अंतर्राष्ट्रीय संबंध
आर्मीनिया-अज़रबैजान और नागोर्नो-करबख विवाद
- 15 Oct 2020
- 17 min read
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में नागोर्नो-करबख विवाद और क्षेत्र की स्थिरता पर इसके प्रभावों से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ:
हाल ही में दो पूर्व सोवियत देशों आर्मीनिया और अज़रबैजान के बीच वर्षों से विवादित रहे नागोर्नो-करबख (Nagorno-Karabakh) क्षेत्र में पुनः संघर्ष शुरू हो गया है। हालाँकि पिछले लगभग तीन दशकों में दोनों देशों के बीच क्षेत्रीय और जातीय विवाद कई बार हिंसक हो उठा है परंतु वर्तमान में इस संघर्ष में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कई अन्य क्षेत्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों के शामिल होने की आशंका के कारण इसे क्षेत्र की राजनीतिक एवं आर्थिक स्थिरता के लिये एक बड़े खतरे के रूप में देखा जा रहा है।
नागोर्नो-करबख क्षेत्र:
- नागोर्नो-करबख क्षेत्र काकेशस पर्वत श्रृंखला के दक्षिणी भाग और आर्मीनियाई पर्वतीय मैदान के पूर्वी भाग के बीच स्थित है।
- नागोर्नो-करबख क्षेत्र एक समय में आर्मीनियाई साम्राज्य का एक हिस्सा था, परंतु अपने लंबे इतिहास के दौरान यह दक्षिण काकेशस (South Caucasus) में आए कई साम्राज्यों (रोमन, फारसियों, ऑटोमन, रूसी और सोवियत संघ) का साक्षी रहा है।
- वर्तमान में यह क्षेत्र अज़रबैजान की सीमा के अंतर्गत आता है परंतु इसकी अधिकांश आबादी आर्मीनियाई मूल के लोगों की है, जो इस क्षेत्र में वर्षों से चले आ रहे संघर्ष का सबसे बड़ा कारण है।
पृष्ठभूमि:
- नागोर्नो-करबख क्षेत्र के हालिया संघर्ष की जड़ों को उस समय से जोड़कर देखा जा सकता है जब ट्रांसकाकेशिया (या दक्षिण काकेशस) रूसी साम्राज्य का हिस्सा था।
- रूसी ज़ारशाही के दौरान 19वीं सदी की शुरुआत में रूसी-फारसी युद्धों के बाद रूस ने फारसी साम्राज्य से इस क्षेत्र को अपने कब्ज़े में ले लिया।
- वर्ष 1917 की रूसी क्रांति के बाद दक्षिण काकेशस पर रूस का प्रभाव कमज़ोर पड़ता गया, जिसके बाद इस क्षेत्र में ‘ट्रांसकाकेशिया डेमोक्रेटिक फेडरल रिपब्लिक’ (Transcaucasia Democratic Federal Republic) की स्थापना की गई और करबख इस गणराज्य का एक हिस्सा बन गया।
- हालाँकि यह महासंघ अपने ही अंतर्विरोधों के कारण ज़्यादा समय तक नहीं चल सका, वर्ष 1921 में आर्मीनिया और अज़रबैजान सोवियत गणराज्य का हिस्सा बन गए।
- इस दौरान सोवियत नेताओं ने 90% से अधिक आर्मीनियाईआबादी वाले स्वायत्त नागोर्नो-करबख प्रांत को अज़रबैजान को देने का निर्णय लिया।
- विशेषज्ञों के अनुसार, चूँकि अज़रबैजान प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ऑटोमन साम्राज्य का एक क्षेत्रीय सहयोगी था, अतः स्टालिन नागोर्नो-करबख को आर्मीनिया में मिलाकर तुर्की को दक्षिण काकेशस में जातीय तनाव का फायदा उठाने का एक और अवसर नहीं देना चाहता था।
- जब तक सोवियत संघ मज़बूत रहा, तब तक यह क्षेत्र अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण था। लेकिन वर्ष 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में सोवियत संघ के कमज़ोर पड़ने के साथ ही इस क्षेत्र में पुनः जातीय संघर्ष शुरू हो गया।
- वर्ष 1988 में नागोर्नो-करबख की क्षेत्रीय विधानसभा ने अपनी स्वायत्तता को समाप्त करने और आर्मीनिया में शामिल होने का प्रस्ताव पारित किया। अज़रबैजान द्वारा इस कदम का विरोध किया गया, जिसके बाद क्षेत्र में भारी हिंसक झड़पें हुईं।
- वर्ष 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद नागोर्नो-करबख द्वारा स्वयं को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में घोषित किया गया, जिसके बाद अज़रबैजान और नागोर्नो-करबख विद्रोहियों (आर्मीनिया समर्थित) के बीच वर्षों तक युद्ध चलता रहा।
- युद्ध विराम: वर्ष 1994 में रूस की मध्यस्थता के माध्यम से दोनों पक्षों के बीच युद्धविराम समझौते की घोषणा की गई, इस समझौते के बाद से संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और फ्राँस की सह-अध्यक्षता वाले ‘यूरोपीय रक्षा एवं सहयोग संगठन’ (Organization for Security and Co-operation in Europe- OSCE) द्वारा आर्मीनिया और अज़रबैजान के बीच इस संघर्ष को सुलझाने के लिये व्यापक प्रयास किये गए हैं।
- इस समझौते के बाद भी नागोर्नो-करबख का क्षेत्र अज़रबैजान का हिस्सा बना रहा। लेकिन तबसे इस क्षेत्र का अधिकांश हिस्सा एक अलगाववादी, स्व-घोषित गणराज्य द्वारा शासित है, जिसका संचालन आर्मीनिया समर्थित सरकार द्वारा किया जाता है।
- हालाँकि वर्तमान में वैश्विक स्तर पर नागोर्नो-करबख को एक स्वतंत्र राष्ट्र या आर्मीनिया के हिस्से के रूप में नहीं बल्कि अज़रबैजान के एक भू-भाग के रूप में मान्यता प्राप्त है।
हालिया घटनाक्रम:
- नागोर्नो-करबख के विवाद को लेकर 27 सितंबर को आर्मीनिया और अज़रबैजान के बीच पुनः संघर्ष शुरू हो गया।
- इस दौरान तुर्की के समर्थन से अज़रबैजान ने आर्मीनिया पर हमले तेज़ कर दिये और दोनों पक्षों के बीच हुई गोलाबारी में सैकड़ों लोगों की मृत्यु हो गई।
- 10 अक्तूबर को रूस की मध्यस्थता के बाद दोनों देशों के बीच एक बार पुनः युद्धविराम की घोषणा की गई, हालाँकि यह युद्धविराम बहुत देर तक नहीं चल सका और दोनों देशों के बीच फिर से संघर्ष शुरू हो गया।
क्षेत्र का रणनीतिक महत्त्व:
- ऊर्जा संपन्न अज़रबैजान द्वारा पूरे काकेशस क्षेत्र (काला सागर और कैस्पियन सागर के बीच का क्षेत्र) में तुर्की से लेकर यूरोप तक गैस और तेल पाइपलाइनों की स्थापना की गई है।
- इसके तहत ‘बाकू-तबलिसी-सेहान तेल पाइपलाइन’ (प्रतिदिन 1.2 बिलियन बैरल तेल परिवहन की क्षमता), पश्चिमी मार्ग निर्यात तेल पाइपलाइन, ट्रांस-अनातोलियन गैस पाइपलाइन और दक्षिण काकेशस गैस पाइपलाइन शामिल हैं।
- इनमें से कुछ पाइपलाइनें संघर्ष क्षेत्र के बहुत ही नज़दीक (सीमा के 16 किमी) से गुज़रती हैं।
