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भारतीय राजव्यवस्था

भारत में समान नागरिक संहिता (UCC)

  • 19 Aug 2024
  • 26 min read

यह एडिटोरियल 16/08/2024 को ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में प्रकाशित “Call for a new ‘secular’ civil code” लेख पर आधारित है। इसमें धर्म आधारित भेदभाव को समाप्त करने और समानता को बढ़ावा देने के लिये समान नागरिक संहिता (UCC) की आवश्यकता पर चर्चा की गई है, जिस पर भारत के प्रधानमंत्री ने अपने स्वतंत्रता दिवस संबोधन में बल दिया था।

प्रिलिम्स के लिये:

समान नागरिक संहिता, राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत, मौलिक अधिकार, शाह बानो केस (1985) , शायरा बानो केस- 2017 , भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14, विवाह में LGBTQ+ अधिकार, वैश्विक लिंग अंतर सूचकांक, उत्तराखंड में UCC। 

मेन्स के लिये:

भारत में समान नागरिक संहिता से संबंधित संवैधानिक इतिहास और प्रमुख न्यायिक घोषणाएँ, समान नागरिक संहिता के पक्ष और विपक्ष में तर्क

समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code- UCC) भारत के विधिक एवं सामाजिक परिदृश्य में एक लंबे समय से लंबित और जटिल मुद्दा बना रहा है। UCC का उद्देश्य वर्तमान प्रणाली को बदलना है, जहाँ विभिन्न धार्मिक समुदाय विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और दत्तक ग्रहण जैसे मामलों में अपने स्वयं के व्यक्तिगत कानूनों (personal laws) का पालन करते हैं। समर्थकों का तर्क है कि UCC राष्ट्रीय एकीकरण, लैंगिक न्याय और विधि के समक्ष समता को बढ़ावा देगा, जबकि आलोचक चिंता जताते हैं कि यह धार्मिक एवं सांस्कृतिक विविधता के संरक्षण को क्षति पहुँचा सकता है।

समान नागरिक संहिता की अवधारणा स्वतंत्रता के बाद से ही भारत के संवैधानिक ढाँचे का अंग रही है, जिसे राज्य के नीति के निदेशक तत्त्व (DPSP) के रूप में शामिल किया गया है। हालाँकि इसका कार्यान्वयन दशकों से बहस और विवाद का विषय रहा है। समान नागरिक संहिता के इर्द-गिर्द होने वाली चर्चा धार्मिक स्वतंत्रता, अल्पसंख्यक अधिकार और समान नागरिक विधि एवं भारत की विविध सांस्कृतिक परंपराओं के बीच संतुलन जैसे संवेदनशील मुद्दों को स्पर्श करती है

समान नागरिक संहिता क्या है?

  • समान नागरिक संहिता भारत के सभी नागरिकों के लिये विवाह, तलाक, दत्तक ग्रहण, विरासत एवं उत्तराधिकार जैसे व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करने वाली विधियों के एक समूह को संदर्भित करती है।
  • समान नागरिक संहिता की अवधारणा का उल्लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 में राज्य नीति के निदेशक तत्व के रूप में किया गया है, जहाँ कहा गया है कि राज्य भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिये एकसमान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।
    • हालाँकि, यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि यह कानूनी रूप से प्रवर्तनीय (enforceable) अधिकार नहीं है, बल्कि राज्य के लिये एक मार्गदर्शक सिद्धांत है।

समान नागरिक संहिता से संबंधित संवैधानिक इतिहास और प्रमुख न्यायिक घोषणाएँ:

