DRI) तथा जलवायु प्रतिरोधी ढाँचे (CRI) में अंतर:  

  • DRI में भूकंप, भूस्खलन, सुनामी और ज्वालामुखी गतिविधि जैसे भू-भौतिकीय एवं भू-आकृति संबंधी खतरों के कारण आपदा जोखिम को संबोधित करना भी शामिल है। चूँकि अवसंरचना प्रणाली लंबे जीवन चक्र के लिये बनाई गई है, इसलिये यह ज़रूरी है कि DRI ऐसी कम आवृत्ति वाली परंतु उच्च प्रभाव वाली घटनाओं से उत्पन्न जोखिमों को संबोधित करे।  
  • DRI को परमाणु विकिरण, बांँध की विफलता, रासायनिक रिसाव, विस्फोट जैसे तकनीकी खतरों से निपटना होगा जो सीधे जलवायु से जुड़े नहीं हैं।
  • 90% से अधिक आपदाएँ मौसम और जलवायु से संबंधित चरम घटनाओं की अभिव्यक्ति हैं। इसलिये बुनियादी ढाँचे को जलवायु-लचीला बनाना भी इसे आपदा प्रतिरोधी बनाने में योगदान देता है।
  • CRI के कुछ प्रयास बुनियादी ढाँचे जैसे कार्बन फुटप्रिंट को कम करने पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। हालाँकि यह DRI का उपोत्पाद हो सकता है, DRI इन पहलुओं को स्पष्ट रूप से संबोधित नहीं करता है।

आवश्यकता: 

  • आपदा न्यूनीकरण के लिये सेंदाई फ्रेमवर्क (Sendai Framework for Disaster Reduction) सतत् विकास के लिये आपदाओं के कारण महत्त्वपूर्ण बुनियादी ढाँचे को होने वाले नुकसान पर प्रकाश डालता है।
  • SFDRR में नुकसान को कम करने से संबंधित चार विशिष्ट लक्ष्य शामिल हैं:
    • वैश्विक आपदा से होने वाली मौतों को कम करना;
    • प्रभावित लोगों की संख्या कम करना;
    • आपदा से होने वाले आर्थिक नुकसान को कम करना; तथा
    • आपदा के कारण महत्त्वपूर्ण बुनियादी ढाँचे में होने वाली क्षति को कम करना।
  • लक्ष्य-4 बुनियादी ढाँचे पर फ्रेमवर्क में निर्धारित अन्य नुकसान में कमी, लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये एक महत्त्वपूर्ण शर्त है।
  • वैश्विक वार्षिक अवसंरचना निवेश आवश्यकता का अनुमान वर्ष 2016-2040 के बीच प्रतिवर्ष 3.7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर है। अतः हमारे निवेश की सुरक्षा के लिये यह आवश्यक है कि भविष्य की सभी बुनियादी ढाँचा प्रणालियाँ आपदाओं का सामना करने में सक्षम हों।
  • जलवायु परिवर्तन के कारण द्वीपीय राज्यों के सामने आने वाली चुनौतियाँ CDRI पहल के तहत प्रयासों का केंद्र बिंदु में हैं।
    • COP-26  में 'इन्फ्रास्ट्रक्चर फॉर रेसिलिएंट आइलैंड स्टेट्स'(Infrastructure for Resilient Island States) पहल शुरू की गई थी।

इन्फ्रास्ट्रक्चर फॉर रेसिलिएंट स्टेट्स पहल 

  • भारत ने CDRI के एक हिस्से के रूप में इस पहल की शुरुआत की, जो विशेष रूप से छोटे द्वीपीय विकासशील राज्यों में पायलट परियोजनाओं के क्षमता निर्माण पर ध्यान केंद्रित करेगी। 
  • छोटे द्वीपीय विकासशील राज्य या SIDS जलवायु परिवर्तन से सबसे ज़्यादा खतरे का सामना करते हैं, भारत की अंतरिक्ष एजेंसी ISRO उनके लिये उपग्रह के माध्यम से चक्रवात, प्रवाल-भित्ति निगरानी, तट-रेखा निगरानी आदि के बारे में समय पर जानकारी प्रदान करने हेतु विशेष डेटा विंडो का निर्माण करेगी।

भारत के लिये महत्त्व:

  • यह भारत को जलवायु कार्रवाई और आपदा न्यूनीकरण पर वैश्विक नेता के रूप में उभरने का एक मंच प्रदान करेगा।
    • CDRI भारत की सॉफ्ट पॉवर को बढ़ाता है, लेकिन इसका अर्थ अर्थशास्त्र की दृष्टि से कहीं अधिक व्यापक है क्योंकि यह आपदा जोखिम में कमी, सतत् विकास लक्ष्यों (Sustainable Development Goal) और जलवायु समझौते के बीच तालमेल तथा स्थायी एवं समावेशी विकास प्रदान करता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन का पूरक। 
  • अफ्रीका, एशिया आदि में लचीले बुनियादी ढाँचे के प्रति भारत के समर्थन को सुगम बनाना।
  • इन्फ्रा डेवलपर के लिये ज्ञान, प्रौद्योगिकी और क्षमता विकास तक पहुँच प्रदान करना।
  • भारतीय बुनियादी ढाँचे और प्रौद्योगिकी फर्मों को विदेशों में सेवाओं का विस्तार करने हेतु अवसर प्रदान करना।

स्रोत: पी.आई.बी.


