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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

पश्चिम एशिया शांति सम्मेलन

  • 01 Feb 2021
  • 11 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में रूस ने पश्चिम एशिया शांति सम्मेलन (West Asia Peace Conference) के लिये फिलिस्तीनी प्रस्ताव का समर्थन किया। इस सम्मेलन का उद्देश्य दो-राज्य समाधान पर ध्यान केंद्रित करना है, जिसके तहत इज़राइल के साथ-साथ फिलिस्तीन राज्य भी अस्तित्व में होगा।

प्रमुख बिंदु:

पृष्ठभूमि:

  • डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन के दौरान अमेरिका ने इज़राइल का पक्ष लिया, परंतु अब संयुक्त राज्य अमेरिका का इरादा " इज़राइलियों के साथ-साथ फिलीस्तीनियों से भी विश्वसनीय संबंधो को बहाल करना है।"
  • सम्मेलन में भागीदार:
    • 10 प्रतिभागियों में इज़राइल, फिलीस्तीन, पश्चिम एशिया राजनयिक चौकड़ी के चार सदस्य (रूस, संयुक्त राष्ट्र, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ) शामिल होंगे, साथ ही चार अरब राज्य- बहरीन, मिस्र, जॉर्डन और संयुक्त अरब अमीरात शामिल होंगे।

रूस का सुझाव:

  • रूस ने सुझाव दिया कि पश्चिम एशिया शांति सम्मेलन मंत्री स्तर पर आयोजित किया जा सकता है।

अन्य संबंधित पहल:

  • इज़राइल, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के बीच अब्राहम समझौते की मध्यस्थता अमेरिका द्वारा की जाती है। यह 26 वर्षों में पहला अरब-इज़राइल शांति समझौता था।
  • फिलिस्तीन इस समझौते से पड़ने वाले प्रभावों के बारे में चिंतित हैं।

इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष

पृष्ठभूमि:

Israel

ब्रिटिश चरण:

  • प्रथम विश्व युद्ध में मध्य-पूर्व के ओटोमन साम्राज्य की हार के बाद ब्रिटेन ने फिलिस्तीन के क्षेत्र पर नियंत्रण कर लिया।
  • यह क्षेत्र यहूदी अल्पसंख्यक और अरब बहुसंख्यक आबादी का निवास स्थान रहा है।
  • इज़राइल और फिलिस्तीन के मध्य संघर्ष का इतिहास लगभग 100 वर्ष पुराना है, जिसकी शुरुआत वर्ष 1917 में उस समय हुई जब तत्कालीन ब्रिटिश विदेश सचिव आर्थर जेम्स बल्फौर ने ‘बल्फौर घोषणा’ (Balfour Declaration) के तहत फिलिस्तीन में एक यहूदी ‘राष्ट्रीय घर’ (National Home) के निर्माण के लिये ब्रिटेन का आधिकारिक समर्थन व्यक्त किया।
    • यहूदियों के लिये यह उनका पैतृक निवास स्थान था, लेकिन फिलिस्तीनी अरबों ने भी इस ज़मीन पर दावा किया जिसका विरोध किया गया।
  • अरब और यहूदियों के बीच संघर्ष को समाप्त करने में असफल रहे ब्रिटेन ने वर्ष 1948 में फिलिस्तीन से अपने सुरक्षा बलों को हटा लिया और अरब तथा यहूदियों के दावों का समाधान करने के लिये इस मुद्दे को नवनिर्मित संगठन संयुक्त राष्ट्र (UN) के विचारार्थ प्रस्तुत किया।
  • वर्ष 1948 में यहूदियों ने स्वतंत्र इज़राइल की घोषणा कर दी और इज़राइल एक देश बन गया, इसके परिणामस्वरूप आस-पास के अरब राज्यों (इजिप्ट, जॉर्डन, इराक और सीरिया) ने इज़राइल पर आक्रमण कर दिया। युद्ध के अंत में इज़राइल ने संयुक्त राष्ट्र की विभाजन योजना के आदेशानुसार प्राप्त भूमि से  अधिक भूमि पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया।

ब्रिटिश के बाद का चरण: 

  • वर्ष 1967 में प्रसिद्ध ‘सिक्स डे वार’ (Six-Day War) हुआ, जिसमें इज़राइली सेना ने गोलन हाइट्स, वेस्ट बैंक तथा पूर्वी यरूशलम को अपने अधिकार क्षेत्र में कर लिया।
  • अधिकांश फिलिस्तीनी शरणार्थी और उनके वंशज गाजा तथा वेस्ट बैंक, साथ ही पड़ोसी जॉर्डन, सीरिया एवं लेबनान में भी रहते हैं।
    • न तो फिलिस्तीनी शरणार्थी और न ही उनके वंशजों को इज़राइल ने उनके घरों में लौटने की अनुमति दी है, इज़राइल का कहना है कि इससे देश का विकास अवरुद्ध होगा और यहूदी राज्य के रूप में देश के अस्तित्व को खतरा होगा।
  • वेस्ट बैंक पर अभी भी इज़राइल का कब्ज़ा है, हालाँकि यह गाजा से बाहर हो गया है, संयुक्त राष्ट्र (UN) अभी भी इस क्षेत्र को कब्ज़े वाले क्षेत्र के हिस्से के रूप में मानता है।
  • इज़राइल पूरे यरुशलम पर अपनी राजधानी के रूप में दावा करता है, जबकि फिलिस्तीनी पूर्वी यरूशलम को भविष्य के फिलिस्तीनी राज्य की राजधानी के रूप में दावा करते हैं।
  • पिछले 50 वर्षों में इज़राइल ने इन क्षेत्रों में बस्तियाँ स्थापित की हैं, जहाँ वर्तमान में 6,00,000 से अधिक यहूदी रहते हैं।
  • फिलिस्तीनियों का कहना है कि ये बस्तियाँ अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत अवैध हैं और शांति के मार्ग में बाधा हैं, लेकिन इज़राइल इससे इनकार करता है।

