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टू द पॉइंट

भारतीय विरासत और संस्कृति

भारतीय चित्रकला (भाग II)

  • 29 Apr 2024
  • 19 min read

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय चित्रकला, लोक चित्रकला, मधुबनी चित्रकला, भौगोलिक संकेतक स्थिति, जीआई टैग, पट्टचित्रा, पटुआ कला, कालीघाट चित्रकला, पैतकर चित्रकला, माँ मनसा, कलमकारी चित्रकला, वर्ली चित्रकला, थांगका चित्रकला, मंजूषा चित्रकला, साँप चित्रकला, फड़ चित्रकला, चेरियाल स्क्रॉल चित्रकला, नकाशी कला, बल्लाडीर समुदाय, पिथोरा चित्रकला, सौरा चित्रकला, बोधिसत्व पद्मपाणि की चित्रकला, गुप्त चित्रकला

मेन्स के लिये:

भारत में लोक चित्रकला का विकास, लोक चित्रकला के संरक्षण की आवश्यकता

भारतीय चित्रकला (भाग-I)

लोक चित्रकला क्या हैं?

  • भारत में लोक चित्रकला कलात्मक अभिव्यक्ति की एक जीवंत और विविध चित्रयवनिका (टेपेस्ट्री) का प्रतिनिधित्व करती है, जो इसकी जड़ें देश की सांस्कृतिक विरासत में गहनता से विद्धमान हैं।
  • पीढ़ियों से चली आ रही स्थानीय संस्कृतियों और कहानियों की समृद्ध टेपेस्ट्री इन पारंपरिक कला रूपों में परिलक्षित होती है। लोक पेंटिंग, जो प्रत्येक क्षेत्र के लिये विशिष्ट रंगीन पैलेट (चित्रकार की रंग मिलाने की पट्टिका) और विभिन्न शैलियों का उपयोग करती हैं, वर्षों से चली आ रही तकनीकों के माध्यम से रोज़मर्रा की ज़िंदगी, पौराणिक कथाओं एवं आध्यात्मिक मान्यताओं का सार व्यक्त करती हैं।
  • ये कलात्मक अभिव्यक्तियाँ देश की सांस्कृतिक टेपेस्ट्री(कपड़ा कला का एक रूप) का एक दृश्य रिकॉर्ड प्रदान करने के अलावा भारत की निरंतर सलता को प्रदर्शित करती हैं।

लोक चित्रकला के विभिन्न प्रकार क्या हैं?

  • मधुबनी पेंटिंग (चित्रकला): यह पारंपरिक रूप से मधुबनी शहर के आसपास के गाँवों की महिलाओं द्वारा की जाने वाली चित्रकला है, इसे मिथिला पेंटिंग (चित्रकला) भी कहा जाता है।
    • चित्रों में एक सामान्य विषय होता है और आमतौर पर कृष्ण, राम, दुर्गा, लक्ष्मी तथा शिव सहित हिंदुओं के धार्मिक रूपांकनों से तैयार किये जाते हैं।
    • चित्रकला में आकृतियाँ प्रतीकात्मक हैं, उदाहरण के लिये मछली सौभाग्य और प्रजनन क्षमता को दर्शाती है।
      •  जन्म, विवाह और त्योहारों जैसे शुभ अवसरों को प्रदर्शित करते हुए भी चित्र बनाये जाते हैं। चित्रों के बीच स्थित किसी भी रिक्त स्थान को भरने के लिये फूलों, पेड़ों, जानवरों आदि का उपयोग किया जाता है।
    • परंपरागत रूप से, इन्हें गाय के गोबर और मिट्टी के आधार पर चावल के पेस्ट और वनस्पति रंगों का उपयोग करके दीवारों पर चित्रित किया गया था। समय के साथ आधार हस्तनिर्मित कागज़, कपड़े व कैनवास में बदल गया, और अभी भी प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया गया था।
    • चूँकि इस पर कोई छायांकन नहीं है, इसलिये यह चित्रकला द्वि-आयामी हैं। इन चित्रों की कुछ सामान्य विशेषताओं में दोहरी लाइनों के बॉर्डर, रंगों का साहसिक उपयोग, अलंकृत पुष्प शैली और मुख की अतिशयोक्तिपूर्ण विशेषताएँ शामिल हैं।
    • अधिकतर महिलाएँ ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी मधुबनी चित्रकला के कौशल को आगे बढ़ाती आई हैं। चूँकि कला एक विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र तक ही सीमित रह गई है, इसलिये इसे GI टैग (भौगोलिक संकेत) का दर्ज़ा दिया गया है।

