हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत | 06 Oct 2020

हम शास्‍त्रीय संगीत की दो पद्धतियों को पहचानते हैं: हिंदुस्तानी एवं कर्नाटक। कर्नाटक संगीत कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल तक सीमित है। शेष देश के शास्‍त्रीय संगीत का नाम हिंदुस्तानी शास्‍त्रीय संगीत है। नि:संदेह कर्नाटक और आंध्र में कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ हिंदुस्तानी शास्‍त्रीय पद्धति का भी अभ्‍यास किया जाता है। सामान्‍य रूप से ऐसा माना जाता है कि तेरहवीं शताब्‍दी से पूर्व भारत का संगीत कुल मिलाकर एकसमान है, बाद में जो दो पद्धतियों में विभाजित हो गया था।

परिचय

भारतीय संगीत के इतिहास में भरत का नाट्यशास्‍त्र एक महत्त्वपूर्ण सीमाचिह्न है। नाट्यशास्‍त्र एक व्‍यापक रचना या ग्रंथ है जो प्रमुख रूप से नाट्यकला के बारे में है लेकिन इसके कुछ अध्‍याय संगीत के बारे में हैं। इसमें हमें सरगम, रागात्‍मकता, रूपों और वाद्यों के बारे में जानकारी मिलती है। तत्‍कालीन समकालिक संगीत ने दो मानक सरगमों की पहचान की। इन्‍हें ग्राम कहते थे। ‘ग्राम’ शब्द संभवत: किसी समूह या संप्रदाय उदाहरणार्थ एक गाँव के विचार से लिया गया है। यही संभवत: स्‍वरों की ओर ले जाता है जिन्‍हें ग्राम कहा जा रहा है। इसका स्‍थूल रूप से सरगमों के रूप में अनुवाद किया जा सकता है।

  • उस समय दो ग्राम प्रचलन में थे। इनमें से एक को षडज ग्राम और अन्‍य को मध्‍यम ग्राम कहते थे। दोनों के बीच का अंतर मात्र एक स्‍वर पंचम में था। अधिक सटीक रूप से कहें तो हम यह कह सकते हैं कि मध्‍यम ग्राम में पंचम षडज ग्राम के पंचम से एक श्रुति नीचे था।
  • इस प्रकार से श्रुति मापने की एक इकाई है या एक ग्राम अथवा एक सरगम के भीतर विभिन्‍न क्रमिक तारत्‍वों के बीच एक छोटा-सा अंतर है। सभी व्‍यावहारिक प्रयोजनों के लिये इनकी संख्‍या 22 बताई जाती है। प्रत्‍येक ग्राम से अनुपूरक सरगम लिये गए हैं। इन्‍हें मूर्छना कहते हैं। ये एक अवरोही क्रम में बजाए या गाए जाते हैं। एक सरगम में सात मूलभूत स्‍वर होते हैं, अत: सात मूर्छना हो सकते हैं।

लगभग ग्‍यारहवीं शताब्‍दी से मध्‍य और पश्चिम एशिया के संगीत ने भारत की संगीत की परंपरा को प्रभावित करना शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे इस प्रभाव की जड़ गहरी होती चली गई और कई परिवर्तन हुए। इनमें से एक महत्‍त्‍वपूर्ण परिवर्तन था- ग्राम और मूर्छना का लुप्‍त होना।

लगभग 15वीं शताब्‍दी के आसपास, परिवर्तन की यह प्रक्रिया सुस्‍पष्‍ट हो गई थी, ग्राम पद्धति अप्रचलित हो गई थी। मेल या थाट की संकल्‍पना ने इसका स्‍थान से लिया था। इसमें मात्र एक मानक सरगम है। सभी ज्ञात स्‍वर एक सामान्‍य स्‍वर ‘सा’ तक जाते हैं।

लगभग अठारहवीं शताब्‍दी तक यहाँ तक कि हिंदुस्तानी संगीत के मानक या शुद्ध स्‍वर भिन्‍न हो गए थे। अठारहवीं शताब्‍दी से स्‍वीकृत, वर्तमान स्‍वर है:

सा रे ग म प ध नि

वर्तमान में प्रचलित कुछ प्रमुख शैलियाँ

‘ध्रुपद', ‘धमर', ‘होरी', ‘ख्याल', ‘टप्पा', ‘चतुरंग', ‘रससागर', ‘तराना', ‘सरगम' और ‘ठुमरी' जैसी हिंदुस्तानी संगीत में गायन की दस मुख्य शैलियाँ हैं।

