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संसद टीवी संवाद


जैव विविधता और पर्यावरण

द बिग पिक्चर: कोविड महामारी के दौरान जैव-चिकित्सा अपशिष्ट प्रबंधन

  • 29 May 2021
  • 20 min read

चर्चा में क्यों ?

कोविड -19 महामारी की दूसरी लहर ने भारत के समक्ष कई चुनौतियों को प्रस्तुत किया है जबकि देश में पहले से ही स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और पर्यावरण को लेकर कई मोर्चों पर चुनौतियाँ विद्यमान हैं।

  • ऐसा ही प्रभाव कोविड के प्रकोप ने पर्यावरण पर डाला है, वह है जैव-चिकित्सा अपशिष्ट (Biomedical Waste) की मात्रा में तेज़ी से वृद्धि होना ।

प्रमुख बिंदु: 

  • एक चुनौती के रूप में कोविड: जैव-चिकित्सा अपशिष्ट से विभिन्न स्वास्थ्य और पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न होती हैं तथा यह एक व्यापक चुनौती है जो इस महामारी के समय हमारे समक्ष उत्पन्न हुई है।
    • यद्यपि चिकित्सा अपशिष्ट को अत्‍यधिक सावधानी से संभालने और सुरक्षित रूप से निपटान करने हेतु दिशा-निर्देश हैं, महामारी के कारण जैव-चिकित्सा अपशिष्ट की मात्रा में तेज़ी से हुई वृद्धि ने इस कार्य को अत्यधिक चुनौतीपूर्ण बना दिया है।
  • CPCB के अनुसार डेटा: केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (Central Pollution Control Board- CPCB) के अनुमान के अनुसार, मई 2021 के दौरान कोविड-19 से संबंधित जैव-चिकित्सा अपशिष्ट उत्पादन की औसत मात्रा लगभग 203 टन प्रतिदिन है।
    • जैव-चिकित्सा अपशिष्ट का अधिकतम उत्पादन लगभग 250 टन प्रतिदिन था।
      • वर्ष 2020 में पहली बार जैव-चिकित्सा अपशिष्ट का अधिकतम उत्पादन 180- 220 टन प्रतिदिन था।
    • इस 250 टन अपशिष्ट में केवल कोविड से संबंधित कचरा शामिल है।
      • भारत द्वारा प्रतिदिन उत्पन्न किये जाने वाले अधिकतम अपशिष्ट की कुल मात्रा 1000 टन है जिसमें सिर्फ 25 फीसदी कोविड से उत्पन्न होने वाले अपशिष्ट की मात्रा शामिल है।

