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भारत में दिव्यांगजनों के समावेशन में सुधार

  • 27 Feb 2025
  • 30 min read

यह एडिटोरियल 25/02/2025 को द हिंदू में प्रकाशित “Clicking through barriers, empowering persons with disabilities” पर आधारित है। इस लेख में कानूनी सुरक्षा उपायों के बावजूद भारत की डिजिटल अर्थव्यवस्था से दिव्यांगों के अपवर्जन को सामने लाया गया है।

प्रिलिम्स के लिये:

दिव्यांग जन, डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम, 2023, विश्व स्वास्थ्य संगठन, दिव्यांग जनों के अधिकार (आरपीडब्ल्यूडी) अधिनियम, 2016, मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017, दिव्यांग जनों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन, डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण (डीपीडीपी) अधिनियम, 2023, सुगम्य भारत अभियान

मेन्स के लिये:

भारत में दिव्यांग जनों से संबंधित प्रमुख प्रावधान, भारत में दिव्यांगजनों से जुड़े प्रमुख मुद्दे। 

यद्यपि भारत 2028 तक 1 ट्रिलियन डॉलर की डिजिटल अर्थव्यवस्था के रूप में उन्नति कर रहा है, लेकिन डिजिटल समावेशन नीतियों में दिव्यांग जनों (PWD) की काफी अनदेखी की जा रही है। डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट, 2023 और IS 17802 मानक (जो अभिगम-योग्यता आवश्यकताओं का एक सेट प्रदान करते हैं और यह निर्दिष्ट करते हैं कि कंटेंट को किस प्रकार सुलभ बनाया जाए) जैसे ढाँचों के बावजूद, दिव्यांग जनों को डिजिटल सेवाओं तक अभिगम में काफी बाधाओं का सामना करना पड़ता है। भारत में लगभग 70+ मिलियन दिव्यांग जनों के साथ, देश को न केवल बेहतर डिजिटल अभिगम की आवश्यकता है, बल्कि उनकी सार्थक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये सभी क्षेत्रों में समग्र परिवर्तन की आवश्यकता है। भारत को एक ऐसे समाज के निर्माण के लिये अपनी समावेशन रणनीतियों का तत्काल पुनर्मूल्यांकन करना चाहिये जहाँ दिव्यांग जन डिजिटल और वास्तविक दोनों जगहों पर गरिमा और स्वतंत्रता के साथ पूरी तरह से भाग ले सकें।

भारत में दिव्यांग जनों से संबंधित प्रमुख प्रावधान क्या हैं? 