  • आरंभिक बहस:
    • मूल अधिकारों पर उप-समिति: संविधान के लिये मूल अधिकारों का मसौदा तैयार करने के क्रम में उप-समिति सदस्यों (बी. आर. अंबेडकर, के. एम. मुंशी और मीनू मसानी) ने UCC को अपने मसौदे में शामिल किया था।
    • अधिकारों का विभाजन: उप-समिति ने मूल अधिकारों को वाद-योग्य (justiciable) और वाद-अयोग्य (non-justiciable) श्रेणियों में विभाजित किया। UCC को वाद-अयोग्य श्रेणी में रखा गया।
      • मीनू मसानी, हंसा मेहता और अमृत कौर ने इसका विरोध करते हुए तर्क दिया कि धर्म पर आधारित व्यक्तिगत कानून राष्ट्रीय एकता में बाधा डाल सकते हैं।
      • उन्होंने समान नागरिक संहिता को वाद-योग्य अधिकार के रूप में पेश करने की वकालत की।
  • संविधान सभा की बहस:
    • अनुच्छेद 35 का मसौदा: अंबेडकर द्वारा प्रस्तुत अनुच्छेद 35 के मसौदे (जो बाद में अनुच्छेद 44 बना) ने समान नागरिक संहिता को निदेशक तत्वों में शामिल किया, जिससे यह गैर-अधिदेशात्मक (non-mandatory) हो गया।
      • इस्माइल साहब और पोकर साहिब बहादुर जैसे मुस्लिम नेताओं ने तर्क दिया कि समान नागरिक संहिता धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करती है और इससे असामंजस्य पैदा होगा।
    • UCC के बचाव में तर्क:
      • के. एम. मुंशी: उन्होंने राष्ट्रीय एकता और धर्मनिरपेक्षता के लिये समान नागरिक संहिता की वकालत की, जहाँ हिंदू समुदायों की चिंताओं पर भी ध्यान दिया।
      • अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर: उन्होंने तर्क दिया कि समान नागरिक संहिता से सद्भाव को बढ़ावा मिलेगा और सवाल उठाया कि मौजूदा समान दंड संहिता के विरुद्ध कोई विरोध क्यों नहीं हुआ।
      • भीमराव अंबेडकर: उन्होंने समान नागरिक संहिता की वैकल्पिक प्रकृति पर बल दिया और इसे नीति निदेशक तत्वों में शामिल करने को समझौता (compromise) बतलाया।
  • UCC पर प्रमुख न्यायिक घोषणाएँ
    • शाह बानो केस (1985) : न्यायालय ने एक मुस्लिम महिला के भरण-पोषण के अधिकार की पुष्टि की और समान नागरिक संहिता को राष्ट्रीय एकीकरण से जोड़कर देखा।
    • 1985 - जॉर्डन डिएंगडेह मामला: तलाक कानूनों की विसंगतियों को उजागर किया गया और विधिक एकरूपता के लिये UCC की मांग की गई।
    • 1995 - सरला मुद्गल मामला: समान नागरिक संहिता (UCC) का प्रबल समर्थन किया गया, विशेष रूप से बहुसंख्यक हिंदू आबादी के लिये, और इसके कार्यान्वयन में हो रही देरी पर सवाल उठाया।
    • 1996 - पन्नालाल बंसीलाल पिट्टी मामला: भारत की बहुलवादिता को स्वीकार किया गया तथा समान नागरिक संहिता के क्रमिक कार्यान्वयन का तर्क दिया गया।
    • 2000 - लिली थॉमस मामला: सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तराधिकार के संदर्भ में UCC के महत्त्व पर बल दिया।
    • 2003 - जॉन वल्लमट्टम मामला: ईसाई पर्सनल लॉ में मौजूद भेदभावपूर्ण प्रावधानों को निरस्त कर दिया गया और समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर बल दिया गया।
    • 2014 - शबनम हाशमी मामला: किशोर न्याय अधिनियम को UCC से जोड़ा गया और धर्मनिरपेक्ष कानूनों की आवश्यकता पर बल दिया गया।
    • शायरा बानो केस- 2017: इसने तीन तलाक के मुद्दे को संबोधित किया, समान नागरिक संहिता पर बहस को फिर से प्रेरित किया, लेकिन इसे मानवाधिकारों के मुद्दे से अलग कर देखा।

समान नागरिक संहिता के पक्ष में तर्क: 

