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भारतीय अर्थव्यवस्था

भारतीय कृषि क्षेत्र में सुधार

  • 30 Jul 2021
  • 10 min read

यह एडिटोरियल दिनाँक 29/07/2021 को ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित लेख ‘‘Farm reforms must be oriented towards minimising risk and increasing returns for farmers’’ पर आधारित है। इसमें वर्तमान कृषि व्यवस्था में उभरती समस्याओं और इनके समाधान पर चर्चा की गई है।

भारत में कृषि नीतियाँ संस्थाओं की एक जटिल प्रणाली द्वारा अभिकल्पित और कार्यान्वित की जाती हैं। कृषि के कई पहलुओं से संबंधित संवैधानिक उत्तरदायित्व राज्यों पर हैं लेकिन केंद्र सरकार कृषि नीति के प्रति राष्ट्रीय दृष्टिकोण के विकास और राज्य स्तर पर इसके कार्यान्वयन के लिये आवश्यक धन उपलब्ध कराने के रूप में इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

किसानों की आजीविका के सभी पहलुओं पर सरकारी एजेंसियों का दखल है। नवीनतम निष्कर्षों में विभिन्न केंद्रीय और राज्य मंत्रालयों तथा एजेंसियों को ​​​​शामिल किया गया है जो ग्रामीण संपत्ति के अधिकार, भूमि उपयोग एवं भूमि सीमा; कमोडिटी की कीमतें, इनपुट सब्सिडी एवं विभिन्न कर, आधारभूत संरचना, उत्पादन, ऋण, विपणन एवं खरीद, सार्वजनिक वितरण, अनुसंधान, शिक्षा एवं कृषि विस्तार सेवाएँ; व्यापार नीति; कृषि-व्यवसाय तथा अनुसंधान जैसे तमाम विषयों में अपना प्रभाव रखते हैं। 

हाल ही में किसान आंदोलन के चरम दिनों में यह दावा बेहद आम था कि नए कृषि कानूनों के परिणामस्वरूप भारतीय कृषि भूमियों पर कॉर्पोरेट का कब्ज़ा हो जाएगा। हालाँकि कृषि क्षेत्र वर्तमान में मुख्यतः सरकारी स्वामित्व के नियंत्रण में हैं।

वर्तमान व्यवस्था के साथ समस्याएँ

  • विभिन्न राज्यों में पैदावार का अंतर: हरित क्रांति के पाँच दशक बाद भी हरित क्रांति का केंद्र रहे राज्यों और शेष देश के कृषि ज़िलों के बीच चावल और गेहूँ की पैदावार में व्यापक अंतर है।   
    • इसके अलावा, पंजाब और हरियाणा के बाहर विभिन्न ज़िलों में उगाए जाने वाले चावल और गेहूँ की पैदावार में अंतर, जोखिम के उच्च स्तर को प्रदर्शित करते हैं।
  • बुनियादी ढाँचे के विकास का अभाव: विभिन्न कृषि क्षेत्रों में सिंचाई, सड़क, बिजली जैसी आम आवश्यकताओं के प्रावधान में भारी असमानता है।    
    • कृषि भूमि, फसलों और आदानों (इनपुट्स) के लिये सुव्यवस्थित बाज़ारों के अभाव, श्रम सुधार की धीमी गति तथा शिक्षा की बदतर गुणवत्ता ने कृषि ज़िलों के भीतर एवं उनके बीच समग्र संसाधन गतिशीलता को कम कर दिया है।
    • यह भी उल्लेखनीय है कि उन्होंने उत्पादकता बढ़ाने और ज़िलों के बीच पैदावार के अंतर को कम करने के लिये आवश्यक विचारों तथा प्रौद्योगिकी की गतिशीलता को भी सीमित कर दिया है।
  • प्रभावी विकेंद्रीकरण का अभाव: एक विकेंद्रीकृत प्रणाली (जहाँ प्रयोग किये जाते हैं, एक-दूसरे के अनुभवों से सीख ली जाती है और सर्वोत्तम अभ्यासों एवं नीतियों को अपनाया जाता है) की स्थापना का वास्तविक वादा साकार होने में प्रायः नाकाम ही रहा है।  
    • इसके बजाय आज़ादी के बाद से भारतीय कृषि अत्यधिक खंडित ही बनी रही है। 
  • प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास: राज्य प्रदत्त विभिन्न इनपुट सब्सिडी और न्यूनतम मूल्य गारंटी खरीद योजनाओं ने उत्पादकता के समग्र स्तर और कृषि जोखिम की स्थिति को बदतर किया है, जहाँ यह जल संसाधनों, मृदा, स्वास्थ्य और जलवायु के क्षरण के साथ प्रतिकूल प्रभावों को जन्म दे रहा है।   
  • कृषि क्षेत्र की कीमत पर खाद्य सुरक्षा: इसका परिणाम केंद्र और राज्य दोनों सरकारी एजेंसियों द्वारा मनमाने एवं परस्पर विरोधी नीतिगत हस्तक्षेपों का दमघोंटू  मिश्रण रहा है।  
    • विडंबना है कि "खाद्य सुरक्षा" कृषि क्षेत्र को दाँव पर लगाकर प्राप्त की गई है जो किसानों, परिवारों, उपभोक्ताओं, व्यापारियों, फर्मों और राज्य जैसे सभी हितधारकों को दायरे में लेता है और ऐसा व्यक्तिगत कल्याण के निम्न स्तर और समग्र जोखिम के उच्च स्तर के साथ किया गया है।