  • दिव्यांगता की परिभाषा
    • वैधानिक परिभाषा: दिव्यांग जन (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995 दिव्यांगता को एक ऐसी स्थिति के रूप में परिभाषित करता है जो सामान्य कामकाज़ को प्रभावित करने वाली हानि (शारीरिक, मानसिक या संवेदी) का कारण बनती है।
  • प्रमुख कानून:
    • दिव्यांग जनों के अधिकार (RPWD) अधिनियम, 2016
      • दिव्यांगता की परिभाषा को 7 श्रेणियों से बढ़ाकर 21 श्रेणियाँ कर दिया गया है।
      • गरिमा, गैर-भेदभाव और समावेश पर ज़ोर दिया गया।
      • शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य देखभाल, अभिगम और कानूनी क्षमता से संबंधित अधिकारों की गारंटी देता है।
      • सरकारी नौकरियों में 4% और उच्च शिक्षा संस्थानों में 5% आरक्षण प्रदान करता है।
    • अन्य प्रासंगिक कानून
      • भारतीय पुनर्वास परिषद अधिनियम, 1992– पुनर्वास सेवाओं और पेशेवरों को विनियमित करता है।
      • राष्ट्रीय ट्रस्ट अधिनियम, 1999– ऑटिज़्म (स्वपरायणता), सेरेब्रल पाल्सी (प्रमस्तिष्क घात), बौद्धिक दिव्यांगता और बहु ​​दिव्यांगता वाले व्यक्तियों को सहायता प्रदान करता है।
      • मानसिक स्वास्थ्य सेवा अधिनियम, 2017– अधिकार-आधारित मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करता है।
  • संबंधित ऐतिहासिक मामले: 
    • बधिर कर्मचारी कल्याण संघ बनाम भारत संघ (वर्ष 2013): श्रवण शक्ति बाधित सरकारी कर्मचारियों के लिये समान परिवहन भत्ता देने का निर्देश दिया गया, जिसमें गैर-भेदभाव सुनिश्चित किया गया।
    • भारत संघ बनाम राष्ट्रीय दृष्टिहीन संघ (वर्ष 2013): स्पष्ट किया गया कि 3% आरक्षण कुल कैडर क्षमता में रिक्तियों पर लागू होता है, न कि केवल चिह्नित पदों पर।
    • भारत सरकार बनाम रवि प्रकाश गुप्ता (वर्ष 2010): सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि नौकरी की पहचान का उपयोग दृष्टिबाधित उम्मीदवारों को आरक्षण से वंचित करने के लिये नहीं किया जा सकता, जिससे निष्पक्ष नियुक्तियाँ सुनिश्चित होंगी। 
    • सुचिता श्रीवास्तव बनाम चंडीगढ़ प्रशासन (वर्ष 2009): न्यायालय ने मानसिक रूप से रुग्ण महिला के प्रजनन अधिकारों को बरकरार रखा तथा गर्भपात के लिये सहमति अनिवार्य कर दी, जब तक कि वह मानसिक रूप से बीमार न हो। 
    • भगवान दास बनाम पंजाब राज्य विद्युत बोर्ड (वर्ष 2003): न्यायालय ने निर्णय दिया कि दिव्यांग कर्मचारियों को नौकरी से नहीं निकाला जा सकता, बल्कि उन्हें PwD अधिनियम की धारा 47 के तहत वैकल्पिक रोज़गार दिया जाना चाहिये, जिससे यह पुष्ट होता है कि PwD अधिकार एक संवैधानिक दायित्व है, दान नहीं।
  • दिव्यांगजनों के अधिकारों का समर्थन करने वाले अंतर्राष्ट्रीय कार्यढाँचे

भारत में दिव्यांगजनों से जुड़े प्रमुख मुद्दे क्या हैं? 

