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एडिटोरियल

  • 28 Nov, 2019
  • 21 min read
भारतीय राजव्यवस्था

राज्यपाल का पद और संबंधित विवाद

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में राज्यपाल का पद और उससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

बीते दिनों एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने कहा था कि “राज्यपाल राज्य का संरक्षक और मार्गदर्शक के रूप में कार्य करता है और देश के संघात्मक ढाँचे में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।” हालाँकि विगत कुछ दिनों में महाराष्ट्र के राज्यपाल द्वारा की गई कार्रवाई ने देश में राज्यपाल के पद को जाँच के दायरे में ला दिया है। महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री द्वारा ली गई शपथ और बहुमत सिद्ध करने से पूर्व इस्तीफे के पूरे घटनाक्रम में राजभवन (राज्यपाल का आवास) विवाद का केंद्र बना रहा। गौरतलब है कि इस वर्ष के शुरू में कर्नाटक विधानसभा चुनावों के तुरंत बाद कर्नाटक के राज्यपाल द्वारा की गई कार्रवाई को भी विवेकाधीन शक्तियों के पहलुओं पर न्यायिक जाँच के दायरे में माना गया था। ऐसी स्थिति में देश के अंतर्गत राज्यपाल के पद और उसकी प्रासंगिकता पर विचार करना अनिवार्य हो जाता है।

भारत में राज्यपाल

  • जिस प्रकार केंद्र में राष्ट्र का प्रमुख राष्ट्रपति होता है उसी प्रकार राज्यों में राज्य का प्रमुख राज्यपाल होता है।
  • उल्लेखनीय है कि राज्यपाल राज्य का औपचारिक प्रमुख होता है और राज्य की सभी कार्यवाहियाँ उसी के नाम पर की जाती हैं।
  • प्रत्येक राज्य का राज्यपाल देश के केंद्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है एवं यह राज्य के मुख्यमंत्री की सलाह से कार्य करता है।
  • सामान्यतः राज्यपाल का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है, परंतु वह इस अवधि से पूर्व भी राष्ट्रपति को इस्तीफा देकर सेवानिवृत्त हो सकता है।
  • गौरतलब है कि राज्यपाल का कार्यालय पिछले पाँच दशकों से सबसे विवादास्पद रहा है। यह विवाद 1959 में राज्य और केंद्र सरकार के बीच राजनीतिक मतभेद के कारण केरल के तत्कालीन राज्यपाल द्वारा केरल सरकार की बर्खास्तगी से शुरू हुआ था।
    • इस विवाद ने 1967 में उत्तरी राज्यों में कई गैर-कांग्रेसी सरकारों के उभरने के बाद सबसे खराब रूप धारण कर लिया।

संबंधित संवैधानिक प्रावधान

  • भारतीय संविधान का भाग VI देश के संघीय ढाँचे के महत्त्वपूर्ण हिस्से यानी राज्यों से संबंधित है। संविधान के अनुच्छेद 152 से 237 तक राज्यों से संबंधित विभिन्न प्रावधानों का उल्लेख किया गया है।
  • अनुच्छेद 153 के मुताबिक, देश में प्रत्येक राज्य का एक राज्यपाल होगा। साथ ही एक व्यक्ति को दो या दो से अधिक राज्यों के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया जा सकता है।
    • अनुच्छेद 155 के अनुसार, राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
  • संविधान के अनुसार, राज्यपाल राज्य के संवैधानिक प्रमुख और प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है। वह भारतीय राजनीति की संघीय प्रणाली का हिस्सा है तथा संघ एवं राज्य सरकारों के बीच एक पुल का काम करता है।
  • संविधान के अनुच्छेद 157 और अनुच्छेद 158 में राज्यपाल के पद हेतु आवश्यक पात्रता निर्धारित की गईं है जो निम्नलिखित हैं:
    • वह भारतीय नागरिक हो।
    • उसकी उम्र कम-से-कम 35 वर्ष हो।
    • वह न तो संसद के किसी सदन का सदस्य हो और न ही राज्य विधायिका का।
    • वह किसी लाभ के पद पर न हो।
  • ध्यातव्य है कि संविधान का अनुच्छेद 163 राज्यपाल को विवेकाधिकार की शक्ति प्रदान करता है अर्थात् वह स्वविवेक संबंधी कार्यों में मंत्रिपरिषद की सलाह मानने हेतु बाध्य नहीं है। राज्यपाल को निम्नलिखित विवेकाधीन शक्तियाँ प्राप्त होती हैं:
    • यदि किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता है, तो राज्यपाल मुख्यमंत्री के चयन में अपने विवेक का उपयोग कर सकता है।
    • किसी दल को बहुमत सिद्ध करने हेतु कितना समय दिया जाना चाहिये यह भी राज्यपाल के विवेक पर निर्भर करता है।
    • आपातकाल के दौरान वह मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिये बाध्य नहीं होता। ऐसे समय में वह राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है और राज्य का वास्तविक शासक बन जाता है।