संयुक्त राज्य अमेरिका के रुख में बदलाव:

  • अमेरिका ने इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष में पक्षपातपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • पिछले कुछ वर्षों में संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने हितों के अनुसार, वेस्ट बैंक के बड़े हिस्से को अलग करने के समर्थन में इज़राइली योजनाओं का समर्थन करके ओस्लो समझौते में एक स्पष्ट बदलाव को चिह्नित किया है।
    • USA की शांति योजना की ज़िम्मेदारी होगी कि इज़राइल एक एकीकृत यरूशलम को अपनी राजधानी के रूप में नियंत्रित करेगा और वेस्ट बैंक में किसी भी बस्ती को हटाने के लिये इसकी आवश्यकता नहीं होगी।
      • यह योजना बिना किसी सार्थक फिलिस्तीनी भागीदारी के तैयार की गई थी और इसे इज़राइल के पक्ष में बनाया गया था।
    • वर्ष 1993 में ओस्लो समझौते के तहत इज़राइल और फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन (PLO) एक-दूसरे को आधिकारिक तौर पर मान्यता देने और हिंसा को त्यागने के लिये सहमत हुए।
    • ओस्लो समझौते ने फिलिस्तीनी प्राधिकरण की भी स्थापना की, जिसे गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक के कुछ हिस्सों में सीमित स्वायत्तता मिली।
  • हालाँकि हाल ही में प्रशासन में बदलाव के बाद USA ने कहा कि वह फिलिस्तीनियों के साथ संबंधों को नवीनीकृत करने की दिशा में आगे बढ़ेगा।

भारत का रुख:

  • भारत ने आज़ादी के पश्चात् लंबे समय तक इज़राइल के साथ कूटनीतिक संबंध नहीं रखे, जिससे यह स्पष्ट था कि भारत, फिलिस्तीन की मांगों का समर्थन करता है, किंतु वर्ष 1992 में इज़राइल के साथ भारत के औपचारिक कूटनीतिक संबंध बने और अब ये रणनीतिक संबंधों में परिवर्तित हो गए हैं तथा अपने उच्च स्तर पर हैं।
  • भारत पहला गैर-अरब देश था, जिसने वर्ष 1974 में फिलिस्तीनी जनता के एकमात्र और कानूनी प्रतिनिधि के रूप में फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन को मान्यता प्रदान की थी। 
    • साथ ही भारत वर्ष 1988 में फिलिस्तीनी राज्य को मान्यता देने वाले शुरुआती देशों में शामिल था।
  • वर्ष 2014 में भारत ने गाजा में इज़राइल के मानवाधिकारों के उल्लंघन की जाँच के लिये संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) के प्रस्ताव का समर्थन किया। जाँच का समर्थन करने के बावजूद भारत ने वर्ष 2015 में UNHRC में इज़राइल के खिलाफ मतदान करने से खुद को अलग रखा।
  • भारत ने वर्ष 2018 में लिंक वेस्ट पॉलिसी के एक हिस्से के रूप में इज़राइल और फिलिस्तीन दोनों देशों के साथ पारस्परिक रूप से स्वतंत्र और विशेष संबंध स्थापित किये।
  • जून 2019 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक परिषद (ECOSOC) में इज़राइल द्वारा पेश किये गए एक फैसले के पक्ष में मतदान किया, जिसमें फिलिस्तीनी गैर-सरकारी संगठन को परामर्शात्मक दर्जा देने पर आपत्ति जताई गई थी।
  • अब तक भारत ने फिलिस्तीनी स्वतंत्रता के संबंध में अपने ऐतिहासिक नैतिक समर्थक की छवि को बनाए रखने की कोशिश की है और साथ ही वह इज़राइल के साथ सैन्य, आर्थिक और अन्य रणनीतिक संबंधों में भी संलग्न है।

आगे की रह:

  • इज़राइल-फिलिस्तीन मुद्दे के शांतिपूर्ण तरीके से समाधान के लिये विश्व को एक साथ आने की ज़रूरत है परंतु इज़राइल की सरकार और अन्य शामिल दलों की अनिच्छा ने इस मुद्दे को और अधिक बढ़ा दिया है। इस प्रकार इज़राइल-फिलिस्तीन मुद्दे के प्रति एक संतुलित दृष्टिकोण अरब देशों के साथ-साथ इज़राइल से अनुकूल संबंध बनाए रखने में मदद करेगा।

स्रोत: द हिंदू

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