  • डिजिटल अपवर्जन और सुगम्यता संबंधी बाधाएँ: भारत द्वारा 1 ट्रिलियन डॉलर की डिजिटल अर्थव्यवस्था बनाने के प्रयासों के बावजूद, सहायक प्रौद्योगिकी और समावेशी डिज़ाइन के अभाव के कारण डिजिटल प्लेटफॉर्म, ई-गवर्नेंस सेवाएँ एवं फिनटेक सॉल्यूशन दिव्यांगजनों के लिये बहुत हद तक दुर्गम बने हुए हैं। 
    • डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण (DPDP) अधिनियम, 2023, अभिभावक से 'सत्यापन योग्य सहमति' की आवश्यकता के द्वारा, दिव्यांगजनों की स्वतंत्र डिजिटल भागीदारी को सक्षम करने के बजाय उनकी स्वायत्तता को कमज़ोर करता है।
    • अधिकांश सरकारी वेबसाइट एवं डिजिटल सेवाएँ ICT एक्सेसिबिलिटी मानक IS 17802 का अनुपालन नहीं करती हैं, जिससे डिजिटल इकोसिस्टम में दिव्यांगजन और भी अधिक हाशिये पर चले जाते हैं।
    • डिजिटल एम्पॉवरमेंट फाउंडेशन (DEF) के अध्ययन (वर्ष 2024) के अनुसार, केवल 36.61% दिव्यांगजन नियमित रूप से डिजिटल सेवाओं का उपयोग करते हैं, जिन्हें प्रायः प्रयोज्य चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
  • रोज़गार और आर्थिक हाशियाकरण: अपनी क्षमता के बावजूद, दिव्यांगजनों को कार्यस्थल पर भेदभाव, दुर्गम कार्य वातावरण और सीमित व्यावसायिक प्रशिक्षण अवसरों के कारण रोज़गार में बहुत-सी बाधाओं का सामना करना पड़ता है। 
    • भारत में लगभग 3 करोड़ दिव्यांग जन हैं, जिनमें से लगभग 1.3 करोड़ रोज़गार योग्य हैं, लेकिन उनमें से केवल 34 लाख को ही रोज़गार मिला है।
    • कई कंपनियाँ दिव्यांगता नियुक्ति मानदंडों का पालन करने के बजाय जुर्माना भरना पसंद करती हैं तथा अनौपचारिक क्षेत्र इस संबंध में बहुत हद तक अनियमित बना हुआ है।
  • स्वास्थ्य देखभाल और सामाजिक कल्याण योजनाओं में सीमित समावेशन: दिव्यांगजनों को दुर्गम अस्पतालों, विशेषज्ञ चिकित्सा कर्मियों की कमी और अपर्याप्त दिव्यांगता-अनुकूल स्वास्थ्य बीमा पॉलिसियों के कारण स्वास्थ्य देखभाल तक अभिगम में संघर्ष करना पड़ता है। 
    • आयुष्मान भारत सहित अधिकांश सार्वजनिक स्वास्थ्य योजनाएँ सहायक उपकरणों, पुनर्वास चिकित्सा या दीर्घकालिक दिव्यांगता देखभाल को पर्याप्त रूप से कवर नहीं करती हैं।
      • इसके अतिरिक्त, दिव्यांगजनों के लिये मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ अभी भी अविकसित हैं।
    • भारत में दिव्यांग जनों के लिये बीमा कवरेज का अभाव है, जिसके कारण स्वास्थ्य संबंधी व्यय बहुत अधिक है तथा बीमा के अभिगम में चुनौतियाँ हैं।
      • इसके अलावा, वर्ष 2021 में लॉन्च होने के बाद से सरकार के प्रमुख सुगम्य भारत मोबाइल ऐप्लीकेशन के माध्यम से सुगम्यता से संबंधित 1,400 से अधिक शिकायतें दर्ज की गई हैं।
  • दिव्यांगजनों के लिये समावेशी शहरी नियोजन का अभाव: वर्ष 2015 में शुरू किये गए सुगम्य भारत अभियान के बावजूद, अधिकांश सार्वजनिक स्थान, परिवहन प्रणालियाँ और शहरी बुनियादी ढाँचा दिव्यांगजनों के लिये दुर्गम बना हुआ है। 
    • आवास नीतियों में सुगम्यता मानदंडों को अनिवार्य रूप से शामिल नहीं किया जाता, जिससे दिव्यांगजनों के लिये निजी आवास प्राप्त करना भी कठिन हो जाता है।
    • वर्ष 2018 की एक रिपोर्ट में पाया गया कि भारत की केवल 3% इमारतें ही दिव्यांगजनों के लिये पूरी तरह से सुलभ हैं। 
