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12 Dec 2022
सामान्य अध्ययन पेपर 1
संस्कृति
दिवस- 29
प्रश्न.1 प्राचीन काल में विकसित, भारत की दो प्रसिद्ध युद्ध कलाओं (मार्शल आर्ट) की चर्चा कीजिये। (150 शब्द)
प्रश्न.2 गुप्त काल में हुए, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास की चर्चा कीजिये। (150 शब्द)
उत्तर
उत्तर 1:
दृष्टिकोण:
- खेल और मार्शल आर्ट की प्राचीन भारतीय संस्कृति का परिचय दीजिये।
- प्राचीन भारत की दो प्रसिद्ध युद्ध कलाओं की चर्चा कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
प्राचीन काल से ही भारत कई खेलों और युद्ध कलाओं के मामले में समृद्ध रहा है। ये खेल प्राचीन काल में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास के साथ-साथ विकसित हुए थे। इनका प्रयोजन शारीरिक स्वास्थ्य लाभ, धार्मिक संस्कार और आत्मरक्षा के लिये होता है।
मार्शल आर्ट का शाब्दिक अर्थ 'युद्ध छेड़ने से संबद्ध कला' है। देश में कई मार्शल आर्ट नृत्य, योग और प्रदर्शन कलाओं से निकटता से संबंधित हैं।
मुख्य भाग:
ब्रिटिश शासन के दौरान कुछ कला रूपों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, जिनमें कलारीपयट्टू और सिलंबम शामिल हैं लेकिन स्वतंत्रता पश्चात इन्होंने फिर से लोकप्रियता हासिल की। भारत में कुछ लोकप्रिय और प्रचलित मार्शल आर्ट निम्नलिखित हैं:
- कलारीपयट्टू: यह भारत में सबसे पुरानी मार्शल आर्ट में से एक थी जो दक्षिणी भारत में प्रचलित थी। चौथी शताब्दी ईस्वी में इसकी उत्पत्ति केरल राज्य में हुई थी। किंवदंतियों के अनुसार मार्शल आर्ट की शुरुआत करने वाले ऋषि परशुराम ने कलारीपयट्टू की शुरुआत की।
- इस कला रूप में नकली द्वंद युद्ध (सशस्त्र और निःशस्त्र संघर्ष) और शारीरिक अभ्यास शामिल हैं। किसी ढोल या गाने से रहित इस कला का सबसे महत्वपूर्ण पहलू युद्ध की शैली है। कलारीपयट्टू की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता फुटवर्क है; इसमें लात मारने, वार करने और हथियार आधारित अभ्यास भी शामिल है।
- महिलाएँ भी इस कला का अभ्यास करती हैं। महान वीरांगना उनियार्चा ने इस मार्शल आर्ट का उपयोग करते हुए कई युद्ध जीते। भले ही वर्तमान में कलारीपयट्टू का उपयोग आत्मरक्षा के एक निहत्थे साधन और शारीरिक फिटनेस हासिल करने के एक तरीके के रूप में किया जाता है फिर भी इसके तत्त्व पारंपरिक अनुष्ठानों और समारोहों में निहित हैं। कलारीपयट्टू में विभिन्न तकनीकें और पहलू शामिल हैं।
- उनमें से कुछ हैं: उझिचिल या गिंगली तेल से मालिश, ओट्टा (एक ‘S’ आकार की छड़ी), मैपयट्टू या शारीरिक व्यायाम,वेरुमकाई या नंगे हाथों से लड़ाई, अंगाठारी या धातु के हथियारों और कोल्थारी की छड़ियों का उपयोग।
सिलंबम:
- सिलंबम, एक प्रकार की लाठी चलाने या पटेबाजी की कला है जो तमिलनाडु की एक आधुनिक और वैज्ञानिक मार्शल आर्ट है। पांड्य, चोल और चेर वंश के शासकों ने अपने शासनकाल के दौरान इसे बढ़ावा दिया था।
- इसका संदर्भ शिलप्पादिकारम (दूसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व) नामक एक तमिल साहित्य में देखा जा सकता है। सिलंबम बाँस की लाठी रोम, यूनान और मिस्र के व्यापारियों और आगंतुकों के मध्य सबसे लोकप्रिय व्यापारिक वस्तुओं में से एक थी।
- यह पहली शताब्दी ईस्वी के बाद से राज्य के अत्यधिक संगठित और लोकप्रिय खेलों में से एक था। इसकी उत्पत्ति के साक्ष्य को दिव्य स्रोतों में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिये भगवान मुरुगन (तमिल पौराणिक कथाओं में) और ऋषि अगस्त्य को सिलंबम की उत्पत्ति का श्रेय दिया जाता है।
