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हरियाणा स्टेट पी.सी.एस.

  • 30 Sep 2024
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हरियाणा चुनावों से पहले डेरा प्रमुख ने पैरोल की मांग की

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख ने हरियाणा विधानसभा चुनाव से पूर्व 20 दिन की पैरोल की मांग की है, जिससे चुनावी संदर्भ में कई प्रश्न उठने लगे हैं।

मुख्य बिंदु 

  • पैरोल अनुरोध :
  • दो महिला शिष्यों के बलात्कार के लिये 20 वर्ष की सज़ा काट रहे डेरा सच्चा सौदा प्रमुख ने 5 अक्तूबर, 2024 को होने वाले हरियाणा विधानसभा चुनाव से पहले 20 दिन की पैरोल का अनुरोध किया है।
  • डेरा प्रमुख को 13 अगस्त, 2024 को उत्तर प्रदेश के बागपत स्थित अपने डेरा में रहने के लिये 21 दिन का अवकाश (Furlough) दिया गया था।
  • चूँकि चुनाव के लिये आदर्श आचार संहिता लागू है, इसलिये राज्य सरकार ने उनके अनुरोध को परामर्श के लिये मुख्य निर्वाचन अधिकारी (CEO) के पास भेज दिया है।
  • CEO ने हरियाणा सरकार से चुनाव अवधि के दौरान पैरोल अनुरोध को उचित ठहराने वाली आकस्मिक और बाध्यकारी परिस्थितियाँ बताने को कहा है।
  • निर्वाचन आयोग के दिशा-निर्देशों में पैरोल के लिये अनुमोदन अनिवार्य नहीं है, लेकिन चुनाव अवधि के दौरान असाधारण मामलों में CEO से परामर्श की आवश्यकता होती है।
  • उच्च न्यायालय में पिछली चुनौतियाँ:
  • डेरा प्रमुख को बार-बार पैरोल और अवकाश/ फर्लो (Furloughs) दिये जाने को पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है।
  • अगस्त 2024 में, फर्लो पर उनकी रिहाई को शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (SGPC) ने चुनौती दी थी, लेकिन न्यायालय ने याचिका को खारिज कर दिया और निर्णय हरियाणा जेल विभाग पर छोड़ दिया।
  • उच्च न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि ऐसे मामलों में निर्णय "मनमानेपन या पक्षपात" के बिना लिये जाने चाहिये।

 पैरोल और फर्लो

  • पैरोल:
    • यह सज़ा को निलंबित करके कैदी को रिहा करने की प्रणाली है।
      • रिहाई सशर्त होती है, आमतौर पर व्यवहार के अधीन होती है और एक निश्चित अवधि के लिये अधिकारियों को समय-समय पर रिपोर्ट करने की आवश्यकता होती है
    • पैरोल एक अधिकार नहीं है, और यह किसी कैदी को किसी विशिष्ट कारण से दिया जाता है, जैसे परिवार में मृत्यु या रक्त संबंधी की शादी
    • किसी कैदी को पर्याप्त कारण बताने के बाद भी उसे रिहा करने से इनकार किया जा सकता है, यदि सक्षम प्राधिकारी इस बात से संतुष्ट हो कि दोषी को रिहा करना समाज के हित में नहीं होगा।
  • अवकाश/ फर्लो (Furlough):
    • यह पैरोल के समान है, लेकिन इसमें कुछ महत्त्वपूर्ण अंतर हैं। यह लंबी अवधि के कारावास के मामलों में दिया जाता है।
    • किसी कैदी को दी गई छुट्टी की अवधि को उसकी सज़ा में छूट के रूप में माना जाता है।
    • पैरोल के विपरीत, फर्लो को कैदी का अधिकार माना जाता है, जिसे किसी भी कारण से समय-समय पर प्रदान किया जाता है और यह केवल कैदी को पारिवारिक और सामाजिक संबंधों को बनाए रखने में सक्षम बनाता है तथा जेल में लंबे समय तक रहने के दुष्प्रभावों का सामना करने में सहायता करता है।





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उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की कमी

 चर्चा में क्यों? 

हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय न्यायाधीशों की कमी और नियुक्तियों में देरी के कारण न्यायिक संकट का सामना कर रहा है। 

