नोएडा शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 9 दिसंबर से शुरू:   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

Sambhav-2023

  • 01 Feb 2023 सामान्य अध्ययन पेपर 1 भूगोल

    दिवस- 73

    प्रश्न.1 भारत में प्राकृतिक वनस्पति के प्रकारों की चर्चा कीजिये। क्या आपको लगता है कि मैंग्रोव आशाजनक (महत्त्वपूर्ण) वनस्पति है? समझाइये। (250 शब्द)

    प्रश्न.2 मृदा निर्माण के प्रमुख कारकों की विवेचना कीजिये। भारत में मृदा क्षरण को कम करने के लिये क्या कदम उठाए जा सकते हैं? (250 शब्द)

    उत्तर

    उत्तर 1:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • भारत की प्राकृतिक वनस्पति का परिचय दीजिये।
    • मैंग्रोव के लाभों पर चर्चा करते हुए इसके महत्त्व को बताइये।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    India

    परिचय:

    • भारत, जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों की विविधता वाला देश है जिसके कारण यहाँ की प्राकृतिक वनस्पति समृद्ध है।
    • पश्चिमी घाट के हरे-भरे उष्णकटिबंधीय सदाबहार वनों से लेकर थार रेगिस्तान जैसी भारत की प्राकृतिक वनस्पति में विविध पारिस्थितिकी तंत्र श्रृंखलाएँ शामिल हैं।
    • इस पारिस्थितिकी तंत्र में पौधों और जानवरों की विविध प्रजातियाँ मिलती हैं और यह इस क्षेत्र के पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
    • भारत की प्राकृतिक वनस्पति स्थानीय समुदायों के लिये आजीविका का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है, जिससे इमारती लकड़ी, ईंधन और गैर-इमारती वन उत्पाद प्राप्त होते हैं।

    मुख्य भाग:

    • भारत में निम्न प्रकार की प्राकृतिक वनस्पतियाँ पाई जाती हैं:
      • उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन: यह वन उच्च वर्षा और आर्द्रता वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं (जैसे कि पश्चिमी घाट और पूर्वोत्तर भारत)। यह वन सघन ऊँचे वृक्षों और झाड़ियों से समृद्ध होते हैं।
      • उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन: यह शुष्क मौसम वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। यह मध्य और उत्तरी भारत में पाए जाते हैं। इनमें शुष्क मौसम के दौरान पेड़ के पत्ते गिर जाते हैं और वर्षा ऋतु में नए पत्ते आ जाते हैं।
      • उष्णकटिबंधीय कांटेदार वन: यह थार रेगिस्तान जैसे शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में पाए जाते हैं। इनमें कम जल में अनुकूलन करने वाले पेड़ और झाड़ियाँ होते हैं जिनकी जड़ें गहरी होती हैं।
      • पर्वतीय वन: यह पश्चिमी घाट, पूर्वी घाट और हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में पाए जाते हैं। इन वनों में सघन ऊँचे वृक्षों और झाड़ियों की विद्यमानता होती है।
      • मैंग्रोव: यह भारत के तटीय क्षेत्रों में पाए जाते हैं। इसमें खारे जल में अनुकूलन वाले पेड़ और झाड़ियाँ उगती हैं। मैंग्रोव मछली, क्रस्टेशियंस और पक्षियों की विभिन्न प्रजातियों को आवास उपलब्ध कराने के साथ तटीय क्षेत्रों को कटाव एवं तूफानी लहरों से बचाते हैं।
      • समुद्रतटीय और दलदली वन: यह सुंदरवन जैसे स्थिर या धीमी गति से जल बहने वाले तटीय और निचले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। इस क्षेत्र के पौधे दलदल वाले क्षेत्र में उगने के लिये अनुकूलित होते हैं।
    • मैंग्रोव के कई पारिस्थितिक, आर्थिक और सामाजिक लाभ होने के कारण इसे आशाजनक वनस्पति माना जाता है जैसे:
      • जैव विविधता: मैंग्रोव क्षेत्र में विभिन्न पौधों और जानवरों की ऐसी प्रजातियाँ मिलती हैं जिनमें से कई प्रजातियाँ विश्व के अन्य क्षेत्रों में नहीं मिलती हैं।
      • तटीय सुरक्षा: यह तूफानी लहरों और सुनामी से तट की रक्षा करते हैं।
      • कार्बन प्रच्छादन: बड़ी मात्रा में कार्बन का भंडारण करने में सक्षम होने के कारण यह जलवायु परिवर्तन में भूमिका निभाते हैं।
      • मत्स्यन: मैंग्रोव क्षेत्र में मछली की विभिन्न प्रजातियाँ मिलती हैं।
      • आजीविका: मैंग्रोव क्षेत्र मत्स्यन,पर्यटन और गैर-लकड़ी वन उत्पादों के माध्यम से स्थानीय समुदायों को आजीविका का साधन उपलब्ध कराते हैं।

