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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

पर्यावरण पर दक्षिण-एशियाई देशों का सहयोग

  • 17 May 2022
  • 12 min read

यह एडिटोरियल 16/05/2022 को ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में प्रकाशित “South Asian Nations must Collaborate on Climate” लेख पर आधारित है। इसमें जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में दक्षिण एशियाई देशों के बीच सहयोग के दायरे के संबंध में चर्चा की गई है।

संदर्भ

दक्षिण-एशिया में क्षेत्रीय सहयोग से उम्मीदें तो की गई लेकिन इसके परिणाम इष्टतम नहीं रहे हैं। जारी जलवायु संकट इस दिशा में एक आदर्श बदलाव लाने के महत्त्वपूर्ण अवसर के रूप में कार्य कर सकता है।

  • दक्षिण एशिया कई जलवायु चुनौतियों का सामना कर रहा है, हालाँकि चुनौतियों की समानता और राष्ट्रों की अनुपूरक शक्ति के साथ ही उनके साझा भूगोल, सामाजिक आर्थिक विशेषताएँ और संस्कृति दक्षिण एशियाई देशों के बीच सहयोग के अवसर भी प्रदान कर रहे हैं।
  • इस भू-भाग को सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) को आगे बढ़ाने के अपने प्रयासों को दोगुना करने की ज़रूरत है। भारत जलवायु प्रत्यास्थता कार्यक्रमों को संयुक्त रूप से डिज़ाइन, वित्तपोषित और कार्यान्वित करने हेतु अंतर्राष्ट्रीय विकास एजेंसियों के साथ सहयोग कर इसमें एक योगदान कर सकता है जहाँ अन्य दक्षिण एशियाई देश भारत की विकास सहायता का लाभ उठा सकते हैं।

दक्षिण एशिया और जलवायु परिवर्तन

उत्सर्जन में दक्षिण एशिया की हिस्सेदारी

  • वैश्विक आबादी के लगभग एक चौथाई भाग के साथ यह भू-भाग ऐतिहासिक वैश्विक ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन के 4% के लिये ज़िम्मेदार है।
  • वर्ष 2019 में इसका वार्षिक प्रति व्यक्ति GHG उत्सर्जन6 टन CO2 समतुल्य था, जो विश्व स्तर पर किसी भी अन्य क्षेत्र की तुलना में न्यूनतम था, जबकि वर्ष 2020 में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (क्रय शक्ति समता) 5,814 डॉलर था, जो विश्व स्तर पर अफ्रीका के बाद सबसे कम था।

दक्षिण एशिया पर प्रभाव

  • दक्षिण एशियाई देश जलवायु परिवर्तन प्रभावों के संदर्भ में वैश्विक स्तर पर सबसे कमज़ोर/संवेदनशील देशों में शामिल हैं।
    • चरम जलवायु संबंधी घटनाएँ हर साल क्षेत्र की आधी से अधिक आबादी को प्रभावित करती हैं और दक्षिण एशियाई देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर बोझ डालती रहती हैं।
    • विश्व में निम्नतम ऊँचाई पर स्थित देश (Lowest Lying Country) मालदीव इसी भूभाग में स्थित है जिस पर निकट भविष्य में डूब जाने का खतरा मंडरा रहा है।
  • IPCC की AR6 रिपोर्ट ने दक्षिण एशिया के लिये चिंताजनक अनुमान प्रकट किये हैं। इसमें कहा गया है कि अगले दो दशक में ग्लोबल वार्मिंग में लगभग5 ℃ की वृद्धि के साथ यह भूभाग गर्म मौसम, दीर्घकालिक मानसून और सूखा की घटनाओं में वृद्धि का सामना करेगा।
    • 21वीं सदी की कालावधि में दक्षिण एशिया में ग्रीष्म लहर (Heatwaves) और आर्द्र हीट स्ट्रेस (humid heat stress) की अधिक तीव्र और आवर्ती स्थिति रहेगी।
  • विश्व बैंक के अनुसार, पिछले दशक में कम से कम एक जलवायु संबंधी आपदा से लगभग 700 मिलियन लोग (दक्षिण एशिया की आबादी की लगभग आधी) प्रभावित हुए हैं।
  • ‘जर्मनवाच’ (Germanwatch) के ‘ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स 2020’ में 21वीं सदी में जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित 20 देशों में भारत और पाकिस्तान को भी रखा गया है।
  • मैकिन्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु प्रभाव वर्ष 2050 तक दक्षिण एशियाई देशों के सकल घरेलू उत्पाद को 13% तक नष्ट कर सकता है।