राज्यपाल की नियुक्ति

  • गौरतलब है कि राज्यपाल का चुनाव न तो सीधे आम लोगों द्वारा किया जाता है और न ही कोई विशेष रूप से गठित निर्वाचक मंडल इसका चुनाव करता है।
  • इसके विपरीत राज्यों के गवर्नर की नियुक्ति प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रपति द्वारा की जाती है जिसके कारण उसे केंद्र सरकार का प्रतिनिधि भी कहा जाता है।
  • संविधान निर्माण के समय मसौदा समिति ने यह निर्णय संविधान सभा पर छोड़ दिया था कि देश में राज्यपालों के लिये चुनाव किये जाने चाहिये या फिर उनका मानांकन किया जाना चाहिये।
  • इस विषय पर संविधान सभा का मानना था कि राज्यपालों के चयन के लिये चुनाव किया जाना चाहिये, परंतु राज्यपाल और मुख्यमंत्री की शक्तियों के बीच टकराव की आशंका ने राज्य में राज्यपाल के नामांकन की प्रणाली को जन्म दिया।

राज्यपाल की भूमिका

  • प्रत्येक राज्य का राज्यपाल वहाँ लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार के संचालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ध्यातव्य है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 153 से 162 तक राज्यपाल की भूमिका का वर्णन किया गया है।
  • राज्य के राज्यपाल की भूमिका कमोबेश देश के राष्ट्रपति के सामान ही होती है। राज्यपाल सामान्यतः राज्यों के लिये राष्ट्रपति जैसी भूमिका का निर्वाह करता है।
  • राज्यपाल के कार्यों को मुख्यतः 4 भागों (1) कार्यकारी (2) विधायी (3) वित्तीय (4) न्यायिक में विभाजित किया गया है।

कार्यकारी

  • राज्य का संवैधानिक प्रमुख होने के नाते राज्यपाल को कई महत्त्वपूर्ण कार्य करने होते हैं, इसमें बहुमत प्राप्त दल के नेता को राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त करना तथा राज्य मंत्रिमंडल के गठन में मुख्यमंत्री की सहायता करना आदि शामिल हैं। साथ ही राज्य के महाधिवक्ता तथा राज्य लोक आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति का कार्य भी राज्यपाल द्वारा ही किया जाता है।

विधायी

  • राज्यपाल के पास राज्य की विधानसभा की बैठक को किसी भी आपात स्थिति में बुलाने और किसी भी समय स्थगित करने का अधिकार होता है। साथ ही उसे दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाने का भी अधिकार है। उसे राज्य विधानसभा में पारित किये जाने वाले किसी भी विधेयक को रद्द करने, समीक्षा के लिये वापस भेजने और राष्ट्रपति के पास भेजने का अधिकार है। इसका अर्थ है कि राज्य विधानसभा में कोई भी विधेयक राज्यपाल की अनुमति के बिना पारित नहीं किया जा सकता। राज्य में आपातकाल के दौरान किसी भी प्रकार का अध्यादेश जारी करने का कार्य भी राज्यपाल का होता है।

वित्तीय

  • राज्यपाल का कार्य यह सुनिश्चित करना भी होता है कि वार्षिक वित्तीय विवरण (राज्य-बजट) को राज्य विधानमंडल के सामने रखा जाए। साथ ही किसी भी धन विधेयक को विधानसभा में उसकी अनुमति के बाद ही प्रस्तुत किया जा सकता है। पंचायतों एवं नगरपालिका की वित्तीय स्थिति की हर पाँच वर्षों बाद समीक्षा करने के लिये राज्यपाल राज्य वित्त आयोग का भी गठन करता है।

न्यायिक

  • राज्यपाल के न्यायिक कार्यों में राज्य के उच्च न्यायालय के साथ विचार कर ज़िला न्यायाधीशों की नियुक्ति, स्थानांतरण और पदोन्नति संबंधी निर्णय लेना शामिल है। वह राज्य न्यायिक आयोग से जुड़े लोगों की नियुक्ति भी करता है।

महत्त्वपूर्ण निर्णय जिन्होंने राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को आकार दिया