  • पट्टचित्र: ओडिशा की एक पारंपरिक चित्रकला, पट्टचित्र का नाम संस्कृत शब्द पट्ट से आया है, जिसमें  पट्ट का अर्थ है कैनवास/कपड़ा तथा चित्र का अर्थ है उस पर उकेरी जाने वाली छाया।
    • चित्रकलाओं में शास्त्रीय और लोक तत्त्वों का मिश्रण दिखता है, जिसमें लोक के प्रति पूर्वाग्रह भी हैचित्रकला का आधार रंगीन कपड़ा है जबकि उपयोग किये गए रंग प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त होते हैं जिनमें जले हुए नारियल के छिल्के, हिंगुल, रामराजा और ब्लैक लैंप शामिल हैं।
    • इसमें बनाए गए चित्रों में किसी पेंसिल या चारकोल का उपयोग नहीं किया जाता है, बल्कि ब्रश का उपयोग लाल या पीले रंग में रूपरेखा बनाने के लिये किया जाता है जिसके पश्चात उसमें रंग भरे जाते हैं
    • इन चित्रों की विषयवस्तु कभी-कभी शक्ति और शैव पंथों से, तो कभी जगन्नाथ तथा वैष्णव पंथों से प्रेरित होती हैं। ताड़ के पत्ते पर बने पट्टचित्र को तालपट्टचित्र के नाम से जाना जाता है।

  • पटुआ कला: बंगाल की ‘पटुआ कला’ लगभग एक हज़ार वर्ष पुरानी है। इसकी शुरुआत चित्रकारों द्वारा मंगल काव्य या देवी-देवताओं की शुभ कहानियाँ प्रस्तुत करने की ग्रामीण परंपरा के रूप में हुई।
    • ये चित्रकलाएँ आमतौर पर पैट्स या स्क्रॉल पर बनाई जाती हैं और पीढ़ियों से, स्क्रॉल चित्रकार या पटुआ भोजन अथवा धन के बदले में अपनी कहानियाँ गाने के लिये विभिन्न गाँवों में जाते रहे हैं।
    • परंपरागत रूप से इन्हें कपड़े पर चित्रित किया जाता था और इनके माध्यम से धार्मिक कहानियाँ दर्शाई जाती थीं; आज उन्हें एक साथ बिछे कागज़ों पर पोस्टर पेंट की सहायता द्वारा चित्रित किया जाता है, जिसका उपयोग प्रायः राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर टिप्पणी करने के लिये किया जाता है। ये ‘पटुआ’ अधिकतर राज्य के मिदनापुर ज़िले से आते हैं।

