द बिग पिक्चर: सुलभ और सस्ती न्यायिक प्रणाली | 13 Mar 2021
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के उपराष्ट्रपति ने संपूर्ण न्यायिक प्रणाली को आम आदमी के लिये अधिक सुलभ, किफायती और समझने योग्य बनाने के संबंध में अपने विचार व्यक्त किये हैं।
- उन्होंने कहा कि न्याय पाने में “अत्यधिक देरी, कानूनी प्रक्रियाओं की लागत और अनुपलब्धता जैसे कारण आम आदमी तक न्याय की प्रभावी प्रदायगी को बाधित कर रहे हैं।
प्रमुख बिंदु
- समान न्याय: अनुच्छेद 39 (A) के तहत राज्य के नीति निदेशक तत्त्व (Directive Principles of State Policy- DPSP) में सुगम्य और सस्ती न्याय व्यवस्था सुनिश्चित की गई है।
- हालाँकि विभिन्न संरचनात्मक और क्रमबद्ध चुनौतियों के कारण इस उद्देश्य को पूरा करने की आकांक्षा धुँधली दिखती है।
- लंबित मामलों की उच्च संख्या: भारत के विभिन्न न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या लगभग 3.7 करोड़ है, इस प्रकार एक बेहतर और उन्नत न्यायिक प्रणाली की आवश्यकता है।
- लंबित मामलों के संदर्भ में: वर्ष 2010 में न्यायमूर्ति वीबी राव (आंध्र प्रदेश HC) ने विभिन्न न्यायालयों में 31.28 मिलियन (3.12 करोड़) लंबित मामलों (तब के लंबित मामलों की दर) के बैकलॉग (Backlog) को हटाने में 320 वर्ष लगने का अनुमान लगाया।
- राष्ट्रीय न्यायालय प्रबंधन (National Court Management) ने वर्ष 2012 में सर्वोच्च न्यायालय की एक रिपोर्ट में लंबित मामलों की पेंडेंसी (Pendency of Cases) और न्यायाधीशों की रिक्ति के आँकड़ों का अध्ययन किया।
- इससे पता चला कि पिछले 3 दशकों में मामलों की संख्या में 12 गुना वृद्धि हुई, जबकि न्यायाधीशों की संख्या में केवल 6 गुना वृद्धि हुई।
- राष्ट्रीय न्यायालय प्रबंधन (National Court Management) ने वर्ष 2012 में सर्वोच्च न्यायालय की एक रिपोर्ट में लंबित मामलों की पेंडेंसी (Pendency of Cases) और न्यायाधीशों की रिक्ति के आँकड़ों का अध्ययन किया।
- विस्तारीकरण गैप: न्यायाधीशों और मामलों की संख्या के बीच अंतर बढ़ता जा रहा है।
- अगले 3 दशकों में ऐसे मामलों की संख्या बढ़कर लगभग 15 करोड़ होने की संभावना है, जिसके लिये लगभग 75000 न्यायाधीशों की आवश्यकता होगी।
- वास्तव में वर्तमान में 25 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की संख्या 1200 से कम है।
- अगले 3 दशकों में ऐसे मामलों की संख्या बढ़कर लगभग 15 करोड़ होने की संभावना है, जिसके लिये लगभग 75000 न्यायाधीशों की आवश्यकता होगी।
अनुच्छेद 39 (A)
- संविधान का अनुच्छेद 39 (A) राज्य को यह सुनिश्चित करने का निर्देश देता है कि कानूनी व्यवस्था का संचालन समान अवसर के आधार पर न्याय को बढ़ावा देना है और विशेष रूप से उपयुक्त कानून, योजनाओं या किसी अन्य तरीके से मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करेगा।
भारत की कमज़ोर न्यायिक प्रणाली
- न्यायाधीशों व जनसंख्या का अनुपात: देश में न्यायाधीशों और जनसंख्या का अनुपात बहुत सराहनीय नहीं है।
- अन्य देशों में प्रति मिलियन लोगों के अनुपात में लगभग 50-70 तक न्यायाधीश हैं, जबकि भारत में प्रति मिलियन लोगों के अनुपात में 20 न्यायाधीश हैं।
- हालाँकि पूर्व में प्रति मिलियन लोगों पर 12 न्यायाधीशों की वृद्धि हुई है, जो सस्ती और सुलभ न्याय प्रणाली के लिये पर्याप्त नहीं है।