  • एस.आर. बोम्मई बनाम भारत सरकार
    • सर्वोच्च न्यायालय के कई ऐसे फैसले हैं, जिनका समाज और राजनीति पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा है। इन्हीं में से एक है 11 मार्च, 1994 को दिया गया ऐतिहासिक फैसला जो राज्यों में सरकारें भंग करने की केंद्र सरकार की शक्ति को कम करता है।
    • गौरतलब है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री एस.आर. बोम्मई के फोन टैपिंग मामले में फँसने के बाद तत्कालीन राज्यपाल ने उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया था, जिसके बाद यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुँचा था।
    • सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय ने केंद्र सरकार द्वारा अनुच्छेद 356 के व्यापक दुरुपयोग पर विराम लगा दिया।
    • इस फैसले में न्यायालय ने कहा था कि "किसी भी राज्य सरकार के बहुमत का फैसला राजभवन की जगह विधानमंडल में होना चाहिये। राष्ट्रपति शासन लगाने से पहले राज्य सरकार को शक्ति परीक्षण का मौका देना होगा।"
  • रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत सरकार
    • वर्ष 2006 में दिये गए इस निर्णय में पाँच सदस्यों वाली न्यायपीठ ने स्पष्ट किया था कि यदि विधानसभा चुनावों में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता और कुछ दल मिलकर सरकार बनाने का दावा करते हैं तो इसमें कोई समस्या नहीं है, चाहे चुनाव पूर्व उन दलों में गठबंधन हो या न हो।
  • नबाम रेबिया बनाम उपाध्यक्ष
    • वर्ष 2016 में उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया था कि राज्यपाल के विवेक के प्रयोग से संबंधित अनुच्छेद 163 सीमित है और उसके द्वारा की जाने वाली कार्रवाई मनमानी या काल्पनिक नहीं होनी चाहिये। अपनी कार्रवाई के लिये राज्यपाल के पास तर्क होना चाहिये और यह सद्भावना के साथ की जानी चाहिये।

विभिन्न आयोगों और समितियों द्वारा दी गई सिफारिशें

  • वर्ष 1966 में केंद्र सरकार द्वारा मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) का गठन किया गया था, आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि राज्यपाल के पद पर किसी ऐसे व्यक्ति को नियुक्त किया जाना चाहिये जो किसी दल विशेष से न जुड़ा हो।
  • वर्ष 1970 में तमिलनाडु सरकार द्वारा केंद्र व राज्य संबंधों पर विचार करने के लिये राजमन्नार समिति का गठन किया गया था। गौरतलब है कि इस समिति ने भारतीय संविधान से अनुच्छेद 356 और 357 के विलोपन (Deletion) की सिफारिश की थी। संविधान के अनुच्छेद 356 के अनुसार, यदि राज्य सरकार संवैधानिक प्रावधानों के तहत कार्य करने में असमर्थ है तो केंद्र राज्य पर प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण स्थापित कर सकता है। संविधान के अनुसार, इसकी घोषणा राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति से सहमति प्राप्त करने के बाद की जाती है। साथ ही समिति ने यह भी सिफारिश की थी कि राज्यपाल की नियुक्ति प्रक्रिया में राज्यों को भी शामिल किया जाना चाहिये।
  • 1980 में गठित सरकारिया आयोग ने 1988 में 1600 पेज की अपनी अंतिम रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी, जिसमें केंद्र-राज्य संबंधों को लेकर बिंदुवार 247 सिफारिशें की गई थीं। सरकारिया आयोग की केंद्र-राज्य संबंधों के बारे में जो अनुशंसाएं हैं, उसके भाग-1 और अध्याय-4 में यह स्पष्ट किया गया है कि राज्यपाल का पद एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है, राज्यपाल न तो केंद्र सरकार के अधीनस्थ है और न उसका कार्यालय केंद्र सरकार का कार्यालय है।

राज्यपाल के पद का महत्त्व

  • कई विशेषज्ञों का मानना है कि राज्यपाल का पद केंद्र और राज्यों के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में है जो देश के संघीय ढाँचे को सुव्यवस्थित रूप से चलाने में मदद करता है।
  • गौरतलब है कि लोकतंत्र के सुचारु संचालन में भी इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।
  • चूँकि हमारा देश राज्यों में विभाजित है इसलिये कई जानकार देश के राष्ट्रीय हित, अखंडता और आंतरिक सुरक्षा के लिये केंद्रीय पर्यवेक्षण की वकालत करते हैं जिसके लिये राज्यपाल की आवश्यकता होती है।

