आयुर्वेद का पुनर्जागरण | 16 Jul 2020

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में आयुर्वेद व उससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ 

प्राचीन चिकित्सा प्रणाली में बीमारियों के इलाज और एक स्वस्थ जीवन शैली का नेतृत्व करने के सर्वोत्तम तरीकों में आयुर्वेद को उच्च स्थान प्राप्त है। इसके अतिरिक्त वर्तमान में आयुर्वेद ने अपनी ओर सभी का ध्यान आकर्षित किया है क्योंकि भारत सरकार ने वैश्विक महामारी COVID-19 से लड़ने के प्रयासों में प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिये आयुर्वेदिक संघटकों के उपयोग का आह्वान किया है। सरकार ने COVID-19 के रोकथाम हेतु प्रतिरोधी तथा उपचार में चयनित और मानकीकृत आयुर्वेदिक दवाओं के सुरक्षित और प्रभावी उपयोग का मूल्यांकन करने के लिये अभिनव नैदानिक ​​दवा परीक्षणों की घोषणा की है।

आधुनिक बीमारियों के इलाज में आयुर्वेद के बढ़ते महत्त्व को देखते हुए अब यह अधिक सक्रिय रूप से स्वास्थ्य और चिकित्सा देखभाल प्रणाली में प्रतिभाग करने के लिये तत्पर है। इस प्रकार, एक आधुनिक जीवंत स्वास्थ्य और चिकित्सा प्रणाली में इसकी प्रगति और परिवर्तन की निगरानी करने की आवश्यकता है।  

आयुर्वेद से तात्पर्य 

  • आयुर्वेद प्राचीन भारतीय प्राकृतिक और समग्र वैद्य-शास्त्र चिकित्सा पद्धति है। संस्कृत भाषा में आयुर्वेद का अर्थ है ‘जीवन का विज्ञान’ (संस्कृत मे मूल शब्द आयुर का अर्थ होता है ‘दीर्घ आयु’ या आयु और वेद का अर्थ हैं ‘विज्ञान। 
  • एलोपैथी औषधि (विषम चिकित्सा) रोग के प्रबंधन पर केंद्रित होती है, जबकि आयुर्वेद रोग की रोकथाम और रोग को उत्पन्न करने वाले मूल कारण को निष्काषित करने पर केंद्रित होता है।
  • आयुर्वेद के अनुसार जीवन के उद्देश्यों यथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिये स्वास्थ्य पूर्वपेक्षित है।  यह मानव के सामाजिक, राजनीतिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक पहलुओं का समाकलन करता है, क्योंकि ये सभी एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। 
  • आयुर्वेद तन, मन और आत्मा के बीच संतुलन स्थापित कर व्यक्ति के स्वास्थ्य में सुधार करता है। आयुर्वेद में न केवल उपचार होता है बल्कि यह जीवन जीने का ऐसा तरीका सिखाता है, जिससे जीवन लंबा और खुशहाल हो जाता है। 
  • आयुर्वेद के अनुसार व्यक्ति के शरीर में वात, पित्त और कफ जैसे तीनों मूल तत्त्वों के संतुलन से कोई भी बीमारी नहीं हो सकती, परन्तु यदि इनका संतुलन बिगड़ता है, तो बीमारी शरीर पर हावी होने लगती है। 
  • अतः आयुर्वेद में इन्हीं तीनों तत्त्वों के मध्य संतुलन स्थापित किया जाता है। इसके अतिरिक्त  आयुर्वेद में रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने पर भी बल दिया जाता है, ताकि व्यक्ति सभी प्रकार के रोगों से मुक्त हो। 

आयुर्वेद की विकास यात्रा 

  • स्वतंत्रता से पूर्व:
    • ब्रिटिश राज ने आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को अवैज्ञानिक, रहस्यमयी और केवल एक धार्मिक विश्वास माना। परिणामस्वरूप इस चिकित्सा पद्धति को नष्ट करने का प्रयास भी किया गया।
    • वर्ष 1835 में कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में आयुर्वेद के शिक्षण कार्य को निलंबित कर दिया गया था। 
    • हालाँकि औपनिवेशिक शासन के दौरान कई प्राच्यविदों ने वैदिक ग्रंथों को पुनर्प्राप्त करके आयुर्वेद को अप्रत्यक्ष रूप से लाभान्वित भी किया। प्राच्यविदों ने आयुर्वेद को पुनर्जीवित करने में बड़ा योगदान दिया था।
    • भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और उसके बाद हुए राष्ट्रीय विद्रोह और सामाजिक सुधार आंदोलनों ने आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में नई ऊर्जा का संचार किया। 
    • इस दौरान कई आयुर्वेदिक चिकित्सकों ने स्वयं को एक पेशेवर चिकित्सा संगठन में संगठित किया और चिकित्सीय पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारंभ किया था।
  • स्वतंत्रता के बाद: 
    • आयुर्वेद को आधुनिक चिकित्सा पद्धति के साथ जोड़ने का प्रयास किया गया। इसके पीछे यह तर्क दिया गया था कि एक संयुक्त चिकित्सा प्रणाली व्यक्तिगत विज्ञान के रूप में आयुर्वेद से अधिक प्रभावकारी होगी।
    • स्वतंत्रता के बाद कोलकाता, बनारस, हरिद्वार, इंदौर, पूना और बंबई आयुर्वेद के प्राचीन उत्कृष्ट संस्थान के रूप में स्थित थे।
    • 1960 के दशक में विशेष रूप से गुजरात और केरल में अच्छी तरह से नियोजित मेडिकल कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के विकास में तेजी आई, परंतु आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति नेपथ्य में ही रही।
    • हालाँकि आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को वर्ष 2014 में आयुष मंत्रालय (आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी) की स्थापना से प्रोत्साहन मिला। 
    • आयुष मंत्रालय ने सभी हितधारकों के साथ संचार का एक कुशल नेटवर्क स्थापित किया है तथा शिक्षा, अनुसंधान और संरक्षण के माध्यम से आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को संरक्षित  किया है। 