- प्रौद्योगिकी का समावेश: महामारी के बाद से ही न्यायालयों की कार्यवाही वर्चुअल आधार पर होने लगी है, जबकि पहले न्यायपालिका के मामले में प्रौद्योगिकी की बहुत बड़ी भूमिका नहीं थी।
- नियुक्ति में देरी: न्यायपालिका में पदों को आवश्यकतानुसार त्वरित नहीं भरा जाता है।
- भारत 135 मिलियन से अधिक की आबादी वाला देश है और यहाँ न्यायाधीशों की कुल संख्या लगभग 25000 है।
- उच्च न्यायालयों में लगभग 400 पद (40%) रिक्त हैं।
- निचली अदालतें में लगभग 35% पद रिक्त हैं।
- हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय में रिक्तियाँ बहुत अधिक नहीं हैं। वहाँ इनकी कुल संख्या केवल 2-3 रिक्तियों के साथ 34 है।
- भारत 135 मिलियन से अधिक की आबादी वाला देश है और यहाँ न्यायाधीशों की कुल संख्या लगभग 25000 है।
- प्रक्रियात्मक विलंब: बार-बार न्यायालयों द्वारा बार के स्थगन (Adjournments) के कारण न्याय में अनावश्यक देरी होती है।
- उच्च न्यायपालिका के लिये कॉलेजियम द्वारा सिफारिशों में देरी के कारण न्यायिक नियुक्ति की प्रक्रिया में देरी हो रही है।
- निचली अदालतों के लिये राज्य आयोग/उच्च न्यायालयों द्वारा की गई भर्ती में देरी भी खराब न्यायिक प्रणाली का एक कारण है।
संबंधित चुनौतियाँ
- अधिक जागरूकता, अधिक मामले: जहाँ तक नागरिकों में उनके अधिकारों और कानूनों के बारे में जागरूकता बढ़ाने की बात है, यह निस्संदेह बहुत आवश्यक और प्रशंसनीय है लेकिन अधिकारों के बारे में अधिक जानकारी होने का अर्थ है मामलों की संख्या में वृद्धि।
- बढ़ती जागरूकता को हतोत्साहित नहीं किया जा सकता है लेकिन बढ़ते मामलों से कुशलतापूर्वक निपटा जाना चाहिये।
- कानूनों का अतिव्याप्ति: भारत में केंद्रीय और राज्य स्तर पर कई कानून मौजूद हैं, जो प्रकृति में काफी समान हैं।
- यह फूहड़पन (Clumsiness) और अराजकता की स्थिति पैदा करता है, इन कानूनों को संहिताबद्ध किया जाना चाहिये और जो निरर्थक है उसे निरस्त किया जाना चाहिये।
- यदि कानून को सरल भाषा में प्रारूपित किया जाता है, तो संभवत: कराधान मामले से संबंधित, विशेष रूप से न्यायालय में दायर किये जाने वाले मामलों की संख्या को भी कम किया जा सकता है।
- मूल्यांकन का अभाव: जब एक नया कानून बनता है, तो सरकार द्वारा न्यायपालिका पर कितना बोझ डाला जाना है, इसका कोई न्यायिक प्रभाव आकलन नहीं है।
- इसकी वजह से मुकदमों की संख्या में वृद्धि की संभावना या अधिक न्यायाधीशों की आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
आगे की राह
- नियुक्ति प्रणाली को व्यवस्थित करना: रिक्तियों को बिना किसी अनावश्यक विलंब के भरा जाना चाहिये।
- न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये एक उचित समय-सीमा निर्धारित की जानी चाहिये और इसके लिये अग्रिम में सिफारिशें दी जानी चाहिये।
- संविधान में अखिल भारतीय न्यायिक सेवा एक महत्त्वपूर्ण कारक है जो निश्चित रूप से भारत में एक बेहतर न्यायिक प्रणाली स्थापित करने में मदद कर सकता है।
- प्रौद्योगिकियों का उपयोग: लोग अपने अधिकारों के बारे में अधिक-से-अधिक जागरूक हो रहे हैं और यही कारण है कि अदालत में दायर मामलों की संख्या भी बढ़ रही है।
