विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
सफेद बौना तारा
- 25 Oct 2021
- 7 min read
प्रिलिम्स के लिये:सफेद बौना तारा मेन्स के लिये:सफेद बौने तारे का निर्माण और संबंधित अंतरिक्षीय गतिविधियाँ |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय टीम ने देखा कि एक सफेद बौने तारे ने अपनी चमक 30 मिनट में ही खो दी, इस प्रक्रिया में आमतौर पर कई दिनों से लेकर महीनों तक का समय लगता है।
- सफेद बौने तारे की इस घटना को स्विच ऑन और ऑफ घटना के रूप में संदर्भित किया जा सकता है।
- हबल स्पेस टेलीस्कोप और ट्रांज़िटिंग एक्सोप्लैनेट सर्वे सैटेलाइट (TESS) का उपयोग करते हुए खगोलविदों ने कई सफेद बौने तारों की पहचान की है।
प्रमुख बिंदु
- सफेद बौने तारे के बारे में:
- निर्माण:
- सफेद बौने तारों में उपस्थित हाइड्रोजन नाभिकीय संलयन की प्रक्रिया में पूरी तरह से खत्म हो जाता है।
- ऐसे तारों का घनत्व बहुत अधिक होता है।
- एक सामान्य सफेद बौना हमारे सूर्य के आकार का आधा होता है और इसकी सतह का गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी से 1,00,000 गुना अधिक होता है।
- सूर्य जैसे तारे नाभिकीय संलयन अभिक्रियाओं के माध्यम से अपने केंद्र में हाइड्रोजन को हीलियम में रूपांतरित करते हैं।
- एक तारे के कोर में संलयन तापमान और बाहरी दबाव पैदा करता है (वे विशाल लाल दानवों के रूप में फैलते हैं), लेकिन यह दबाव एक तारे के द्रव्यमान द्वारा उत्पन्न गुरुत्वाकर्षण द्वारा संतुलित हो जाता है।
- तारों में उपस्थित हाइड्रोजन नाभिकीय संलयन की प्रक्रिया में पूरी तरह से खत्म हो जाने के बाद गुरुत्वाकर्षण बहुत अधिक हो जाता है जिसके कारण तारे सफेद बौने तारों में रूपांतरित हो जाते हैं।
- काले बौने तारे:
- सफेद बौने तारे को काला बौना तारा बनने में सैकड़ों अरबों वर्षों का समय लगता है, चूँकि ब्रह्मांड के सबसे पुराने तारे केवल 10 अरब से 20 अरब वर्ष पुराने हैं, इसलिये अभी तक कोई काले बौने तारे ज्ञात नहीं हैं।
- यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि सभी सफेद बौने शांत नहीं होते हैं और काले बौनों में बदल जाते हैं।
- चंद्रशेखर सीमा:
- सफेद बौने तारों के द्रव्यमान की ऊपरी सीमा सौर द्रव्यमान के 1.44 गुना से अधिक विशाल नहीं हो सकती है।
- इस सीमा पर इसके केंद्र में दबाव इतना अधिक हो जाता है कि तारा थर्मोन्यूक्लियर सुपरनोवा के रूप में विस्फोट कर देता है।
- निर्माण:
- ‘स्विच ऑन एंड ऑफ’ घटना:
- सफेद बौना तारा, जिसकी चर्चा की गई है, एक द्विआधारीय प्रणाली का हिस्सा है जिसे ‘TW पिक्टोरिस’ कहा जाता है, यहाँ एक तारा और एक सफेद बौना तारा एक-दूसरे की परिक्रमा करते हैं।
- दो पिंड एक-दूसरे के इतने करीब होते हैं कि तारा सामग्री को सफेद बौने में स्थानांतरित कर देता है।
- जैसे ही यह सामग्री सफेद बौने तारे तक पहुँचती है, वैसे ही यह एक अभिवृद्धि डिस्क या गैस, प्लाज़्मा और इसके चारों ओर अन्य कणों की एक डिस्क का निर्माण करती है।
- जैसे-जैसे अभिवृद्धि डिस्क संबंधी सामग्री धीरे-धीरे सफेद बौने तारे के करीब आती जाती है, यह आमतौर पर चमकीली हो जाती है।
- ऐसे भी मामले हैं जब दाता तारे सफेद बौने तारे की अभिवृद्धि डिस्क के निर्माण में सहयोग नहीं करते हैं। हालाँकि इसके कारण अभी स्पष्ट नहीं हैं।
- जब ऐसा होता है तो डिस्क का चमकीलापन बना रहता है क्योंकि उसकी अपवाहित सामग्री पूर्वानुसार बनी रहती है।
- इसके बाद अधिकांश सामग्री को अपवाहित करने में डिस्क को लगभग 1-2 महीने लगते हैं।
- हालाँकि 30 मिनट में TW पिक्टोरिस की चमक में गिरावट पूरी तरह से अप्रत्याशित थी, यह ‘मैग्नेटिक गेटिंग’ नामक प्रक्रिया के कारण घटित हो सकता है।
- ‘मैग्नेटिक गेटिंग’ प्रक्रिया तब होती है जब चुंबकीय क्षेत्र सफेद बौने तारे के चारों ओर इतनी तेज़ी से घूम रहा होता है कि यह सफेद बौने को प्राप्त होने वाले पदार्थ की मात्रा में बाधा उत्पन्न करता है।
- सफेद बौना तारा, जिसकी चर्चा की गई है, एक द्विआधारीय प्रणाली का हिस्सा है जिसे ‘TW पिक्टोरिस’ कहा जाता है, यहाँ एक तारा और एक सफेद बौना तारा एक-दूसरे की परिक्रमा करते हैं।
- महत्त्व: यह खोज अभिवृद्धि के पीछे की भौतिकी को समझने में मदद करेगी- ब्लैक होल और न्यूट्रॉन तारे अपने आस-पास के तारों से सामग्री कैसे प्राप्त करते हैं।
चंद्रशेखर सीमा (Chandrashekhar Limit):
- चंद्रशेखर सीमा एक स्थिर सफेद बौने तारे के लिये सैद्धांतिक रूप से संभव अधिकतम द्रव्यमान है।
- सफेद बौने तारों के द्रव्यमान की ऊपरी सीमा सौर द्रव्यमान के 1.44 गुना से अधिक विशाल नहीं हो सकती है।
- किसी भी अपक्षयी वस्तु को अधिक विशाल रूप से अनिवार्य रूप से न्यूट्रॉन स्टार या ब्लैक होल में गिरना चाहिये।
- इस सीमा का नाम नोबेल पुरस्कार विजेता सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर के नाम पर रखा गया है, जिन्होंने पहली बार 1931 में इस विचार का प्रस्ताव रखा था।
- सितारों की संरचना और विकास में शामिल भौतिक प्रक्रियाओं पर उनके काम के लिये वर्ष 1983 में उन्हें भौतिकी में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।