आयुर्वेद से संबंधित चुनौतियाँ

  • विषम परिस्थितियों में अप्रभावी उपचार: गंभीर संक्रमण और शल्य चिकित्सा सहित अन्य आपात स्थितियों में आयुर्वेद की न्यून प्रभावकारिता और सार्थक चिकित्सीय अनुसंधान की कमी आयुर्वेद की सार्वभौमिक स्वीकृति को सीमित कर देती है।
    • आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति अत्यधिक जटिल व निषेधात्मक है।
    • आयुर्वेदिक दवाओं की कार्यप्रणाली काफी धीमी है। आयुर्वेदिक दवाओं की प्रभावकारिता का पूर्वानुमान करना कठिन कार्य है।  
  • एकरूपता का अभाव: आयुर्वेद में चिकित्सा पद्धतियाँ एक समान नहीं हैं। ऐसा इसलिये है क्योंकि इसमें इस्तेमाल होने वाले औषधीय पौधे भौगोलिक जलवायु और स्थानीय कृषि प्रथाओं के अनुसार भिन्न-भिन्न होते हैं।
    • आयुर्वेद के विपरीत आधुनिक चिकित्सा पद्धति में, रोगों को वर्गीकृत किया जाता है और पूर्व निर्धारित मानदंडों के अनुसार इलाज किया जाता है।
  • आयुर्वेदिक फर्मों द्वारा भ्रामक प्रचार: आयुर्वेदिक फार्मा उद्योग ने दावा किया कि इसकी निर्माण पद्धतियाँ शास्त्रीय आयुर्वेद ग्रंथों के अनुरूप थी।
    • आयुर्वेदिक दवाओं की बेहतर बाजार हिस्सेदारी के लिये, दवा कंपनियों ने पर्याप्त वैज्ञानिक आधार के बिना अपने आयुर्वेदिक उत्पादों के बारे में कई औषधीय दावों को प्रचारित किया। 
  • मान्यता का अभाव: विभिन्न देशों में आयुर्वेद को चिकित्सा पद्धति के रूप में मान्यता नहीं प्राप्त हो पाई है, हालाँकि पिछले कुछ वर्षों से आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में रूचि लेने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है। 
    • अधिकांश देशों ने आयुर्वेद को चिकित्सा के रूप में आधिकारिक रूप से मान्यता नहीं दी है और उन्होंने आयुर्वेदिक दवाओं के उपयोग पर कई प्रतिबंध भी लगा रखे हैं।
  • गहन अध्ययन की कमी: वर्ष 2004 में एक प्रमुख अमेरिकी जर्नल ने अमेरिका में बेची जाने वाली कुछ आयुर्वेदिक दवाओं में भारी धातुओं (आर्सेनिक, मरकरी, लेड) के अतिशय प्रयोग पर चिंता व्यक्त की। भारी धातुओं का अतिशय प्रयोग स्वास्थ्य को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है।
    • इस जर्नल के प्रकाशित होने के बाद दुनिया भर में आयुर्वेदिक दवाओं की निंदा हुई और सरकार ने आयुर्वेदिक दवाओं में भारी धातुओं का परीक्षण अनिवार्य कर दिया और आयुर्वेद दवा कंपनियों को विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों का पालन करने के लिये कहा गया।
  • आयुर्वेद में उप-मानक अनुसंधान: पिछले पाँच दशकों में आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में अनुसंधान मुख्य रूप से अन्य चिकित्सा प्रणालियों में उपयोग की जाने वाली सामान्य प्रक्रियाओं के अनुसरण तक ही सीमित था।  
    • प्रायः यह पाया गया कि आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में अध्ययन के तरीके और डेटा के निर्माण व गुणवत्ता का मानकीकरण निम्न स्तर का था। 