  • कालीघाट चित्रकला: ये 19वीं शताब्दी में कलकत्ता (अब कोलकाता) के बदलते शहरी समाज का परिणाम है, कालीघाट चित्रकला ग्रामीण प्रवासियों द्वारा बनाई गई थी जो तत्कालीन ब्रिटिश राजधानी (कलकत्ता) में कालीघाट मंदिर के आसपास बस गए थे
    • बछड़े और गिलहरी के बालों से बने ब्रश के उपयोग द्वारा मिल में बने कागज़ पर जलरंगों का उपयोग किया जाता था। चित्रित आकृतियों में छायांकित आकृति और स्पष्ट गति के कारण तटस्थ पृष्ठभूमि पर पट्टिका जैसा प्रभाव पड़ता है।
    • मूल रूप से, चित्रों में धार्मिक भाव, विशेषकर हिंदू देवी-देवताओं को दर्शाया गया था। समय के साथ इन चित्रों का उपयोग सामाजिक भावनाओं को व्यक्त करने के लिये भी किया जाने लगा।
    • कालीघाट चित्रकलाओं को देश में निम्नवर्गीय लोगों की भावनाओं को व्यक्त करने और उपभोगकर्त्ताओं को सीधे संबोधित करने वाली अपनी तरह की पहली चित्रकला माना जाता है।

  • पैटकर चित्रकला: झारखंड के आदिवासी लोगों द्वारा प्रचलित। चित्रकला के इस पुराने रूप का सांस्कृतिक संबंध माँ मनसा से है, जो आदिवासी घरों में सबसे लोकप्रिय देवियों में से एक हैं।
    • ये चित्र भिक्षा देने और यज्ञ आयोजित करने सहित सामाजिक एवं धार्मिक रीति-रिवाज़ों से जुड़े हुए हैं।
    • पैतकर चित्रों का सामान्य विषय है 'मृत्यु के बाद मानव जीवन का क्या होता है'। हालाँकि यह एक प्राचीन कला है, लेकिन इसकी कमी की दर को देखते हुए यह विलुप्त होने के कगार पर है।

  • कलमकारी चित्रकला: यह नाम कलम से आया है, यानी एक कलम, जिसका उपयोग इन उत्कृष्ट चित्रों को चित्रित करने के लिये किया जाता है। रंग नियंत्रण के लिये नुकीली नोक वाली बाँस की कलम। सूती कपड़े का बेस, वनस्पति रंग। कलम को गुड़-पानी के मिश्रण में भिगोकर रंग लगाया जाता है।
    • इस कला के मुख्य केंद्र आंध्र प्रदेश राज्य में श्रीकालहस्ती और मछलीपट्टनम हैं। पहले क्षेत्र के कलाकार सुंदर दीवार पर लटकने वाली चीज़ें बनाते हैं। चित्र मुक्त हाथ से खींचे जाते हैं और प्रेरणा हिंदू पौराणिक कथाओं से आती है। यहाँ हस्तनिर्मित वस्त्रों का भी उत्पादन किया जाता है।
    • बाद के क्षेत्र के कलाकार विभिन्न डिज़ाइनों का उपयोग करते हैं जिनमें गाड़ी का पहिया, कमल का फूल, जानवर और अन्य चीज़ों के अलावा फूलों तथा पत्तियों के परस्पर जुड़े हुए पैटर्न शामिल होते हैं।

  • वार्ली चित्रकला: चित्रकला का नाम उन लोगों के नाम पर पड़ा है जो 2500-3000 ईसा पूर्व से चली आ रही चित्रकला परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। उन्हें वार्ली कहा जाता है, ये स्वदेशी लोग होते हैं जो मुख्य रूप से गुजरात-महाराष्ट्र सीमा पर रहते हैं।
    • ये चित्रकला मध्य प्रदेश के भीमबेटका के भित्ति चित्रों से काफी मिलती जुलती हैं जो प्रागैतिहासिक काल की हैं।
    • इन अनुष्ठानिक चित्रों में एक चौकाट या चौक का केंद्रीय रूप होता है, जो मछली पकड़ने, शिकार, खेती, नृत्य, जानवरों, पेड़ों और त्योहारों को चित्रित करने वाले दृश्यों से घिरा होता है।
    • परंपरागत रूप से, दीवारों पर बहुत ही बुनियादी ग्राफिक शब्दावली का उपयोग करके चित्रकला की जाती है, जिसमें एक त्रिकोण, एक वृत्त और एक वर्ग शामिल है। ये आकृतियाँ प्रकृति अर्थात् सूर्य या चंद्रमा के वृत्ताकार स्वरूप, पेड़ों या पर्वतों के शंक्वाकार एवं त्रिकोणीय आकार और बाड़े या भूमि के वर्गाकार स्वरुप से प्रेरित होती हैं।
    • किसी मनुष्य या जानवर को दर्शाने के लिये, दो त्रिकोणों को सिरे पर जोड़ा जाता है, जिसमें वृत्त उनके सिर की तरह काम करते हैं। चित्रकला के लिये केवल सफेद रंगद्रव्य का उपयोग किया जाता है, जो गोंद और चावल के पाउडर के मिश्रण से बना होता है।