- इसमें प्रतिभागी ड्रेस के रुप में अलग-अलग रंग के लंगोट, पगड़ी, बिना आस्तीन की बनियान, कैनवास शूज और चेस्ट गार्ड पहनते हैं और विकरवर्क शील्ड का इस्तेमाल करते हैं। सिलंबम में विभिन्न प्रकार की तकनीकों का उपयोग किया जाता है जिसमें पैरों की तेज गति,लाठी चलाने के लिये दोनों हाथों का उपयोग,शरीर के विभिन्न स्तरों (सिर, कंधे, कूल्हे और पैर के स्तर) पर बल,बेग और सटीकता को विकसित करने के लिये तथा प्रवीणता हासिल करने के लिये कटाक्ष, कटाव, वार और घुमाव का उपयोग।
- सिलंबम प्रतियोगिता में जीतने के तीन तरीके हैं।
- पहले तरीके में अपने समूह के एक खिलाड़ी को बेदखल करना शामिल है।
- दूसरे तरीके में प्रतियोगी द्वारा अपने प्रतिद्वंदी के शरीर पर किये गए 'स्पर्श' (जो प्रतिद्वंद्वी के शरीर पर चिह्नों की संख्या से संकेतित होते हैं) की संख्या की गणना की जाती है।
- तीसरे तरीके में प्रत्येक प्रतियोगी द्वारा पैसे की पोटली की रक्षा करने के क्रम में दिखाए गए कौशल को देखा जाता है जिसे या तो प्रतिभागियों या उनके पैरों के बीच रखा जाता है।
- जो प्रतियोगी अपने प्रतिद्वंद्वी के माथे को छूने में सफल रहता है, वह प्रतियोगिता जीत जाता है।
निष्कर्ष:
भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग के रुप में मार्शल आर्ट और खेलों की विश्व स्तर पर मनोरंजन, नृत्य या आत्मरक्षा की तकनीकों जैसे विभिन्न रूपों में व्यापक रूप से प्रशंसा की जाती है। इस तरह की खेल संस्कृति को बनाए रखने और इससे संबंधित ज्ञान को संरक्षित करने के लिये, भारत सरकार विभिन्न रूपों में प्रयासरत है। इसी क्रम में केरल के कलारीपयट्टू, मध्य भारत के मल्लखंब, पंजाब के गतका और मणिपुर के थांग-टा को खेलो इंडिया यूथ गेम्स में शामिल किया गया है।
उत्तर 2:
दृष्टिकोण:
- गुप्तकाल का परिचय दीजिये।
- गुप्त काल में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास की चर्चा कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
गुप्त साम्राज्य (320 से 550 ई.) उत्तरी, मध्य और दक्षिणी भारत के कुछ हिस्सों में फैला हुआ था। यह अवधि कला, वास्तुकला, विज्ञान, धर्म और दर्शन में अपनी उपलब्धियों के लिये विख्यात है। यह युग भारतीय इतिहास के स्वर्ण युग के रुप में संदर्भित किया जाता है जो मानव जीवन के विभिन्न क्षेत्रों जैसे कि राजनीति, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, समाज आदि में देखी गई उल्लेखनीय प्रगति को दर्शाता है।
मुख्य भाग:
गुप्त काल में चिकित्सा, वास्तुकला, विज्ञान और प्रौद्योगिकी का काफी विकास हुआ जैसे:
आर्यभट्ट ने लगभग 499 ईस्वी में आर्यभट्टीय की रचना की थी जिसमें गणित के साथ-साथ खगोल विज्ञान की अवधारणाओं का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया था। इस पुस्तक के चार खंड थे:
- बड़ी दशमलव संख्याओं को अक्षरों द्वारा निरूपित करने की विधि
- संख्या सिद्धांत, ज्यामिति, त्रिकोणमिति
- बीजगणित
- खगोल शास्त्र
एस्ट्रोनॉमी को उन दिनों खगोल शास्त्र भी कहा जाता था। खगोल नालंदा की प्रसिद्ध खगोलीय प्रयोगशाला थी जहाँ आर्यभट्ट अध्ययन करते थे।
- आर्यभट्ट की पुस्तक के अनुसार खगोल शास्त्र के अध्ययन के निम्न उद्देश्य थे: पंचांग की सटीकता पता करना, जलवायु और वर्षा के पैटर्न के बारे में जानना, नेविगेशन, जन्म-कुंडली देखना, ज्वार और नक्षत्रों के बारे में ज्ञान प्राप्त करना।
- इससे रेगिस्तान और समुद्र को पार करने में और इस तरह रात के समय दिशा को दर्शाने में सहायता मिली। आर्यभट्ट ने अपनी पुस्तक में कहा, कि पृथ्वी गोल है और वह अपनी धुरी पर घूमती है। उन्होंने त्रिभुज के क्षेत्रफल का सूत्र दिया और बीजगणित का आविष्कार किया।
- इन्होंने ग्रहों की वास्तविक स्थिति, सूर्य और चंद्रमा की गति और ग्रहणों की गणना के निर्धारण की विधि को भी परिभाषित किया।
भूविज्ञान, जल विज्ञान और पारिस्थितिकी के क्षेत्र में वराहमिहिर के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। वे गुप्त काल से संबंधित थे और विक्रमादित्य के दरबार के नौ रत्नों में से एक थे।