  • धुपद
    • यह हिंदुस्तानी संगीत के सबसे पुराने और भव्य रूपों में से एक है। यह नाम ‘ध्रुव' और ‘पद' शब्दों से मिलकर बना है जो कविता के छंद रूप और उसे गाने की शैली दोनों को प्रदर्शित करते हैं।
    • अकबर के शासनकाल में तानसेन और बैजूबावरा से लेकर ग्वालियर के राजा मान सिंह तोमर के दरबार तक ध्रुपद गाने वाले प्रवीण गायकों के साक्ष्य मिलते हैं। यह मध्यकाल में गायन की प्रमुख विधा बन गई, परंतु 18वीं शताब्दी में यह ह्रास की स्थिति में पहुँच गई। 
    • ध्रुपद एक काव्यात्मक रूप है, जिससे राग को सटीक तथा विस्तृत शैली में प्रस्तुत किया गया है। ध्रुपद में संस्कृत अक्षरों का उपयोग किया जाता है और इसका उद्गम मंदिरों से हुआ है।
    • ध्रुपद रचनाओं में सामान्यत: 4 से 5 पद होते हैं, जो युग्म में गाए जाते हैं। सामान्यतः दो पुरुष गायक ध्रुपद शैली का प्रदर्शन करते है। तानपुरा और पखावज सामान्यतः इनकी संगत करते है। वाणी या बाणी के आधार पर, ध्रुपद गायन को आगे और चार रूपों में विभाजित किया जा सकता है। 
  • डागरी घराना
    • इस शैली में आलाप पर बहुत बल दिया जाता है। ये डागर वाणी में गायन करते हैं। डागर मुसलमान गायक होते हैं, लेकिन सामान्यतः हिंदू देवी-देवताओं के पाठों का गायन करते हैं। उदाहरण के लिये, जयपुर के गुन्देचा भाई। 
  • दरभंगा घराना
    • इस घराने में ध्रुपद खंडार वाणी और गौहर वाणी में गायन होता है। ये रागालाप पर बल देते है और साथ ही तात्कालिक अलाप पर गीतों की रचना करते हैं। 
    • इस शैली का प्रतिनिधि मलिक परिवार है। इस घराने के कुछ प्रसिद्ध गायक हैं- राम चतुर मलिक, प्रेम कुमार मलिक और सियाराम तिवारी। 
  • बेतिया घराना
    • यह घराना केवल परिवार के भीतर प्रशिक्षित लोगों को ज्ञात कुछ अनोखी तकनीकों वाली ‘नौहर और खंडार वाणी' शैलियों का प्रदर्शन करता है। इस शैली का प्रतिनिधि मिश्र परिवार है। इस शैली के गायक हैं-इंद्र किशोर मिश्रा। इसके अतिरिक्त बेतिया और दरभंगा शैलियों में प्रचलित ध्रुपद का रूप हवेली शैली के रूप में जाना जाता है। 
  • तलवंडी घराना
    • यहाँ खण्डर वाणी गाई जाती है चूँकि यह परिवार पाकिस्तान में स्थित है इसलिये इसे भारतीय संगीत व्यवस्था में शामिल करना कठिन हो जाता है।

घराना प्रणाली

  • घराना वंश या प्रशिक्षुता और विशेष संगीत शैली के अनुपालन द्वारा संगीतकारों या नर्तक/नर्तकियों को जोड़ने वाली सामाजिक संगठन की एक प्रणाली है। 
  • घराना शब्द उर्दू/हिंदी शब्द 'घर' से लिया गया है जिसका अर्थ 'परिवार' या 'घर' होता है। यह सामान्यतः उस स्थान को इंगित करता है जहाँ से या संगीतात्मक विचारधारा उत्पन्न हुई है। घराने व्यापक संगीत शास्त्रीय विचारधारा को दर्शाते हैं और इनमें एक शैली से दूसरी शैली में अंतर होता है। 
  • यह प्रत्यक्ष रूप से संगीत की समझ, शिक्षण, प्रदर्शन एवं प्रशंसा को प्रभावित करते है। 
  • हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के गायन के लिये प्रसिद्ध घरानों में से निम्न घराने शामिल होते हैं: आगरा, ग्वालियर, इंदौर, जयपुर, किराना, और पटियाला।

खयाल (ख्याल) 