- दोनों देशों के बीच युद्ध की स्थिति में इन पाइपलाइनों को लक्षित किया जा सकता है, जिससे एक बड़ी दुर्घटना के साथ क्षेत्र से होने वाली ऊर्जा आपूर्ति पर भी प्रभाव पड़ेगा।
बाहरी हस्तक्षेप की चुनौतियाँ:
- बाहरी हस्तक्षेप का भय आर्मीनिया और अज़रबैजान के बीच हालिया संघर्ष को और अधिक खतरनाक बनाता है।
तुर्की:
- तुर्की ने आर्मीनिया को क्षेत्र की शांति के लिये खतरा बताया है, गौरतलब है कि तुर्की और अज़रबैजान जातीय व भाषाई संबंधों को साझा करते हैं। इसके साथ ही अज़रबैजान प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की का एक सहयोगी रहा था।
- गौरतलब है कि वर्ष 1991 में अज़रबैजान को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता देने वाला तुर्की सबसे पहला देश था।
- हाल के वर्षों में राष्ट्रपति ‘रेसेप तईप एर्दोगन’ के नेतृत्त्व में तुर्की ऑटोमन साम्राज्य के पूर्ववर्ती हिस्सों और मुस्लिम देशों के बीच अपनी राजनीतिक पकड़ का विस्तार करने के प्रयास पर विशेष ध्यान दे रहा है।
- ऐसे में नागोर्नो-करबख का संघर्ष तुर्की को दक्षिण काकेशस में प्रवेश करने का एक महत्त्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है।
रूस:
- रूस के लिये काकेशस और मध्य एशिया का क्षेत्र बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, हालाँकि नागोर्नो-करबख का वर्तमान संघर्ष रूस के लिये एक चुनौतीपूर्ण स्थिति है।
- आर्मीनिया और अज़रबैजान दोनों के साथ रूस के अच्छे संबंध हैं तथा रूस दोनों को ही हथियारों की आपूर्ति करता है।
- हालाँकि अज़रबैजान की अपेक्षा आर्मीनिया रूस पर अधिक निर्भर है, साथ ही आर्मीनिया में रूस का एक सैन्य अड्डा (Military Base) भी है।
- आर्मीनिया, रूस के नेतृत्व वाले ‘सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन’ (Collective Security Treaty Organization- CSTO) का सदस्य है।
- इस संघर्ष के बढ़ने की स्थिति में आर्मीनिया CSTO के अनुच्छेद-4 का प्रयोग करते हुए रूस की सहायता की मांग कर सकता है।
- यदि रूस इस युद्ध में आर्मीनिया की सहायता की सहमति देता है तो यह रूस को इस संघर्ष में पहले से शामिल तुर्की के सामने लाकर खड़ा करेगा।
- गौरतलब है कि तुर्की, उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) का एक सदस्य है, ऐसे में यह स्थिति अत्यंत जटिल हो सकती है।
अन्य देश:
- तुर्की और रूस के अतिरिक्त अमेरिका, यूरोप और ईरान भी इस क्षेत्र में अपने सामरिक, सुरक्षा और आर्थिक हितों की रक्षा में लगे हुए हैं।
- यूरोप की ऊर्जा सुरक्षा के लिये इस क्षेत्र की स्थिरता बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
- यूरोप और अमेरिका के साथ विश्व के अधिकांश देशों ने इस संघर्ष को समाप्त करने और क्षेत्र में शांति तथा स्थिरता के प्रयासों को बढ़ावा दिये जाने पर ज़ोर दिया है।
भारत पर प्रभाव:
- भारत के पास ‘पड़ोस प्रथम की नीति’ (Neighbourhood First Policy) या एक्ट ईस्ट (Act East) की तरह दक्षिण काकेशस के लिये कोई विशेष सार्वजनिक नीति नहीं है।
