संघीय व्यवस्था और गवर्नर की भूमिका | 06 Jan 2021
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में राज्यपाल की विवादास्पद स्थिति व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ:
हाल ही में केरल के राज्यपाल ने राज्य मंत्रिमंडल द्वारा विधानसभा का विशेष सत्र बुलाए जाने की मांग को खारिज कर दिया है, इस विशेष सत्र का उद्देश्य केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में लागू किये गए कृषि कानूनों और नई दिल्ली में चल रहे किसान विरोध प्रदर्शन पर चर्चा करना था।
केरल के राज्यपाल का यह व्यवहार देश के कुछ अन्य राज्यों जैसे-कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि के राज्यपालों के व्यवहार के समान है, जो राज्यों की राजनीति में केंद्र के अनुचित हस्तक्षेप को बढ़ावा देता है। ध्यातव्य है इन राज्यों में उन राजनीतिक दलों की सरकार (मध्य प्रदेश दिसंबर 2018 से मार्च 2020 तक) है जो केंद्र में विपक्ष की भूमिका में शामिल है।
ऐसी घटनाएँ राज्यपालों को केंद्र के एजेंट के रूप में दर्शाते हुए उनकी नकारात्मक छवि प्रस्तुत करती हैं। निर्धारित प्रक्रिया से चुनी गई सरकार को कमज़ोर करने के लिये राज्यपाल के कार्यालय का दुरुपयोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया और संघवाद के सिद्धांत को कमज़ोर करता है।
केंद्र के एजेंट के रूप में राज्यपाल और इसके प्रभाव:
- स्रोत: भारतीय संविधान के अनुच्छेद-163 के अनुसार, राज्यपाल को राज्य मंत्रिमंडल के सुझावों और सहायता के आधार पर कार्य करना चाहिये, हालाँकि राज्यपाल से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने विवेक के अनुरूप ही कोई निर्णय लेगा।
- अतः अनुच्छेद-163 राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों के स्रोत के रूप में कार्य करता है।
- चूँकि राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है, ऐसे में अनुच्छेद-163 के साथ मिलकर केंद्र की यह शक्ति उसे राज्य के मामलों में हस्तक्षेप करने का साधन प्रदान करती है।
- हस्तक्षेप की प्रकृति: वर्तमान में चल रहे विवादों के कुछ मुद्दे निम्नलिखित हैं-
- मुख्यमंत्रियों का चयन।
- विधायी बहुमत साबित करने के लिये समय का निर्धारण।
- प्रशासन की दैनिक जानकारी की मांग।
- विधेयकों पर स्वीकृति देना या उन्हें राष्ट्रपति के पास भेजने के लिये सुरक्षित रखा जाना।
- विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों में सरकार को भंग करने के लिये राज्यपाल की सलाह पर बार-बार अनुच्छेद-365 का प्रयोग।
- राज्यपाल द्वारा राज्य सरकार की विशिष्ट नीतियों पर प्रतिकूल टिप्पणी करना।
प्रभाव:
- राज्यपाल द्वारा विधायिका की शक्तियों और एक निर्वाचित सरकार के अधिकारों का अतिक्रमण किया जाना शक्तियों का दुरुपयोग है क्योंकि वह संविधान के तहत एक नाममात्र का प्रमुख होता है।
- केंद्र सरकार द्वारा राज्यपाल कार्यालय के माध्यम से किये जाने वाले सिद्धांत विरोधी कार्य भारत की महत्त्वपूर्ण संघीय संरचना और लोकतांत्रिक प्रणाली को क्षति पहुँचाते हैं।
गवर्नर की परिकल्पित भूमिका:
- संविधान सभा का मत: संविधान सभा की बहसों की समीक्षा से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि संविधान सभा ने केंद्र की ही तरह राज्यों में भी उत्तरदायी सरकार की परिकल्पना की थी।
- डॉ. अंबेडकर के अनुसार, “मेरे मन में इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं है कि विवेकाधीन शक्तियाँ किसी भी प्रकार से ज़िम्मेदार सरकार की उपेक्षा है। यह कोई सामान्य प्रावधान नहीं है जो राज्यपाल को अपनी इच्छा अनुसार मंत्रिमंडल की किसी भी सलाह की अवहेलना करने की शक्ति प्रदान करता है।”