  • थांगका पेंटिंग: वर्तमान में भारतीय राज्यों सिक्किम, हिमाचल प्रदेश, लद्दाख क्षेत्र एवं अरुणाचल प्रदेश से संबंधित थांगका का उपयोग मूल रूप से श्रद्धा के माध्यम के रूप में किया जाता था जो बौद्ध धर्म के उच्चतम आदर्शों को उद्घाटित करता था।
  • थंगका को प्राकृतिक वनस्पति रंगों अथवा खनिज रंगों से बने पेंट के साथ कपास कैनवास (सफेद पृष्ठभूमि) के आधार पर चित्रित किया जाता है।
    • चित्रों में प्रयुक्त रंगों का अपना-अपना महत्त्व होता है। उदाहरण के लिये, लाल रंग जुनून की तीव्रता को दर्शाता है, चाहे वह प्रेम हो या घृणा, सुनहरा रंग जीवन या जन्म को दर्शाता है, सफेद रंग शांति को दर्शाता है, काला रंग क्रोध को दर्शाता है, हरा रंग चेतना को दर्शाता है तथा पीला रंग करुणा को दर्शाता है।
    • थंगका को उनके चित्रण एवं अर्थ के अनुसार तीन प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है:
      • प्रथम प्रकार में बुद्ध के जन्म से लेकर उनके ज्ञानोदय तक के जीवन को दर्शाया गया है।
      • दूसरा प्रकार अधिक अमूर्त है; यह 'जीवन के चक्र' सहित जीवन तथा मृत्यु की बौद्ध मान्यताओं का प्रतिनिधित्व करता है।
      • तीसरा प्रकार उन चित्रों का प्रतिनिधित्व करता है जिनका उपयोग देवताओं अथवा ध्यान के लिये किया जाता है।

  • मंजूषा पेंटिंग: यह कला बिहार के भागलपुर क्षेत्र से संबंधित है। इसे अंगिका कला के रूप में भी जाना जाता है, जहाँ 'अंग' महाजनपद में से एक को संदर्भित करता है।
    • चूँकि साँप की आकृतियाँ हमेशा से मौजूद रही हैं, इसलिये इसे साँप चित्रकला भी कहा जाता है। ये चित्रकला जूट एवं कागज़ के बक्सों पर बनाई जाती हैं।

  • फड़ पेंटिंग: यह मुख्य रूप से राजस्थान में पाई जाती है और एक स्क्रॉल-प्रकार की कला है। यह धार्मिक प्रकृति का है और इसमें स्थानीय देवताओं, पाबूजी एवं देवनारायण के चित्र शामिल हैं।
    • फड़ नामक कपड़े के लंबे टुकड़े पर वनस्पति रंगों से चित्रित होते हैं, वे 15 फीट या 30 फीट लंबे होते हैं। इसके मुख्य विषयों की बड़ी आँखें तथा गोल चेहरे हैं।
    • वे आडंबरपूर्ण एवं आनंदपूर्ण कथा के रूप में चित्रित होते हैं साथ ही जुलूस दृश्य इसमें सामान्य हैं।