क्षेत्रीय सहयोग के संबंध में संबद्ध चुनौतियाँ

  • पर्यावरणीय मुद्दों पर एकमतता का अभाव: पर्यावरण संबंधी प्रमुख निर्णयों पर आम सहमति का निर्माण एक चुनौती बनी हुई है। हवा, भूमिगत जल जलभृत और जैव विविधता जैसे महत्त्वपूर्ण साझा संसाधन प्रायः अनियंत्रित बने हुए हैं।
    • एक क्षेत्रीय बिजली व्यापार तंत्र (regional electricity trading mechanism), जो नवीकरणीय ऊर्जा के युग में महत्त्वपूर्ण साबित हो सकता है, के लिये लगातार बदलती योजनाएँ राजनयिक कड़वाहट का विषय रही हैं।
    • जलवायु परिवर्तन पर सार्क कार्य योजना (SAARC Action Plan on Climate Change) और वर्ष 2008 में ढाका में दक्षिण एशियाई पर्यावरण मंत्रियों की संयुक्त घोषणा जैसे आशाजनक क्षणों को भी जल्द ही भुला दिया गया।
  • भू-राजनीति की चुनौतियाँ: हाल की भू-राजनीति के उतार-चढ़ाव के साथ दक्षिण एशिया का मूल विचार ही नष्ट हो गया है। चीन के आर्थिक प्रभुत्व और इस क्षेत्र में नए गठबंधनों ने भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल जैसे पड़ोसी देशों के बीच तनाव की वृद्धि की है।
    • प्रतीत होने लगा है कि सार्क जैसी संस्थाएँ अपनी पूर्वस्थिति में नहीं लौट सकेंगी।
  • सीमा संबंधी समस्याएँ: राष्ट्रीय सीमाओं की मनमानी प्रकृति ने जलवायु परिवर्तन को प्रबंधित करना कठिन बना दिया है। वे राजनीति से निर्धारित होते हैं और प्रायः पारिस्थितिक सीमाओं और ग्रहीय प्रणालियों की पूरी तरह से उपेक्षा करते हैं।
    • दक्षिण एशिया की कठोर सीमाएँ, जिन्हें 20वीं सदी के मध्य में जल्दबाजी में परिभाषित किया गया था, 21वीं सदी की समस्याओं के लिये अनुपयुक्त हैं।

