अंतर्राष्ट्रीय संबंध
तुर्की का झुकाव रूस की ओर
- 19 Jul 2019
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इस Editorial में The Hindu, Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण शामिल है। इस आलेख में तुर्की के साथ रूस के सुधरते संबंध और इसके कारकों की चर्चा कि गई है तथा आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
वर्ष 2015 में ऐसा माना जा रहा था कि रूस एवं तुर्की के मध्य सैन्य संघर्ष हो सकता है तथा इन देशों के मध्य पहले से उपस्थित तनाव में तीव्र वृद्धि हो सकती है। इसका कारण रूस एवं तुर्की की सीरिया को लेकर प्रतिद्वंद्विता थी। इसी दौरान तुर्की द्वारा सीरिया की सीमा पर रूस के एक लड़ाकू एयरक्राफ्ट को मार दिया गया था, इस घटना के चलते तुर्की एवं रूस के मध्य पहले से ही बढ़ी हुई कड़वाहट के और बढ़ने का अंदेशा लगाया गया। किंतु रूस ने इस घटना का जवाब नहीं दिया तथा वह सीरिया की असद सरकार को बनाए रखने तथा मध्य एशिया क्षेत्र में अपनी स्थिति को मज़बूत करने के लिये प्रयास करता रहा। रूस की योजना तुर्की पर हमला करने के बजाय कुछ अधिक प्राप्त करने की थी। रूस की इस योजना को क्षेत्र की भू-सामरिक स्थिति तथा नाटो गठबंधन में उपस्थित तनाव विशेष रूप से अमेरिका-तुर्की संबंधों की खटास का भी सहयोग मिला। वर्तमान में तुर्की विभिन्न चुनौतियों को दरकिनार करते हुए रूस से अत्याधुनिक मिसाइल रक्षा प्रणाली S-400 खरीद रहा है। यह रक्षा सौदा रूस-नाटो-तुर्की संबंधों के दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है, साथ ही यह सौदा तुर्की की बदलती नीति तथा रूस की ओर उसके झुकाव को प्रदर्शित कर रहा है।
तुर्की का महत्त्व
मध्यकालीन यूरोप एवं एशिया में ओटोमन साम्राज्य विश्व की कुछ महत्त्वपूर्ण शक्तियों में से एक था। प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् साम्राज्य का विभाजन हो गया तथा तुर्की इस साम्राज्य का उत्तराधिकारी बनकर उभरा। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् जब विश्व दो ध्रुवों में विभाजित हो गया तो तुर्की अमेरिकी गुट में शामिल हो गया। साथ ही तुर्की वर्ष 1952 में नाटो (NATO) में भी शामिल हो गया। संपूर्ण शीत युद्ध के दौरान तुर्की नाटो के लिये महत्त्वपूर्ण बना रहा। तुर्की की अवस्थिति भू-सामरिक दृष्टिकोण से सबसे महत्त्वपूर्ण है जिसका उपयोग शीत युद्ध में सोवियत रूस के विरुद्ध नाटो देशों द्वारा किया जाता रहा। तुर्की, दक्षिणी यूरोप, मध्य एशिया तथा पश्चिम एशिया के मध्य में अवस्थित है।
एस-400 समझौता (रूस-तुर्की)
रूस के साथ तुर्की का यह मिसाइल रक्षा प्रणाली समझौता विभिन्न चुनौतियों के बावज़ूद संपन्न हुआ है। एस-400 उन्नत तकनीक पर आधारित रक्षा प्रणाली है, यह प्रणाली लगभग 400 किमी. के वायु क्षेत्र को किसी भी हवाई खतरे या हमले से बचाव करने में सक्षम है। इस प्रणाली की सटीकता विभिन्न देशों के लिये आकर्षण का मुख्य केंद्र है, इसी बात को ध्यान में रखकर भारत एवं चीन पहले ही रूस से इस रक्षा प्रणाली को खरीदने के लिये समझौता कर चुके हैं।
अमेरिका एवं अन्य नाटो सहयोगियों ने इस समझौते पर कड़ी आपत्ति व्यक्त की है। यह ध्यान देने योग्य है कि नाटो की स्थापना सोवियत रूस के विरुद्ध की गई थी और तुर्की अभी भी नाटो का सदस्य देश है, ऐसे में किसी नाटो सदस्य की वायु रक्षा प्रणाली रूस पर निर्भर हो, नाटो के लिये गंभीर खतरों को जन्म दे सकता है। इसके साथ ही कुछ तकनीकी समस्याएँ भी हैं। तुर्की ने अमेरिका के नवीनतम एयरक्राफ्ट F-35 जो स्टेल्थ तकनीक (दुश्मन के रडार से बचने में सक्षम) पर आधारित है, को खरीदने का आर्डर दिया है। इसके चलते S-400 रक्षा प्रणाली अमेरिकी एयरक्राफ्ट की तकनीक के लिये खतरे उत्पन्न कर सकती है।
