अंतर्राष्ट्रीय संबंध
रूसी क्रांति के सौ साल
- 07 Nov 2017
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संदर्भ
- रूस की साम्यवादी क्रांति की 100वीं वर्षगाँठ पूरी दुनिया में आज चर्चा का विषय बना हुआ है। समानता और न्याय के साम्यवादी सपने को साकार करने के इरादे से हुई क्रांति में जल्दी ही निरंकुशता के लक्षण दिखाई देने लगे थे, फिर भी 20वीं सदी के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन पर जिन चंद घटनाओं ने सबसे ज़्यादा असर डाला है, उनमें प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध के बाद रूस की क्रांति सबसे महत्त्वपूर्ण है।
- वर्ष 1917 वह दौर था जब पूरी दुनिया प्रथम विश्व युद्ध से जूझ रही थी, लेकिन क्रांति के बाद रूस ने स्वयं को युद्ध से अलग कर लिया। ज़ाहिर है यदि वर्ष 1917 की क्रांति न हुई होती तो दुनिया की शक्ल ही कुछ और होती। इस लेख में रूसी क्रांति से संबंधित सभी बिन्दुओं पर चर्चा करने के अलावा वर्तमान दौर में इसकी प्रासंगिकता पर भी प्रकाश डालेंगे।
क्रांति की पृष्ठभूमि
- 20वीं सदी के आरंभ में रूस पर जार निकोलस-II का शासन था। वह एक तानाशाह था, जिसकी नीतियाँ जनता के बीच लोकप्रिय नहीं थीं। जब रूस जापान से हार गया तो वर्ष 1905 में जार का विरोध अपने चरम पर पहुँच गया था।
- 9 जनवरी 1905 को रूसी श्रमिकों का एक जत्था अपने बीबी बच्चों के साथ जार को एक ज्ञापन सौंपने के लिये निकला, लेकिन सेंट पीटर्सबर्ग में उन पर गोलियाँ बरसा दी गईं। यह घटना इतिहास में ‘ब्लडी सन्डे’ के नाम से जानी जाती है। हज़ारों की संख्या में लोग मारे गए और समूचे रूस में जार के विरुद्ध प्रदर्शन होने लगे।
- जार निकोलस समझौता करने को विवश हुआ और अक्टूबर घोषणा-पत्र तैयार किया गया, जिसमें एक निर्वाचित संसद (ड्यूमा) को शामिल करने की भी बात की गई थी। हालाँकि बाद में जार अक्टूबर घोषणा-पत्र में किये गए वादों से मुकर गया।
- जहाँ एक और जार अपने वादों पर टिका नहीं रह सका, वहीं ड्यूमा भी रूसी जनता की आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाया। जनता की परेशानियाँ ज्यों की त्यों बनी रहीं। अतः देर-सबेर दूसरी क्रांति तो होनी ही थी और कुछ इस तरह से वर्ष 1917 की क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार हुई।
वर्ष 1917 की क्रांति
क्रांति के कारण
- भूमि सुधारों की विफलता: वर्ष 1861 में ‘दासता’ (Serfdom) को तो खत्म कर दिया गया, फिर भी किसानों की स्थिति में सुधार नहीं हुआ। उनके पास अभी भी भूमि के अत्यंत ही छोटे-छोटे पट्टे थे। इनके पास न तो कोई पूंजी थी और न ही कोई सरकारी सहायता।
- श्रमिकों की चिंताजनक स्थिति: रूस में आधे से अधिक पूंजी विदेशी देशों से आई थी, जिनका श्रमिकों की स्थिति से कोई लेना-देना नहीं था। रूसी पूंजीपति ने भी मज़दूरी का श्रम मूल्य घटा दिया, ताकि वे विदेशियों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें। साथ ही श्रमिकों के पास कोई राजनीतिक अधिकार नहीं था।
- दमन की कठोर नीतियाँ: ज़ार निकोलस द्वितीय अभी भी राजाओं के दैवीय शासन के सिद्धांत पर विश्वास करता था और उसने अपने विरोध में उठने वाली आवाजों को निर्दयता पूर्वक दबा दिया। यहाँ तक कि आन्दोलनकारियों पर गुप्तचरों के ज़रिये नज़र रखी जाती थी।
- मध्यम वर्ग के विचारों में परिवर्तन:
♦ जिस प्रकार फ्राँस की क्रांति का श्रेय फ्राँस के दार्शनिक, शिक्षित वर्ग आदि को प्राप्त है, उसी प्रकार रूस में भी क्रांति के वेग को इसी वर्ग से संबंध रखने वाले लोगों ने तीव्र किया। वे लोग नई-नई पुस्तकों का अध्ययन करते थे। पश्चिमी यूरोप के विचारकों की लिखी हुई पुस्तकें रूसी भाषा में अनुवादित हुई थीं।
♦ शिक्षित वर्ग पर उन नए विचारों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ा, विशेषतः नवयुवक वर्ग नए विचारों का अध्ययन कर यह भली-भांति समझने लगे थे कि उनका देश उन्नति की दौड़ में बहुत पिछड़ा हुआ है, जिसका प्रमुख कारण जार की निरंकुशता है।
- प्रथम विश्व युद्ध: प्रथम विश्व युद्ध ने रूस को भारी नुकसान पहुँचाया। रणनीतिक गलतियों के कारण 6 लाख से अधिक रूसी सैनिकों की मौत हो गई और रूस में धन का अभाव पैदा हो गया। लोगों को खाने के लिये रोटी का भी मिलना मुश्किल हो गया।
जार का अंत
- मार्च 1917 आते-आते जनता की दशा अत्यंत ही दयनीय हो गई थी। उसके पास न पहनने को कपड़ा था और न खाने को अनाज था। परेशान होकर भूखे और ठण्ड से ठिठुरते हुए गरीब और मज़बूरों ने 7 मार्च को पेट्रोग्रेड की सड़कों पर घूमना आरंभ किया। रोटी की दुकानों पर ताज़ी और गरम रोटियों के ढेर लगे पड़े थे। भूखी जनता अपने आपको नियंत्रण में नहीं रख सकी। उन्होंने बाज़ार में लूट-मार करनी आरंभ कर दी।
- सरकार ने सेना को उन पर गोली चलाने का आदेश दिया कि वह गोली चलाकर लूटमार करने वालों को तितर-बितर कर दे, किन्तु सैनिकों ने गोली चलाने से साफ मना कर दिया क्योंकि उनकी जनता से सहानुभूति थी। उनमें भी क्रांति की भावना प्रवेश कर चुकी थी। जार को अपना अंत नज़दीक नज़र आने लगा। ड्यूमा ने सलाह दी कि जनतांत्रिक राजतंत्र की स्थापना की जाए, लेकिन जार इसके लिये तैयार नहीं हुआ और इस तरह से रूस से राजतंत्र का खात्मा हो गया।
लेनिन का उदय
- जार के जाने के बाद अलेक्जेंडर केरेनस्की के अधीन एक अस्थायी सरकार सत्ता में आई। लेकिन सरकार बुरी तरह विफल रही क्योंकि इसने युद्ध जारी रखने का निर्णय लिया जो कि अत्यधिक अलोकप्रिय निर्णय साबित हुआ।
- सात नवंबर, 1917 को बोल्शेविक पार्टी के नेता लेनिन के नेतृत्व में वामपंथी क्रांतिकारियों ने ड्यूमा की सरकार के खिलाफ रक्तहीन क्रांति के ज़रिये सत्ता पर दबदबा कायम कर लिया। लेनिन ने एक ऐसी सरकार का गठन किया, जिसमें किसानों और कामगारों को प्रतिनिधि नियुक्त किया गया। इस प्रकार लेनिन के नेतृत्व में रुस के औधोगिक मज़दूरों की एक राजनीतिक पार्टी बोल्शेविक ने 1917 में रूस में क्रांति को सफल बनाया।
रूसी क्रांति के सबक
- अभिजात वर्ग और चर्च की निरंकुशता का अंत हुआ और सबसे बढ़कर यह कि कम्युनिस्ट दर्शन और मार्क्सवादी विचारधारा की विजय हुई, क्योंकि पहली बार श्रमिक वर्ग सत्ता में आया।
- जाति, रंग और लिंग के आधार पर भेदभाव का निवारण हुआ। कार्य करने का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार बन गया और हर किसी को रोज़गार देना राज्य का एक कर्तव्य बन गया। शिक्षा को उच्च प्राथमिकता दी गई।
- सोवियत राष्ट्र संघ का निर्माण हुआ और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्रांति को बढ़ावा देने के लिये ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ का गठन किया गया। कई अन्य देशों में कम्युनिस्ट पार्टी बनाई गई और सोवियत संघ दुनिया भर के कम्युनिस्ट आंदोलन का नेता बनकर उभरा।
- “जो काम नहीं कर सकता उसे खाने का अधिकार नहीं है” के सिद्धांत को बल मिला। श्रमिकों को सम्मान की दृष्टि से देखे जाने की शुरुआत हुई। साथ साम्राज्यवाद को समाप्त करने के लिये पूरे विश्व में समाजवादी अभियान चलाए जाने लगे।
वर्तमान दौर में रूसी क्रांति की प्रासंगिकता
- मार्क्स के विश्लेषणों की महत्ता आज भी बरकरार है, क्योंकि यदि विश्व की पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं का आधुनिक अध्ययन किया जाए तो यह प्रवृत्ति सामने आती है कि आर्थिक मंदी या फिर सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से रोज़गार सृजन के संभावित खतरे पूंजीवाद के कारण ही हैं।
- आज के पूंजीवाद यानी नवउदारवादी पूंजीवाद ने हमारे पर्यावरण को मनमानी क्षति पहुँचाई है। जलवायु परिवर्तन के कारण आज सम्पूर्ण मानव जाति का अस्तित्व खतरे में है। मार्क्सवाद तथा समाजवाद ही इन समस्यायों का समाधान प्रस्तुत कर सकता है और एक टिकाऊ सामाजिक व्यवस्था के निर्माण का ज़रिया बन सकता है।
निष्कर्ष
- विश्व में एक वैकल्पिक व्यवस्था की स्थापना के प्रथम प्रयास के रूप में बोल्शेविक क्रांति हमेशा एक प्रेरणा स्रोत बनी रहेगी।
- दरअसल, समाजवादी लोकतंत्र का भारत में विशेष महत्त्व है, क्योंकि आज देश और समाज के कल्याण के नाम पर व्यक्तिगत अधिकारों को दबाने की प्रवृत्ति ज़ोर पकड़ रही है।
- समाज के अंतिम जन तक सरकार की पहुँच और सबको रोज़गार देने की ज़रूरत तब भी थी और आज भी है।