- इससे निपटने के लिये न्यायिक अधिकारियों को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है, न्यायाधीशों के रिक्त पदों को शीघ्रता से भरा जाना चाहिये, इसके अलावा प्रौद्योगिकी का उपयोग विशेष रूप से कृत्रिम बुद्धिमत्ता को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- विवाद समाधान: न्यायिक प्रणाली पर लोगों का विश्वास बनाए रखने के लिये कम समय-सीमा के भीतर विवादों का निपटारा करना महत्त्वपूर्ण है।
- देर से न्याय मिलने के कारण न्याय प्रणाली पर विश्वास खत्म होता जा रहा है।
- न्यायालय से बाहर समझौता: हर मामले को न्यायालय परिसर के भीतर हल करना अनिवार्य नहीं है, अन्य संभावित प्रणालियों को भी एक्सेस किया जाना चाहिये।
- वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र को बढ़ावा देने की भी आवश्यकता है जिसके लिये मध्यस्थता और सुलह अधिनियम में तीन बार संशोधन किया गया है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि लोग वाणिज्यिक मुकदमेबाज़ी मोड के आधार पर मामलों को मध्यस्थता, सुलह या मध्यस्थता द्वारा सुलझा सकें।
- स्थानीय भाषाओं का उपयोग: संपूर्ण न्यायिक प्रणाली को आम आदमी के लिये और अधिक समझने योग्य बनाने हेतु न्यायालयों में स्थानीय भाषाओं का उपयोग करना एक तरीका हो सकता है।
- न्यायालय में स्थानीय भाषाओं के उपयोग से आम आदमी को कानून, न्यायालयी कार्यवाही के तहत सुनवाई और अपने अधिकारों की बेहतर समझ होगी।
- न्यायालय में स्थानीय भाषाएँ ज़िला स्तर तक पहले से ही अनुमन्य हैं। कुछ उच्च न्यायालयों में भी स्थानीय भाषाओं में कार्य किया जाता है।
अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS):
- AIJS के संबंध में:
- सरकार, प्रवेश परीक्षा के माध्यम से अधीनस्थ न्यायालयों हेतु अधिकारियों की भर्ती के लिये एक अखिल भारतीय न्यायिक सेवा की स्थापना हेतु एक विधेयक को अंतिम रूप देने की प्रक्रिया में है।
- अखिल भारतीय परीक्षण हेतु मंज़ूरी देने वालों को उच्च न्यायालयों और राज्य सरकारों द्वारा नियुक्त किया जाएगा।
- AIJS परीक्षा चार ज़ोन्स पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में आयोजित की जाएगी।
- संवैधानिक प्रावधान:
- वर्ष 1976 में 42वें संशोधन के माध्यम से AIJS के प्रावधान को संविधान के अनुच्छेद 312 में शामिल किया गया था।
- पृष्ठभूमि:
- यह कदम वर्तमान UPSC परीक्षा पैटर्न के अनुरूप है, जहाँ इस तरह की परीक्षाएँ कई भाषाओं में आयोजित की जाती हैं।
- भाषा: सरकार ने 22 भाषाओं में AIJS परीक्षा आयोजित करने की योजना बनाई है।
- संबंधित समस्या:
- चूंकि निचली अदालतों में मामलों का निर्णय स्थानीय भाषाओं में किये जाने का तर्क दिया जाता है, इसलिये ऐसी आशंकाएँ हैं कि किसी विशेष राज्य का व्यक्ति किसी अन्य राज्य में सुनवाई कैसे कर सकता है जहाँ पूरी तरह से अलग भाषा है।
- लेकिन सरकार का विचार है कि IAS और IPS अधिकारियों ने भाषा की बाधा को पार करते हुए विभिन्न राज्यों में सेवा प्रदान की है।
निष्कर्ष
- एक बढ़िया न्यायिक प्रणाली (Sound Judicial System) वह है जो एक वस्तुनिष्ठ जाँच, साक्ष्य के निष्पक्ष विश्लेषण और सभी नागरिकों को समान रूप से न्याय प्रदान करने पर आधारित है।
- सरकार को मामलों की पेंडेंसी कम करने के लिये कठोर और तेज़ी से कार्रवाई करनी चाहिये क्योंकि न्याय में देरी न्याय से वंचित रहने के समान ही है।