जैव-चिकित्सा अपशिष्ट

  • परिभाषा: जैव-चिकित्सा अपशिष्ट को मानव और पशुओं के उपचार के दौरान उत्पन्न शारीरिक अपशिष्ट जैसे- सुई, सिरिंज तथा स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं में उपयोग की जाने वाली अन्य सामग्रियों के रूप में परिभाषित किया जाता है।
    • कोविड-19 से संबंधित जैव-चिकित्सा अपशिष्ट: व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (Personal Protective Equipment- PPE), दस्ताने, फेस मास्क, हेड कवर, प्लास्टिक कवर ऑल, सीरिंज और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं तथा रोगियों दोनों द्वारा उपयोग किये जाने वाले चिकित्सा उपकरण इत्यादि।
  • खतरनाक अपशिष्ट: जैव-चिकित्सा अपशिष्ट जैविक और रासायनिक दोनों ही प्रकार से खतरनाक अपशिष्ट होता है जो जैविक एवं सूक्ष्मजीवों से संदूषित या दूषित होता है।
    • इसमें विभिन्न प्रकार के रोगों को फैलाने की क्षमता होती है।
    • कोविड से संबंधित जैव-चिकित्सा अपशिष्ट में विभिन्न प्रकार की दवाएंँ भी शामिल हैं जो ज़हरीली प्रकृति की होती हैं।
  • जैव-चिकित्सा अपशिष्ट प्रबंधन हेतु प्रावधान: पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) द्वारा 'जैव-चिकित्सा अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016 (Biomedical Waste Management Rules, 2016) को अधिसूचित किया गया है।
    • इसके साथ ही जैव-चिकित्सा अपशिष्ट के प्रबंधन हेतु कॉमन बायोमेडिकल वेस्ट ट्रीटमेंट फैसिलिटी (Biomedical Waste Treatment Facility- CBWTF) नामक एक अन्य सुविधा भी है।
      • यह एक ऐसा सेट-अप है जिसमें सदस्यों की स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं से उत्पन्न जैव-चिकित्सा अपशिष्ट के मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों को कम करने हेतु आवश्यक उपचार प्रदान किया जाता है।
      • उपचारित पुनर्चक्रण योग्य अपशिष्ट को अंतत: सुरक्षित लैंडफिल (Landfill)  या पुनर्चक्रण हेतु निपटान के लिये भेजा जाता है।
      • कचरे के प्रबंधन हेतु भारत में लगभग ऐसी 200  सुविधाएंँ हैं।
    • भारत ने खतरनाक कचरे और उनके निपटान हेतु सीमा-पारीय आवागमन  को रोकने हेतु बेसल कन्वेंशन (Basel Convention) की भी पुष्टि की है।

जैव-चिकित्सा अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016: 

  • वर्ष 1998 में जैव-चिकित्सा अपशिष्ट प्रबंधन नियम को लागू किया गया था और तब से इसमें कई बार संशोधन हो चुके हैं।
    • नियमों में यह प्रावधान है कि जैव-चिकित्सा अपशिष्ट को ठीक से एकत्र, उपचारित और निपटाया जाएगा।
    • नियम के अनुसार, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (State Pollution Control Boards- SPCBs) और प्रदूषण नियंत्रण समितियों (Pollution Control Committees- PCCs) से एकत्र किये गए सभी डेटा को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को और अंत में इसे MoEFCC में जमा करना होगा।
    • वर्ष 2016 में नवीनतम प्रमुख संशोधन किया गया था।
      • वर्ष 2018 और वर्ष 2019 में कुछ और भी संशोधन किये गए जिनमें कंटेनरों की कलर कोडिंग (Colour Coding Of The Containers) शामिल थी।
  • इस नियमों का उद्देश्य देश भर में स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं (Healthcare Facilities-HCFs) से प्रतिदिन उत्पन्न होने वाले जैव-चिकित्सा अपशिष्ट का उचित प्रबंधन करना है।
  • वर्ष 2016 में नियमों में संशोधन के तहत टीकाकरण शिविर, रक्तदान शिविर, सर्जिकल शिविर या किसी अन्य स्वास्थ्य गतिविधि को शामिल करने हेतु पूर्व नियमों के दायरे का विस्तार किया गया है।
  • नियम, विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization- WHO) या राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन ( National AIDS Control Organisation- NACO) द्वारा निर्धारित किये गए तरीकों से अपशिष्ट उत्पन्न होने वाले स्थान पर ही कीटाणुशोधन या स्ट्रालाइज़ेशन (Disinfection or Sterilisation ) के माध्यम से प्रयोगशाला अपशिष्ट, सूक्ष्मजीव अपशिष्ट, रक्त के नमूने और रक्त बैग आदि को  उपचारित किया जाता है।
    • कचरे के पृथक्करण में सुधार हेतु जैव-चिकित्सा अपशिष्ट को पूर्व वर्गीकृत 10 श्रेणियों के अलावा 4 अन्य श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है।
    • पर्यावरण में प्रदूषकों के उत्सर्जन को कम करने के उद्देश्य से नियमों  को लागू करने हेतु अधिक कड़े मानकों को निर्धारित किया गया है।

बेसल कन्वेंशन:

  • 22 मार्च, 1989 का प्लेनिपोटेंटियरीज़ का सम्मेलन (Conference of Plenipotentiaries) जो बासेल (स्विट्ज़रलैंड)  में आयोजित हुआ था, के अंतर्गत  देशों के मध्य खतरनाक कचरे के आदान-प्रदान को रोकना और इसके निराकरण के प्रयास करना था। इसे बेसल  कन्वेंशन (Basel Convention)  के रूप में जाना जाता है और यह 1992 में लागू हुई।
    • यह एक अंतर्राष्ट्रीय संधि है जिसका लक्ष्य विभिन्न देशों के मध्य खतरनाक कचरे के आदान-प्रदान को रोकना है 
  • इसका मुख्य फोकस (केंद्र-बिंदु)  विकसित देशों और विकासशील देशों के मध्य खतरनाक कचरे के आयात-निर्यात को बाधित करना है।
    • यह संधि देशों के मध्य आपसी सहयोग एवं बासेल अभिसमय (Basel Convention) के निर्देशों के क्रियान्वयन संबंधी जानकारियों को साझा करने का भी आदेश देती है।
  • भारत बेसल कन्वेंशन का सदस्य है।
    • जून 1992 में भारत ने कन्वेंशन की पुष्टि की तथा 22 सितंबर 1992 से लागू किया।
    • हालांकि भारत द्वारा बेसल बैन संशोधन (Basel Ban Amendment की पुष्टि नहीं की गई है।
      • वर्ष 1995 में बेसल कन्वेंशन में पार्टियों द्वारा बेसल बैन संशोधन, को अपनाया गया जो आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (Economic Cooperation and Development- OECD) के 29 सबसे अमीर देशों से गैर-आर्थिक सहयोग और विकास संगठन देशों को इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट तथा पुराने पानी के जहाज़ों सहित खतरनाक अपशिष्ट के सभी प्रकार के निर्यात को प्रतिबंधित करता है। 

जैव-चिकित्सा अपशिष्ट प्रबंधन की  चुनौतियांँ:

  • घरों से उत्पन्न होने वाले अपशिष्ट की बड़ी मात्रा: कोविड से संबंधित जैव-चिकित्सा  अपशिष्ट न केवल अस्पतालों में बल्कि घरों में भी उत्पन्न होता है। केवल 20% रोगियों को अस्पताल जाना पड़ा।
    • कोविड के 80% रोगी घर पर ठीक हो रहे हैं / ठीक हो गए हैं।
      • जहाँ रोगियों का सही से  इलाज नहीं किया जा सकता है उन स्थानों पर जैव-चिकित्सा अपशिष्ट उत्पन्न होता है।
      • घरों से उत्पन्न होने वाले जैव-चिकित्सा अपशिष्ट के प्रबंधन की समुचित व्यवस्था नहीं है। इसे नगर निगम के सामान्य कचरे में ही डाला जा रहा है।
  • स्थानीय अस्पतालों के साथ मुद्दे: हालांँकि भारत में अपशिष्ट की एक बड़ी मात्रा के प्रबंधन की सुविधा है, परंतु इस अपशिष्ट की बड़ी मात्रा घरों और प्रांतीय एवं  स्थानीय स्तर के अस्पतालों से निकलती है जिससे अपशिष्ट कचरे का प्रबंधन सही तरीके से नहीं रहा है।
    • इन स्थानीय अस्पतालों में बुनियादी ढांँचे और अन्य अद्यतन सुविधाओं का अभाव पाया जाता हैं अत: इनमें उचित जैव चिकित्सा अपशिष्ट प्रबंधन सुविधाएंँ नहीं हैं।
  • म्युनिसिपल/नगरपालिका कर्मचारियों को जोखिम: चूंँकि घर पर बड़ी मात्रा में कोविड कचरा उत्पन्न हो रहा है, जो अग्रिम पंक्ति के म्युनिसिपल कर्मचारियों के लिये खतरा बना हुआ है।
    • डेटा से पता चलता है कि महामारी के मध्य ये कर्मचारी भी बड़े पैमाने पर प्रभावित हुए हैं, उनमें से बहुतों की मृत्यु भी हुई है।
    • इन लोगों में यह वायरस श्वसन लेने के दौरान निकलने वाली बूंदों, एरोसोल या किसी संक्रमित सतह को छूने से संचरित हुआ होगा।
      • हालांँकि जैव-चिकित्सा अपशिष्ट के खराब प्रबंधन पर कम ध्यान दिया जाता है, बड़ी संख्या में लोग विशेष रूप से म्युनिसिपल कर्मचारी खुले में फेंके गए कचरे के संपर्क में आने से संक्रमित हो रहे हैं।
  • जागरूकता की कमी: लोगों को यह भी पता नहीं है कि स्रोत पर ही कचरे को किस प्रकार से  अलग किया जाना चाहिये और यह एक बड़ी चिंता का विषय है।
  • अपशिष्ट प्रबंधन नियमों के साथ समस्या:  जैव-अपशिष्ट के निपटान से संबंधित कानूनी प्रावधान केवल अस्पतालों से ही संबंधित हैं।
    • प्रावधान इस बारे में कोई जानकारी नहीं देते हैं कि इस तरह के अपशिष्ट को घर पर या अस्पतालों के अलावा किसी अन्य स्थान पर कैसे प्रबंधित किया जाए।
  • CBWTF का असमान वितरण: देश में लगभग 200 सामान्य जैव-चिकित्सा अपशिष्ट उपचार सुविधाएंँ (Common Biomedical Waste Treatment Facilities- CBWTF) उपलब्ध हैं, लेकिन वे केवल कुछ शहरों / ज़िलों जैसे मुंबई या दिल्ली में स्थित हैं।
    • हालांँकि देश के दूर-दराज़ के इलाकों में इलाज की ऐसी कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है।
    • महाराष्ट्र में ऐसी सुविधाओं की संख्या सबसे अधिक (29), उसके बाद कर्नाटक (26) और गुजरात (20) का स्थान है। केरल, जिसने दैनिक उत्पादन की उच्चतम दर देखी  है, वहाँ केवल एक ही CBWTF उपलब्ध है।
  • सटीक डेटा की कमी:  महामारी की पहली लहर के दौरान CPCB द्वारा तीव्रता के साथ जैव-चिकित्सा अपशिष्ट उत्पादन पर डेटा एकत्र करने हेतु स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी किये गए तथा एक मोबाइल एप विकसित किया गया।
    • लेकिन दूसरी लहर का असर इतना बुरा या ख़राब रहा है कि अस्पतालों द्वारा अपना कोई भी डेटा अपलोड नहीं किया जा रहा है।
    • साथ ही इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिये कि दूसरी लहर ने भारत को बुरी तरह से प्रभावित किया है, कोविड से संबंधित उत्पन्न होने वाले  जैव- चिकित्सा अपशिष्ट 250 टन (शायद लगभग 500 टन) से बहुत अधिक होना चाहिये था क्योंकि पहली लहर में दैनिक जैव चिकित्सा अपशिष्ट उत्पादन  प्रतिदिन 200 टन था।

आगे की राह:  