  • विधि के अंतर्गत समता – धार्मिक बाधाओं को तोड़ना: समान नागरिक संहिता सभी नागरिकों के लिये समान अधिकार और व्यवहार सुनिश्चित करेगी, चाहे उनकी धार्मिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो।
    • यह भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 के अनुरूप है, जो विधि के समक्ष समता की गारंटी देता है।
    • समान नागरिक संहिता विवाह कानूनों को मानकीकृत करेगी तथा लैंगिक समानता एवं धार्मिक तटस्थता को बढ़ावा देगी।
    • उत्तराखंड में हाल ही में समान नागरिक संहिता का कार्यान्वयन, जहाँ बहुविवाह पर प्रतिबंध लगाया गया है और सभी के लिये विवाह की आयु 21 वर्ष निर्धारित की गई है, संभावित राष्ट्रीय कार्यान्वयन के लिये एक मॉडल के रूप में कार्य कर सकता है।
  • महिला सशक्तीकरण – पितृसत्तात्मक मानदंडों को चुनौती देना: कई व्यक्तिगत कानूनों की महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण होने के लिये आलोचना की जाती है।
    • समान नागरिक संहिता तीन तलाक, असमान उत्तराधिकार अधिकार और बाल विवाह जैसे मुद्दों का समाधान कर सकती है।
    • NFHS-5 के अनुमानों से पता चलता है कि 20-24 आयु वर्ग की 23.3% महिलाओं का विवाह 18 वर्ष की आयु से पहले हो गया था; यह समान विवाह कानूनों की आवश्यकता को उजागर करता है।
      • UCC संभावित रूप से इस संख्या को कम कर सकती है।
  • कानूनी प्रणाली को सरल बनाना – व्यक्तिगत कानूनों को सुव्यवस्थित करना: भारत में धर्म के आधार पर कई व्यक्तिगत कानूनों की वर्तमान प्रणाली एक जटिल कानूनी परिदृश्य का निर्माण करती है।
    • समान नागरिक संहिता इस प्रणाली को सरल बनाएगी, जिससे न्यायालयों के लिये न्याय करना आसान हो जाएगा तथा नागरिकों के लिये अपने अधिकारों को समझना सरल हो जाएगा।
    • सिविल मामलों में पर्सनल लॉ संबंधी विवाद एक बड़ी हिस्सेदारी रखते हैं, जिससे न्यायालय के समक्ष लंबित मामलों में वृद्धि होती है। एक एकीकृत संहिता संभावित रूप से इस बोझ को कम कर सकती है और कानूनी प्रक्रियाओं को सरल बना सकती है।
  • राष्ट्रीय एकता – एकीकृत भारतीय पहचान को बढ़ावा देना: समर्थकों का तर्क है कि समान नागरिक संहिता नागरिक मामलों में धार्मिक पहचान की तुलना में नागरिकता पर बल देकर राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देगी।
    • यह जर्गेन हेबरमास (Jürgen Habermas) जैसे विद्वानों द्वारा समर्थित ‘संवैधानिक देशभक्ति’ (constitutional patriotism) के विचार से मेल खाता है।
    • सभी समुदायों के लिये समान दंड संहिता (भारतीय दंड संहिता- IPC) का सफल कार्यान्वयन इस बात का उदाहरण है कि भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज में एक एकीकृत कानून किस प्रकार कार्य कर सकता है।
  • आधुनिकीकरण और सामाजिक सुधार: समान नागरिक संहिता सभी समुदायों में पुरानी प्रथाओं में सुधार लाने और व्यक्तिगत कानूनों को समकालीन सामाजिक मूल्यों के अनुरूप बनाने का एक अवसर सिद्ध हो सकता है।
    • उदाहरण के लिये, वर्ष 2018 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समलैंगिक संबंधों को वैध बनाना आधुनिक व्यक्तिगत कानूनों की आवश्यकता को उजागर करता है।
    • समान नागरिक संहिता संभावित रूप से विवाह, दत्तक ग्रहण और उत्तराधिकार जैसे मामलों में LGBTQ+ अधिकारों जैसे मुद्दों को संबोधित कर सकती है, जिन्हें वर्तमान में विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों के तहत समान रूप से मान्यता नहीं दी गई है।
  • अंतर्राष्ट्रीय संरेखण – वैश्विक प्रवृत्तियों के साथ तालमेल बनाए रखना: विविध जनसंख्या वाले कई देशों ने एकीकृत नागरिक संहिताओं को सफलतापूर्वक लागू किया है।
    • वर्ष 1926 में तुर्की द्वारा धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता का अंगीकरण इसका एक प्रमुख उदाहरण है।
    • समान नागरिक संहिता (UCC) के अंगीकरण से भारत अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों के अनुरूप बन सकता है, जिससे वैश्विक सूचकांकों (जैसे ग्लोबल जेंडर गैप सूचकांक) पर इसकी स्थिति में सुधार हो सकता है, जहाँ वह वर्तमान में 146 देशों के बीच 129वें स्थान पर है।