आगे की राह 

  • आय  को अधिकतम तथा जोखिम को न्यूनतम करना: तीन नए कृषि कानून उन व्यापक आर्थिक सुधारों का एक पक्ष मात्र हैं जिनकी आवश्यकता भारतीय कृषि के स्थिरीकरण के लिये पड़ेगी।    
    • इन सुधारों के लिये मार्गदर्शक सिद्धांत को ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करना होगा जो कृषक परिवारों को अपना आय अधिकतम करने जबकि कृषि जोखिम के समग्र स्तर को न्यूनतम करने का अवसर दें।
  • उदारीकृत खेती: किसानों को अपने खेतों के लिये संसाधनों, भूमि, आदानों, प्रौद्योगिकी और संगठनात्मक रूपों के सर्वोत्तम मिश्रण का निर्धारण करने के लिये स्वतंत्र किया जाना चाहिये।   
    • राज्य ने बहुत लंबे समय से कृषि परिवारों को नियंत्रित एवं निर्देशित उत्पादन, विपणन और वितरण योजनाओं के अधीन रखा है।
    • किसानों को गैर-कृषि क्षेत्र के उद्यमियों की तरह अपनी शर्तों पर और अपनी इच्छा से किसी के भी साथ अनुबंध करने की स्वतंत्रता के साथ कृषि क्षेत्र में प्रवेश करने और बाहर निकलने की अनुमति दी जानी चाहिये।
  • कृषि संस्थानों और शासन प्रणालियों में सुधार: प्रमुख नीति क्षेत्रों को एक छतरी के नीचे लाकर केंद्रीय स्तर पर भूमिकाओं और उत्तरदायित्वों को स्पष्ट करने की आवश्यकता है।  
    • केंद्रीय मंत्रालयों एवं एजेंसियों के बीच और केंद्र एवं राज्यों के बीच समन्वय को सुदृढ़ करना।
  • एक प्रकार की विकेंद्रीकृत प्रणाली का अनुमोदन: ऐसे बुनियादी सुधारों की आवश्यकता है जो देश भर में किसानों और कृषि संसाधनों की अधिकाधिक गतिशीलता को अनुमति दे।  
    • एक वास्तविक विकेंद्रीकृत राज्य व्यवस्था में असम के किसी किसान को भी "पंजाब मॉडल" से उतना ही लाभ मिलेगा जितना कि पंजाब के किसानों को मिलता है और विलोमतः भी यही स्थिति होगी।

निष्कर्ष

भारत का कृषि-खाद्य क्षेत्र एक महत्त्वपूर्ण मोड़ पर है जहाँ यह विभिन्न चुनौतियों का सामना कर रहा है तो दूसरी तरफ उसके पास विभिन्न अवसर भी मौजूद हैं। यदि आवश्यक सुधार लागू किये जाते हैं तो ये भारत को अपनी विशाल आबादी के लिये खाद्य सुरक्षा की स्थिति में सुधार लाने, अपने लाखों छोटे जोतदारों के जीवन की गुणवत्ता को बेहतर करने और संसाधनों एवं जलवायु पर भारी दबावों को दूर करने में मदद करेंगे। इसके साथ ही ये सुधार संवहनीय उत्पादकता वृद्धि और एक आधुनिक, कुशल एवं प्रत्यास्थी कृषि खाद्य प्रणाली के निर्माण में सहायता करेंगे जो संपूर्ण अर्थव्यवस्था में समावेशी विकास और रोज़गार सृजन में योगदान दे सकती है।

अभ्यास प्रश्न: कृषि सुधारों को किसानों के लिये जोखिम कम करने और लाभ बढ़ाने की दिशा में उन्मुख होना चाहिये। कृषि की वर्तमान स्थिति के संदर्भ में इस कथन की विवेचना कीजिये। 

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