आयुर्वेद का महत्त्व

  • आयुर्वेद में ‘स्वस्थ्य’ व्यक्तियों को भी विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है।  इस दृष्टिकोण से आयुर्वेद के अंतर्गत प्रत्येक मनुष्य को सात श्रेणियों अथवा ‘प्रकृति’ में वर्गीकृत किया गया है। दरअसल, मनुष्य की प्रकृति का निर्धारण जन्म के समय ही कर लिया जाता है और यह जीवन भर इसी प्रकार बनी रहती है। 
  • ‘वात’(Vata-V),’पित्त’(Pitta-P) और ‘कफ’(Kapha-K) इसकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण श्रेणियाँ हैं, जिनका निर्धारण व्यक्ति के अनेक लक्षणों जैसे- शारीरिक रचना, भूख, त्वचा के प्रकार, एलर्जी, संवेदनशीलता आदि से किया जाता है।  अन्य चार श्रेणियाँ इनके विपरीत हैं।
  • अतः वे दवाइयाँ जो ‘वात’ के लिये कार्य करती हैं, वे ‘कफ’ के लिये कार्य नहीं करती।  वस्तुतः शोधकर्त्ता यह पहले ही सिद्ध कर चुके हैं कि आयुर्वेद की सभी श्रेणियों के आणविक स्तरों के मध्य अंतर विद्यमान है।  यदि यह कहा जाए कि वॉरफेरिन (warfarin) जैसी दवा का उपयोग ‘ब्लड थिनर’ (blood thinner) के रूप में किस प्रकार जाए, तो निष्कर्ष निकलता है कि भिन्न-भिन्न प्रकृति के रोगियों के लिये दवा की अलग-अलग खुराक की आवश्यकता होती है। 
    • विदित हो कि ब्लड थिनर हार्ट अटैक के जोखिम को कम करने में सहायता करते हैं तथा रक्त का थक्का नहीं बनने देते।
  • किसी रोगी की प्रकृति का निर्धारण करने के लिये एक आयुर्वेद चिकित्सक द्वारा रोगी का एक घंटे तक साक्षात्कार लेना आवश्यक होता है।  परन्तु अब वैज्ञानिकों द्वारा विभिन्न प्रकृति के व्यक्तियों की पहचान करने के लिये एक सॉफ्टवेयर को विकसित किया जा चुका है।

आगे की राह 

  • रिवर्स औषधविज्ञान अनुसंधान: आयुर्वेद में एक बहुत ही रोचक शोध विकास रिवर्स औषधविज्ञान अनुसंधान (Reverse Pharmacology) की वैचारिक रूपरेखा प्रस्तुत की गई जिसे मुंबई के एक आयुर्वेद शोधकर्ता ने तैयार किया था। 
    • इसके द्वारा आयुर्वेदिक औषधियों को बीमारियों की बदलती प्रकृति के अनुसार विकसित करने के लिये प्रलेखित नैदानिक ​​अनुभवों और अनुभवात्मक टिप्पणियों को समेकित कर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अंग के रूप में परिभाषित किया जाता है। 
  • न्यू मिलेनियम इंडियन टेक्नोलॉजी लीडरशिप इनिशिएटिव: भारत सरकार द्वारा वर्ष 2000-01 में सार्वजनिक-निजी भागीदारी (Public-Private Partnership- PPP) मोड (Mode) में एक दूरदर्शी अनुसंधान एवं विकास कार्यक्रम के रूप में इसे शुरू किया गया।
    • भारत सरकार की ओर से वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) द्वारा इस कार्यक्रम का प्रबंधन किया जाता है।
    • इसका उद्देश्य पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप की सहायता से सभी प्रमुख क्षेत्रों में तकनीकी विकास के माध्यम से भारत को एक नेतृत्वकारी भूमिका प्रदान करना है।
    • वैश्विक स्तर पर भारत के लिये आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली सक्षम औद्योगिक क्षमता वाला एक क्षेत्र है।
  • केरल मॉडल का अनुसरण: केरल एक ऐसा राज्य है जहाँ आयुर्वेद स्वास्थ्य और चिकित्सा देखभाल के क्षेत्र में एक अद्वितीय स्थान रखता है। 
    • केरल सरकार राज्य की आम जनता के प्रतिरोधक क्षमता में सुधार के उपाय के रूप में आयुर्वेद को बढ़ावा दे रहा है। यह आयुर्वेदिक संघटकों को प्रोत्साहन देता है और अपनी आबादी के सभी आयु वर्ग की जनसांख्यिकी के लिये आयुर्वेद प्रथाओं की सिफारिश करता है।
    • केरल मॉडल को COVID-19 महामारी का मुकाबला करने में अपनी प्रभावशीलता के लिये  दुनिया भर में सराहना मिली है।

प्रश्न- आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति से आप क्या समझते हैं? क्या आयुर्वेद अब सक्रिय रूप से स्वास्थ्य और चिकित्सा देखभाल प्रणाली में भाग लेने के लिये तैयार है। समीक्षा कीजिये।