भारतीय अर्थव्यवस्था
द बिग पिक्चर: कोऑपरेटिव आधारित आर्थिक विकास
- 16 Jul 2021
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चर्चा में क्यों?
देश भर में सहकारिता आंदोलन को मज़बूत करने के लिये हाल ही में एक नया ‘सहकारिता मंत्रालय’ का गठन किया गया है।
- नए मंत्रालय के माध्यम से सहकारी समितियों के लिये प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करने और 'सहकार से समृद्धि' के दृष्टिकोण को साकार करने में मदद मिलेगी।
प्रमुख बिंदु
- वैश्विक स्तर पर सहकारिता: अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के मुताबिक, सहकारिता व्यक्तियों का एक स्वायत्त संघ है, जो संयुक्त स्वामित्व वाले और लोकतांत्रिक रूप से नियंत्रित उद्यम के माध्यम से अपनी सामान्य सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये स्वेच्छा से एकजुट होते हैं।
- UNGA ने वर्ष 2012 को ‘अंतर्राष्ट्रीय सहकारिता वर्ष’ घोषित किया था।
- भारत एक कृषि प्रधान देश है और इसने विश्व के सबसे बड़े सहकारी आंदोलन की नींव रखी।
- भारत में सहकारिता की उत्पत्ति और प्रकृति: भारत में सहकारिता आंदोलन की उत्पत्ति के इतिहास को वर्ष 1904 में खोजा जा सकता है, लेकिन यह देश में वर्ष 1950 के आसपास ही प्रभावी हो सका।
- भारत में सहकारी समितियाँ वित्तीय से लेकर गैर-वित्तीय तक विभिन्न क्षेत्रों में फैली हुई हैं।
- नया सहकारिता मंत्रालय: सहकारिता से संबंधित इस अलग प्रशासनिक ढाँचे का प्रस्ताव केंद्रीय बजट 2021-22 में किया गया था।
- यह मंत्रालय ज़मीनी स्तर तक पहुँच प्राप्त कर एक सच्चे जन आधारित आंदोलन के रूप में सहकारिता को मज़बूत करने में मदद करेगा।
- यह मंत्रालय सहकारी समितियों हेतु 'ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस’ के लिये प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करने और बहु-राज्य सहकारी समितियों (MSCS) के विकास को सक्षम करने हेतु कार्य करेगा।
- यह ऐसे अन्य क्षेत्रों की पहचान करने में मदद करेगा, जहाँ सहकारी समितियाँ कार्य कर सकती हैं, जो मूल्य शृंखला में नीचे कार्यरत लोगों के लिये फायदेमंद होगा।
भारत और सहकारिता
- कानूनी समर्थन: सहकारी साख समिति अधिनियम, 1904 के अधिनियमन ने भारत में सहकारी समितियों को एक निश्चित संरचना और आकार प्रदान किया।
- 97वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2011 में निम्नलिखित संशोधन का प्रावधान शामिल है:
- इसने 'या यूनियन' शब्दों के बाद 'या सहकारी समितियाँ' शब्द सम्मिलित करके अनुच्छेद 19 (I) C में संशोधन किया।
- इसने संविधान के भाग IV (राज्य के नीति निदेशक तत्त्व) में अनुच्छेद 43B को शामिल किया, जिसके मुताबिक, राज्य सहकारी समितियों के स्वैच्छिक गठन, स्वायत्त कामकाज, लोकतांत्रिक नियंत्रण और पेशेवर प्रबंधन को बढ़ावा देने का प्रयास करेगा।
- इसने भारतीय संविधान में ‘सहकारी समितियाँ’ नाम से एक नया भाग IX-B (अनुच्छेद 243-ZH से 243-ZT) जोड़ा।
- 97वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2011 में निम्नलिखित संशोधन का प्रावधान शामिल है:
- सहकारी समितियों के प्रकार: भारत में 8.5 लाख सहकारी ऋण समितियाँ हैं, जिनमें कुल 28 करोड़ से अधिक सदस्य शामिल हैं। भारत में 55 प्रकार की सहकारी समितियाँ कार्य करती हैं, हालाँकि इसमें से केवल 7-8 प्रमुख श्रेणियाँ हैं।
- प्राथमिक दुग्ध सहकारी समितियाँ जिनकी संख्या लगभग 1,50,000 है।