- साथ ही क्षेत्र के देशों (आर्मीनिया, जॉर्जिया और अज़रबैजान आदि) के साथ भारत के संबंधों में भारी विषमता दिखाई देती है।
- भारत द्वारा आर्मीनिया के साथ वर्ष 1995 में एक ‘मित्रता और सहयोग संधि’ पर हस्ताक्षर किये गए थे, जिसका अर्थ है कि यदि नागोर्नो-करबख से अज़रबैजान का हमला बढ़ते हुए आर्मीनिया के क्षेत्र तक पहुँचता है, तो उस स्थिति में यह संधि भारत को अज़रबैजान के लिये सैन्य या कोई अन्य सहायता प्रदान करने से प्रतिबंधित करती है।
- अज़रबैजान में भारत की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी ओएनजीसी विदेश लिमिटेड (ONGC Videsh Limited) द्वारा एक तेल क्षेत्र की परियोजना में निवेश किया गया है और गेल (GAIL) द्वारा एलएनजी (LNG) के क्षेत्र में सहयोग की संभावनाओं की तलाश की जा रही है। ‘
- अज़रबैजान अंतर्राष्ट्रीय उत्तर दक्षिण परिवहन गलियारे (INSTC) के मार्ग में स्थित एक महत्त्वपूर्ण देश है। गौरतलब है कि INSTC भारत को मध्य एशिया से होते हुए रूस से जोड़ता है, साथ ही यह भारत को ‘बाकू-तिबलिस-कार्स यात्री और माल रेल लिंक’ (Baku-Tbilisi-Kars Passenger and Freight Rail Link) के माध्यम से तुर्की और इससे आगे के क्षेत्रों से भी जोड़ता है।
- आर्मीनिया ने कश्मीर मुद्दे पर खुलकर भारत का समर्थन किया है, जबकि अज़रबैजान को पाकिस्तान का समर्थन प्राप्त है।
- भारत द्वारा लंबे समय से राजनयिक वार्ताओं के माध्यम से इस संघर्ष के शांतिपूर्ण समाधान पर ज़ोर दिया गया है।
आगे की राह:
- हाल के वर्षों में रूस पहले ही सीरिया, यूक्रेन और लीबिया जैसे देशों के सैन्य संघर्षों में शामिल रहा है, ऐसे में वह वर्तमान परिस्थिति में एक और मोर्चा खोलने का इच्छुक नहीं होगा। इसीलिये रूस अब तक संघर्ष विराम के लिये मध्यस्थता पर ज़ोर देता रहा है, परंतु यदि यह संघर्ष आर्मीनिया की सीमा तक पहुँचता है तो रूस निश्चय ही एक पक्ष का साथ देने के लिये विवश होगा।
- वर्तमान में नागोर्नो-करबख विवाद पर भारत द्वारा किसी एक पक्ष का समर्थन न करते हुए राजनयिक वार्ताओं के माध्यम से इस संघर्ष के शांतिपूर्ण समाधान की मांग एक सकारात्मक कदम है।
- पूर्व में नागोर्नो-करबख में बड़े पैमाने पर जातीय हिंसा के मामले देखने को मिले हैं, ऐसे में एक क्षेत्रीय युद्ध का जोखिम उठाए बगैर अज़रबैजान, आर्मीनिया और करबख विद्रोहियों को संघर्ष विराम लागू करते हुये भविष्य में क्षेत्र की शांति तथा स्थिरता सुनिश्चित करने के लिये राजनयिक वार्ताओं को शुरू करने हेतु साझा पहल को बढ़ावा देना चाहिये।
- COVID-19 महामारी के बीच इस क्षेत्र की अस्थिरता एक बड़ी मानवीय त्रासदी का कारण बन सकती है, ऐसे में इस विवाद के शांतिपूर्ण समाधान के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
अभ्यास प्रश्न: नागोर्नो-करबख विवाद का संक्षिप्त परिचय देते हुए वर्तमान परिस्थिति में क्षेत्र की शांति और स्थिरता पर इसके प्रभावों की समीक्षा कीजिये।