  • 'खयाल' (ख्याल) शब्द फारसी भाषा से लिया गया है, इसका अर्थ होता है 'विचार या कल्पना'। इस शैली के उद्भव का श्रेय अमीर खुसरो को दिया जाता है। संगीत का यह रूप कलाकारों के बीच काफी लोकप्रिय है। खयाल (ख्याल) दो से लेकर आठ पंक्तियों वाले लघु गीतों के रंग पटल पर आधारित है। सामान्य तौर पर खयाल (ख्याल) रचना को 'बंदिश' के रूप में भी जाना जाता है।
  • 15वीं सदी में सुल्तान मोहम्मद शर्की खयाल (ख्याल) के सबसे बड़े संरक्षक हुए। खयाल (ख्याल) की सबसे अनूठी विशेषता यह है कि इसमें तान का उपयोग किया जाता है। इसी कारण है कि ध्रुपद की तुलना में खयाल संगीत में आलाप को कम महत्त्व दिया जाता है। खयाल में दो प्रकार के गीतों का उपयोग किया जाता है। 
    • बड़ा खयाल: धीमी गति में गाया जाने वाला 
    • छोटा खयालः तेज़ गति में गाया जाने वाला 
  • असाधारण खयाल रचनाएँ भगवान कृष्ण की स्तुति में की जाती हैं। खयाल संगीत के अंतर्गत प्रमुख घराने हैं: 
    • ग्वालियर घरानाः यह सबसे पुराने और सबसे बड़े खयाल घरानों में से एक है। यह बहुत कठोर नियमों का पालन करता है क्योंकि यहाँ रागमाधुर्य और लय पर समान बल दिया जाता है। हालाँकि इसका गायन बहुत जटिल है, फिर भी यह सरल रागों के प्रदर्शन को वरीयता देता है। इस घराने के सबसे अधिक लोकप्रिय गायक नाथू खान और विष्णु पलुस्कर हैं। 
    • किराना घराना: इस घराने का नामकरण राजस्थान के 'किराना' गाँव के नाम पर हुआ है। इसकी स्थापना नायक गोपाल ने की थी लेकिन 20वीं सदी की शुरुआत में इसे लोकप्रिय बनाने का श्रेय अब्दुल करीम खान और अब्दुल वाहिद खान को जाता है।
      • ‘किराना’ घराना धीमी गति वाले रागों पर इनकी प्रवीणता के लिये प्रसिद्ध है। ये रचना की मधुरता और गीत में पाठ के उच्चारण की स्पष्टता पर बहुत अधिक बल देते हैं। ये पारंपरिक रागों या सरगम के उपयोग को महत्त्व देते हैं। इस शैली के कुछ प्रसिद्ध गायकों में पंडित भीमसेन जोशी और गंगू बाई हंगल जैसे महान कलाकार शामिल हैं। 
    • आगरा घरानाः इतिहासकारों के अनुसार 19वीं सदी में खुदा बख्श ने इस घराने की स्थापना की थी, परंतु संगीतविदों का मानना है कि इसके संस्थापक हाजी सुजान खान थे। फैयाज खान ने नवीन और गीतात्मक स्पर्श देकर इस घराने को पुनर्जीवित करने का काम किया। तब से इसका नाम रंगीला घराना पड़ गया। वर्तमान में इस शैली के प्रमुख गायकों में सी.आर. व्यास और विजय किचलु जैसे महान गायक आते हैं।
    • पटियाला घराना: बड़े फतेह अली खान और अली बख्श खान ने 19वीं सदी में इस घराने की शुरुआत की थी। इसे पंजाब में पटियाला के महाराजा का समर्थन प्राप्त हुआ। शीघ्र ही उन्होंने गजल, ठुमरी और खयाल के लिये प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली। वे बृहत्तर लय के उपयोग पर बल देते थे। चूँकि उनकी रचनाओं में भावनाओं पर बल होता था अतः उनका रुझान अपने संगीत में अलंकरण या अलंकारों के उपयोग पर अधिक होता था। वे जटिल तानों पर बल देते थे।
      • इस घराने के सबसे प्रसिद्ध संगीतकार बड़े गुलाम अली खान साहब थे। वे भारत के प्रसिद्ध हिन्दुस्तानी शास्त्रीय गायकों में से एक थे। वे राग दरबारी के गायन के लिये प्रख्यात थे। यह घराना तराना शैली के अद्वितीय तान, गमक और गायकी के लिये प्रसिद्ध है। 
    • भिंडी बाज़ार घरानाः छज्जू खान, नजीर खान और खादिम हुसैन ने 19वीं सदी में इसकी स्थापना की थी। उन्होंने लंबी अवधि तक अपनी सांस नियंत्रित करने में प्रशिक्षित गायकों के रूप में लोकप्रियता और ख्याति प्राप्त की। इस तकनीक का उपयोग करते हुए ये कलाकार एक ही सांस में लंबे-लंबे अंतरे गा सकते हैं। इसके अतिरिक्त इसकी एक अन्य प्रमुख विशेषता यह है कि ये अपने संगीत में कुछ कर्नाटक रागों का भी उपयोग करते हैं। 

