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उत्तराखंड

इगास बग्वाल महोत्सव

  • 13 Nov 2024
  • 3 min read

चर्चा में क्यों?

इगास बग्वाल, जिसे बूढ़ी दिवाली या हरबोधनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है, दिवाली के 11 दिन बाद उत्तराखंड में मनाया जाने वाला एक पारंपरिक त्यौहार है। यह त्यौहार राज्य की सांस्कृतिक विरासत को दर्शाता है, जो साझा परंपराओं और उत्सवों के माध्यम से समुदायों को एकजुट करता है।

प्रमुख बिंदु

  • उत्पत्ति और महत्त्व:
    • इगास बग्वाल कार्तिक शुक्ल एकादशी को मनाई जाती है और यह भगवान विष्णु के चार महीने के विश्राम काल के अंत का प्रतीक है, जो नई शुरुआत के लिये एक शुभ समय है।
    • "इगास" शब्द उत्तराखंड में सांस्कृतिक गौरव और पौराणिक श्रद्धा से जुड़ा है।
    • ऐसा माना जाता है कि जब भगवान राम के अयोध्या लौटने की सूचना दिवाली के 11 दिन बाद उत्तराखंड पहुँची, तो स्थानीय लोगों ने अपने तरीके से दिवाली मनाई।
    • एक अन्य किंवदंती गढ़वाली योद्धा माधव सिंह भंडारी की दापाघाटी में तिब्बत पर विजय का जश्न मनाती है, जिसे समुदाय द्वारा एकता और वीरता के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है।
  • भैलो- मशाल परंपरा:
    • ग्रामीण लोग देवदार की लकड़ियों को बांधकर भैलो या अंधाया नामक बड़ी मशालें बनाते हैं, जिन्हें जलाकर ऊपर की ओर घुमाया जाता है, जो अंधकार के निष्कासन का प्रतीक है।
    • ऐसा माना जाता है कि इस मशाल अनुष्ठान से देवी लक्ष्मी से समृद्धि का आशीर्वाद भी प्राप्त होता है।
  • त्यौहार अनुष्ठान और पशु सम्मान:
    • उत्तराखंड की कृषि जीवन शैली के लिये आवश्यक मवेशियों को इगास बग्वाल के दौरान सम्मानित किया जाता है। ग्रामीण उन्हें नहलाते हैं और हल्दी और सरसों के तेल से सजाते हैं।
    • पशुओं के लिये विशेष भोजन तैयार किया जाता है, तथा सांप्रदायिक सद्भाव का जश्न मनाने के लिये ग्रामीणों के बीच पारंपरिक व्यंजन बाँटे जाते हैं।
  • इगास बग्वाल के संरक्षण के प्रयास:
    • स्थानीय प्राधिकारी और सांस्कृतिक संगठन कार्यक्रमों और जागरूकता अभियानों के माध्यम से इगास बग्वाल को बढ़ावा देते हैं, जिसका उद्देश्य त्योहार की विरासत को संरक्षित करना है।
    • युवा-केंद्रित पहल इगास बग्वाल के सांस्कृतिक महत्त्व पर ज़ोर देती है, तथा यह सुनिश्चित करती है कि इसकी विरासत भविष्य की पीढ़ियों तक बनी रहे।

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