जैव विविधता और पर्यावरण

हीटवेव और वेट बल्ब तापमान

प्रिलिम्स के लिये:

वेट बल्ब तापमान, ड्राई बल्ब  तापमान, जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल, आईपीसीसी  छठी आकलन रिपोर्ट , हीटवेव।

मेन्स के लिये:

पर्यावरण प्रदूषण और गिरावट, संरक्षण, वेट बल्ब तापमान, बढ़ते वेट बल्ब तापमान का प्रभाव, हीटवेव।

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में प्रकाशित जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल(IPCC) की छठी आकलन रिपोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि मानव शरीर पर अत्यधिक गर्मी डालने वाले शारीरिक तनाव का आकलन करते समय आर्द्रता बहुत महत्त्वपूर्ण कारक है।

  • "ड्राई बल्ब तापमान” के बजाय (जिसे आमतौर पर एक नियमित थर्मामीटर का उपयोग करके मापा जाता है) अत्यधिक गर्मी के जोखिम को मापने के लिये "वेट बल्ब तापमान" के रूप में एक वैकल्पिक मीट्रिक का उपयोग किया गया है।
  • मार्च 2022 के बाद से दक्षिण एशिया में लगातार हीटवेव से इस वर्ष भी ऐतिहासिक तापमान के रिकॉर्ड तोड़ने की प्रवृत्ति जारी है

हीटवेव: 

  • हीट वेव अर्थात् ग्रीष्म लहर असामान्य रूप से उच्च तापमान की वह स्थिति है, जिसमें भारत के उत्तर-पश्चिमी और दक्षिण मध्य भागों में गर्मी के मौसम के दौरान तापमान सामान्य से अधिक बना  रहता है
  • हीटवेव की स्थिति आमतौर पर मार्च और जून के बीच होती हैं तथा कुछ दुर्लभ मामलों में जुलाई तक भी रहती है।
  • भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD)   हीटवेव को क्षेत्रों और उनके तापमान के क्रम के अनुसार वर्गीकृत करता है।

हीटवेव के लिये मानदंड:

  • हीटवेव की स्थिति तब मानी जाती है जब किसी स्थान का अधिकतम तापमान मैदानी इलाकों के लिये कम-से-कम 40 डिग्री सेल्सियस और पहाड़ी क्षेत्रों के लिए कम-से-कम 30 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है।
  • यदि किसी स्थान का सामान्य अधिकतम तापमान 40°C से कम या उसके बराबर है, तो सामान्य तापमान से 5°C से 6°C की वृद्धि को हीटवेव की स्थिति माना जाता है।
    • इसके अलावा सामान्य तापमान से 7 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक की वृद्धि को भीषण हीटवेव की स्थिति माना जाता है।
  • यदि किसी स्थान का सामान्य अधिकतम तापमान 40°C से अधिक है, तो सामान्य तापमान से 4°C से 5°C की वृद्धि को हीटवेव की स्थिति माना जाता है। इसके अलावा 6 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक की वृद्धि को भीषण भीषण हीटवेव की स्थिति माना जाता है।
  • इसके अतिरिक्त यदि वास्तविक अधिकतम तापमान सामान्य अधिकतम तापमान के बावजूद 45 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक रहता है, तो हीटवेव घोषित किया जाता है।

गर्मी के जोखिम को मापते समय आर्द्रता का महत्त्व: 

  • मनुष्य अपने शरीर के भीतर उत्पन्न गर्मी को त्वचा पर पसीने एवं वाष्पीकरण करके नियंत्रित करता है।
    • शरीर के स्थिर तापमान को बनाए रखने के लिये इस वाष्पीकरण का शीतलन प्रभाव आवश्यक है।
  • जैसे-जैसे नमी बढ़ती है, पसीना वाष्पित नहीं होता है और शरीर के तापमान को नियंत्रित करना मुश्किल हो जाता है। इसी वजह से नम जगहों पर इंसानों को ज़्यादा परेशानी होती है।
  • गीले बल्ब का तापमान आमतौर पर सूखे बल्ब के तापमान से कम होता है और हवा के शुष्क होने पर दोनों के बीच का अंतर नाट्कीय रूप से बढ़ जाता है।
    • रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि 35 डिग्री सेल्सियस से ऊपर वेट बल्ब के तापमान के लिये निरंतर एक्सपोज़र घातक है, जबकि 32 डिग्री सेल्सियस से ऊपर वेट बल्ब के तापमान का निरंतर एक्सपोज़र तीव्र शारीरिक गतिविधि के लिये खतरनाक हैं।

