भारत में शैक्षणिक स्वतंत्रता
प्रिलिम्स के लिये:अंतर्राष्ट्रीय शैक्षणिक स्वतंत्रता सूचकांक मेन्स के लिये:अंतर्राष्ट्रीय शैक्षणिक स्वतंत्रता सूचकांक |
चर्चा में क्यों?
‘अंतर्राष्ट्रीय शैक्षणिक स्वतंत्रता सूचकांक’ (International Academic Freedom Index) में भारत ने 0.352 स्कोर के साथ बहुत खराब प्रदर्शन किया है।
प्रमुख बिंदु
- ‘शैक्षणिक स्वतंत्रता सूचकांक‘ ग्लोबल टाइम-सीरीज़ डेटासेट (वर्ष 1900 से वर्ष 2019 तक) के एक भाग के रूप में यह ‘ग्लोबल पब्लिक पॉलिसी इंस्टीट्यूट’ (Global Public Policy Institute) द्वारा जारी किया गया है।
- फ्रेडरिक-अलेक्जेंडर यूनिवर्सिटी एर्लांगेन-नार्नबर्ग, स्कॉलर्स एट रिस्क और वी-डेम इंस्टीट्यूट भी इस कार्य में निकट सहयोगी रहे हैं।
शैक्षणिक स्वतंत्रता सूचकांक:
- शैक्षणिक स्वतंत्रता का मतलब है कि संकाय के सदस्यों और छात्रों द्वारा आधिकारिक हस्तक्षेप या प्रतिशोध के डर के बिना बौद्धिक विचार व्यक्त किये जाते हों।
- यह सूचकांक दुनिया भर में शैक्षणिक स्वतंत्रता के स्तर की तुलना करता है और साथ ही शैक्षणिक स्वतंत्रता में की गई कमी की समझ को बढ़ाता है।
- शैक्षणिक स्वतंत्रता सूचकांक का मूल्यांकन निम्नलिखित आठ घटकों के आधार पर किया जाता है।
- शोध और शिक्षा की स्वतंत्रता;
- अकादमिक विनिमय और प्रसार की स्वतंत्रता;
- संस्थागत स्वायत्तता, परिसर अखंडता;
- शैक्षणिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता;
- शैक्षणिक स्वतंत्रता की संवैधानिक सुरक्षा;
- शैक्षणिक स्वतंत्रता के तहत अंतर्राष्ट्रीय कानूनी प्रतिबद्धता;
- आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय समझौते;
- विश्वविद्यालयों का अस्तित्व।
- सूचकांक में 0-1 के बीच स्कोर दिया गया है और 1 सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन को बताता है।
शीर्ष प्रदर्शक:
- 0.971 के स्कोर के साथ उरुग्वे और पुर्तगाल शैक्षणिक स्वतंत्रता सूचकांक (एएफआई) में शीर्ष पर हैं, इसके बाद लातविया (0.964) और जर्मनी (0.960) हैं।
- सूचकांक में अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया सहित 35 देशों के डेटा की रिपोर्ट नहीं थी।
सूचकांक पर भारत का प्रदर्शन:
- 0.352 के स्कोर के साथ भारत, सऊदी अरब (0.278) और लीबिया (0.238) के निकट है। पिछले पाँच वर्षों में भारत के एएफआई स्कोर में 0.1 अंक की गिरावट दर्ज की गई है।
- मलेशिया (0.582), पाकिस्तान (0.554), ब्राज़ील (0.466), सोमालिया (0.436) और यूक्रेन (0.422) जैसे देशों ने भारत से बेहतर स्कोर किया है।
भारत के खराब प्रदर्शन का कारण:
- भारत ने संस्थागत स्वायत्तता, परिसर की अखंडता, शैक्षणिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा शैक्षणिक स्वतंत्रता की संवैधानिक सुरक्षा जैसे घटकों में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है।
- एएफआई ने ‘फ्री टू थिंक (Free to Think): स्कॉलर्स एट रिस्क अकादमिक फ्रीडम मॉनीटरिंग प्रोजेक्ट’ का हवाला देते हुए सुझाव दिया है कि भारत में राजनीतिक तनाव के कारण ‘शैक्षणिक स्वतंत्रता’ में गिरावट हो सकती है।
- रिपोर्ट के अनुसार, भारत में राजनीतिक तनाव के कारण छात्रों, सुरक्षा बलों और शैक्षणिक परिसर के छात्र समूहों के बीच हिंसक टकराव हुए हैं तथा शैक्षिक संस्थानों में मौजूद विद्यार्थियों (scholars) के खिलाफ कानूनी कार्रवाई और अनुशासनात्मक उपाय किये गए हैं।
भारत के लिये चुनौतियाँ
विद्वानों को स्वतंत्रता:
- भारत विद्वानों को राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से विवादास्पद विषयों पर अपने जीवन, अध्ययन या पेशे के डर के बिना चर्चा करने के लिये वांछित स्वतंत्रता प्रदान करने में विफल रहा है।
राजनीतिक हस्तक्षेप:
- देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक और गैर-शैक्षणिक दोनों ही मुद्दों पर सरकारों के अवांछित हस्तक्षेप का सामना करना पड़ता है।
- अधिकांश नियुक्तियों में विशेष रूप से शीर्ष पदों के लिये जैसे- कुलपति और कुलसचिव का अत्यधिक राजनीतिकरण किया गया है।
भ्रष्ट आचरण:
- राजनीतिक नियुक्तियाँ न केवल शैक्षणिक तथा रचनात्मक स्वतंत्रता को बढ़ावा देती हैं, बल्कि लाइसेंसिंग और मान्यता सहित भ्रष्ट प्रथाओं को भी जन्म देती है।
विश्वविद्यालयों की नौकरशाही:
- वर्तमान में कई शैक्षणिक संस्थान और नियामक संस्थाएँ, केंद्रीय और राज्य स्तरों पर नौकरशाहों के नेतृत्व में हैं।
भाई-भतीजावाद:
- स्टाफ की नियुक्तियों और छात्रों के प्रवेश में पक्षपात तथा भाई-भतीजावाद का बोलबाला है। यह शैक्षणिक परिसर के भीतर ‘किराया प्राप्त करने संस्कृति’ (Rent-Seeking Culture) को दर्शाता है।
- किराये पर लेने की मांग एक आर्थिक अवधारणा है जो तब होती है जब कोई संस्था उत्पादकता के किसी भी पारस्परिक योगदान के बिना अतिरिक्त धन प्राप्त करना चाहता है। आमतौर पर यह सरकार द्वारा वित्तपोषित सामाजिक सेवाओं और सामाजिक सेवा कार्यक्रमों के चारों ओर घूमती है।
समाधान:
‘नई शिक्षा नीति’ (New Education Policy) को लागू करना 2020:
- नई शिक्षा नीति, 2020 का दावा है कि यह रचनात्मकता और महत्त्वपूर्ण सोच के सिद्धांतों पर आधारित है तथा एक ऐसी शिक्षा प्रणाली को लागू करती है जो राजनीतिक या बाहरी हस्तक्षेप से मुक्त है।
- इस नीति में कहा गया है कि संकाय (faculty) को ‘पाठ्यपुस्तक और पठन सामग्री चयन, कार्य और आकलन सहित’ अनुमोदित ढाँचे के भीतर अपने स्वयं के पाठ्यक्रम और शैक्षणिक दृष्टिकोण को डिज़ाइन करने की स्वतंत्रता दी जाएगी।
- यह एक ‘राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन’ (National Research Foundation), एक मेरिट-आधारित और ‘सहकर्मी-समीक्षा शोध निधि’ का गठन करने का भी सुझाव देता है, जिसे "सरकार से स्वतंत्र एक रोटेशनल बोर्ड (Rotating Board) द्वारा शासित किया जाएगा।
- इसके अलावा शिक्षाविदों को शासन की शक्तियाँ देकर शिक्षा प्रणाली का वि-नौकरशाहीकरण (De-Bureaucratise) करना है। यह उच्च शिक्षा संस्थानों को अपने प्रशासन को बोर्ड को सौंपने के लिये शिक्षाविदों को शामिल करके स्वायत्तता देने की बात करता है।
विनियामक और शासन सुधार:
- प्रभावी समन्वय सुनिश्चित करने के लिये विभिन्न उच्च शिक्षा नियामकों (UGC, AICTE, NCTE आदि) का पुनर्गठन या विलय किया जा सकता है। विनियामक संरचना को विधायी समर्थन देने के लिये यूजीसी अधिनियम, 1956 में संशोधन किया जाए।
- पारदर्शी और वस्तुनिष्ठ प्रक्रिया के माध्यम से विश्वविद्यालयों के कुलपतियों का चयन किया जाना चाहिये।
- विश्वविद्यालयों को प्रदर्शन के आधार पर अनुदान दिया जाना चाहिये।
आगे की राह:
- विश्वविद्यालयों को विश्वस्तरीय बनाने के लिये उन्हें राजनीति से दूर रखकर स्वायत्तता प्रदान की जानी चाहिये। उच्च राजनीतिक स्वायत्तता वाले संस्थान जैसे- IIT, IIM or IISc अधिक सफल हैं।
- उच्च शिक्षा नीति-निर्माताओं को एएफआई स्कोर में गिरावट के प्रति जवाबदेह बनाना चाहिये। संयुक्त राष्ट्र के सतत् विकास लक्ष्य-4 के साथ गठबंधन करते हुए ‘भारत को आगे बढ़ना चाहिये इससे भारत को एक ‘वैश्विक ज्ञान आधारित महाशक्ति’ बनाने में मदद मिलेगी।
- शैक्षणिक स्वतंत्रता एक प्राथमिकता है। विश्वविद्यालय सवाल पूछने की संस्कृति को बढ़ावा देते हैं। उत्कृष्टता की तलाश में विचारों की खोज करना, मुद्दों पर बहस करना और स्वतंत्र रूप से सोचना आवश्यक है।
स्रोत: द हिंदू
‘वन रैंक, वन पेंशन’ योजना
प्रिलिम्स के लिये‘वन रैंक, वन पेंशन’ योजना मेन्स के लिये‘वन रैंक, वन पेंशन’ योजना की आवश्यकता और इसकी आलोचना |
चर्चा में क्यों?
केंद्र सरकार ने ‘वन रैंक, वन पेंशन’ (OROP) योजना के तहत बीते पाँच वर्षों में 20.6 लाख से अधिक सेवानिवृत्त रक्षाकर्मियों को 42,700 करोड़ रुपए की राशि वितरित की है।
प्रमुख बिंदु
- केंद्र सरकार ने 7 नवंबर, 2015 को ‘वन रैंक, वन पेंशन’ (OROP) योजना की अधिसूचना जारी की थी, जिसमें कहा गया था कि यह योजना 1 जुलाई, 2014 से प्रभावी मानी जाएगी।
- रक्षा मंत्रालय द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश (2.28 लाख) और पंजाब (2.12 लाख) में ‘वन रैंक, वन पेंशन’ (OROP) के लाभार्थियों की सबसे अधिक संख्या दर्ज की गई।
- हालाँकि इन आँकड़ों में नेपाल के पेंशनधारकों का विवरण शामिल नहीं किया गया है।
क्या है ‘वन रैंक, वन पेंशन’?