      • इसके अलावा, वर्तमान में जिन रेलवे स्टेशनों पर उचित रैम्प नहीं हैं, वे या तो एस्केलेटर या भीड़भाड़ वाली लिफ्टों पर निर्भर हैं, जिनका उपयोग प्रायः स्वस्थ यात्रियों द्वारा किया जाता है।
  • जलवायु परिवर्तन और आपदाओं का असंगत प्रभाव: जलवायु आपदाओं और चरम मौसमी घटनाओं के दौरान दिव्यांगजन सबसे अधिक असुरक्षित होते हैं, क्योंकि निकासी प्रोटोकॉल, आपातकालीन आश्रय और राहत उपायों में शायद ही कभी उनकी ज़रूरतों को ध्यान में रखा जाता है।
    • आपदा प्रबंधन नीतियों में दिव्यांगता-समावेशी उपायों को स्पष्ट रूप से शामिल नहीं किया गया है, जिसके परिणामस्वरूप दिव्यांगजनों के बीच हताहतों और विस्थापन की संख्या में वृद्धि हुई है। 
    • भीषण आपदाओं में दिव्यांगजनों की मृत्यु दर सामान्य लोगों की तुलना में दो से चार गुना अधिक होती है।
  • अंतर-विभागीय हाशियाकरण: लिंग, ग्रामीण-शहरी विभाजन और जातिगत बाधाएँ: दिव्यांग महिलाओं को लिंग और दिव्यांगता के कारण दोहरे भेदभाव का सामना करना पड़ता है, जिससे शिक्षा, रोज़गार एवं स्वास्थ्य सेवा तक उनका अभिगम सीमित हो जाता है। 
    • लगभग 18 मिलियन दिव्यांग जन (दिव्यांग जनसंख्या का 69%) ग्रामीण भारत में रहते हैं तथा सहायक प्रौद्योगिकी और सामुदायिक जागरूकता के अभाव के कारण उन्हें अधिक अपवर्जन का सामना करना पड़ता है।
      • इसके अतिरिक्त, दलितों व आदिवासियों जैसे हाशिये पर स्थित जाति समूहों के दिव्यांगजनों को तिहरे भेदभाव का सामना करना पड़ता है, जिससे उनका सामाजिक एवं आर्थिक अपवर्जन और भी बढ़ जाता है।
    • इसके अलावा, केवल 23% दिव्यांग महिलाएँ ही कामकाज़ी हैं, जबकि 47% दिव्यांग पुरुष ही काम कर रहे हैं। 
  • कानूनी पहचान और लाभ प्राप्त करने में प्रशासनिक बाधाएँ: कई दिव्यांगजनों को प्रशासनिक-अकुशलताओं और कठोर दिव्यांगता मूल्यांकन मानदंडों के कारण, विशिष्ट दिव्यांगता पहचान पत्र (UDID) प्राप्त करने के लिये संघर्ष करना पड़ता है, जो सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने के लिये आवश्यक है।
    • डिजिटल अपवर्जन से यह समस्या और भी बढ़ जाती है, क्योंकि कई दिव्यांगजनों के पास ऑनलाइन आवेदन करने के साधन नहीं होते हैं।
    • इसके अलावा, भारत की दिव्यांगता पेंशन योजना अपर्याप्त मुआवज़े, सख्त सत्यापन की मांग और अपवर्जन पात्रता मानदंडों से ग्रस्त है।
      • हालाँकि, कानूनी खामियों का भी दुरुपयोग किया जाता है, जैसा कि हाल ही में पूजा खेडकर मामले में स्पष्ट हुआ।
  • सामाजिक कलंक और जागरूकता का अभाव: दिव्यांगजनों के बारे में सक्षमतावादी दृष्टिकोण एवं रूढ़िवादिता अभी भी कायम है, जिसके कारण सामाजिक अपवर्जन, भेदभाव और व्यक्तिगत एवं व्यावसायिक दोनों क्षेत्रों में सीमित अवसर उत्पन्न हो रहे हैं। 
    • सांस्कृतिक आख्यान प्रायः दिव्यांगता को सशक्तीकरण की आवश्यकता वाली स्थिति के बजाय एक दायित्व के रूप में प्रस्तुत करते हैं तथा समावेशन के बजाय निर्भरता को दृढ़ करते हैं। 
      • मीडिया में दिव्यांगजनों का प्रतिनिधित्व न्यूनतम है तथा प्रायः उन्हें संरक्षणात्मक तरीके से चित्रित किया जाता है।
    • उनका मानना ​​है कि दिव्यांगों को 'समान अवसरों' की बजाय 'विशेष देखभाल' की आवश्यकता है। 
      • फिल्मों में दिव्यांगता को आपत्तिजनक रूप से दर्शाने के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय के हालिया मानदंड तथा दृश्य मीडिया के लिये दिये गए दिशानिर्देश, इस मुद्दे की गंभीरता को उजागर करते हैं। 