अमेरिका ने तुर्की पर दबाव बनाने के लिये पहले ही तुर्की के पायलटों का प्रशिक्षण प्रोग्राम निलंबित कर दिया है। साथ ही अमेरिका, तुर्की पर प्रतिबंध लगाने के बारे में भी विचार कर सकता है। इसके बावजूद तुर्की इस समझौते पर बना हुआ है।
अमेरिका-तुर्की संबंधों में दरार
अमेरिका एवं तुर्की के संबंध ऐतिहासिक रूप से मित्रवत रहे हैं। तुर्की 50 के दशक से नाटो में शामिल है, तो वहीं अमेरिका नाटो का नेतृत्वकर्त्ता है। इसके अतिरिक्त तुर्की में अमेरिका का एयरबेस भी मौजूद है। अमेरिका-तुर्की रक्षा से जुड़ी कई परियोजनाओं पर भी एक साथ कार्य कर रहे हैं। इसके बावजूद अमेरिका एवं तुर्की के संबंधों में दरार आई है। इसका आरंभ वर्ष 2003 के इराक युद्ध से माना जाता है। वर्ष 2003 में आतंकवाद एवं अन्य मुद्दों पर अमेरिका एवं उसके सहयोगी देशों ने इराक की सद्दाम हुसैन सरकार के विरुद्ध सैनिक करेवाई कर दी थी। अमेरिका, इराक में सैनिक भेजने के लिये तुर्की के भू-क्षेत्र का उपयोग करना चाहता था किंतु तुर्की ने इनकार कर दिया। अरब स्प्रिंग के दौर में जब सीरिया की असद सरकार के विरुद्ध विद्रोहियों ने विद्रोह कर दिया तब तुर्की ने अमेरिका से विद्रोहियों की ओर से हस्तक्षेप कर असद सरकार को उखाड़ फेंकने का आग्रह किया। इस आग्रह को तत्कालीन ओबामा प्रशासन द्वारा नामंज़ूर कर दिया गया था।
इसके अतिरिक्त तुर्की एवं अमेरिका के मध्य संबंधों में दरार के कुछ अन्य कारण भी हैं जैसे- वर्ष 2016 में तुर्की की एरदोगन (Erdogan) सरकार का तख्तापलट करने का असफल प्रयास किया गया था। इसके लिये एरदोगन सरकार अमेरिका में रहने वाले तुर्किश धर्मगुरु फतुल्लाह गुलेन (Fethullah Gulen) को ज़िम्मेदार मानती है तथा तुर्की गुलेन के प्रत्यर्पण की मांग करता रहा है जिसे अमेरिका ने अस्वीकार कर दिया है।
तुर्की, अमेरिका से पेट्रियट मिसाइल सुरक्षा प्रणाली (Patriot Missile Defence System) खरीदना चाहता था किंतु अमेरिका के इनकार करने के पश्चात् तुर्की ने S-400 मिसाइल प्रणाली खरीदने पर विचार किया है।
सीरिया संकट की भूमिका
वर्ष 2010 में मध्य एशिया में लोकतंत्र समर्थक आंदोलन आरंभ हुआ था इसे अरब स्प्रिंग के नाम से जाना जाता है। इस आंदोलन की शुरुआत ट्यूनीशिया से हुई और धीरे-धीरे यह विभिन्न देशों, जैसे- लीबिया, मिस्र, लेबनान, मोरक्को आदि में फैल गया। इस स्थिति का लाभ उठाकर तुर्की अरब क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता था, साथ ही तुर्की का विचार इन देशों में मुस्लिम राजनीतिक दलों को स्थापित करना था।
ज्ञात हो कि सीरिया के साथ तुर्की सीमा साझा करता है, इसका लाभ उठाकर तुर्की, सीरिया के विद्रोहियों को सीरिया में प्रवेश के लिये अपनी ज़मीन उपलब्ध कराता रहा। सीरिया में धीरे-धीरे इस्लामिक स्टेट (IS) का प्रभाव भी बढ़ता गया एवं उसकी की स्थिति जटिल होती गई। सीरिया में कई गुट आपस में संघर्षरत थे, इसमें कुर्दिश लड़ाकों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। विद्रोही असद सरकार को उखाड़ना चाहते थे, कुर्द अपने लिये अलग कुर्दिस्तान हेतु संघर्ष कर रहे थे। किंतु कुर्द जो कि तुर्की, सीरिया तथा इराक में फैले हुए हैं, इन देशों के कुर्द क्षेत्रों को मिलाकर कुर्दिस्तान का निर्माण करना चाहते हैं। कुर्दों के इस विचार का तुर्की