अंतर्राष्ट्रीय संबंध
दिल्ली, टोक्यो, कैनेबरा
- 11 Feb 2017
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पृष्ठभूमि
कुछ समय पहले अमेरिका के नवनियुक्त राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री मेल्कॉम टर्नबुल के साथ फोन पर हुई वार्ता में अमेरिका के एक सबसे मज़बूत गठबंधन को समाप्त करने की घोषणा करते हुए समग्र वैश्विक परिदृश्य में भावी बदलाव के प्रति सचेत कर दिया है| हालाँकि, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के बीच पिछले कुछ समय से इस बात को लेकर विवाद की स्थिति बनी हुई थी कि क्या अमेरिका ओबामा प्रशासन द्वारा कैनबरा सरकार से किये गए अपने वायदों को सम्मान देगा अथवा किसी दिन उन्हें भी ऐसे ही समाप्त कर देगा|
प्रमुख बिंदु
- वस्तुतः यह एक ऐसा प्रश्न है जो भारत सहित अमेरिका के सभी सुरक्षा भागीदारों के लिये चिंता का सबब बना हुआ है|
- यह प्रश्न एक भ्रामक नए युग की वास्तविक रणनीति और भू-राजनीति के विषय में है| इसके अतिरिक्त यह प्रश्न इस विषय पर भी केन्द्रित है कि क्या अमेरिका के सहयोगी और भागीदार, वाशिंगटन की प्रतिबद्धताओं पर विश्वास करना जारी रखेंगे अथवा अपनी उच्चस्तरीय निर्णयों की गोपनीयता को बनाए रखेंगे?
- ध्यातव्य है की कुछ समय पहले ही नई अमेरिकी सरकार द्वारा ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (Trans-Pacific Partnership) को खत्म किये जाने का निर्णय लिया गया है| वस्तुतः इसके तहत एशिया के साथ अमेरिका के नवीकृत सुरक्षा सम्बन्धों को आर्थिक आधार प्रदान करने का कार्य किया जाता था|
- यह प्रकरण इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में रहने वाले उन देशों के लिये एक अनुस्मारक है, जो न केवल मुखर होती चीनी शक्तियों के साथ सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं बल्कि अमेरिका के नव-नियुक्त राष्ट्रपति ट्रम्प की “पहले अमेरिका” की नीति से उपजने वाली चुनौतियों के कारण चिंताग्रस्त भी है|
चिंताएँ एवं समाधान
- प्रश्न यह है कि आखिर अमेरिका चीन की बढ़ती शक्तियों का किस प्रकार सामना करेगा? क्या इस विषय में वाशिंगटन द्वारा बीजिंग का सामना किया जाना चाहिये अथवा उसे चीन के साथ किये गए अपने सभी समझौतों को खत्म कर देना चाहिये?
- अथवा क्या अमेरिका द्वारा सम्पूर्ण एशिया को चीन की दया के भरोसे छोड़ दिया जाना चाहिये? यदि अमेरिका उपरोक्त में से किसी भी विकल्प का चयन करता है तो उस स्थिति में एशिया क्या करेगा?
- भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा जापान के प्रधानमंत्री शिंज़ो अबे के द्वारा पारस्परिक सहमति से दोनों देशों के मध्य सुरक्षा, आर्थिक तथा राजनैतिक सहयोग को बढ़ावा प्रदान करने का प्रयास किया जा रहा है
- इसके अतिरिक्त दोनों देश क्षेत्रीय परिदृश्य में बदलाव लाने एवं अमेरिका-चीन के मध्य बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा के कारण सामने आने वाले परिणामों को सहज रूप से स्वीकार न करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता ज़ाहिर कर चुके हैं|
- वस्तुतः ये सभी प्रतिबद्धताएँ भारत की एक्ट ईस्ट (India’s Act East) नीति तथा जापान की मुक्त और खुली इंडो-पैसिफिक रणनीति (Japan’s Free and Open Indo-Pacific Strategy) का अभिसरण मात्र है|
- उल्लेखनीय है कि एशियाई क्षेत्रीय सुरक्षा के स्थापत्य का निर्माण करने वाली एक अन्य प्रमुख शक्ति ऑस्ट्रेलिया है|
- ध्यातव्य है कि चीन ऑस्ट्रेलिया का सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी है| यह और बात है कि चीन के साथ ऑस्ट्रेलिया के संबंधों का बारीकी से अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि चीन द्वारा ऑस्ट्रेलिया के क्षेत्रीय संबंधों के विषय की प्रायः उपेक्षा की जाती रही है|
