प्रारंभिक परीक्षा
पाल-दाधवाव नरसंहार
- 10 Mar 2022
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हाल ही में गुजरात सरकार ने पाल-दाधवाव नरसंहार के 100 साल पूरे कर लिये, इसे जलियाँवाला बाग से भी बड़ा नरसंहार बताया गया है।
- नरसंहार की शताब्दी पर गुजरात सरकार की एक विज्ञप्ति ने इस घटना को वर्ष 1919 के जलियाँवाला बाग हत्याकांड से भी अधिक क्रूर बताया।
- इससे पहले बिहार के मुख्यमंत्री ने घोषणा की कि 90 साल पहले बिहार के मुंगेर ज़िले के तारापुर शहर (अब उपखंड) में पुलिस द्वारा मारे गए 34 स्वतंत्रता सेनानियों की याद में 15 फरवरी को "शहीद दिवस" के रूप में मनाया जाएगा।
पाल-दाधवाव नरसंहार:
- पाल-दाधवाव हत्याकांड 7 मार्च, 1922 को साबरकांठा ज़िले के पाल-चितरिया और दधवाव गाँव में हुआ था, जो उस समय इदर राज्य (अब गुजरात) का हिस्सा था।
- उस दिन आमलकी एकादशी थी, जो आदिवासियों का एक प्रमुख त्योहार है जो होली से ठीक पहले मनाया जाता है।
- मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में 'एकी आंदोलन' के हिस्से के रूप में पाल, दाधवाव और चितरिया के ग्रामीण वारिस नदी के तट पर एकत्र हुए थे।
- राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र के कोलियारी गाँव के रहने वाले तेजावत ने भी इसमें भाग लेने के लिये कोटड़ा छावनी, सिरोही और दांता के भीलों को बुलाया था।
- विरोध का असर विजयनगर, दाधवाव, पोशिना और खेड़ब्रह्मा में महसूस किया गया जो अब साबरकांठा के तालुका हैं; अरावली ज़िले के बनासकांठा और दंता तथा राजस्थान के कोटड़ा छावनी, डूंगरपुर, चित्तौड़, सिरोही, बांसवाड़ा और उदयपुर, ये सभी उस समय की रियासतें थीं।
- यह आंदोलन अंग्रेजों और सामंतों द्वारा किसानों पर लगाए गए भू-राजस्व कर (लगान) के विरोध में था।
- तेजावत की तलाश में ब्रिटिश अर्द्ध-सैनिक बल लगा हुआ था। उसने इस सभा के बारे में सुना और मौके पर पहुँच गया।
- तेजावत के नेतृत्व में लगभग 200 भीलों ने अपने धनुष-बाण उठा लिये लेकिन अंग्रेज़ों ने उन पर गोलियाँ चला दीं और लगभग 1,000 आदिवासियों (भील) को गोलियों से भून दिया गया।
- जबकि अंग्रेज़ों ने दावा किया कि कुल 22 लोग मारे गए लेकिन भीलों का मानना है कि इसमें 1,200-1,500 लोग मारे गए।
- तेजावत, हालाँकि बच गए और आज़ादी के बाद उन्होंने इस जगह का नाम “विरुभूमि” रखा।
मोतीलाल तेजावत
- एक आदिवासी बहुल कोलियारी गाँव में व्यापारी (बनिया) परिवार में जन्मे तेजावत को एक ज़मींदार ने काम पर रखा था, जहाँ उन्होंने आठ साल तक काम किया।
- इस दौरान उन्होंने महसूस किया कि कैसे ज़मींदार आदिवासियों का शोषण करते हैं और टैक्स नहीं देने पर उन्हें जूतों से पीटने की धमकी देते हैं।
- आदिवासियों के अत्याचार और शोषण से नाराज़ तेजावत ने वर्ष 1920 में नौकरी छोड़ दी और खुद को सामाजिक कार्य एवं सुधार के लिये समर्पित कर दिया। आज भी स्थानीय पाल-दाधवाव हत्याकांड को शादियों और मेलों में गाए जाने वाले गीतों के रूप में सुनाते हैं। ऐसा ही एक गाना है 'हंसु दुखी, दुनिया दुखी'।
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