मुख्य बिंदु 

  • न्यायाधीशों की कमी :
    • पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय स्वीकृत 85 न्यायाधीशों के स्थान पर केवल 54 न्यायाधीशों के साथ कार्य कर रहा है, जिसके कारण 31 न्यायाधीशों की कमी हो गई है
    • नवंबर 2022 के बाद से कोई नई नियुक्ति नहीं की गई है।
    • वर्ष 2025 तक 5 और न्यायाधीश सेवानिवृत्त हो जाएंगे तथा वर्ष 2024 तक 2 की सेवानिवृत्त होने की आशा है।
  • लंबित मामले :
    • न्यायालय  के समक्ष 4,33,253 मामले लंबित हैं, जिनमें 1,61,362 आपराधिक मामले जीवन और स्वतंत्रता से संबंधित हैं।
    • सभी लंबित मामलों में से 26% (1,12,754) 10 वर्ष से अधिक पुराने हैं।
  • पदोन्नतियाँ और नियुक्तियाँ :
    • ज़िला एवं सत्र न्यायाधीश की श्रेणी से 15 न्यायाधीश पदोन्नति के पात्र हैं, लेकिन नियुक्तियाँ लंबित हैं।
    • यह देरी लगभग आठ महीने तक नियमित मुख्य न्यायाधीश की अनुपस्थिति के कारण हुई।
  • केंद्र सरकार और कॉलेजियम प्रणाली से संबंधित मुद्दे :
    • सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने एक वर्ष पहले पाँच वकीलों की पदोन्नति की सिफारिश की थी, लेकिन केंद्र ने केवल तीन नियुक्तियों को अधिसूचित किया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपनी सिफारिश दोहराए जाने के बावजूद दो नियुक्तियाँ लंबित हैं।
  • जटिल नियुक्ति प्रक्रिया :
    • नए नामों की सिफारिश की जाने पर भी नियुक्ति प्रक्रिया अपनी जटिलताओं के कारण धीमी हो जाती है। इन सिफारिशों को राज्य सरकारों, सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम और केंद्रीय कानून मंत्रालय से गुज़रना आवश्यक होता है, अंततः राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त करनी होती है।

उच्च न्यायालय (HC) के न्यायाधीशों की नियुक्ति

  • संविधान का अनुच्छेद 217: इसमें कहा गया है कि किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI), राज्य के राज्यपाल के परामर्श से की जाएगी ।
    • उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श किये बिना किसी अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति नहीं की जाती है, सिवाय मुख्य न्यायाधीश के।
  • परामर्श प्रक्रिया: उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सिफारिश मुख्य न्यायाधीश और दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों वाले कॉलेजियम द्वारा की जाती है।
    • हालाँकि, यह प्रस्ताव संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा अपने दो वरिष्ठतम सहयोगियों के परामर्श से प्रस्तुत किया जाता है।
    • सिफारिश मुख्यमंत्री को भेजी जाती है, जो राज्यपाल को प्रस्ताव केन्द्रीय कानून मंत्री को भेजने की सलाह देते हैं।
    • उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति संबंधित राज्यों के बाहर से मुख्य न्यायाधीश रखने की नीति के अनुसार की जाती है।
    • पदोन्नति पर निर्णय कॉलेजियम द्वारा लिया जाता है।
  • तदर्थ न्यायाधीश: सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 224A के अंतर्गत किया गया है।
    • इस अनुच्छेद के तहत, किसी भी राज्य के उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश किसी भी समय, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से, उस न्यायालय या किसी अन्य उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद पर रह चुके किसी व्यक्ति से उस राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में बैठने और कार्य करने का अनुरोध कर सकता है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों से निपटने के लिये सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति पर ज़ोर दिया। 
    • इसमें तदर्थ न्यायाधीश की नियुक्ति और कार्यप्रणाली के लिये भावी दिशा-निर्देशों को मौखिक रूप से रेखांकित किया गया।
  • कॉलेजियम प्रणाली:
    • यह न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रणाली सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के माध्यम से विकसित हुई है, न कि संसद के अधिनियम या संविधान के प्रावधान द्वारा।
  • प्रणाली का विकास:
    • प्रथम न्यायाधीश मामला (वर्ष 1981): इसने घोषणा की कि न्यायिक नियुक्तियों और स्थानांतरणों पर भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की सिफारिश की “प्राथमिकता” को “ठोस कारणों” से अस्वीकार किया जा सकता है।
      • इस निर्णय से अगले 12 वर्षों तक न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका को न्यायपालिका पर प्राथमिकता मिल गयी।
    • द्वितीय न्यायाधीश मामला (वर्ष 1993): सर्वोच्च न्यायालय ने कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत की, जिसमें कहा गया कि "परामर्श" का वास्तविक अर्थ "सहमति" है।
      • इसमें कहा गया कि यह मुख्य न्यायाधीश की व्यक्तिगत राय नहीं है, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों के परामर्श से बनाई गई संस्थागत राय है।
  • तृतीय न्यायाधीश मामला (वर्ष 1998): राष्ट्रपति के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने कॉलेजियम को पाँच सदस्यीय निकाय में विस्तारित कर दिया, जिसमें मुख्य न्यायाधीश और उनके चार वरिष्ठतम सहयोगी शामिल थे (उदाहरण के लिये उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के स्थानांतरण के लिये)।


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