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प्रश्न :
भारत में साम्प्रदायिक चेतना का जन्म उपनिवेशवादी नीतियों एवं उन नीतियों के खिलाफ संघर्ष करने की आवश्यकताओं से उत्पन्न परिवर्तनों के कारण हुआ। विवेचना कीजिये।
01 May, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहासउत्तर :
साम्प्रदायिकता ये तात्पर्य उस संकीर्ण मनोवृत्ति से है, जो धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर पूरे समाज तथा राष्ट्र के व्यापक हितों के विरूद्ध व्यक्ति को केवल अपने व्यक्तिगत धर्म के हितों को प्रोत्साहित करने तथा उन्हें संरक्षण देने की भावना को महत्त्व देती है। यह व्यक्ति में सर्वमान्य सत्य की भावना के विरूद्ध व्यक्तिगत धर्म और संप्रदाय के आधार पर परस्पर घृणा, द्वन्द्व, ईर्ष्या तथा द्वेष को जन्म देती है। यह भावना अपने धर्म के प्रति अंध भक्ति तथा परधर्म एवं उसके अनुयायियों के प्रति नफरत की भावना उत्पन्न करती है।
1857 ई. की क्रांति में हिन्दू-मुस्लिम साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़े थे। परंतु, इसके पश्चात् ब्रिटिश नीतियों एवं उनके खिलाफ संघर्ष करने की आवश्यकताओं से उत्पन्न परिवर्तनों ने भारत में साम्प्रदायिकता केा इतने गहरे तक बैठा दिया कि उसका परिणाम ‘विभाजन’ के रूप में सामने आया। भारत में साम्प्रदायिक चेतना के विकास के विभिन्न कारण, परिस्थितियाँ एवं तत्त्व निम्नलिखित हैं-
- अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीतिः 1857 के विद्रोह और बहावी आंदोलन के पश्चात् अंग्रेजों ने मुसलमानों के प्रति दमन और भेदभाव की नीति अपनाई। परंतु, 1870 के पश्चात् भारतीय राष्ट्रवाद के उभरने तथा नवशिक्षित मध्यमवर्ग के राजनीतिक प्रक्रियाओं एवं सिद्धांतों से परिचित होने के कारण अंग्रेजों ने मुसलमानों के दमन की नीति त्याग दी तथा उनमें चेतना का प्रयास कर तथा उन्हें आरक्षण तथा समर्थन देकर मजबूत करने की कोशिश की, जिससे मुसलमानों को राष्ट्रवादी ताकतों के विरूद्ध प्रयुक्त किया जा सके। इस क्रम में अंग्रेजों ने सर सैय्यद अहमद खाँ को अपना सबसे बड़ा प्रारम्भिक मोहरा बनाया।
- भारतीय इतिहास लेखन द्वारा साम्प्रदायिकता को बढ़ावाः अनेक अंग्रेजी इतिहासकारों ने हिन्दू-मुस्लिम फूट को बढ़ावा देने तथा ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ें सुदृढ़ करने के उद्देश्य से भारतीय इतिहास की व्याख्या इस तरह की जिससे साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिले। उन्होंने मध्यकालीन भारत में शासकों के संघर्ष को हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष के रूप में उद्धृत किया।
- सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनः मुस्लिम सुधार आंदोलन जैसे ‘बहावी आंदोलन’ तथा हिन्दू सुधार आंदोलन जैसे ‘शुद्धि आंदोलन’ के व्यक्तिगत धार्मिक स्वरूप के कारण धर्म का उग्रवादी चरित्र सामने आया जिससे साम्प्रदायिकता को बल मिला।
- उग्र राष्ट्रवाद का पार्श्व प्रभावः तिलक के गणपति तथा शिवाजी उत्सव, गोहत्या के विरूद्ध अभियान, भारत माता तथा राष्ट्रवाद की धर्म के रूप में अरविंद की अवधारणाओं, गंगा स्नान के पश्चात् बंग-भंग आंदोलन प्रारम्भ करना, क्रांतिकारियों द्वारा देवी काली या भवानी के सम्मुख शपथ आदि ने मुसलमानों में हिन्दुओं के प्रति अविश्वास पैदा किया तथा उनको यह सब अपनी धार्मिक मान्यताओं के प्रतिकूल लगा।
इन सबके अतिरिक्त सामाजिक व आर्थिक पिछड़ेपन तथा बहुसंख्यक समुदाय के विभिन्न उग्रवादी संगठनों- हिन्दू महासभा (1915), राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (1925) के गठन की भी अल्पसंख्यकों में साम्प्रदायिक प्रतिक्रिया हुई।
इस प्रकार भारत में विभिन्न कारणों, परिस्थितियों एवं नीतियों के चलते साम्प्रदायिकता का जहर फैला।To get PDF version, Please click on "Print PDF" button.
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