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प्रश्न :
'स्वामी विवेकानन्द वेदान्त के व्याख्याता एवं एक आध्यात्मिक गुरु थे किंतु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उनके चिंतन में दलितों, महिलाओं व गरीबों के उत्थान तथा ‘कर्म की प्रधानता’ का विचार विशेष रूप से उपस्थित था।' चर्चा करें।
24 Sep, 2020 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्नउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
• भूमिका
• स्वामी विवेकानंद के विचार
• दलितों, महिलाओं व गरीबों के उत्थान तथा ‘कर्म की प्रधानता’ का विचार पर प्रकाश डालें।
स्वामी विवेकानन्द 19वीं सदी के भारत के सर्वाधिक प्रभावशाली चिंतकों में से एक थे। वे वेदान्त के व्याख्याता तथा एक उच्च कोटि के आध्यात्मिक गुरु थे। उन्होंने हिंदू धर्म तथा अद्वैत वेदान्त की वैज्ञानिक और व्यावहारिक व्याख्या करते हुए भारत में नवजागरण को दिशा प्रदान की। 1893 ई. में शिकागो में आयोजित ‘विश्व धर्म महासभा’ में उन्होंने हिंदू धर्म को सहिष्णु तथा सार्वभौमिक धर्म के रूप में प्रस्तुत किया।
वे मानवतावादी चिंतक थे, उनके अनुसार मनुष्य का जीवन ही एक धर्म है। धर्म न तो पुस्तकों में है, न ही धार्मिक सिद्धांतों में, प्रत्येक व्यक्ति अपने ईश्वर का अनुभव स्वयं कर सकता है। विवेकानंद ने धार्मिक आडंबर पर चोट की तथा ईश्वर की एकता पर बल दिया। विवेकानंद के शब्दों में “मेरा ईश्वर दुखी, पीड़ित हर जाति का निर्धन मनुष्य है।
स्वामी विवेकानंद ने भारतीय समाज में दलितों एवं महिलाओं की दयनीय स्थिति पर चिंता व्यक्त की और समाज कल्याण के लिये इनका उत्थान आवश्यक बताया। उन्होंने इनके उत्थान के लिये शिक्षा को सबसे महत्त्वपूर्ण साधन माना। स्वामी विवेकानंद ने ऐसी शिक्षा पर बल दिया जिसके माध्यम से विद्यार्थी की आत्मोन्नति हो और जो उसके चरित्र निर्माण में सहायक हो सके।
उनका मानना था कि जिस राष्ट्र में महिलाओं का सम्मान नहीं होता, वह राष्ट्र और समाज कभी महान नहीं बन सकता। शिक्षा के माध्यम से ही स्त्री व दलितों को शक्तिशाली, भयविहीन तथा आत्म-सम्मान के साथ जीने के काबिल बनाया जा सकता है।
महात्मा गांधी द्वारा सामाजिक रूप से शोषित लोगों को 'हरिजन' शब्द से संबोधित किये जाने के वर्षों पहले ही स्वामी विवेकानंद ने 'दरिद्र नारायण' शब्द का प्रयोग किया था जिसका आशय था कि 'गरीबों की सेवा ही ईश्वर की सेवा है।' ‘दरिद्र नारायण’ की अवधारणा द्वारा उन्होंने मानवतावाद को धार्मिकता से जोड़ा। शिकागो में दिये गए अपने ऐतिहासिक भाषण में भी उन्होंने सार्वभौमिक भ्रातृभाव को सभी धर्मों का सार तत्त्व कहा था।
स्वामी विवेकानन्द सदैव मनुष्य को कर्मशील बने रहने के लिये प्रेरित करते थे। उनका मत था कि प्रत्येक मनुष्य को अपना कर्म पूरी शक्ति तथा एकाग्रता के साथ करना चाहिये। उनका एक प्रसिद्ध कथन है- ‘प्रत्येक कार्य में अपनी समस्त शक्ति का प्रयोग करो, सभी मरेंगे साधु या असाधु, धनी या दरिद्र, चिरकाल तक किसी का शरीर नहीं रहेगा। अतएव उठो, जागो और तब तक रूको नहीं जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए’।
निष्कर्षतः स्वामी विवेकानन्द वेदान्त के व्याख्याता एवं एक आध्यात्मिक गुरु थे परंतु उनके चिंतन में दलितों, महिलाओं व गरीबों के उत्थान तथा ‘कर्म की प्रधानता’ का विचार विशेष रूप से उपस्थित था।
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