समान नागरिक संहिता के विरुद्ध तर्क:

  • सांस्कृतिक संरक्षण – भारत की विविध विरासत की रक्षा करना: भारत का बहुलवादी समाज सांस्कृतिक एवं धार्मिक प्रथाओं के समृद्ध मिश्रण से चिह्नित होता है, जिनमें से कई व्यक्तिगत कानूनों के तहत संरक्षित हैं।
    • आलोचकों का तर्क है कि समान नागरिक संहिता इस विविधता को नष्ट कर सकती है और सांस्कृतिक एकरूपता की ओर ले जा सकती है।
    • उदाहरण के लिये, खासी जनजाति की अद्वितीय मातृवंशीय उत्तराधिकार प्रणाली खतरे में पड़ सकती है।
  • धार्मिक स्वतंत्रता – धर्मनिरपेक्षता एवं आस्था में संतुलन रखना: समान नागरिक संहिता के विरोधियों का तर्क है कि यह संविधान के अनुच्छेद 25 द्वारा गारंटीकृत धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन कर सकता है।
    • उनका तर्क है कि व्यक्तिगत कानून कई समुदायों के लिये धार्मिक आचरण का अभिन्न अंग हैं।
    • प्यू रिसर्च सेंटर (Pew Research Center) के वर्ष 2021 के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 84% भारतीय अपने जीवन में धर्म को अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानते हैं। धर्म से प्रभावित व्यक्तिगत कानूनों में किसी बदलाव को संभावित प्रतिरोध का सामना करना पड़ सकता है।
  • अल्पसंख्यक अधिकार – कमज़ोर समुदायों की सुरक्षा करना: ऐसी चिंताएँ व्यक्त की गई हैं कि समान नागरिक संहिता अल्पसंख्यक समुदायों को असंगत रूप से प्रभावित कर सकती है, जिससे उनमें संभावित रूप से हाशिये पर धकेले जाने की भावना पैदा हो सकती है।
    • आलोचकों ने उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता के कार्यान्वयन की ओर ध्यान दिलाया है, जिसे अल्पसंख्यक समूहों के विरोध का सामना करना पड़ा, जहाँ उनका कहना था कि इसमें उनकी परंपराओं पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है।
    • भारत की अल्पसंख्यक आबादी, जो कुल आबादी की लगभग 19.3% है (वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार), को भय है कि समान नागरिक संहिता बहुसंख्यक प्रथाओं से अधिक प्रभावित हो सकती है, जिससे उनकी अपनी सांस्कृतिक पहचान कमज़ोर हो सकती है।
  • व्यावहारिक कार्यान्वयन – लॉजिस्टिकल बाधाओं पर काबू पाना: आलोचकों का तर्क है कि भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में सभी समुदायों को संतुष्ट कर सकने वाली समान नागरिक संहिता का निर्माण करना व्यावहारिक रूप से असंभव है।
    • विधि आयोग की वर्ष 2018 की रिपोर्ट में देश की विविधता का हवाला देते हुए निष्कर्ष दिया गया था कि वर्तमान समय में समान नागरिक संहिता ‘न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय’।
    • चुनौती इस तथ्य से स्पष्ट है कि हिंदू कानून में भी, जिसे 1950 के दशक में संहिताबद्ध किया गया था, अभी भी क्षेत्रीय भिन्नताएँ मौजूद हैं।
    • उदाहरण के लिये, हिंदू उत्तराधिकार (केरल संशोधन) अधिनियम 2015 केरल में भिन्न उत्तराधिकार नियमों का प्रावधान करता है।
  • संघवाद संबंधी चिंताएँ – राज्य बनाम केंद्र प्राधिकार: एक राष्ट्रव्यापी समान नागरिक संहिता का कार्यान्वयन संभावित रूप से भारत के संघीय ढाँचे का उल्लंघन कर सकता है।
    • व्यक्तिगत कानून संविधान की समवर्ती सूची के अंतर्गत आते हैं, जिसके तहत राज्य और केंद्र दोनों सरकारों को उन पर कानून बनाने का अधिकार है।
    • आलोचकों का मानना है कि केंद्र द्वारा अधिरोपित समान नागरिक संहिता राज्य स्वायत्तता को कमज़ोर कर सकती है। हाल ही में उत्तराखंड में राज्य की स्वयं की पहल के रूप में UCC का कार्यान्वयन सवाल खड़े करता है कि राष्ट्रीय समान नागरिक संहिता राज्य-विशिष्ट कानूनों एवं रीति-रिवाजों के साथ किस प्रकार तालमेल स्थापित करेगी।
  • आर्थिक प्रभाव – कानूनी सुधार की प्रच्छन्न लागतें: UCC के कार्यान्वयन के लिये कानूनी प्रणाली में बड़े पैमाने पर सुधार की आवश्यकता होगी, जिसके लिये संभावित रूप से महत्त्वपूर्ण लागतें उठानी पड़ेंगी।
    • इसमें कानूनी पेशेवरों को पुनः प्रशिक्षित करना, कानूनी डेटाबेस को अद्यतन करना तथा संक्रमण काल के दौरान न्यायालय पर बोझ बढ़ान शामिल है।
    • आलोचकों का तर्क है कि जहाँ भारत की न्यायपालिका पहले से ही 47 मिलियन से अधिक लंबित मामलों का सामना कर रही है, समान नागरिक संहिता के कार्यान्वयन के लिये आवश्यक संसाधनों का बेहतर उपयोग यह होगा कि उन्हें मौजूदा न्यायिक अक्षमताओं को दूर करने के लिये किया जाए।