Wet-Bulb-Temperature

  • भूमि पर 35°C से अधिक वेट बल्ब के तापमान तक पहुंँचने के लिये आवश्यक आर्द्रता हासिल करना बेहद मुश्किल होता है।
    • रिपोर्ट के अनुसार, आजकल ऐसे हालात कम ही देखने को मिलते हैं।
  • निष्कर्ष यह भी बताते हैं कि जीवित रहने की सीमा से परे ‘वेट बल्ब’ के तापमान के निरंतर संपर्क का अनुभव करने की संभावना नहीं है।
    • सबसे पहले अपने तापमान को स्थिर करने में शरीर की अक्षमता के कई कारण हो सकते हैं। 
      • उच्च तापमान की अवधि के दौरान हृदय पर बढ़ा हुआ तनाव उन लोगों के लिये घातक हो सकता है, जिन्हें पहले से हृदय की समस्या है, यह हीटवेव के दौरान मौतों का प्रमुख कारण है। 
    • पहले से मौजूद साँस की समस्याएँ और मधुमेह भी मौत के संभावित कारण हैं।
      • ऐसी स्थितियाँ पर्यावरण में गर्मी को कुशलतापूर्वक स्थानांतरित करने की शरीर की क्षमता को कम करती है। 

‘वेट बल्ब’ तापमान:

  •  ‘वेट-बल्ब’ तापमान सबसे कम तापमान होता है, जिससे हवा में पानी के वाष्पीकरण द्वारा निरंतर दबाव में हवा को ठंडा किया जा सकता है।
  • ‘वेट-बल्ब’ तापमान गर्मी एवं आर्द्रता की वह सीमा है, जिसके आगे मनुष्य उच्च तापमान को सहन नहीं कर सकता है।
  • ‘वेट बल्ब’ तापमान रुद्धोष्म संतृप्ति का तापमान है। यह हवा के प्रवाह के संपर्क में आने वाले एक नम थर्मामीटर बल्ब द्वारा इंगित तापमान है।
    • रुद्धोष्म प्रक्रम वह है, जिसमें न तो कोई ऊष्मा प्राप्त की जाती है और न ही खोई जाती है।
  • गीले मलमल में लिपटे बल्ब के साथ थर्मामीटर का उपयोग करके ‘वेट बल्ब’ तापमान मापा जा सकता है।

Wet-Bulb

  • थर्मामीटर से पानी का एडियाबेटिक वाष्पीकरण और शीतलन प्रभाव हवा में ‘ड्राई-बल्ब’ तापमान ‘वेट-बल्ब’ तापमान से कम इंगित किया जाता है।
  • बल्ब पर गीली पट्टी से वाष्पीकरण की दर और सूखे बल्ब तथा गीले बल्ब के बीच तापमान का अंतर हवा की नमी पर निर्भर करता है।
    • वायु में जलवाष्प की मात्रा अधिक होने पर वाष्पीकरण की दर कम हो जाती है।
  • वेट बल्ब का तापमान हमेशा ड्राइ बल्ब के तापमान से कम होता है लेकिन यह 100% सापेक्ष आर्द्रता (जब हवा संतृप्ति रेखा पर हो) के समान होगा।
  • 31 डिग्री सेल्सियस पर वेट-बल्ब का तापमान मनुष्यों के लिये अत्यधिक हानिकारक होता है, जबकि 35 डिग्री सेल्सियस पर तापमान 6 घंटे से अधिक समय तक सहनीय नहीं हो सकता है।

ड्राई बल्ब तापमान:

  • ड्राई बल्ब तापमान, जिसे आमतौर पर "हवा का तापमान" (Air Temperature) भी कहा जाता है, वायु का वह गुण है जिसका सबसे अधिक उपयोग किया जाता है। जब लोग हवा के तापमान का उल्लेख करते हैं तो वे आमतौर पर ड्राई बल्ब के तापमान (Dry Bulb Temperature) की बात करते हैं।
  • ड्राई बल्ब तापमान मूल रूप से परिवेशी वायु तापमान को संदर्भित करता है। इसे "ड्राई बल्ब" कहा जाता है क्योंकि हवा का तापमान एक थर्मामीटर द्वारा इंगित किया जाता है जो हवा की नमी से प्रभावित नहीं होता है।
  • ड्राई बल्ब तापमान को एक सामान्य थर्मामीटर का उपयोग करके मापा जा सकता है जो स्वतंत्र रूप से हवा के संपर्क में आता है लेकिन विकिरण और नमी से परिरक्षित (Shielded) होता है।
  • ड्राई बल्ब तापमान ऊष्मा की मात्रा का सूचक है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 


close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2