- ‘वन रैंक, वन पेंशन’ (OROP) का अर्थ है कि सेवानिवृत्त होने की तारीख से इतर समान सेवा अवधि और समान रैंक पर सेवानिवृत्त हो रहे सशस्त्र सैन्यकर्मियों को एक समान पेंशन दी जाएगी। इस तरह से ‘वन रैंक, वन पेंशन’ (OROP) का मतलब आवधिक अंतरालों पर वर्तमान और पिछले सेवानिवृत्त सैन्यकर्मियों की पेंशन की दर के बीच के अंतर को कम करना है।
- जबकि इससे पूर्व की व्यवस्था में जो सैनिक जितनी देरी से सेवानिवृत्त होता था, उसे पहले सेवानिवृत्त होने वाले सैनिकों की तुलना में अधिक पेंशन प्राप्त होती थी, क्योंकि सरकार द्वारा दी जाने वाली पेंशन कर्मचारी के अंतिम वेतन पर निर्भर करता है और समय-समय पर वेतन आयोग की सिफारिशों के आधार पर कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि होती रहती है।
- इस तरह वर्ष 1995 में सेवानिवृत्त होने वाले एक लेफ्टिनेंट जनरल को वर्ष 2006 के बाद सेवानिवृत्त होने वाले एक कर्नल की तुलना में कम पेंशन प्राप्त होती थी।
पृष्ठभूमि
- असल में वर्ष 1973 से पूर्व ‘वन रैंक, वन पेंशन’ को लेकर किसी भी प्रकार का कोई विवाद नहीं था, पर वर्ष 1973 में तीसरे वेतन आयोग की रिपोर्ट के प्रकाशन के साथ ही प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘वन रैंक, वन पेंशन’ के तत्कालीन स्वरूप को समाप्त कर दिया।
- वर्ष 1973 में तीसरे वेतन आयोग से पूर्व सशस्त्र बलों के सभी सेवानिवृत्त कर्मियों को उनके अंतिम वेतन का 75 प्रतिशत हिस्सा पेंशन के रूप में भुगतान किया जाता था। साथ ही उस समय तक ऐसे सेवानिवृत्त रक्षाकर्मियों को पेंशन का भुगतान नहीं किया जाता था, जिन्होंने पाँच वर्ष से कम अवधि के लिये अपनी सेवाएँ दी हों।
- तीसरा वेतन आयोग
- अन्य सरकारी कर्मचारियों की तरह इसने रक्षाकर्मियों को भी तीसरे वेतन आयोग के दायरे में ला दिया, आयोग ने पेंशन के तौर पर सभी पूर्व कर्मचारियों (जिसमें रक्षाकर्मी भी शामिल हैं) के लिये केवल 50 प्रतिशत वेतन की सिफारिश की, जिसके कारण सिविल कर्मियों की पेंशन तो 33 प्रतिशत से बढ़कर 50 प्रतिशत हो गई, किंतु रक्षाकर्मियों की पेंशन 75 प्रतिशत से घटकर 50 प्रतिशत पर पहुँच गई।
- इसके बाद वर्ष 1979 में तत्कालीन वित्त मंत्री एच.एन. बहुगुणा ने मूल वेतन के एक हिस्से को महंगाई भत्ते में विलय करके सेवारत सैनिकों के वेतन में वृद्धि कर दी, जिससे वर्ष 1979 के बाद सेवानिवृत्त होने वाले सैन्यकर्मियों की पेंशन में भी बढ़ोतरी हो गई और यहीं से सेवानिवृत्त सैनिकों की पेंशन के बीच अंतर आना शुरू हो गया।
‘वन रैंक, वन पेंशन’ की आवश्यकता क्यों?
- छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के लागू होने तक ‘वन रैंक, वन पेंशन’ के मुद्दे को लगभग भुलाया जा चुका था, पर जब इस आयोग की सिफारिशें लागू की गईं तो पूर्व सैनिकों के बीच पेंशन का अंतर और भी ज़्यादा बढ़ गया।
- इस आयोग की सिफारिशों के लागू होने से वर्ष 2006 में सेवानिवृत्त होने वाले एक मेजर जनरल को वर्ष 2014 में सेवानिवृत्त होने वाले अपने समकक्ष से 30,000 रुपए कम पेंशन मिलने लगी, जो कि एक काफी बड़ी राशि थी।
- पेंशन में इतनी अधिक असमानता के कारण पूर्व-सैनिकों के बीच ‘वन रैंक, वन पेंशन’ को लेकर एक आंदोलन शुरू हो गया और सभी स्तरों पर एक समान पेंशन की मांग की जाने लगी।
- ‘वन रैंक, वन पेंशन’ के अधिकांश समर्थकों का मानना है कि ‘सशस्त्र बल’ के रक्षाकर्मियों और सिविल कर्मचारियों को पेंशन के मामले में एक समान रूप से नहीं देखा जाना चाहिये, क्योंकि अधिकांश रक्षाकर्मी 33 से 35 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त होते हैं, जबकि सिविल कर्मियों की सेवानिवृत्त आयु 60 वर्ष होती है। इसी वजह से सेवा की कम अवधि के कारण कम वेतन मिलने से रक्षाकर्मियों का मनोबल प्रभावित होता है।
रक्षा पेंशन और ‘वन रैंक, वन पेंशन’ की आलोचना
- केंद्र सरकार ने वित्तीय वर्ष 2020-21 के बजट में रक्षा पेंशन के लिये 1,33,825 करोड़ रुपए आवंटित किये हैं, जबकि वित्तीय वर्ष 2005-06 में यह राशि केवल 12,715 करोड़ रुपए थी।
- 1,33,826 करोड़ रुपए का आवंटन केंद्र सरकार के कुल व्यय का 4.4 प्रतिशत या देश की कुल GDP का 0.6 प्रतिशत है। इस प्रकार भारत सरकार द्वारा रक्षा मंत्रालय को कुल बजट आवंटन का 28.4 प्रतिशत हिस्सा केवल रक्षा पेंशन में ही जाता है।
- इस लिहाज़ से भारत का रक्षा पेंशन बजट, रक्षा मंत्रालय के कुल पूंजीगत व्यय से काफी अधिक हो गया है, जिसका अर्थ है कि रक्षा मंत्रालय सेना के आधुनिकीकरण पर कम और पूर्व-सैनिकों की पेंशन पर अधिक खर्च कर रहा है।
- कई बार ‘वन रैंक, वन पेंशन’ योजना की आलोचना सरकार पर इसके वित्तीय बोझ के कारण की जाती है। दरअसल भारत में हर साल औसतन 50-60 हज़ार सैनिक सेवानिवृत्त होते हैं, क्योंकि सेना के अधिकांश जवान 33 से 35 वर्ष की आयु तक सेवानिवृत्त हो जाते हैं।
- इसकी वजह से प्रत्येक वर्ष रक्षा पेंशन बजट में बढ़ोतरी होती रहती है। इसके अलावा चूँकि रक्षाकर्मी काफी कम उम्र में सेवानिवृत्त होते हैं, जिसके कारण वे लंबे समय तक पेंशन प्राप्त करते हैं, जबकि सिविल कर्मचारी प्रायः 60 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त होते हैं, जिसके कारण वे रक्षाकर्मियों की अपेक्षा कम समय तक पेंशन प्राप्त करते हैं।
स्रोत: द हिंदू
मेट्रो-नियो परियोजना
प्रिलिम्स के लिये:मेट्रो-नियो परियोजना मेन्स के लिये:मेट्रो-नियो परियोजना |
चर्चा में क्यों?
केंद्र सरकार टियर-2 और टियर-3 नगरों हेतु कम लागत वाली रेल पारगमन प्रणाली ‘मेट्रो-नियो परियोजना’ के मानक विनिर्देशों को मंज़ूरी देने की योजना बना रही है।
प्रमुख बिंदु:
- मेट्रो-नियो सिस्टम, परिवहन की एक अद्वितीय अवधारणा है जिसे भारत में पहली बार अपनाया जा रहा है।
- यह एक कुशल ‘मास पब्लिक ट्रांसपोर्टेशन सिस्टम’ (MRTS) है, जो भारत के टियर- 2 और टियर 3 नगरों के साथ-साथ उपनगरीय यातायात की ज़रूरत को पूरा करने के लिये आदर्श रूप से उपयुक्त है।
- यह अत्याधुनिक, आरामदायक, ऊर्जा कुशल, न्यूनतम ध्वनि प्रदूषण और पर्यावरण के अनुकूल मेट्रो प्रणाली है। परंपरागत मेट्रो की तुलना में यह काफी हल्की तथा छोटी होगी। इसकी लागत परंपरागत परिवहन प्रणाली का लगभग 25% है।
- मेट्रो-नियो रेल ट्रैक के स्थान पर सड़क पर चलेगी परंतु ऊर्जा ओवरहेड वायर्स से प्राप्त करेगी। इसे इस प्रकार डिज़ाइन किया गया है कि यह तीव्र ढाल में भी आसानी से चलाई जा सकती है। भविष्य में ट्रैफिक डिमांड के अनुसार सिस्टम को इंक्रीमेंटल कॉस्ट इनपुट के साथ ‘लाइट मेट्रो’ में अपग्रेड किया जा सकता है।
भारत में मेट्रो-नियो के प्रोजेक्ट:
- महाराष्ट्र के नासिक और तेलंगाना के वारंगल ज़िलों के लिये मेट्रो-नियो प्रणाली पर योजना बनाई जा रही है।वारंगल के लिये योजना अभी तक पूरी तरह तैयार नहीं है, जबकि महाराष्ट्र सरकार द्वारा नासिक के लिये 30 स्टेशनों के साथ 33 किलोमीटर की लंबाई के प्रोजेक्ट को मंज़ूरी दी जा चुकी है।
नगरीय गतिशीलता के अन्य नए साधन/मोड:
हाइपरलूप परिवहन प्रणाली:
- यह एक ऐसी परिवहन प्रणाली है जहाँ एक पॉड जैसे वाहन को विमान की गति से शहरों को जोड़ने वाली एक वैक्यूम ट्यूब के माध्यम से चलाया जाता है। इस तकनीक को हाइपरलूप इसलिये कहा गया क्योंकि इसमें परिवहन एक लूप के माध्यम से किया जाता है।
- परिवहन के क्षेत्र में क्रांति लाने वाले हाइपरलूप का कॉन्सेप्ट ‘एलन मस्क’ ने दिया और इसे ‘परिवहन का पाँचवाँ मोड’ भी बताया।
- इसके अंतर्गत हाइपरलूप वाहन में यात्रियों के पॉड्स को एक कम दबाव वाली ट्यूब के अंदर उत्तरोत्तर विद्युत प्रणोदन (Electric Propulsion) के माध्यम से उच्च गति प्रदान की जाती है।
पोड टैक्सी:
- पॉड टैक्सी सेवा एक आधुनिक और उन्नत सार्वजनिक परिवहन प्रणाली है। इसे ‘पर्सनल रैपिड ट्रांज़िट’ (PRT) भी कहा जाता है।
- इसमें सामान्य टैक्सी सेवाओं की तरह ही यात्रियों के छोटे समूहों को मांग आधारित फीडर एवं शटल सेवाएँ प्रदान कराई जाती हैं, किंतु इसमें स्वचालित इलेक्ट्रिक पॉड का इस्तेमाल किया जाता है। यह परिवहन का एक स्वच्छ एवं हरित विकल्प है
- यह चालक रहित वाहन है, जिसमें दो से लेकर छह लोग तक सफर कर सकते हैं। यह पूर्व निर्धारित मार्ग पर 80-130 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से चल सकती है।
मेट्रो ट्रेन:
- वर्तमान में विकसित की जा रही मेट्रो रेल प्रणाली उच्च क्षमता की है जो बड़े नगरों की 'पीक आवर पीक डायरेक्शन ट्रैफिक' (PHPDT) की मांग के अनुकूल है।
मेट्रोलाइट (Metrolite):
- देश में मेट्रो रेल की सफलता को देखते हुए कई अन्य शहरों में भी रेल आधारित मास रैपिड ट्रांज़िट सिस्टम के लिये 'लाइट अर्बन रेल ट्रांज़िट सिस्टम' पर कार्य किया जा रहा है जिसे 'मेट्रोलाइट' नाम से जाना जाता है।
आगे की राह:
- नगर आर्थिक विकास के इंजन हैं। हमें सतत् विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये वाहनों की आवाजाही के बजाय लोगों की आवाजाही सुनिश्चित करने पर ध्यान देने की आवश्यकता है। अत: मेट्रो-नियो के समान ईंधन कुशल 'मास रैपिड ट्रांज़िट सिस्टम' की आवश्यकता है।
- महिलाओं, बच्चों तथा वृद्धजनों तक गतिशील सेवाओं की सार्वजनिक और सुरक्षित पहुँच सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक वैधानिक प्रावधान किये जाने की आवश्यकता है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम की कवरेज
प्रिलिम्स के लियेराष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 मेन्स के लियेराष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम की कवरेज और संबंधित चुनौतियाँ |
चर्चा में क्यों?
केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 के तहत सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों के लिये नए कवरेज अनुपात का पता लगाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है।
प्रमुख बिंदु
- नीति आयोग ने सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPI) को देश के सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों के लिये नए कवरेज अनुपात का पता लगाने की प्रक्रिया शुरू करने का आदेश दिया है।
- आवश्यकता
- वर्तमान आँकड़ों के अनुसार, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 के तहत ग्रामीण क्षेत्र की 75 प्रतिशत आबादी और शहरी क्षेत्र की 50 प्रतिशत आबादी कवर की जाती है।
- इसी तरह पूर्ववर्ती योजना आयोग (वर्तमान में नीति आयोग) ने वर्ष 2011-12 के घरेलू उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण के आँकड़ों का उपयोग कर ग्रामीण और शहरी आबादी के राज्यवार आँकड़ों की गणना की थी।
- तब से राज्यवार कवर अनुपात में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है, जबकि परिस्थितियाँ और लोगों का जीवन स्तर लगातार बदल रहा है।
वर्तमान राज्यवार आँकड़े
- वर्तमान में मणिपुर का देश के ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे अधिक कवरेज (88.56 प्रतिशत) है, जबकि अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में सबसे कम (24.94 प्रतिशत) कवरेज है।
- मणिपुर के बाद दूसरे स्थान पर झारखंड (86.48 प्रतिशत) तथा तीसरे एवं चौथे स्थान पर क्रमशः बिहार (85.12 प्रतिशत) और छत्तीसगढ़ (84.25 प्रतिशत) हैं।