- प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ (PACS) जिनकी संख्या 95,000 है।
- पहली दो श्रेणियों में लगभग 2.5 लाख सहकारी समितियाँ हैं, जो 100 प्रतिशत गाँवों और लगभग 75 प्रतिशत ग्रामीण आबादी को कवर करती हैं।
- लगभग 1,00,000 क्रेडिट सहकारी समितियाँ हैं जो 4 प्रकार की होती हैं:
- शहरी क्षेत्रों में कार्यरत्त समितियाँ।
- ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत्त समितियाँ लेकिन जो कृषि ऋण का वितरण नहीं करती है।
- विभिन्न कारखानों और वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों में श्रमिकों और कर्मचारियों हेतु सहकारी समितियांँ।
- महिला जीवन सहकारी क्रेडिट समितियांँ।
- मात्स्यिकी सहकारी समितियांँ जो बड़ी तटरेखा की तुलना में छोटी हैं तथा इनकी संख्या 15000 है।
- उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा राज्यों में लगभग 30,000-35,000 बुनकर सहकारी ऋण समितियांँ कार्यरत हैं।
- आवास सहकारी समितियाँ पूरे देश में पाई जाती हैं।
- स्वतंत्र रुप से कार्य करने वाली समितियांँ।
- वित्तीय क्षेत्र में सहकारिता: वित्तीय क्षेत्र में तीन प्रकार के सहकारी बैंक कार्य करते हैं:
- प्राथमिक शहरी सहकारी बैंक (Primary Urban Cooperative Banks) जो पूरी तरह से रिज़र्व बैंक द्वारा विनियमित होते हैं, इनकी संख्या करीब 1550 है।
- देश भर में लगभग 700 ज़िलों में लगभग 300 ज़िला केंद्रीय सहकारी बैंक (District Central Cooperative Banks) कार्यरत्त हैं।
- प्रत्येक राज्य में एक शीर्ष सहकारी बैंक (Apex Cooperative Bank) कार्य करता है।
संबंधित मुद्दे:
- बोर्ड संरचना: सहकारी बैंकों की बोर्ड संरचना को तुलनात्मक रूप से अधिक उत्तरदायित्त्व पूर्ण नहीं बनाया गया है। बोर्ड के लोगों को कई कार्यों हेतु जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता है।
- ग्रामीण क्षेत्र में सहकारी बैंक: नीति आयोग ( NITI Aayog) द्वारा प्रकाशित आंँकड़ों के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्र में आय का पैटर्न पूरी तरह से बदल गया है। कृषि क्षेत्र से प्राप्त होने वाली आय 35% है और शेष गैर-कृषि क्षेत्र से प्राप्त होती है।
- सहकारी बैंकों का वर्तमान मॉडल लगभग 50 साल पहले बनाया गया था, समय के साथ इसमें कई प्रकार के परिवर्तन किये गए परंतु वे न तो पर्याप्त हैं और न ही एक समान हैं, साथ ही वित्तीय संस्थानों को ग्रामीण क्षेत्रों में गतिविधियों का समर्थन करने हेतु पर्याप्त स्वतंत्रता नहीं है।
- दुग्ध उत्पादन: भारत का विश्व में दुग्ध उत्पादन में 22 प्रतिशत का योगदान है तथा विश्व में सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश है लेकिन डेयरी क्षेत्र का विकास बहुत विषम है। इस क्षेत्र में केवल पश्चिमी भारत का ही दबदबा है।
- मध्य, उत्तर और उत्तर-पूर्व भारत डेयरी क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान नहीं देता है।
- कानून: राज्य सहकारी कानून वर्तमान सामाजिक, आर्थिक स्थिति के अनुरूप नहीं हैं। उन्हें कुछ क्षेत्रों में पुनः लिखने या नवीनीकृत किये जाने की आवश्यकता है।
- पूंजी तक पहुंँच का अभाव: भारत में पूंजी तक पहुँच दुर्लभ है। सहकारी समितियों की पूंजी तक पहुंँच नहीं है और वे केवल शेयरधारकों पर निर्भर हैं।
- सहकारी आंदोलन के मुद्दे: सहकारी आंदोलन के उद्देश्यों, सहकारी संस्थाओं के नियमों और विनियमों के बारे में लोगों को अच्छी तरह से जानकारी नहीं है।