राज्यपाल पद संबंधी विवाद

  • देश में राज्यपाल के पद के दुरुपयोग के कई उदाहरण देखने को मिले हैं, आमतौर पर माना जाता है कि चूँकि राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है इसलिये वह राज्य में केंद्र के निर्देशों पर कार्य करता है और यदि केंद्र व राज्य में एक ही दल की सरकार नहीं है तो राज्य की कार्यप्रणाली में काफी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
  • कई मामलों में एक विशेष राजनीतिक विचारधारा के साथ जाने-माने राजनेताओं और पूर्व नौकरशाहों को ही सरकार द्वारा राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया गया है। गौरतलब है कि इसके परिणामस्वरूप कई बार राज्यपालों को पक्षपात करते हुए भी देखा गया है।
  • इसी वर्ष राजस्थान के राज्यपाल पर आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन का आरोप लगाया गया था। सत्ताधारी दल को समर्थन प्रदान करना किसी भी संवैधानिक पद पर काबिज़ व्यक्ति से अपेक्षित नहीं होता है, परंतु फिर भी समय-समय पर ऐसी घटनाएँ सामने आती रहती हैं।
  • राज्य में चुनावों के बाद सरकार बनाने के लिये सबसे बड़ी पार्टी या गठबंधन को आमंत्रित करने हेतु राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का अक्सर किसी विशेष राजनीतिक दल के पक्ष में दुरुपयोग किया गया है।
  • कार्यकाल की समाप्ति से पहले ही राज्यपाल को पद से हटाना भी हाल के दिनों में एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा रहा है।
    • राज्यपाल को इस आधार पर नहीं हटाया जा सकता कि वह केंद्र की सत्ता में मौजूद दल की नीतियों और विचारधाराओं के साथ तालमेल नहीं रखता।

आगे की राह

  • इसमें कोई संदेह नहीं है कि राज्यपालों की नियुक्ति और उनके कार्यकाल से संबंधित प्रावधानों में बड़े सुधारों की आवश्यकता है।
  • वर्ष 1970 में गठित राजमन्नार समिति की सिफारिशों को लागू किया जाना चाहिये और राज्यपालों की नियुक्ति प्रक्रिया में राज्यों को भी शामिल किया जाना चाहिये। उल्लेखनीय है कि केंद्र-राज्य समीकरणों में असंतुलन को दूर रखने की शुरुआत इस तरह के सुधार से की जा सकती है।
  • राज्यपालों द्वारा लिये गए निर्णयों को न्यायिक जाँच के अधीन लाया जाना चाहिये जिसमें उस निर्णय तक पहुँचने के लिये प्रयोग किये गए स्रोत भी शामिल हों।
  • राज्यपाल के कार्यालय से जुड़ी शक्तियाँ और विशेषाधिकार जवाबदेही तथा पारदर्शिता के साथ संलग्न होने चाहिये।
  • राज्यपाल को अपने दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन करने में सक्षम बनाने के लिये राज्य सरकारों, केंद्र सरकार, संसद और राज्य विधानसभाओं द्वारा अनुमोदित एक 'सहमत आचार संहिता' विकसित की जानी चाहिये।
  • राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों पर अंकुश लगाया जाना चाहिये और मुख्यमंत्री की नियुक्ति को लेकर उचित दिशा-निर्देश होने चाहिये।

निष्कर्ष

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिलने और सरकार बनाने के समर्थन तथा आरोपों के बीच राज्यपाल पद का मुद्दा एक बार फिर बहस के केंद्र में आ गया है। यह कहा जा सकता है कि राज्यपाल का पद व्यर्थ है और राज्य सरकारों पर वित्तीय बोझ है, परंतु हमें राज्यपाल द्वारा निभाई जाने वाली महत्त्वपूर्ण भूमिका को अनदेखा नहीं करना चाहिये। वह केंद्र सरकार एवं राज्य सरकार के बीच एक सेतु का कार्य करता है। वह राज्य सरकार के गठन में मदद करता है और राज्य विधानसभा में पारित होने वाले विधेयकों की वैधानिकता पर भी नज़र रखता है। अतः लोकतंत्र के स्वस्थ कामकाज में राज्यपाल की आवश्यकता को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिये। हालाँकि यह तथ्य भी सही है कि राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण विगत कुछ समय में इस पद को लेकर प्रश्न उठे हैं। राज्यपाल के पद संबंधी इन विवादों और चुनौतियों पर ध्यान दिया जाना चाहिये तथा सभी हितधारकों से बात कर इसमें सुधार का प्रयास किया जाना चाहिये।

प्रश्न: संविधान निर्माताओं का ऐसा मानना था कि राज्यपाल का पद केंद्र व राज्य के मध्य समन्वयकारी भूमिका अदा करेगा, परंतु वर्तमान समय में ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा है। राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों पर चर्चा करते हुए इसके पद संबंधी विवादों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।


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