    निष्कर्ष:

    भारत समृद्ध और विविध प्राकृतिक वनस्पति वाला देश है जहाँ पौधों और जानवरों की विभिन्न प्रजातियाँ मिलती हैं। यह पारिस्थितिकी संतुलन को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भारत में विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ (जिनमें उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन, उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन, उष्णकटिबंधीय कांटेदार वन, पर्वतीय वन, मैंग्रोव, और तटीय और दलदली वन शामिल हैं), स्थानीय समुदायों के लिये आजीविका के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। विशेष रूप से मैंग्रोव को आशाजनक वनस्पति के रूप में जाना जाता है जो जैव विविधता, तटीय संरक्षण, कार्बन पृथक्करण, मत्स्यन और आजीविका जैसे कई पारिस्थितिक, आर्थिक और सामाजिक लाभ प्रदान करते हैं।


    उत्तर 2:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • मृदा निर्माण के प्रमुख कारकों को बताते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • मृदा क्षरण को कम करने वाले उपायों की चर्चा कीजिये।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    • मृदा निर्माण एक जटिल और निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जो विभिन्न प्रकार के भौतिक, रासायनिक और जैविक कारकों से प्रभावित होती है।
    • ये कारक विश्व भर में पाई जाने वाली समृद्ध और विविध प्रकार की मृदा के निर्माण हेतु उत्तरदायी होते हैं।
    • पारिस्थितिकी तंत्र और कृषि भूमि की उत्पादकता को समझने के लिये मृदा निर्माण के प्रमुख कारकों को समझना आवश्यक है।
    • मृदा निर्माण में भूमिका निभाने वाले कुछ प्रमुख कारकों में मूल सामग्री, जलवायु, स्थलाकृति, जीव-जंतु, समयावधि और मानवीय गतिविधियाँ शामिल हैं।
    • इन कारकों के बीच परस्पर क्रिया द्वारा हम उन प्रक्रियाओं को समझ सकते हैं जिनसे मृदा निर्माण होता है जो पृथ्वी पर जीवन की विभिन्न प्रक्रियाओं में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

    मुख्य भाग:

    • मृदा निर्माण एक जटिल प्रक्रिया है जो विभिन्न कारकों से प्रभावित होती है जैसे:
      • मूल सामग्री: चट्टान या खनिज के प्रकार (जिससे मृदा की उत्पत्ति होती है) की मृदा की विशेषताओं और उर्वरता को निर्धारित करने में प्रमुख भूमिका होती है।
      • जलवायु: किसी क्षेत्र की जलवायु (जिसमें तापमान, वर्षा और वायु शामिल है) से मृदा निर्माण की दर प्रभावित होती है।
      • स्थलाकृति: किसी क्षेत्र की भौतिक विशेषताएँ जैसे ढलान, ऊँचाई और जल निकासी से जल और तलछट की गति प्रभावित होती है जिससे मृदा निर्माण प्रभावित होता है।
      • जीव-जंतु तथा पेड़ पौधे: मृदा निर्माण में जीव-जंतु तथा पेड़ पौधे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
      • समयावधि: मृदा निर्माण एक धीमी प्रक्रिया है जो हजारों वर्षों में होती है। भौतिक और जैविक प्रक्रियाओं की परस्पर क्रिया से मूल सामग्री,मृदा में परिवर्तित होती है।
      • मानवीय गतिविधियाँ: मानव गतिविधियाँ जैसे कि वनों की कटाई, कृषि और शहरीकरण द्वारा भौतिक और जैविक प्रक्रियाओं के संतुलन में परिवर्तन होने से मृदा निर्माण प्रभावित हो सकता है।
    • भारत में मृदा क्षरण एक गंभीर मुद्दा है और इसका कृषि उत्पादकता, जैव विविधता एवं मानव कल्याण पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। मृदा क्षरण को कम करने के लिये निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:
      • संरक्षण जुताई: संरक्षण जुताई पद्धतियों को अपनाने (जैसे कि कम जुताई या बिना जुताई की खेती) से मृदा के कटाव को कम करने के साथ मृदा की संरचना में सुधार करने में मदद मिल सकती है।
      • फसल चक्रण: फसल चक्रण प्रणाली को अपनाने से कीटों और रोगजनकों को रोकने के साथ मृदा की उर्वरता में सुधार एवं मृदा के कटाव के जोखिम को कम करके मृदा क्षरण को कम करने में मदद मिल सकती है।
      • कवर फसलें: कवर फसलों का उपयोग मृदा के कटाव को रोकने में मदद करने के साथ मृदा के स्वास्थ्य में सुधार कर सकता है।
      • कृषि वानिकी: इससे मृदा की संरचना, उर्वरता और जलधारण क्षमता में सुधार के साथ मृदा क्षरण को कम करने में मदद मिल सकती है।
      • मृदा संरक्षण उपाय अपनाना: मृदा संरक्षण उपाय अपनाना जैसे कि सीढ़ीदार खेती, समोच्च खेती से मृदा के कटाव को कम करने और मृदा के स्वास्थ्य में सुधार करने में मदद मिल सकती है।
      • सतत भूमि उपयोग को बढ़ावा देना: सतत भूमि उपयोग पद्धतियों को अपनाना जैसे अतिचारण और वनों की कटाई को कम करने से मृदा क्षरण को कम करने के साथ मृदा स्वास्थ्य में सुधार किया जा सकता है।
      • सतत जल प्रबंधन अपनाना: सतत जल प्रबंधन प्रक्रियाओं को अपनाना जैसे कि वर्षा जल संचयन और कुशल सिंचाई प्रणाली से मृदा क्षरण को कम करने और मृदा की उर्वरता में सुधार करने में मदद मिल सकती है।
      • मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन: मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन प्रक्रियाओं को लागू करना जैसे नियमित मृदा परीक्षण और जैविक उर्वरकों के उपयोग से मृदा की उर्वरता में सुधार करने तथा मृदा क्षरण को कम करने में मदद मिल सकती है।

    निष्कर्ष:

    भारत में मृदा क्षरण एक बड़ी चुनौती है जिसका कृषि उत्पादकता, जैव विविधता और मानव कल्याण पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। मृदा क्षरण को रोकने के लिये बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है जिसमें संरक्षण जुताई, फसल चक्रण प्रणाली, कवर फसलें, कृषि वानिकी, मृदा संरक्षण उपाय, सतत भूमि उपयोग, स्थायी जल प्रबंधन और मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन को लागू करना शामिल है। इन कदमों से हम भारत में मृदा क्षरण को कम करने के साथ कृषि भूमि के स्वास्थ्य और उत्पादकता में सुधार कर सकते हैं जो कि भविष्य में खाद्य सुरक्षा और मानव कल्याण सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक है।

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2
× Snow