ठुमरी

  • यह मिश्रित रागों पर आधारित है और इसे सामान्यतः अर्द्ध-शास्त्रीय भारतीय संगीत माना जाता है। इसकी रचनाएँ भक्ति आंदोलन से अधिक प्रेरित है कि इसके पाठों में सामान्यतः कृष्ण के प्रति गोपियों के प्रेम को दर्शाया जाता है। इसकी रचनाओं की भाषा सामान्य तौर पर हिंदी या अवधी या ब्रज भाषा होती है। 
  • इन्हें प्राय: महिला गायक द्वारा गाया जाता है। यह अन्य रूपों की तुलना में अलग है क्योंकि ठुमरी में निहित कामुकता विद्यमान होती है। दादरा, होरी, कजरी, सावन, झूला और चौती जैसे हल्के-फुल्के रूपों के लिये भी ठुमरी नाम का प्रयोग किया जाता है। मुख्य रूप से ठुमरी दो प्रकार की होती हैं: 
    • पूर्वी ठुमरी: इसे धीमी गति से गाया जाता है। 
    • पंजाबी ठुमरी: इसे तेज़ गति एवं जीवंत तरीके से गाया जाता है। 
  • ठुमरी के मुख्य घराने बनारस और लखनऊ में स्थित हैं और ठुमरी गायन में सबसे प्रसिद्ध स्वर बेगम अख्तर का है जो गायन में अपनी कर्कश आवाज़ और असीम तान के लिये प्रसिद्ध हैं।

टप्पा शैली

  • इस शैली में लय बहुत महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकि रचना तीव्र, सूक्ष्म और जटिल होती हैं। इसका उद्भव उत्तर-पश्चिम भारत के ऊट सवारों के लोक गीतों से हुआ था लेकिन सम्राट मुहम्मद शाह के मुगल दरबार में प्रवेश करने पर इसे अर्द्ध-शास्त्रीय स्वरीय विशेषता के रूप में मान्यता प्रदान इ गई। इसमें मुहावरों का बहुत तीव्र और बड़ा ही घुमावदार उपयोग किया जाता है।
  • टप्पा ना केवल अभिजात वर्ग बल्कि विनम्र वाद्य यंत्र वाले वर्गों की भी पसंदीदा शैली है। 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध तथा 20वीं सदी के प्रारम्भ में बैठकी शैली का विकास हुआ। 
  • वर्तमान समय में यह शैली प्राय: विलुप्त होती जा रही है तथा इसका अनुसरण करने वाले बेहद कम लोग बचे हैं। इस शैली के कुछ प्रसिद्ध गायक हैं- मियां सोदी, ग्वालियर के पंडित लक्ष्मण राव और शन्नो खुराना। 

तराना शैली

  • इस शैली में लय बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। इसकी संरचना लघु एवं कई बार दोहराए जाने वाले रागों से निर्मित होती है। इसमें तीव्र गति से गाए जाने वाले कई शब्दों का प्रयोग होता है। यह लयबद्ध विषय बनाने पर केंद्रित होता है और इसलिये गायक के लिये लयबद्ध हेरफेर में विशेष प्रशिक्षण एवं कौशल की आवश्यकता होती है। वर्तमान में विश्व के सबसे तेज़ तराना गायक मेवाती घराने के पंडित रतन मोहन शर्मा है। श्रोताओं द्वारा इन्हें 'तराना के बादशाह' (तराना के राजा) की पदवी भी दी गई है।

धमर-होरी शैली 

  • ध्रुपद ताल के अलावा यह शैली ध्रुपद से काफी समानता रखती है। यह बहुत ही संगठित शैली है और इसमें 14 तालों का चक्र होता है जिनका अनियमित रूप से उपयोग किया जाता है। इसकी रचनाएँ प्रकृति में सामान्यतः भक्तिपरक होती हैं और भगवान कृष्ण से संबंधित होती हैं। कुछ अधिक लोकप्रिय गीत होली त्योहार से संबंधित हैं इसी कारण वश इसकी कई रचनाओं में शृंगार रस नज़र आता है। 

गजल

  • यह एक काव्यात्मक रूप है इसे क्षति या वियोग की पीड़ा और उस पीड़ा के होते हुए भी प्रेम की सुंदरता की काव्यात्मक अभिव्यक्ति के रूप में देखा जा सकता है। इसका उद्भव 10वीं सदी में ईरान में हुआ, माना जाता है।
  • 12वीं सदी में सूफी रहस्यवादियों और नए इस्लामी सल्तनत के दरबारों के प्रभाव के चलते दक्षिण एशिया में इसका प्रसार हुआ, परंतु मुगल काल में यह अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गई। ऐसा माना जाता है कि अमीर खुसरो गजल के सबसे पहले प्रतिपादकों में से एक थे। कई प्रमुख ऐतिहासिक गजल कवि या तो स्वयं को सूफी (जैसे रूमी या हाफ़िज़) कहते थे, या सूफी विचारों के साथ सहानुभूति रखते थे। 
  • गजल का एकमात्र विषय- प्रेम (विशेष रूप से बिना किसी शर्त के सर्वोच्च प्रेम) होता है। भारतीय उप-महाद्वीप के गज़लों पर इस्लामी रहस्यवाद का प्रभाव है।