  • चेरियाल स्क्रॉल पेंटिंग: यह मूल रूप से तेलंगाना राज्य नक्काशी कला का एक रूप है। बैलाडीर समुदाय स्क्रॉल को कॉमिक पुस्तकों अथवा गाथागीतों के समान चल रही कथा के रूप में चित्रित करते हैं।
    • सामान्य विषय-वस्तु हिंदू महाकाव्य एवं पुराण कथाएँ हैं। कलाकार विभिन्न स्थानों पर जाते समय संगीत के साथ कहानियाँ सुनाने के लिये स्क्रॉल पेंटिंग का उपयोग करते हैं।
    • ये सामान्य रूप से आकार में विशाल होती हैं, जिनकी ऊँचाई 45 फीट तक होती है। इसे वर्ष 2007 में GI टैग दिया गया है।

  • पिथौरा चित्रकला: ये चित्रकला गुजरात और मध्य प्रदेश के कुछ आदिवासी समुदायों द्वारा बनाई गई हैं तथा कहा जाता है कि ये धार्मिक एवं आध्यात्मिक उद्देश्य को पूरा करती हैं। इन्हें शांति और समृद्धि लाने के लिये घरों की दीवारों पर चित्रित किया जाता है।
    • इन्हें विशेष पारिवारिक अवसरों पर एक अनुष्ठान के रूप में तैयार किया जाता है। इसमें जानवरों का चित्रण, विशेषकर घोड़ों का, मुख्य है।

  • सौरा चित्रकला: यह ओडिशा की सौरा जनजाति द्वारा बनाई जाती है और वार्ली पेंटिंग के समान हैं। यह मूलतः एक भित्तिचित्र है और कर्मकांडीय है।
    • सौरा दीवार पेंटिंग सौरा के मुख्य देवता इदिताल को समर्पित हैं।
    • चित्रकला अधिकतर सफेद रंग में की जाती है, जबकि इसकी पृष्ठभूमि लाल या पीली होती है। रंग खनिज पदार्थों और पौधों से निकाले जाते हैं।
    • मानव आकृतियाँ ज्यामितीय और छड़ी जैसी होती हैं।

निष्कर्ष:

भारतीय लोक चित्रकला विविध सांस्कृतिक विरासत को दर्शाती है, प्रत्येक कला रूप परंपरा, आध्यात्मिकता और क्षेत्रीय कथाओं का एक अनूठा मिश्रण प्रदर्शित करता है। पीढ़ियों से चली आ रही ये चित्रकला जीवंत दृश्य इतिहास के रूप में काम करती हैं, जो दैनिक जीवन, पौराणिक कथाओं और धार्मिक मान्यताओं के सार को दर्शाती हैं। मधुबनी चित्रकला से लेकर कथात्मक चेरियल स्क्रॉल तक, प्रत्येक शैली न केवल ऐतिहासिक जड़ों को संरक्षित करती है बल्कि भारत के लोगों की स्थायी रचनात्मकता और सांस्कृतिक समृद्धि को भी प्रदर्शित करती है।

  UPSC सिविल सेवा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स: 

प्रश्न. निम्नलिखित युग्मों पर विचार कीजिये: (2009)

  परंपरा                                    राज्य

1.गटका, एक पारंपरिक मार्शल आर्ट  -  केरल

2.मधुबनी, एक पारंपरिक चित्रकला    -  बिहार

3.सिंघे खाबाब्स: सिंधुदर्शन महोत्सव   -  जम्मू-कश्मीर

उपर्युक्त युग्मों में से कौन-सा/से सही सुमेलित है/हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 3
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (c)


मेन्स:

प्रश्न. चित्रकला की मुख्य विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए, 'मधुबनी' कला और 'मंजूषा' कला या 'राजस्थानी' चित्रकला शैली तथा 'पहाड़ी' चित्रकला शैली के बीच अंतर कीजिये। (2011)

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