  • अपशिष्ट का विवेकपूर्ण प्रबंधन: जैव-चिकित्सा अपशिष्ट से पर्यावरण के दूषित होने मुख्य रूप से पानी के प्रदूषित होने से बीमारी फैलने की संभावना बहुत अधिक होती है।
    • उत्पन्न जैव-चिकित्सा अपशिष्ट को एकत्र कर ठीक से उपचारित किया जाना चाहिये तथा इसे जल निकायों तक पहुँचने से रोकना चाहिये क्योंकि जल निकायों तक पहुचने पर इसे संभालने की बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न होगी।
    • उत्पन्न जैव-चिकित्सा अपशिष्ट को या तो भस्म कर दिया जाना चाहिये या फिर इसे गैसीकृत किया जाना चाहिये।
    • उत्पन्न जैव-चिकित्सा अपशिष्ट के प्रबंधन के साथ-साथ पर्यावरण का भी ध्यान रखा जाना चाहिये।
      • अपशिष्ट का प्रबंधन इतने विवेकपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिये जिससे यह जलवायु परिवर्तन को प्रतिकूल रूप से प्रभवित न करे या किसी अन्य नुकसान को बढ़ावा न दे।
  • राज्य एजेंसियों की भूमिका: उच्च अधिकारियों को डेटा प्रदान करने हेतु ज़िम्मेदार राज्य एजेंसियों को यह सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण  भूमिका निभानी होगी कि डेटा छूट न जाए और CPCB को कोई गलत डेटा अग्रेषित न हो।
  • लोगों के मध्य जागरूकता: अपशिष्ट का पृथक्करण और प्रबंधन राज्य एजेंसियों द्वारा कलर कोडिंग से किया जाता है जैसे- लाल रंग के कंटेनर का अर्थ है कि जैव चिकित्सा अपशिष्ट अत्यधिक खतरनाक है।
    • इसलिए लोगों को भी इन कलर कोडिंग के बारे में पता होना चाहिये क्योंकि प्रत्येक रंग या कलर जैव-चिकित्सा अपशिष्ट के खतरे के स्तर का प्रतिनिधित्व करता है।
    • अगर लोगों के मध्य इस प्रकार की बुनियादी चीजों के बारे में जानकारी होगी तो वे खुद को ऐसे खतरनाक अपशिष्टों से दूर रखने के बारे में ज़्यादा सतर्क रहेंगे।
    • लोगों को यह भी समझना चाहिये कि भले ही वे संक्रमित नहीं  हैं फिर भी उन्हें अपने मास्क और दस्ताने उसी नगरपालिका के डिब्बे में नहीं डालने चाहिये जो उनके पास हैं; कचरे का पृथक्करण बेहद ज़रूरी है।
    • लोगों को संक्रमण को नियंत्रित करने हेतु न केवल WHO बल्कि अन्य विभिन्न स्वास्थ्य एजेंसियों द्वारा ज़ारी SOPs का भी पालन करना होगा।
  • घर पर अपशिष्ट प्रबंधन हेतु SOPs: CPCB द्वारा ग्रामीण और शहरी समुदायों हेतु घर पर ही जैव-चिकित्सा अपशिष्ट के प्रबंधन हेतु SOPs की व्यवस्था की गई है।
    • जबकि शहरी क्षेत्रों में जैव-चिकित्सा अपशिष्ट को जलाना एक विकल्प नहीं है क्योंकि शहरी क्षेत्रों में प्रदूषण का स्तर पहले से ही अधिक है, जैव-चिकित्सा अपशिष्ट को गड्ढों में जलाना ग्रामीण क्षेत्रों में कचरे के प्रबंधन का एक संभावित तरीका हो सकता है।

निष्कर्ष: 

  • जैव-चिकित्सा अपशिष्ट प्रबंधन का अंतिम लक्ष्य इस कचरे से होने वाली पर्यावरणीय क्षति को कम करना है। स्वस्थ जीवन के लिये एक स्वस्थ वातावरण आवश्यक है।
    • जैव-चिकित्सा अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016 के प्रावधानों के अनुसार कोविड से संबंधित जैव-चिकित्सा अपशिष्ट का वैज्ञानिक तरीके से निस्तारण किया जाना चाहिये है।
  • जागरूकता अभियान समय की जरूरत है जिसके माध्यम से ही हम उन सभी चुनौतियों का सामना कर सकते हैं जो महामारी ने हमारे समक्ष प्रस्तुत की हैं।
    • सरकार इस अपशिष्ट को घरों  या किसी अन्य स्थान पर प्रबंधित करने हेतु  आम लोगों के साथ-साथ नगर पालिका कर्मचारियों के लिये SOPs को पेश करेगी ताकि नुकसान से बचा जा सके।
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