आगे की राह: 

  • समावेशी संवाद – परामर्श के माध्यम से आम सहमति का निर्माण करना: UCC के लिये आगे की राह में विविध हितधारकों के साथ व्यापक, राष्ट्रव्यापी परामर्श शामिल होना चाहिये।
    • इसमें धार्मिक नेताओं, कानूनी विशेषज्ञों, नागरिक समाज संगठनों और विभिन्न समुदायों के प्रतिनिधियों को शामिल किया जाना चाहिये।
    • यह प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिये तथा प्रस्तावित परिवर्तनों और उनके निहितार्थों के बारे में स्पष्ट जानकारी होनी चाहिये।
    • जागरूकता पैदा करने और विविध दृष्टिकोणों से अवगत होने के लिये सार्वजनिक बहस एवं चर्चाओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
      • यह समावेशी दृष्टिकोण चिंताओं को दूर करने और व्यापक आम सहमति का निर्माण करने में मदद कर सकता है, जिससे कार्यान्वयन के प्रति प्रतिरोध में कमी आ सकती है।
  • चरणबद्ध कार्यान्वयन – परिवर्तन के लिये क्रमिक दृष्टिकोण: अचानक आमूलचूल परिवर्तन के बजाय, UCC का चरणबद्ध कार्यान्वयन अधिक व्यवहार्य और कम विघटनकारी सिद्ध हो सकता है।
    • इसकी शुरुआत व्यापक सहमति वाले विषयों से हो सकती है, जैसे विवाह की कानूनी आयु का मानकीकरण, महिलाओं को समान अधिकार या उत्तराधिकार अधिकार।
    • फिर अगले चरण में अधिक विवादास्पद मुद्दों को संबोधित किया जा सकता है। यह क्रमिक दृष्टिकोण प्राप्त प्रतिक्रिया (फीडबैक) और वास्तविक व्यवहार्य परिणामों के आधार पर समायोजन की अनुमति प्रदान करेगा। यह समुदायों को अनुकूलित होने और कानूनी प्रणाली को परिवर्तनों के लिये तैयार होने का समय भी प्रदान करेगा।
  • संवैधानिक सुरक्षा – अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा करना: किसी भी समान नागरिक संहिता के कार्यान्वयन में अल्पसंख्यक अधिकारों और सांस्कृतिक प्रथाओं की रक्षा के लिये सुदृढ़ संवैधानिक सुरक्षा उपाय शामिल होने चाहिये।
    • इसमें UCC कार्यान्वयन की निगरानी और शिकायतों के समाधान के लिये एक निकाय का गठन करना शामिल हो सकता है।
    • समुदायों के लिये स्पष्ट तंत्र स्थापित किया जाना चाहिये ताकि वे उन विशिष्ट प्रथाओं के लिये छूट प्राप्त कर सकें जो मूल अधिकारों के साथ टकराव की स्थिति में नहीं हों।
    • यह दृष्टिकोण एकरूपता और सांस्कृतिक संरक्षण के लक्ष्यों को संतुलित करने में मदद कर सकता है तथा UCC के आलोचकों की प्रमुख चिंताओं का समाधान कर सकता है।
    • समान नागरिक संहिता की तुलना में न्यायपूर्ण नागरिक संहिता अधिक महत्त्वपूर्ण है।