- वहीं दूसरी ओर शहरी क्षेत्रों में भी स्थिति ग्रामीण क्षेत्रों के ही समान है। शहरी क्षेत्रों के मामले में भी मणिपुर का अधिक कवरेज अनुपात (85.75 प्रतिशत) है, जबकि अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में सबसे कम (1.70 प्रतिशत) कवरेज अनुपात है। शहरी क्षेत्रों के मामले में मणिपुर के बाद बिहार (74.53 प्रतिशत), उत्तर प्रदेश (64.43 प्रतिशत) और मध्य प्रदेश (62.61 प्रतिशत) का स्थान है।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम
- उद्देश्य: 10 सितंबर, 2013 को भारत सरकार द्वारा अधिसूचित इस अधिनियम का उद्देश्य एक गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिये देश के आम लोगों को वहनीय मूल्यों पर गुणवत्तापूर्ण खाद्यान्न की पर्याप्त मात्रा उपलब्ध कराते हुए उन्हें खाद्य और पोषण सुरक्षा प्रदान करना है।
- कवरेज: अधिनियम के तहत गुणवत्तापूर्ण खाद्यान्न उपलब्ध कराने के लिये देश के ग्रामीण क्षेत्र की 75 प्रतिशत आबादी और शहरी क्षेत्र की 50 प्रतिशत आबादी को कवर करने की बात की गई है।
- लाभार्थी: इसके तहत पात्र व्यक्तियों को चावल, गेंहूँ और मोटे अनाज क्रमश: 3, 2 और 1 रुपए प्रति किलोग्राम के मूल्य पर उपलब्ध कराए जाते हैं।
- इस मूल्य पर प्रत्येक लाभार्थी प्रतिमाह 5 किलोग्राम खाद्यान्न प्राप्त कर सकता है।
- साथ ही वर्तमान में अंत्योदय अन्न योजना में शामिल परिवार प्रतिमाह 35 किलोग्राम खाद्यान्न प्राप्त कर सकते हैं।
- इस अधिनियम के तहत गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं को गर्भावस्था के दौरान तथा बच्चे के जन्म के 6 माह बाद भोजन के अलावा कम-से-कम 6000 रुपए का मातृत्त्व लाभ प्रदान करने का प्रावधान है।
- महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से इस अधिनियम के तहत प्रावधान किया गया है कि 18 वर्ष से अधिक उम्र की महिला को ही घर का मुखिया माना जाएगा और राशन कार्ड भी उसी महिला के नाम पर जारी किया जाएगा।
अंत्योदय अन्न योजना
- ‘अंत्योदय अन्न योजना’ की शुरुआत दिसंबर 2000 में की गई थी।
- इस योजना का उद्देश्य ‘गरीबी रेखा’ से नीचे रह रही आबादी की खाद्यान्न की कमी को पूरा करना था।
- शुरुआत में इस योजना के तहत लाभार्थी परिवार को प्रतिमाह 25 किग्रा. खाद्यान्न दिये जाने का प्रावधान था जिसे अप्रैल 2002 में बढ़ाकर 35 किग्रा. कर दिया गया।
चुनौतियाँ
- पात्र लाभार्थियों तक खाद्यान्न का न पहुँचना इस व्यवस्था के समक्ष एक बड़ी चुनौती रही है, अक्सर यह देखा जाता है कि स्थानीय स्तर पर राशन वितरित करने वाले व्यापारी कालाबाज़ारी करते हैं और उन लोगों को राशन बेच देते हैं जो इस अधिनियम के तहत पात्र नहीं हैं, जिसके कारण पात्र लाभार्थियों को इसका लाभ नहीं मिल पाता है।
- वर्ष 2016 में भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (CAG) ने अपनी जाँच में पाया था कि देश भर के कई राज्यों ने लाभार्थियों की पहचान करने की प्रक्रिया पूरी नहीं की और तकरीबन 49 प्रतिशत लाभार्थियों की पहचान अब तक नहीं की जा सकी थी।
- इसके अलावा प्रायः ‘आँगनवाड़ी’ में प्रदान किये जाने वाले भोजन की गुणवत्ता को लेकर भी प्रश्न पूछे जाते रहे हैं।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
राष्ट्रीय कैंसर जागरूकता दिवस
प्रिलिम्स के लिये:इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण मेन्स के लिये:कैंसर से संबंधित भारत सरकार की नीतियाँ |
चर्चा में क्यों?
देश में प्रत्येक वर्ष 7 नवंबर को राष्ट्रीय कैंसर जागरूकता दिवस (National Cancer Awareness Day) मनाया जाता है ताकि जानलेवा बीमारी से लड़ने के लिये शुरुआती कैंसर का पता लगाने की आवश्यकता के बारे में जागरूकता फैलाई जा सके।
प्रमुख बिंदु:
- कैंसर (Cancer): यह बीमारियों का एक बड़ा समूह है जिसमें असामान्य कोशिकाएँ अनियंत्रित रूप से बढ़ती हैं तथा शरीर में अपने आस-पास के हिस्सों पर आक्रमण करने या अन्य अंगों में फैलने के लिये अपनी सामान्य सीमाओं को पार कर जाती हैं। यह शरीर के किसी भी अंग या ऊतक में शुरू हो सकती है। इस बीमारी में अंतिम अवस्था को मेटास्टेसाइज़िंग (Metastasizing) कहा जाता है और यह कैंसर से मृत्यु का एक प्रमुख कारण है।
- कैंसर के अन्य सामान्य नाम नियोप्लाज़्म (Neoplasm) और मैलिग्नेंट ट्यूमर (Malignant Tumor) हैं।
- फेफड़े, प्रोस्टेट (Prostate), कोलोरेक्टल (Colorectal), पेट एवं यकृत का कैंसर पुरुषों में सबसे आम हैं, जबकि स्तन, कोलोरेक्टल, फेफड़े, ग्रीवा एवं थायरॉयड का कैंसर महिलाओं में सबसे आम हैं।