- जबकि भारत एवं ऑस्ट्रेलिया के मध्य सशक्त आर्थिक समझौतों के साथ-साथ लोगों के मध्य संबंधों ने भी दोनों देशों के बीच रिश्तों को मज़बूती प्रदान करने का कार्य किया है|
- इतना ही नहीं पिछले वर्ष दोनों देशों के मध्य बंगाल की खाड़ी में संपन्न हुए एक पनडुब्बी रोधी युद्ध अभियान के साथ-साथ कई अन्य सुरक्षा समझौते भी संपन्न किये गए हैं|
- तथापि टोक्यो एवं कैनबेरा के मध्य संबंधों में पुन: उछाल देखने को मिला है, जो कि भारत के लिये चिंता की बात है|
- वर्तमान समय में इन तीनों समुद्री लोकतन्त्रों को वार्ता से संवाद की ओर रुख करने तथा ऐसे व्यावहारिक सहयोग का निर्माण करने की प्रबल आवश्यकता है जो न केवल इन तीनों देशों को आर्थिक एवं सुरक्षात्मक सहायता पहुँचाए बल्कि एक अनिश्चित समय के लिये इनके मध्य सामरिक सहयोग बनाए रखने हेतु एक वृहत् क्षेत्र भी तैयार करे|
- हालाँकि यहाँ यह स्पष्ट कर देना अत्यंत आवश्यक है कि इन क्षेत्रों में केवल दिल्ली, टोक्यो और कैनबरा ही मध्यम शक्ति वाले देश नहीं हैं| चूँकि हम एक लेख के अंतर्गत इन्हीं तीन देशों की रणनीतिक भागीदारी की चर्चा कर रहे हैं इसलिये इस क्षेत्र की अन्य शक्तियों को इस चर्चा का केंद्र नहीं बनाया गया है|
- इस प्रकार स्पष्ट है कि ये तीनों देश इंडो-पैसिफिक कूटनीति के लिये नए त्रिकोणीय दृष्टिकोण के मूल्य को प्रदर्शित करने वाली प्रमुख स्थितियों से युक्त देश हैं|
- वस्तुतः ये देश क्षेत्रीय लचीलेपन को बढ़ावा देने के लिये कईं मध्यम शक्ति गठबन्धनों का निर्माण करने में सक्षम राष्ट्र हैं|
- यही कारण है कि सामरिक मुद्दों पर सहयोग करने वाले ये राष्ट्र एक दूसरे के साथ अनौपचारिक व्यवस्था तथा उन आत्म-चयनात्मक समूहों में कार्य करने को अधिक प्राथमिकता देते हैं, जिनमें चीन अथवा अमेरिका शामिल नहीं होते हैं|
- इन देशों द्वारा आपसी सहयोग से कईं ऐसे प्राथमिक क्षेत्रों को विस्तार प्रदान किया जा सकता है जिनसे न केवल एक बहुध्रुवीय प्रारूप ही विकसित किया जा सकता है बल्कि उस प्रारूप में निहित शर्तों के अनुसार ही चीन को भी शामिल होने पर मज़बूर भी किया जा सकता है|
- इन शर्तों के अंतर्गत सुरक्षा संवाद, ख़ुफ़िया सूचनाओं के आदान-प्रदान, समुद्री निगरानी डेटा के आदान-प्रदान, दक्षिण-पूर्व एशिया के छोटे देशों अथवा प्रशांत महासागर में सेना के क्षमता निर्माण एवं असैन्य समुद्री बल, प्रौद्योगिकी की साझेदारी, क्षेत्रीय मंचों जैसे पूर्व एशियाई शिखर सम्मेलन और अमेरिका तथा चीन की सामरिक गणनाओं को बढ़ाने के लिये समन्वित कूटनीतिक पहलें शामिल की गई हैं|
निष्कर्ष
स्पष्ट है कि यह प्रयास न तो अमेरिका के बिना एशिया का निर्माण करने के विषय में है और न ही यह इसके अंतर्गत चीन को असम्मिलित किये जाने की बात है| इन सबके विपरीत यह प्रयास अमेरिका और चीन के मध्य स्थानान्तरित गतिशील क्षेत्रीय अस्थिरता को सीमित करने के उपायों की खोज करने के विषय में है| ध्यातव्य है कि भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे गठबन्धनों में अभी भी स्वयं चीन का सामना करने की क्षमता का अभाव साफ तौर पर स्पष्ट होता है| परन्तु इसकी स्वयं की व्यवस्था का विकास और एशियाई सुरक्षा के बोझ के बड़े हिस्से के सन्दर्भ में भारत-जापान-ऑस्ट्रेलिया गठबंधन चीन और अमेरिका दोनों को यह मज़बूत सन्देश देने के लिये पर्याप्त है कि विश्व की सम्पूर्ण व्यवस्था में यदि ये दो देश अपना योगदान सही से दे पाने में समक्ष नहीं हैं तो भारत-जापान-ऑस्ट्रेलिया यह भार उठा सकते है| वस्तुतः यह दिल्ली, टोक्यो और कैनबरा का एक प्रयास है जिसके बलबूते ये तीनों देश बीजिंग को यह संदेश देना चाहते हैं कि वह इस क्षेत्र से अमेरिका को बाहर कर अथवा अपने प्रभाव के लिये एक नई क्षेत्रीय स्थिति के विकल्प के लिये अपने एशियाई पड़ोसियों के राजनीतिक और सुरक्षात्मक हितों की उपेक्षा नहीं कर सकता है|