लैंगिक समानता और समान नागरिक संहिता | 08 Nov 2022
यह एडिटोरियल 07/11/2022 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “The Uniform Civil Code” लेख पर आधारित है। इसमें भारत में समान नागरिक संहिता (UCC) की संवैधानिकता और अन्य संबंधित मुद्दों के बारे में चर्चा की गई है।
संदर्भ:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य है और इसका अर्थ यह है कि राज्य किसी धर्म विशेष का समर्थन नहीं करता है। धर्मनिरपेक्ष राज्य वह होता है जो धर्म के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं करता है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद (अनुच्छेद 14-18) समता को और लैंगिक आधार पर गैर-भेदभाव को अनिवार्य बनाते हैं। हालाँकि, कई कानून मौजूद हैं जो स्पष्ट रूप से इन सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और विशेष रूप से कुछ समुदायों के पर्सनल लॉ (Personal laws) में बने रहे हैं, जहाँ ऐसे प्रावधान शामिल हैं जिन्हें महिलाओं के विरुद्ध अत्यधिक भेदभावपूर्ण माना जाता है।
भारतीय आबादी में लगभग आधी हिस्सेदारी के साथ महिलाएँ एक लैंगिक रूप से न्यायपूर्ण संहिता की माँग करती रही हैं ताकि वे भी समता और न्याय का उपभोग कर सकें, चाहे वे किसी भी समुदाय से संबंधित हों। लेकिन भारत में समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code- UCC) के आदर्श को अभी तक हासिल नहीं किया जा सका है।
चूँकि समान नागरिक संहिता राजनीतिक रूप से एक संवेदनशील विषय है, हमारे संविधान निर्माता भी एक समझौते की स्थिति में रहे और इसे उन्होंने अनुच्छेद 44 के अंदर राज्य नीति के एक निदेशक सिद्धांत के रूप में शामिल किया।
चूँकि भारत लैंगिक समता के लिये प्रयासरत है, देश के लिये UCC की प्रासंगिकता पर गहनता से विचार किया जाना आवश्यक है।
समान नागरिक संहिता क्या है?
- राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत (DPSP) के अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि पूरे देश में नागरिकों के लिये समान नागरिक संहिता (UCC) सुनिश्चित करना राज्य का कर्तव्य है।
- इसका मुख्य उद्देश्य भारत में प्रत्येक प्रमुख धार्मिक समुदाय के धर्मग्रंथों और रीति-रिवाजों के आधार पर प्रचलित व्यक्तिगत कानूनों को प्रत्येक नागरिक को एकसमान रूप से नियंत्रित करने वाले नियमों के एक सामान्य समूह से प्रतिस्थापित करना है।
- UCC में ‘यूनिफॉर्म’ या समान का अर्थ है:
- समुदायों के बीच कानूनों की एकरूपता/एकसमता।
- समुदायों के भीतर कानूनों की एकरूपता ताकि पुरुषों एवं महिलाओं के अधिकारों के बीच समानता सुनिश्चित हो।
भारत में UCC की दिशा में किये गए प्रमुख प्रयास
- विशेष विवाह अधिनियम, 1954: वर्ष 1954 का विशेष विवाह अधिनियम (Special Marriage Act of 1954)किसी भी नागरिक के लिये, चाहे वह किसी भी धर्म का हो, सिविल मैरेज का प्रावधान करता है; इस प्रकार, किसी भी भारतीय को किसी भी धार्मिक व्यक्तिगत कानून की सीमाओं के बाहर विवाह करने की अनुमति देता है।
- शाह बानो केस, 1985: इस मामले में शाह बानो के भरण-पोषण के दावे को ठुकरा दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 (जो पत्नियों, बच्चों और माता-पिता के रखरखाव के संबंध में सभी नागरिकों पर लागू होता है) के तहत उसके पक्ष में निर्णय दिया था।
- सर्वोच्च न्यायालय ने यह अनुशंसा भी की थी कि लंबे समय से लंबित समान नागरिक संहिता को अंततः अधिनियमित किया जाना चाहिये।
- सर्वोच्च न्यायालय ने सरला मुद्गल मामले (1995) और पाउलो कॉटिन्हो बनाम मारिया लुइज़ा वेलेंटीना परेरा मामले (2019) में भी सरकार से UCC लागू करने का आह्वान किया।
UCC के पक्ष में तर्क
- युवाओं की आकांक्षाओं को समायोजित करना: जैसे-जैसे दुनिया डिजिटल युग की ओर आगे बढ़ रही है, युवा आबादी की सामाजिक दृष्टि और आकांक्षा समानता, मानवता एवं आधुनिकता के सार्वभौमिक एवं वैश्विक सिद्धांतों से प्रेरित होकर आकार ग्रहण कर रही है।
- इस प्रकार, समान नागरिक संहिता के अधिनियमन से राष्ट्र निर्माण की दिशा में उनकी पूरी क्षमता को साकार कर सकने में मदद मिलेगी।
- राष्ट्रीय एकता का समर्थन: संविधान सभी नागरिकों को विधि न्यायालयों के समक्ष समान व्यवहार की गारंटी प्रदान करता है चाहे वह आपराधिक कानून हो या अन्य नागरिक कानून (व्यक्तिगत कानूनों को छोड़कर)।
- इस प्रकार, समान नागरिक संहिता का कार्यान्वयन सभी के लिये समान व्यक्तिगत कानून प्रदान करेगा, जिसके परिणामस्वरूप भेदभाव या रियायतों के मुद्दों का राजनीतिकरण समाप्त हो जाएगा। यह समुदाय विशेष द्वारा उनके विशिष्ट धार्मिक व्यक्तिगत कानूनों के आधार पर उपभोग किये जाते असाधारण लाभ की स्थिति को भी समाप्त कर देगा।
- पितृसत्तात्मक मानसिकता से ऊपर उठना: अधिकांश धर्मों के मौजूदा व्यक्तिगत कानून समाज के उच्चवर्गीय पितृसत्तात्मक अवधारणाओं पर आधारित हैं। इस प्रकार, समान नागरिक संहिता का संहिताकरण एवं कार्यान्वयन पितृसत्तात्मक रूढ़िवादिता की पवित्रता या स्वीकृति को नष्ट कर सकेगा।
- इस प्रकार, समान नागरिक संहिता लैंगिक समानता को बढ़ावा देगी और पुरुषों एवं महिलाओं दोनों को बराबरी के स्तर पर लाएगी।
- न्यायिक प्रक्रिया के लिये सुविधाजनक: देश में हिंदू संहिता, शरिया कानून आदि कई व्यक्तिगत कानून मौजूद हैं। इतने सारे कानूनों की उपस्थिति व्यक्तिगत मामलों के निर्णय में भ्रम, जटिलता और विसंगतियाँ उत्पन्न करती है, जिसके परिणामस्वरूप विलंबन या अपूर्ण न्याय की स्थिति भी बनती है।
- UCC न्यायपालिका को कुशलतापूर्वक और उचित समय सीमा के भीतर न्याय कर सकने में सक्षम करेगी।
UCC के विरुद्ध तर्क
- 21वीं विधि आयोग की रिपोर्ट: भारत के विधि आयोग का मत है कि देश में किसी समान नागरिक संहिता का होना व्यक्तिगत/पारिवारिक कानूनों में निहित संघर्षों को सुलझाने के लिये न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय।
- आयोग ने कहा है कि कई देश अब विभिन्न समूहों में अंतर या विविधता को स्वीकार करने की ओर आगे बढ़ रहे हैं, और केवल अंतर का अस्तित्व में होना भेदभावपरक नहीं माना जा सकता, बल्कि यह तो एक मज़बूत लोकतंत्र का संकेतक है।
- इसलिये, आयोग ने व्यक्तिगत कानूनों में व्याप्त भेदभाव एवं असमानता से निपटने के लिये मौजूदा पारिवारिक कानूनों में संशोधन का सुझाव दिया है, न कि उनके बीच अंतरों को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाए।
- सांस्कृतिक रूप से विविध भारत के प्रतिकूल: भारत में धर्मों, संप्रदायों, जातियों, राज्यों आदि में व्यापक विविधतपूर्ण संस्कृति के कारण विवाह जैसे व्यक्तिगत मुद्दों के लिये समान नियमों का एक समूह लागू कर सकता कठिन है और इसमें कई व्यावहारिक जटिलताएँ सामने आएँगी।
- धार्मिक स्वतंत्रता का अतिक्रमण: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25-28 धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करते हैं। समान नागरिक संहिता को कई समुदायों, विशेष रूप से अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा अपनी धार्मिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25) के लिये एक खतरे के रूप में देखा जाता है ।
- वे मानते हैं कि समान नागरिक संहिता उनकी परंपराओं की उपेक्षा करेगी और ऐसे नियम लागू करेगी जो मुख्य रूप से बहुसंख्यक धार्मिक समुदायों से प्रभावित होंगे।
- जनजातियों के स्वदेशी अधिकारों के विरुद्ध: नगा समुदाय ने दावा किया है कि UCC के कार्यान्वयन से उनकी संस्कृति और गरिमा के लिये स्पष्ट अवरोध उत्पन्न हो सकते हैं।
- यह संभावित रूप से सामाजिक अव्यवस्था का कारण बन सकता है, क्योंकि जनजातियों का व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन देश के अन्य लोगों से व्यापक रूप से अलग है।
निष्कर्ष
- UCC के लक्ष्य को आदर्श रूप से एक सर्वव्यापक दृष्टिकोण के बजाय एक परत -दर-परत दृष्टिकोण के माध्यम से खंडों में प्राप्त किया जाना चाहिये। समान संहिता कोड की तुलना में एक न्यायसंगत संहिता का होना कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है।
- समान नागरिक संहिता का खाका तैयार करते समय UCC की सामाजिक अनुकूलन क्षमता पर भी विचार करने की आवश्यकता है। चाहे सभी धर्मों के लिये एक ही कानून बनाया जाए या अलग-अलग धर्मों/समुदायों के व्यक्तिगत कानूनों में सुधार किया जाए, वे लैंगिक न्याय पर आधारित होने चाहिये और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि हमारे संविधान में निहित समता का सिद्धांत बरकरार रहे।
- सार यह है कि सरकार और समाज को एक समान नागरिक समाज की ओर आगे बढ़ने के लिये भरोसे का निर्माण करने की आवश्यकता है जहाँ मानवाधिकारों के प्रति का सम्मान हो और लैंगिक समानता को प्रोत्साहन दिया जाता हो। इस स्थिति का निर्माण किसी समान नागरिक संहिता से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
अभ्यास प्रश्न: भारत में समान नागरिक संहिता के महत्त्व और इसके कार्यान्वयन की राह की बाधाओं पर विचार कीजिये।
यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्सQ. भारत के संविधान में निहित राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों के तहत निम्नलिखित प्रावधानों पर विचार करें: (2012)
उपरोक्त में से कौन से गांधीवादी सिद्धांत हैं जो राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में परिलक्षित होते हैं? (A) केवल 1, 2 और 4 उत्तर: (B) प्रश्न 2. एक कानून जो कार्यकारी या प्रशासनिक प्राधिकरण को कानून के आवेदन के मामले में एक असंयमित और अनियंत्रित विवेकाधीन शक्ति प्रदान करता है, भारत के संविधान के निम्नलिखित में से किस अनुच्छेद का उल्लंघन करता है? (A) अनुच्छेद 14 उत्तर: (A) मेन्सQ. उन संभावित कारकों पर चर्चा करें जो भारत को अपने नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता लागू करने से रोकते हैं, जैसा कि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में प्रदान किया गया है। (2015) |