भारत में दिव्यांगजनों के समावेशन और सशक्तीकरण को बढ़ाने के लिये क्या प्रमुख उपाय किये गए हैं? 

  • डिजिटल और तकनीकी सुगम्यता: भारत को सरकारी और निजी डिजिटल प्लेटफॉर्मों पर ICT सुगम्यता मानक IS 17802 का सार्वभौमिक अनुपालन सुनिश्चित करना चाहिये।
    • सभी ई-गवर्नेंस पोर्टल, फिनटेक सेवाओं और शैक्षिक प्लेटफॉर्मों को सहायक प्रौद्योगिकियों जैसे स्क्रीन रीडर, वॉयस कमांड एवं AI-संचालित एक्सेसिबिलिटी टूल्स के साथ एकीकृत किया जाना चाहिये। 
    • डिजिटल समावेशन में सुधार के लिये सार्वजनिक-निजी भागीदारी को दिव्यांगजनों के लिये सहायक प्रौद्योगिकी उपकरणों पर सब्सिडी देने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
    • प्रशिक्षित कर्मियों के साथ दूरस्थ डिजिटल सेवा केंद्रों का विस्तार करने से ग्रामीण क्षेत्रों में दिव्यांगजनों को आवश्यक डिजिटल सेवाओं तक अभिगम में मदद मिल सकती है। 
  • दिव्यांगजन अधिकार कानूनों के कार्यान्वयन को सुदृढ़ बनाना: सभी क्षेत्रों में दिव्यांगजन अधिकार (RPwD) अधिनियम, 2016 के पूर्ण प्रवर्तन को सुनिश्चित करने के लिये एक सख्त निगरानी और जवाबदेही तंत्र स्थापित किया जाना चाहिये।
    • सरकारी संस्थाओं और निजी कंपनियों को नौकरी में आरक्षण, पहुँच एवं कल्याणकारी उपायों पर वार्षिक दिव्यांगता-समावेश रिपोर्ट प्रस्तुत करना अनिवार्य किया जाना चाहिये।
    • गैर-अनुपालन, भेदभाव या अधिकारों से वंचित करने के मामलों को हल करने के लिये समयबद्ध शिकायत निवारण प्रणाली का गठन किया जाना चाहिये।
    • नीति कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिये दिव्यांग जनों के लिये आयुक्त कार्यालय को अधिक स्वायत्तता और प्रवर्तन शक्तियाँ दी जानी चाहिये।
  • समावेशी रोज़गार और कार्यस्थल नीतियाँ: कार्यस्थल अभिगम, फ्लेक्सिबल वर्किंग ऑवर, दूरस्थ कार्य विकल्प और दिव्यांगजनों के लिये अनुकूलित प्रशिक्षण कार्यक्रम को अनिवार्य बनाने के लिये एक राष्ट्रीय स्तर की दिव्यांगता-समावेशी रोज़गार नीति तैयार की जानी चाहिये।
    • कौशल भारत और PMKVY के अंतर्गत कौशल विकास पहलों में बाज़ार की मांग के आधार पर दिव्यांगजनों के लिये अनुकूलित व्यावसायिक प्रशिक्षण शामिल होना चाहिये।
    • सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों में समावेशी नियुक्ति प्रथाओं पर नज़र रखने के लिये एक दिव्यांगता रोज़गार सूचकांक शुरू किया जाना चाहिये। 
    • स्टार्टअप्स व SME को दिव्यांगजनों की नियुक्ति एवं प्रशिक्षण के लिये कर प्रोत्साहन और वित्तीय सहायता मिलनी चाहिये।
  • व्यापक स्वास्थ्य देखभाल और पुनर्वास सेवाएँ: दिव्यांगजनों के लिये स्वास्थ्य सेवाओं को आयुष्मान भारत और अन्य राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजनाओं में एकीकृत किया जाना चाहिये, जिसमें सहायक उपकरण, चिकित्सा एवं दीर्घकालिक पुनर्वास शामिल हों।
    • दूरस्थ चिकित्सा परामर्श, फिजियोथेरेपी सेशन और मानसिक स्वास्थ्य सहायता प्रदान करने के लिये दिव्यांगता-समावेशी टेलीमेडिसिन प्लेटफॉर्म विकसित किया जाना चाहिये। 
    • ज़िला दिव्यांगता पुनर्वास केंद्रों (DDRC) को विशेषज्ञ कर्मचारियों, उन्नत सहायक प्रौद्योगिकी एवं सामुदायिक आउटरीच कार्यक्रमों के साथ सुदृढ़ किया जाना चाहिये। 
    • बीमा कंपनियों को यह अनिवार्य किया जाना चाहिये कि वे दिव्यांगता-समावेशी स्वास्थ्य पॉलिसियाँ ​​पेश करें, जिनमें पहले से मौजूद बीमारियों और सहायक उपकरणों को भी शामिल किया जाए।
  • सुगम्य शहरी नियोजन और परिवहन प्रणालियाँ: सुगम्य भारत अभियान को बाधा-मुक्त सार्वजनिक अवसंरचना, परिवहन प्रणालियों और आवास सुनिश्चित करने के लिये कानूनी रूप से बाध्यकारी कार्यढाँचे के साथ विस्तारित किया जाना चाहिये। 
    • सभी नई स्मार्ट सिटी परियोजनाओं में दिव्यांगता-अनुकूल डिज़ाइन सिद्धांतों को शामिल किया जाना चाहिये, जिसमें व्हीलचेयर-अनुकूल मार्ग, टैक्टाइल पैविंग्स, वोइस असिस्टेड क्रॉसिंग और सार्वभौमिक शौचालय अभिगम शामिल हैं। 
    • बसों, मेट्रो और रेलवे सहित सार्वजनिक परिवहन प्रणालियों को वास्तविक काल अभिगम सहायता, निम्न-तल प्रवेश और दृश्य-श्रव्य सहायता प्रदान करना अनिवार्य होना चाहिये। 