- उनकी भविष्यवाणियाँ इतनी सटीक होती थीं कि राजा विक्रमादित्य ने उन्हें "वराह" की उपाधि से सम्मानित किया था। उन्होंने दावा किया कि दीमक और पौधों की उपस्थिति किसी क्षेत्र विशेष में जल की उपस्थिति का संकेत हो सकते हैं। उनके द्वारा छह जानवरों और छत्तीस पौधों की एक सूची दी गई थी जो जल की उपस्थिति का संकेत दे सकते थे।
- उन्होंने अपनी पुस्तक बृहत् संहिता में धरती बादल का सिद्धांत प्रतिपादित किया था। उन्होंने कहा कि भूकंप का संबंध पौधों के प्रभाव, जानवरों के व्यवहार, भूमिगत जल, समुद्र के अंदर की गतिविधियों और असामान्य रुप से बादल के निर्माण से है। उन्होंने ज्योतिष या ज्योतिष शास्त्र में भी योगदान दिया।
भारत में रसायन विज्ञान को रसायन शास्त्र, रसतंत्र, रस विद्या और रसक्रिया कहा जाता था, इन सभी का अर्थ, द्रव्यों का विज्ञान होता है। रासायनिक प्रयोगशालाओं को रसक्रिया शाला कहा जाता था और रसायनज्ञ को रसदान्य कहा जाता था।
- फारसी सेना में भारतीयों ने लोहे की नोक वाले हथियारों का इस्तेमाल किया था। भारतीय धातु विज्ञान का सबसे अच्छा प्रमाण दिल्ली स्थित महरौली का लौह स्तंभ है।
औषधि:
- चरक संहिता मुख्य रूप से औषधीय प्रयोजनों के लिये पौधों और जड़ी-बूटियों के उपयोग से संबंधित है। यह मुख्य रूप से आयुर्वेद से संबंधित है जिसके निम्नलिखित भाग जैसे- कायाचिकित्सा (सामान्य चिकित्सा) कौमार-भृत्य (बाल चिकित्सा) शल्य चिकित्सा (सर्जरी) शलक्य तंत्र (नेत्र विज्ञान / ईएनटी) आदि हैं।
- चरक संहिता में पाचन, चयापचय और प्रतिरक्षा प्रणाली पर व्यापक लेख शामिल हैं।
- चरक इस बात पर जोर देते हैं कि मानव शरीर की कार्यप्रणाली तीन दोषों पर निर्भर होती है: 1. पित्त, 2. कफ और 3. वायु।
- चरक ने अपनी पुस्तक में उपचार की अपेक्षा रोकथाम पर अधिक बल दिया है। चरक संहिता में आनुवंशिकी का भी उल्लेख मिलता है।
- सुश्रुत संहिता शल्य चिकित्सा और प्रसूति की व्यावहारिक समस्याओं से संबंधित है। सुश्रुत ने मृत मानव शरीर की सहायता से शरीर रचना विज्ञान का बहुत विस्तार से अध्ययन किया।
- यह मुख्य रुप से निम्नलिखित में निपुण थे:
- राइनोप्लास्टी (प्लास्टिक सर्जरी)
- नेत्र विज्ञान (मोतियाबिंद का निष्काषन)
- उस समय सर्जरी को शस्त्रकर्म कहा जाता था। सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा का विस्तार से वर्णन किया गया है। इस क्षेत्र में सुश्रुत का सबसे बड़ा योगदान राइनोप्लास्टी था, जिसका अर्थ है प्लास्टिक सर्जरी के माध्यम से कटी हुई नाक को मूल अवस्था में लाना।
- उस समय की दो पुस्तकों का अनुवाद भी अरबी भाषा में हुआ। 180 ईसा पूर्व से 10 ईस्वी में भारत में इंडो-ग्रीक शासन के दौरान, यूनानी भी भारतीय औषधि से प्रभावित थे।
- यह मुख्य रुप से निम्नलिखित में निपुण थे:
- संगीत: संगीत और नृत्य के पहले संदर्भ की चर्चा ईसा पूर्व 200 से 200 ईस्वी के बीच लिखे गए भरत के नाट्यशास्त्र में मिलती है। संगीतशास्त्र और नृत्य के विषय पर स्पष्ट और विस्तृत वर्णन, भरत के नाट्यशास्त्र से मिलता है।
- भरत मुनि नृत्य को 'संपूर्ण कला' के रूप में वर्णित करते हैं, जिसमें कला के अन्य सभी रूप जैसे- संगीत, मूर्तिकला, कविता और नाटक शामिल हैं।
- नाट्यशास्त्र में भरत ने 22 स्वरों के पैमाने में स्वरों को विभाजित किया है।
- नाट्यशास्त्र में भरत ने उल्लेख किया कि स्वरों से अलग-अलग रस उत्पन्न होते हैं, मध्यम विनोदी प्रवृत्ति; पंचम कामुक भावनाओं; षड्ज वीर भावनाओं को उत्पन्न करते हैं और अंत में ऋषभ स्वर द्वारा क्रोधित प्रवृत्ति को उत्पन्न किया जाता है।
निष्कर्ष:
गुप्त काल में हुए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास की आने वाले समय में काफी प्रशंसा की गई और इस युग के विकास से प्रेरित व्यावहारिक प्रमाण को महरौली के स्तंभ एवं उस समय के अन्य मंदिरों में देखा जा सकता है।