- क्या कहता है संविधान: चूँकि राज्य पहले से ही अपने अधिकार क्षेत्र में पूर्णतः संप्रभु है, ऐसे में राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ संविधान के तहत निर्धारित कुछ विशेष स्थितियों से परे उसे राज्य के फैसले को पलटने अधिकार नहीं प्रदान करती हैं।
- ऐसे में अपनी पसंद के मुख्यमंत्री का चयन करना या सत्ताधारी दल को बदलने के लिये दल-बदल की स्थितियाँ उत्पन्न करना या उनका लाभ उठाना एक राज्यपाल का कार्य नहीं हो सकता।
- केंद्र-राज्य संबंधों पर बनी विभिन्न समितियों के मत: हाल के कुछ दशकों में भारत की संघीय लोकतांत्रिक प्रणाली में राज्यपाल की भूमिका की समीक्षा के लिये कई समितियों का गठन किया जा चुका है।
- इन समितियों ने कई महत्त्वपूर्ण सिफारिशे कीं जो राज्यपाल कार्यालय को ‘राज्य के संवैधानिक तंत्र में एक महत्त्वपूर्ण घटक’ के रूप में स्थापित करते हैं।
केंद्र-राज्य संबंधों पर गठित विभिन्न समितियाँ:
- वर्ष 1968 का प्रशासनिक सुधार आयोग।
- वर्ष 1969 की राजमन्नार समिति।
- वर्ष 1971 की राज्यपालों की समिति।
- वर्ष 1988 का सरकारिया आयोग।
- पुंछी आयोग, 2007।
आगे की राह:
- राज्यपाल का उत्तरदायित्त्व: एक लोकतांत्रिक सरकार के सुचारु रूप से संचालन के लिये यह बहुत आवश्यक है कि राज्यपाल को अपने विवेक और व्यक्तिगत निर्णय का प्रयोग करते हुए तर्कपूर्ण, निष्पक्ष तथा कुशलता से कार्य करना चाहिये।
- जैसा कि सरकारिया आयोग ने कहा है, राज्यपाल का कार्य “यह सुनिश्चित करना है कि सरकार बने, न कि सरकार बनाने का प्रयास करना।”
- संघवाद को मज़बूत बनाना: राज्यपाल कार्यालय के दुरुपयोग को रोकने के लिये भारत में संघवाद तंत्र को और मज़बूत किया जाना बहुत आवश्यक है।
- इस संबंध में अंतर-राज्य परिषद और संघवाद के कक्ष के रूप में राज्यसभा की भूमिका को मज़बूत किया जाना चाहिये।
- राज्यपाल की नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार: राज्यपाल के रूप में ‘अपने किसी व्यक्ति/प्रतिनिधि’ का चुनाव करने के केंद्र के एकाधिकार को समाप्त करने के लिये यह नियुक्ति राज्य विधायिका द्वारा स्थापित एक पैनल द्वारा की जा सकती है। इसके अतिरिक्त वास्तविक नियुक्ति प्राधिकारी अंतर-राज्य परिषद को होना चाहिये, न कि केंद्र सरकार का।
- राज्यपाल के लिये आचार संहिता: राज्यपाल के लिये संविधान में निर्धारित कर्तव्यों का निर्वहन करने हेतु केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा आपसी सहमति से एक ‘आचार संहिता’ (Code of Conduct) का निर्धारण किया जाना चाहिये।
- इस आचार संहिता के तहत कुछ 'मानदंडों और सिद्धांतों' का निर्धारण किया जाना चाहिये जो राज्यपाल के 'विवेक' और उसकी शक्तियों (जिसे वह अपने फैसलों में प्रयोग करने का हकदार है) के कार्यान्वयन का मार्गदर्शन करें।
- इस संदर्भ में ऐसी संहिता के लिये केंद्र-राज्यों संबंधों पर बने सरकारिया आयोग की विभिन्न सिफारिशों से प्रेरणा ली जा सकती है।
निष्कर्ष:
राज्यपाल किसी राज्य की राजधानी में बैठा केंद्र सरकार का एक एजेंट नहीं है, बल्कि वह राज्य स्तर पर भारत की संघीय और लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक महत्त्वपूर्ण घटक/कील (Lynchpin) का कार्य करता है। अतः संवैधानिक लोकतंत्र के सफल संचालन के लिये राज्यपाल की भूमिका अपरिहार्य है और उसे इस भूमिका में अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन करते हुए निष्पक्षता को बनाए रखना चाहिये।
अभ्यास प्रश्न: भारतीय राजनीति में राज्यपाल की भूमिका और उसकी शक्तियाँ एक विवादास्पद मुद्दा रहा है। टिप्पणी कीजिये।