    • प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत किफायती, सुलभ आवास योजनाएँ विकसित की जानी चाहिये तथा सभी नए निर्माणों में दिव्यांगजनों के अनुकूल सुविधाएँ अनिवार्य रूप से शामिल की जानी चाहिये। 
  • दिव्यांगजनों के लिये आपदा समुत्थानशीलन और जलवायु अनुकूलन: दिव्यांगजनों के लिये पूर्व चेतावनी प्रणाली, सुलभ आश्रय और लक्षित निकासी रणनीति सुनिश्चित करने के लिये दिव्यांगता-समावेशी आपदा जोखिम न्यूनीकरण (DiDRR) कार्यढाँचे को लागू किया जाना चाहिये।
    • आपदा प्रबंधन एजेंसियों और NDRF टीमों को आपात स्थिति के दौरान दिव्यांगजनों की सहायता करने के लिये विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिये। 
    • राहत पैकेज में जलवायु आपदाओं से प्रभावित दिव्यांगजनों के लिये सहायक उपकरण, दवाइयाँ और व्यक्तिगत देखभाल सहायता शामिल होनी चाहिये।
    • समुदाय-आधारित आपदा मोचन कार्यक्रमों की योजना और क्रियान्वयन में दिव्यांगजनों को शामिल किया जाना चाहिये, ताकि भागीदारीपूर्ण दृष्टिकोण सुनिश्चित किया जा सके। 
  • अंतर्विभागीय बाधाओं को दूर करना: महिलाएँ, ग्रामीण दिव्यांगजन और जातिगत रूप से हाशिये पर होना: दिव्यांग महिलाओं के समक्ष आने वाली चुनौतियों का समाधान करने, सुरक्षित गतिशीलता, प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल की सुलभता और वित्तीय स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिये लिंग-संवेदनशील दिव्यांगता कार्यढाँचे का अंगीकरण किया जाना चाहिये। 
    • ग्रामीण दिव्यांगजनों को समुदाय आधारित डिजिटल साक्षरता केंद्रों और स्थानीय उद्यमिता पहलों के माध्यम से डिजिटल इंडिया एवं आजीविका कार्यक्रमों में एकीकृत किया जाना चाहिये।
    • सहकर्मी नेटवर्क और सामुदायिक मार्गदर्शन के माध्यम से दिव्यांगजनों को सशक्त बनाने के लिये गाँव और ज़िला स्तर पर समर्पित सहायता समूह एवं स्वयं सहायता समूह बनाए जाने चाहिये। 
    • बेहतर नीतिगत समर्थन के लिये स्थानीय शासन संरचनाओं (जैसे ग्राम पंचायतों) में दिव्यांग प्रतिनिधियों को शामिल किया जाना चाहिये।
  • कानूनी पहचान और कल्याणकारी योजनाओं तक पहुँच के लिये प्रशासनिक प्रक्रियाओं को सरल बनाना: कल्याणकारी लाभों तक पहुँच में प्रशासनिक विलंब को कम करने के लिये विशिष्ट दिव्यांगता पहचान पत्र (UDID) प्रणाली को स्वचालित आधार एकीकरण के साथ सुव्यवस्थित किया जाना चाहिये।
    • सरकारी दस्तावेज़ प्राप्त करने में गतिशीलता संबंधी चुनौतियों का सामना करने वाले दिव्यांगजनों की सहायता के लिये उनके घर तक दिव्यांगता प्रमाणन सेवाएँ शुरू की जानी चाहिये।
    • सभी दिव्यांगजनों से संबंधित कल्याणकारी योजनाएँ, रोज़गार के अवसर, स्वास्थ्य सेवाएँ एवं कानूनी सहायता एक ही स्थान पर उपलब्ध कराने के लिये एकल खिड़की ऑनलाइन प्लेटफॉर्म बनाया जाना चाहिये।
    • AI-संचालित चैटबॉट सेवाओं को शामिल करने से कल्याणकारी योजनाओं की आवेदन प्रक्रिया अधिक उपयोगकर्त्ता-अनुकूल और सुलभ हो सकती है। 
  • सामाजिक धारणाओं में परिवर्तन और दिव्यांगता जागरूकता को बढ़ावा देना: दिव्यांगता के प्रति जागरूकता के लिये एक राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू किया जाना चाहिये ताकि दिव्यांगता के प्रति रूढ़िवादी धारणाओं को चुनौती दी जा सके तथा समावेशी मानसिकता को बढ़ावा दिया जा सके। 
    • स्कूलों एवं विश्वविद्यालयों को स्वीकृति और सहानुभूति की प्रारंभिक संस्कृति बनाने के लिये दिव्यांगता जागरूकता मॉड्यूल को अपने पाठ्यक्रम में एकीकृत करना चाहिये।
    • मुख्यधारा के मीडिया और मनोरंजन उद्योग को दिव्यांगजनों को सकारात्मक, गैर-रूढ़िवादी भूमिकाओं में दिखाने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये, ताकि जनता की धारणा बदल सके।
    • राष्ट्रीय पुरस्कारों और सार्वजनिक मान्यता के माध्यम से दिव्यांगजनों की उपलब्धियों (जैसे पैरालम्पिक खेलों के पदक विजेताओं) का जश्न मनाने से सामाजिक स्वीकृति एवं सशक्तीकरण को बढ़ावा मिल सकता है।