- सहकारिता आंदोलन को प्रशिक्षित कर्मियों की अपर्याप्तता का भी सामना करना पड़ा है।
आगे की राह
- कृषि-प्रसंस्करण को बढ़ावा: भारत में कृषि उत्पादों का प्रसंस्करण केवल कुछ वस्तुओं तक ही सीमित है।
- खाद्य प्रसंस्करण गतिविधि शुरू करने से कृषि उपज की शेल्फ लाइफ (Shelf Life) में वृद्धि होगी जिससे किसानों को लाभ होगा।
- खाद्य प्रसंस्करण (Food Processing) उद्योग के विकास से किसानों की आय दोगुनी की जा सकती है।
- सहकारी बैंकों के लिये नया व्यवसाय मॉडल: ग्रामीण क्षेत्र में कृषि से प्राप्त आय में गिरावट के कारण सहकारी बैंकों को कार्य करने के लिये एक नए व्यवसाय मॉडल की आवश्यकता है।
- डेयरी क्षेत्र में समग्र भागीदारी बढ़ाना: व्यवस्थित डेयरी क्षेत्र ग्रामीण आबादी को अधिकतम आय प्रदान कर सकता है।
- डेयरी क्षेत्र के लिये सहायक सेवाओं का समर्थन करने हेतु नीतियों की आवश्यकता है जैसे कि सुलभ पशु चिकित्सा सेवाएँ और बड़े पैमाने पर पशु चारा उत्पादन और उसे सस्ती दर पर प्रदान करना।
- पूंजी तक पहुँच: सहकारी बैंकों को सहकारी समितियों की विकास संबंधी ज़रूरतों के लिये पूंजी तक पहुँच प्रदान करना।
- सहकारिता को प्रोत्साहित करना: ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारिता का बहुत अधिक दबदबा है।
- दुग्ध सहकारी समितियों के अलावा अन्य सहकारी समितियाँ जैसे- बुनकर सहकारी समितियाँ और हस्तशिल्प सहकारी समितियाँ संचालित की जा सकती हैं। इससे किसानों की आय एवं ग्रामीण क्षेत्र की अर्थव्यवस्था में ज़बरदस्त वृद्धि की जा सकती है।
- शहरी क्षेत्र: इस क्षेत्र में ध्यान देने योग्य दो प्रमुख क्षेत्र हैं: प्रथम, शहरी क्षेत्रों में सहकारी समितियों के माध्यम से सामूहिक आवास सुनिश्चित कराना, क्योंकि बहुसंख्यक शहरी गरीब झुग्गी बस्तियों में रहते हैं।
- दूसरा, शहरी क्षेत्रों में उपभोक्ता सहकारी समितियांँ हैं। देश में विश्वसनीय कार्य करने वाला कोई और संस्था नहीं है।
- न केवल आवश्यक वस्तुओं की उचित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये उपभोक्ता सहकारी समितियों को मज़बूत करने की आवश्यकता है, बल्कि मुद्रास्फीति अधिक होने पर ये संतुलन क्षेत्र के रूप में भी कार्य कर सकती हैं।
- सहकारी समितियों के लिये ईओडीबी मानदंड: व्यवसाय करने में आसानी के लिये सभी प्रकार की वाणिज्यिक, विनिर्माण और सेवा गतिविधियों पर मानदंड लागू किये जा रहे हैं। सभी सहकारी समितियों को समान समर्थन दिया जाना चाहिये ताकि वे बिना किसी रुकावट के कार्य कर सकें।
- सहकारी नुकसान को कम करने के लिये नए मॉडल बनाने की आवश्यकता है।
- सहकारी समितियों के पूर्ण स्वामित्व वाली कंपनियों को बढ़ावा दिया जाएगा ताकि वे सहकारी क्षेत्र में धन का उपयोग कर सकें और अंततः यह क्षेत्र केवल सरकारी सहायता या उधार पर निर्भर न रहे।
निष्कर्ष:
- भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से शहरी क्षेत्रों और औद्योगीकरण पर निर्भर नहीं हो सकती है।
- ग्रामीण क्षेत्र की इसमें एक प्रमुख भूमिका है, साथ ही इसे सुगम बनाने के लिये सहकारी समितियों को एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। इसलिये ज़रूरी है कि इस सेक्टर को पहचाना मिले और इसे बढ़ावा दिया जाए।
- सहकारिता में अनियमितताएँ होती हैं, उन्हें रोकने के लिये नियम बनाकर सख्ती से लागू करना होगा।