प्रबल विरोधी रहा है क्योंकि यह तुर्की की अखंडता के समक्ष संकट उत्पन्न कर सकता है। लेकिन जब कुर्द आतंकवादी संगठन आईएस से युद्ध में उलझ गए तो आईएस को कमजोर करने के लिये अमेरिका ने कुर्दों का समर्थन किया इससे तुर्की के हितों को धक्का लगा। वहीं जब सीरिया का संकट गंभीर हो गया तो यह तुर्की के लिये भी खतरा उत्पन्न करने लगा और इसके परिणामस्वरूप वर्ष 2016 में तुर्की में श्रृंखलाबद्ध आतंकी हमले हुए। इस प्रकार तुर्की, सीरिया का दाँव हार गया। सीरिया में तुर्की को अमेरिका का प्रत्यक्ष समर्थन प्राप्त नहीं हो सका जिसके चलते कुर्दों की स्थिति मज़बूत हुई है। मौज़ूदा समय में तुर्की के लिये सीरिया की असद सरकार नहीं बल्कि कुर्द सबसे बड़ी चुनौती हैं।
तुर्की की स्थिति
पिछला एक दशक तुर्की के लिये भू-राजनीतिक क्षेत्र में उतार-चढ़ाव भरा रहा है। अमेरिका की नीतियों और एरदोगन की महत्त्वाकांक्षाओं ने तुर्की को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। तुर्की की आर्थिक स्थिति बिगड़ती जा रही है एवं कुर्दों की समस्या अभी भी गंभीर बनी हुई है। तुर्की का रुख असद सरकार के प्रति नरम हुआ है तथा वह रूस एवं ईरान के साथ संबंध सुधारने पर भी ध्यान दे रहा है। यह परिस्थिति तुर्की की बदलती विदेश नीति को इंगित कर रही है।
रूस की भूमिका
शीत युद्ध के दौर से ही रूस के लिये तुर्की भू-राजनीतिक चुनौती प्रस्तुत करता रहा है, रूस के भूमध्यसागर में निर्बाध पहुँच के लिये तुर्की का अत्यधिक महत्त्व है। तुर्की काला सागर तथा भूमध्यसागर को जोड़ने वाले बास्फोरस जलसंधि पर प्रभाव रखता है। उत्तरी अफ्रीका तथा मध्य एशिया में रूस को अपने दीर्घकालीन हितों की पूर्ति के लिये तुर्की की आवश्यकता है। रूस ने दीर्घकालीन हितों को ध्यान में रखकर वर्ष 2015 की घटना (तुर्की द्वरा रूस के एयरक्राफ्ट को मार गिराना) पर अधिक ज़ोर नहीं दिया। साथ ही सीरिया में भी तुर्की के प्रति रूस ने कई मोर्चों पर नरम रुख अख्तियार किया। मौजूदा परिस्थिति में रूस द्वारा तैयार की गई पृष्ठभूमि रूस की ओर तुर्की के झुकाव के रूप में फलित हो रही है।
निष्कर्ष
रूस एवं तुर्की के मध्य संपन्न रक्षा सौदा किसी साझीदारी का द्योतक नहीं है, अभी भी कई मुद्दों पर रूस और तुर्की के मध्य सीधा टकराव है। सीरिया को लेकर भले ही तुर्की का रुख नरम हुआ है किंतु अभी भी तुर्की, सीरिया में अपने हितों को तलाश रहा है। अमेरिका के साथ तुर्की के सुरक्षा संगठनों का ऐतिहासिक जुड़ाव रहा है। वहीं रूस और तुर्की के बीच लीबिया, इजराइल आदि देशों को लेकर विवाद है। ऐसे में रूस के साथ यह समझौता अमेरिका के लिये तुर्की की एक धमकी के समान प्रतीत होता है कि तुर्की अपने रक्षा हितों के लिये किसी प्रकार का समझौता नहीं करेगा। इसके लिये तुर्की नाटो की सदस्यता भी त्यागने को तैयार है। साथ ही तुर्की, अमेरिका को उसकी प्रखर नीतियों में बदलाव करने तथा अपने सहयोगियों के हितों का ध्यान रखने को लेकर भी संदेश देने की कोशिश कर रहा है। इन सब बातों के बावजूद मौजूदा परिस्थितियाँ बदलती भू-राजनीति को इंगित कर रहीं है जिसमें कुछ हद तक रूस ने अमेरिका को इस क्षेत्र में पछाड़ने का प्रयास किया है।
प्रश्न: पिछले एक दशक में मध्य पूर्व की राजनीति में रूस एवं तुर्की विरोधी गुटों में शामिल रहे हैं, मौजूदा समय में इन देशों की स्थिति में परिवर्तन आया है। इन देशों की बदलती नीति का क्या कारण है? बदलती परिस्थितियों के आलोक में इसके वैश्विक भू-राजनीति में पड़ने वाले प्रभावों की भी चर्चा कीजिये।