निष्कर्ष: 

1 ट्रिलियन डॉलर की डिजिटल अर्थव्यवस्था और व्यापक सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की ओर भारत की यात्रा वास्तव में समावेशी होनी चाहिये, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि दिव्यांग जन (PwD) पीछे न छूट जाएँ। इसके लिये एक आदर्श बदलाव— दिव्यांगता समावेशन को अनुपालन आवश्यकता के रूप में देखने से लेकर इसे राष्ट्रीय विकास की आधारशिला बनाने तक, की आवश्यकता है। प्रत्येक स्तर पर समावेशिता को शामिल करके, भारत एक ऐसे भविष्य का निर्माण कर सकता है जहाँ दिव्यांग लोग समाज के सभी पहलुओं में सम्मान, स्वतंत्रता एवं समान अवसर के साथ भाग ले सकें।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

प्रश्न. कानूनी प्रावधानों के बावजूद, सरकारी और निजी क्षेत्रों में दिव्यांगों की रोज़गार दर कम बनी हुई है। चुनौतियों का विश्लेषण कीजिये और कार्यबल में उनकी भागीदारी बढ़ाने के उपाय सुझाइये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स 

प्रश्न. भारत में लाखों दिव्यांग जन निवास करते हैं। कानून के तहत उन्हें क्या लाभ उपलब्ध हैं? (2011)

  1. सरकारी स्कूलों में 18 वर्ष की आयु तक निःशुल्क स्कूली शिक्षा 
  2. व्यवसाय स्थापित करने के लिये भूमि का अधिमान्य आवंटन 
  3. सार्वजनिक भवनों में रैंप 

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (d)

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