आगे की राह

  • अप्रयुक्त ऊर्जा संसाधनों का उपयोग: अफगानिस्तान, भूटान, भारत, नेपाल और पाकिस्तान जैसे हिमालय क्षेत्र के देशों में वृहत अप्रयुक्त जलविद्युत संसाधन मौजूद हैं।
    • प्रौद्योगिकियों एवं वित्त के विषय में सहयोग और एक साझा दक्षिण एशियाई बिजली बाज़ार के विकास से ऊर्जा सुरक्षा में वृद्धि हो सकती है, जबकि साथ ही बिजली लागत और GHG उत्सर्जन में कमी आएगी।
    • सौर ऊर्जा के क्षेत्र में भारत की बढ़त अन्य देशों को भी सस्ते और प्रमुख ऊर्जा स्रोत के रूप में इस नवीकरणीय संसाधन के विकास में मदद दे सकती है।
  • संभावित क्षेत्रों में क्षेत्रीय सहयोग: जलवायु संकट की चुनौतियों और वर्तमान पहलों के आधार पर पाँच प्रमुख विषयों में क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ावा दिया जा सकता है:
    • संवहनीय/सतत शहरीकरण (Sustainable Urbanisation)- समावेशी संवहनीय नगरनिकाय सेवाएँ, हरित परिवहन, प्रदूषण उपशमन एवं रोकथाम।
    • जलवायु-कुशल कृषि (Climate-smart Agriculture)- जल एवं संसाधन दक्षता, खाद्य की बर्बादी को न्यूनतम करना, परिवहन लॉजिस्टिक्स एवं कोल्ड चेन और खाद्य प्रसंस्करण।
    • आपदा प्रत्यास्थता (Disaster Resilience)- जलीय-मौसम विज्ञान संबंधी घटनाओं के लिये संयुक्त एवं समन्वित पूर्व-चेतावनी प्रणाली, तटीय क्षेत्रों में रसायन एवं तेल रिसाव, जंगल की आग सहित विभिन्न आपदाओं के लिये साझा प्रतिक्रिया तंत्र।
    • नवीकरणीय एवं स्वच्छ ऊर्जा (Renewable and Clean Energy)- सौर एवं पवन ऊर्जा, बिजली भंडारण प्रौद्योगिकियाँ, जल-विद्युत परियोजनाओं का संयुक्त विकास, क्षेत्रीय ऊर्जा बाज़ार और उद्योगों, खेतों, संस्थानों, कार्यालयों एवं घरों में ऊर्जा दक्षता की वृद्धि करना।
    • ‘डाउनस्केल्ड क्लाइमेट मॉडलिंग’ (Downscaled Climate Modelling) – लघु-आवधिक से लेकर दीर्घावधिक प्रभावों का आकलन करने और जन-उन्मुख अनुकूलन योजनाओं को लागू करने के लिये।
  • निजी क्षेत्र की भागीदारी: जलवायु अनुकूलन और शमन में निजी क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका होगी।
    • इस प्रकार, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नियमों में छूट से विशेष रूप से हरित प्रौद्योगिकियों, डिजिटल फर्मों, उद्योग0 प्रौद्योगिकियों, अपशिष्ट प्रबंधन एवं उपचार, आपदा प्रत्यास्थता बढ़ाने वाली प्रक्रियाओं, और प्रौद्योगिकियों (जलवायु-प्रत्यास्थी सड़कों और जल परिवहन जैसे अवसंरचना क्षेत्रों में उपयुक्त प्रौद्योगिकियों सहित) के लिये मदद मिलेगी।
  • सार्क जलवायु कोष: भूभाग के देश एक सार्क जलवायु कोष (SAARC Climate Fund) भी स्थापित कर सकते हैं जो नवाचारों, संयुक्त अनुसंधान एवं विकास, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, ज्ञान के आदान-प्रदान और क्षमता निर्माण पर प्रमुखता से ध्यान देने के साथ अनुकूलन एवं शमन पहलों के लिये धन की पूर्ति कर सकता है।
    • यह कोष निजी फाउंडेशनों एवं व्यक्तियों, कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) पहलों और द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय एजेंसियों से भी धन जुटा सकता है।
  • जलवायु शिक्षा: जलवायु शिक्षा समुदायों को ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को समझने एवं इन्हें संबोधित करने, व्यवहार परिवर्तन को प्रोत्साहित करने और उन्हें जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनाने में मदद करेगी।
    • राष्ट्रीय पाठ्यचर्या में जलवायु शिक्षा को शामिल करने से दक्षिण एशियाई देशों के बच्चों एवं युवाओं को आवश्यक ज्ञान एवं कौशल के साथ एक हरित, संवहनीय एवं जलवायु-प्रत्यास्थी भविष्य के निर्माण के लिये सशक्त किया जा सकेगा।

अभ्यास प्रश्न: जलवायु परिवर्तन दक्षिण एशियाई देशों के बीच सहयोग के अवसरों में से एक साबित हो सकता है। चर्चा कीजिये।

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