  • साक्ष्य-आधारित सुधार – राज्य-स्तरीय पहलों से प्रेरणा ग्रहण करना: आगे बढ़ने के लिये व्यक्तिगत कानून सुधारों से संबंधित मौजूदा राज्य-स्तरीय पहलों का सावधानीपूर्वक अध्ययन किया जाना चाहिये।
    • उदाहरण के लिये, गोवा की नागरिक संहिता (जो पुर्तगाली शासन के समय से लागू है) और उत्तराखंड में हाल में समान नागरिक संहिता के कार्यान्वयन के परिणामों का विश्लेषण किया जाना चाहिये।
    • यह साक्ष्य-आधारित दृष्टिकोण राष्ट्रीय UCC के डिज़ाइन को सूचना-संपन्न कर सकता है तथा सफल रणनीतियों और संभावित खामियों को उजागर कर सकता है।
      • यह UCC के पक्ष और विपक्ष में तर्कों को समर्थन देने या संशोधित करने के लिये ठोस आँकड़े भी उपलब्ध करा सकता है।

अभ्यास प्रश्न: भारत में समान नागरिक संहिता (UCC) लागू करने के महत्त्व और इसके अंगीकरण से जुड़ी चुनौतियों की चर्चा कीजिये।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष प्रश्न (PYQ) 

प्रिलिम्स

प्रश्न. भारत के संविधान में निहित राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के तहत निम्नलिखित प्रावधानों पर विचार कीजिये: (2012)

  1. भारत के नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करना 
  2. ग्राम पंचायतों का गठन 
  3. ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना 
  4. सभी श्रमिकों के लिये उचित अवकाश और सांस्कृतिक अवसर सुरक्षित करना

उपर्युक्त में से कौन से गांधीवादी सिद्धांत हैं जो राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में परिलक्षित होते हैं?

(a) केवल 1, 2 और 4
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1, 3 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: (b)


प्रश्न. कानून जो कार्यकारी या प्रशासनिक प्राधिकरण को कानून लागू करने के मामले में अनियंत्रित विवेकाधीन शक्तियाँ प्रदान करता है, भारत के संविधान के निम्नलिखित में से किस अनुच्छेद का उल्लंघन करता है?

(a) अनुच्छेद 14
(b) अनुच्छेद 28
(c) अनुच्छेद 32
(d) अनुच्छेद 44

उत्तर: (a)


मेन्स

प्रश्न. उन संभावित कारकों पर चर्चा कीजिये जो भारत को अपने नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता लागू करने से रोकते हैं, जैसा कि राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों में प्रदान किया गया है। (मुख्य परीक्षा, 2015)

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