- कैंसर भारत सहित दुनिया भर में जीर्ण एवं गैर-संचारी रोगों (Non-Communicable Diseases- NCD) की वजह से होने वाली बीमारियों एवं मृत्यु के प्रमुख कारणों में से एक है।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, वैश्विक स्तर पर कैंसर मृत्यु का दूसरा प्रमुख कारण है और वर्ष 2018 में विश्व स्तर पर लगभग 18 मिलियन मामले कैंसर से संबंधित थे जिनमें से 1.5 मिलियन मामले अकेले भारत से थे।
- वर्ष 2018 में वैश्विक स्तर पर 9.58 मिलियन के मुकाबले भारत में लगभग 0.8 मिलियन मौतें कैंसर से हुईं। वर्ष 2040 तक भारत में नए मामलों की संख्या दोगुनी होने का अनुमान जताया गया है।
- कैंसर के कारण होने वाली मौतों को रोका जा सकता है: मुख्य जोखिम कारकों को छोड़कर कैंसर से होने वाली 30-50% मौतों को रोका जा सकता है। प्रमुख जोखिम वाले कारकों में तंबाकू का उपयोग, शराब का उपयोग, असंतुलित आहार, पराबैंगनी विकिरण का संपर्क, प्रदूषण, पुराने संक्रमण आदि शामिल हैं।
- कैंसर का उपचार: कैंसर के उपचार के विकल्प के रूप में सर्जरी, कैंसर की दवाएँ या रेडियोथेरेपी शामिल हैं।
- उपशामक देखभाल (Palliative Care) जो रोगियों एवं उनके परिवारों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने पर केंद्रित है, कैंसर देखभाल का एक अनिवार्य घटक है।
- कैंसर से निपटने हेतु वैश्विक पहल: वर्ष 1965 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की एक विशेष कैंसर एजेंसी के रूप में ‘इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर’ (International Agency for Research on Cancer- IARC) का गठन विश्व स्वास्थ्य सभा के एक संकल्प द्वारा किया गया था।
- प्रत्येक वर्ष 4 फरवरी को विश्व कैंसर दिवस (World Cancer Day) मनाया जाता है।
- भारत द्वारा शुरू की गई पहलें: भारत में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (National Health Mission- NHM) के तहत कैंसर, मधुमेह, हृदय रोगों एवं स्ट्रोक की रोकथाम एवं नियंत्रण के लिये राष्ट्रीय कार्यक्रम (National Programme for Prevention and Control of Cancer, Diabetes, Cardiovascular Diseases and Stroke- NPCDCS) को ज़िला स्तर पर लागू किया जा रहा है।
- आयुष्मान भारत के दायरे में प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (Pradhan Mantri Jan Arogya Yojana) को गरीब एवं कमज़ोर समूहों के स्वास्थ्य संबंधी वित्तीय बोझ को कम करने हेतु लागू किया जा रहा है, जो गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच प्रदान करेगा। इसके अंतर्गत प्रत्येक लाभार्थी को प्रतिवर्ष 5 लाख रुपए का स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध कराया जा रहा है।
- राष्ट्रीय कैंसर ग्रिड (National Cancer Grid- NCG): NCG देश भर में प्रमुख कैंसर केंद्रों, अनुसंधान संस्थानों, रोगी समूहों एवं धर्मार्थ संस्थानों का एक नेटवर्क है, जिसका उद्देश्य कैंसर की रोकथाम, निदान एवं उपचार के लिये रोगियों की देखभाल के समान मानकों की स्थापना के साथ ऑन्कोलॉजी (Oncology) [कैंसर का अध्ययन] में विशेष प्रशिक्षण एवं शिक्षा तथा कैंसर में नैदानिक अनुसंधान की सुविधा प्रदान करना है।
- राष्ट्रीय कैंसर ग्रिड (NCG) का गठन अगस्त 2012 में किया गया था।
- राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (National Pharmaceutical Pricing Authority- NPPA) ने कैंसर पीड़ित मरीज़ों के लिये स्वास्थ्य सेवाओं को अधिक किफायती बनाने अर्थात् कैंसर-रोधी दवाओं की कीमतों को कम करने के लिये फरवरी 2019 में 42 एंटी कैंसर दवाओं के लिये व्यापार मार्जिन युक्तिकरण (Trade Margin Rationalisation) पर एक पायलट परियोजना लॉन्च की थी। इससे दवाओं की कीमतों में कमी आई है।
स्रोत: पीआईबी
आकाशगंगा में पृथ्वी जैसे अन्य ग्रह
प्रिलिम्स के लिये:एक्सोप्लैनेट, केप्लर मिशन, गोल्डीलॉक्स ज़ोन, 'ट्रांज़िटिंग एक्सोप्लेनेट सर्वे सैटेलाइट' (TESS), एटा-अर्थ, ड्रेक समीकरण मेन्स के लिये:केप्लर मिशन का महत्त्व |
चर्चा में क्यों?
'राष्ट्रीय वैमानिकी एवं अंतरिक्ष प्रशासन' (NASA) के केपलर अंतरिक्षयान द्वारा भेजे गए डेटा के विश्लेषण में पता चला है कि आकाशगंगा में मौज़ूद 'वासयोग्य ग्रह' अथवा ‘हैबीटेबल एक्सोप्लैनेट’ (Habitable Exoplanets) पूर्व में अनुमानित संख्या से अधिक हो सकते हैं।
प्रमुख बिंदु:
- केप्लर मिशन को विशेष रूप से मिल्की वे आकाशगंगा के हमारे क्षेत्र का सर्वेक्षण करने के लिये डिज़ाइन किया गया है। यह हमारी आकाशगंगा में पृथ्वी के आकार के सैकड़ों अन्य तथा छोटे ग्रहों एवं उनके आसपास 'वासयोग्य क्षेत्र' के निर्धारण में मदद करता है।
- वर्तमान अध्ययन वर्ष 2013 में केपलर मिशन द्वारा भेजे गए डेटा के आधार पर किये गए प्रथम विश्लेषण द्वारा आकाशगंगा में अनुमानित ‘वासयोग्य ग्रहों’ की तुलना में कम-से-कम दो गुना अधिक ऐसे ग्रहों की उपस्थिति की संभावना जताई गई है।
हैबिटेबल एक्सोप्लैनेट (Habitable Exoplanet):
- एक एक्सोप्लैनेट या एक्स्ट्रा सोलर ग्रह सौरमंडल के बाहर का ग्रह होता है, जबकि ‘हैबिटेबल एक्सोप्लैनेट’ सौरमंडल के बाहर स्थित संभावित ‘रहने योग्य ग्रह क्षेत्र’ को इंगित करता है।
- वासयोग्य क्षेत्र (Habitable Zone) जिसे ‘गोल्डीलॉक्स ज़ोन’ (Goldilocks Zone) भी कहा जाता है, एक तारे के चारों ओर का वह क्षेत्र है जहाँ पृथ्वी जैसे किसी ग्रह की सतह न तो बहुत ठंडी और न ही बहुत गर्म हो अर्थात् उस ग्रह पर जीवन की संभावना हो।
वर्तमान डेटा विश्लेषण के निष्कर्ष:
- शोध टीम द्वारा किये गये विश्लेषण के अनुसार, कम-से-कम एक-तिहाई और शायद 90 प्रतिशत तारे द्रव्यमान और चमक में सूर्य के समान हैं तथा 'वासयोग्य क्षेत्रों' में स्थित ग्रहों की चट्टानें पृथ्वी की तरह है।
- आकाशगंगा मंदाकिनी (मिल्की वे) में कम-से-कम 100 बिलियन तारे हैं, जिनमें से लगभग 4 बिलियन सूर्य के समान हैं। इन तारों में से केवल 7 प्रतिशत 'वासयोग्य' ग्रह हैं। केवल ‘मिल्की वे’ 300 मिलियन संभावित ‘वासयोग्य’ अर्थ हो सकती है।
- ऐसे निकटतम ‘वासयोग्य ग्रह’ सूर्य से लगभग 20 प्रकाश-वर्ष दूर हो सकते हैं। अध्ययन के अनुसार, लगभग प्रत्येक पाँचवें सूर्य के समान तारे का अपना वासयोग्य ग्रह है।
चुनौतियाँ:
- खोजे गए वासयोग्य ग्रहों के बारे में अभी तक केवल इतना ज्ञात है कि इनका आकार पृथ्वी की तुलना में आधे से ढेढ़ गुना तक है तथा ये चट्टानों के समान कठोर हैं, परंतु इस संबंध में कोई विस्तृत जानकारी नहीं मिल सकी है।
- केपलर मिशन के तहत केवल एटा-अर्थ अर्थात् सूर्य जैसे तारों से संबंधित है ग्रहों का विश्लेषण किया जाता है। मिशन के तहत आकाशगंगा में स्थित छोटे तथा मंद तारों जैसे ‘लाल बौने’ (Red Dwarfs) तारों को अध्ययन में शामिल नहीं किया गया है।
- 'ट्रांज़िटिंग एक्सोप्लैनेट सर्वे सैटेलाइट' (TESS) मिशन के अनुसार, लाल बौना ग्रह भी जीवन की खोज के लिये बहुत प्रासंगिक है।
आगे की राह:
- इन ग्रहों पर जीवन की संभावनाओं के लिये आवश्यक परिस्थितियों के संबंध में अभी बहुत अधिक अध्ययन किये जाने की आवश्यकता है। अब तक हम केवल एक ग्रह को जानते हैं, जिस पर जीवन संभव है तथा वह और कोई दूसरा ग्रह नहीं अपितु हमारी पृथ्वी है।
- एटा-अर्थ वासयोग्य ग्रहों के निर्धारण में प्रयुक्त एक महत्त्वपूर्ण गणितीय समीकरण है। वैज्ञानिकों को 'ड्रेक समीकरण' के माध्यम से इन ग्रहों पर तकनीकी विकास की संभावनाओं के अध्ययन पर बल देने की आवश्यकता है। यह अध्ययन इन ग्रहों पर जीवन की उपस्थिति तथा एलियन आदि के संबंध में हमारी समझ को अधिक व्यापक बनाएगा।
- 'ड्रेक समीकरण' (Drake Equation) का उपयोग खगोलविदों द्वारा यह अनुमान लगाने के लिये किया जाता है कि आकाशगंगा में तकनीकी विकास की कितनी संभावनाएँ मौजूद हो सकती हैं और क्या इन ग्रहों पर हम रेडियो या अन्य माध्यमों से संपर्क करने में सक्षम हो सकते हैं।
केप्लर मिशन (Kepler Mission):
- 'केप्लर अंतरिक्षयान को मार्च 2009 में हमारी आकाशगंगा 'मिल्की वे' के 150,000 से अधिक तारों की निगरानी के लिये लॉन्च किया गया था।
- इसके बाद मई 2013 में केपलर अंतरिक्ष मिशन- 2 (K2 मिशन) लॉन्च किया गया था।
- इस अंतरिक्षयान द्वारा वर्ष 2018 तक ऐसे 4,000 से अधिक तारों तथा ग्रहों का अध्ययन किया गया लेकिन अब तक किसी भी ग्रह पर जीवन या निवास का कोई संकेत नहीं मिला है।
- केपलर मिशन का सबसे प्रमुख लक्ष्य ईटा-अर्थ नामक एक संख्या को मापना था।
- एटा-अर्थ (जिसे ηE के रूप में भी लिखा गया है) को मेज़बान तारे के संभावित 'वासयोग्य क्षेत्र' अथवा गोल्डीलॉक्स ज़ोन (Goldilocks Zone)(HZ) में स्थित पृथ्वी के आकार के चट्टानी ग्रहों की माध्य संख्या के रूप में परिभाषित किया गया है।
- वर्ष 2018 में केप्लर मिशन के उत्तरवर्ती के रूप में 'ट्रांज़िटिंग एक्सोप्लैनेट सर्वे सैटेलाइट' (TESS) मिशन को पृथ्वी के कुछ सौ प्रकाश वर्ष की दूरी में स्थित सभी 'एक्सोप्लैनेट' के अध्ययन के लिये लॉन्च किया गया था।