क्या भारत को नाटो में शामिल होना चाहिये? | 07 Apr 2021
यह एडिटोरियल 06/04/2021 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित लेख “Why India must not say ‘no’ to NATO” पर आधारित है। इसमें भारत के उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NATO) का सदस्य बनने के संबंध में विभिन्न पक्षों पर चर्चा की गई है।
पिछले कुछ वर्षों में यूरोपीय देशों ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने पर बल दिया है। भारत को यह भी ज्ञात है कि कोई भी एकल शक्ति हिंद-प्रशांत में स्थिरता और सुरक्षा पैदा नहीं कर सकती है।
इसके अलावा चीन के राजनीतिक रूप से विश्वसनीय और समान विचारधारा वाले राज्यों के साथ घनिष्ठ सुरक्षा संबंधों ने भारत की चिंता को बढ़ाया है। इस भू-राजनीतिक चुनौती से निपटने के लिये भारत को चीनी शक्ति के आधिपत्य के प्रति-संतुलन के लिये अधिक प्रयास करने होंगे।
ऐसी एक व्यवस्था जो हाल ही में कई पश्चिमी देशों द्वारा अपनाई गई है, भारत को नाटो की सदस्यता प्रदान करती है। हालाँकि भारत में NATO की सदस्यता के सकारात्मक प्रभाव के साथ-साथ नकारात्मक प्रभाव भी होंगे।
भारत के नाटो सदस्य बनने के पक्ष में तर्क
- शीत युद्ध की समाप्ति: शीत युद्ध के दौरान भारत ने किसी भी ऐसे सैन्य ब्लॉक (NATO या USSR के नेतृत्व में वारसा संधि) में शामिल होने से इनकार कर दिया था जो भारत की गुटनिरपेक्षता को प्रभावित करती थी।
- 1989-91 में शीत युद्ध की समाप्ति के समय इस तर्क का थोड़ा-बहुत औचित्य था लेकिन उसके बाद से नाटो ने कई तटस्थ और गुटनिरपेक्ष राज्यों के साथ साझेदारी की है।
- अवरोध का निवारण: नाटो संधि के अनुच्छेद 5 में प्रावधान है कि नाटो के किसी भी सदस्य देश के खिलाफ हमले को गठबंधन के सभी सदस्यों के खिलाफ हमला माना जाएगा और नाटो द्वारा हमलावर के खिलाफ संयुक्त सैन्य कार्रवाई का आह्वान किया जाएगा।
- यह चीन और पाकिस्तान द्वारा भारत पर हमला करने के मार्ग में अवरोध पैदा करेगा।
- सैन्य-सामरिक लाभ: भारत-नाटो वार्ता का सीधा मतलब एक सैन्य गठबंधन के साथ नियमित संपर्क स्थापित होना है, जिसके अधिकांश सदस्य भारत के सुव्यवस्थित भागीदार हैं।
- इसके अलावा नाटो के कई सदस्यों के साथ भारत का सैन्य आदान-प्रदान के क्षेत्र में सहयोग है, जिसमें द्विपक्षीय और बहुपक्षीय प्रारूपों में अमेरिका, ब्रिटेन और फ्राँस शामिल हैं।
- इसलिये भविष्य में दुनिया के सबसे शक्तिशाली संगठन के साथ सैन्य-रणनीतिक गठबंधन से भारत लाभ प्राप्त करेगा।
- बहुआयामी युग : भारत, चीन और विकासशील देशों के साथ मिलकर अमेरिका के खिलाफ विश्व व्यापार संगठन (WTO) से गठबंधन कर सकता है, लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ एक "क्वाड" पर विचार करते हुए चीन का विरोध करता है।
- साथ ही मिस्र और इज़रायल दोनों नाटो सहयोगी हैं जिनका रूस के साथ रक्षा संबंध हैं।
- स्विट्ज़रलैंड, फिनलैंड, स्वीडन और ऑस्ट्रिया सभी लंबे समय से चली आ रही तटस्थ परंपराओं के साथ नाटो सहयोगी सदस्य हैं।
- कई मुद्दों पर अभिसरण: भारत और नाटो के मध्य स्थापित संबंध कई क्षेत्रों (आतंकवाद, भू-राजनीति सहित) में उत्पादों के विनिमय की सुविधा प्रदान कर सकते हैं, जैसे -सैन्य संघर्ष की उभरती प्रकृति, बढ़ती सैन्य प्रौद्योगिकियों की भूमिका और नए सैन्य सिद्धांत।
भारत के नाटो सदस्य बनने के विपक्ष में तर्क
- नाटो का आंतरिक संघर्ष: नाटो सदस्य सैन्य बोझ को साझा करने और एक स्वतंत्र सैन्य भूमिका के लिये नाटो और यूरोपीय संघ के बीच सही संतुलन बनाने के बारे में परस्पर विरोधी राय रखते है।
- इसके अतिरिक्त नाटो सदस्य रूस, मध्य-पूर्व और चीन से संबंधित नीति पर भी असहमत हैं।
- रूस के साथ प्रतिकूल संबंध: नाटो का सदस्य बनने से भारत और रूस के मध्य लंबे समय से स्थापित मज़बूत संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
- रूस ने अमेरिका के साथ भारत के बढ़ते सामरिक अभिसरण पर नाराज़गी व्यक्त की है।
- इसके अतिरिक्त यह चीन और रूस के बीच स्थापित संबंधों को और अधिक मजबूती प्रदान कर सकता है।
- भारत अभी भी रूसी सैन्य उपकरणों पर बहुत अधिक निर्भर है , इसलिये नाटो में शामिल होने का विचार भारत के लिये सही नहीं होगा।
- संप्रभुता का मुद्दा: भारतीय सीमा क्षेत्र में नाटो आधारित संगठनों की स्थापना एक अहम मुद्दा होगा।
- यह देश में व्यापक विरोध को बढ़ावा दे सकता है जिसको हमारी संप्रभुता का उल्लंघन भी माना जा सकता है।
- विभिन्न संघर्षों में शामिल होना: नाटो में शामिल होने का नकारात्मक पक्ष यह है कि भारत दुनिया भर के विभिन्न संघर्षों में भागीदार माना जाएगा।
- इसके परिणामस्वरूप विभिन्न संघर्षों में बहुत से भारतीय सैनिक मारे जाते हैं। अतः भारत को नाटो में शामिल होने का कोई उचित कारण नहीं दिखाई देता।
निष्कर्ष :
भारत और पश्चिमी देशों के बीच नौकरशाही के जुड़ाव ने भारत को अटलांटिक में उभरते भू-राजनीति का लाभ उठाने पर प्रतिबंध लगा दिया है। हालाँकि भारत के वर्तमान सक्रिय दृष्टिकोण ने निश्चित रूप से इस लंबे राजनीतिक उपेक्षा को समाप्त करने की मांग की है।
विभिन्न पक्षों को देखते हुए नाटो देशों के साथ एक व्यावहारिक जुड़ाव भारत की विदेश नीति का महत्त्वपूर्ण हिस्सा होना चाहिये लेकिन भारत को नाटो का औपचारिक सदस्य बनने से बचना चाहिये ।
प्रश्न- नाटो जैसी बड़ी संस्था में शामिल होने के प्रति भारत द्वारा लगातार अनिच्छा जाहिर करना रणनीतिक दृष्टि से अस्वीकृति का एक आश्चर्यजनक मामला हो सकता है। आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये।