उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता | 30 May 2022
प्रिलिम्स के लिये:समान नागरिक संहिता, अनुच्छेद 44, अनुच्छेद 25, अनुच्छेद 14 मेन्स के लिये:व्यक्तिगत कानूनों पर समान नागरिक संहिता के निहितार्थ। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही उत्तराखंड सरकार ने समान नागरिक संहिता (UCC) को लागू करने और उत्तराखंड के निवासियों के व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करने वाले सभी प्रासंगिक कानूनों की समीक्षा हेतु सर्वोच्च न्यायालय (SC) के सेवानिवृत्त न्यायाधीश के नेतृत्व में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया।
- कुछ महीने पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी केंद्र सरकार से UCC के क्रियान्वयन की प्रक्रिया शुरू करने को कहा था।
समान नागरिक संहिता (UCC):
परिचय:
- समान नागरिक संहिता पूरे देश के लिये एक समान कानून के साथ ही सभी धार्मिक समुदायों के लिये विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने आदि कानूनों में भी एकरूपता प्रदान करने का प्रावधान करती है।
- संविधान के अनुच्छेद 44 में वर्णित है कि राज्य भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।
- अनुच्छेद 44, संविधान में वर्णित राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों में से एक है।
- अनुच्छेद 37 में परिभाषित है कि राज्य के नीति निदेशक तत्त्व संबंधी प्रावधानों को किसी भी न्यायालय द्वारा प्रवर्तित नहीं किया जा सकता है लेकिन इसमें निहित सिद्धांत शासन व्यवस्था में मौलिक प्रकृति के होंगे।
- भारत में UCC की स्थिति:
- अधिकांश सिविल मामलों में भारत एक समान नागरिक संहिता का अनुसरण करता है, जैसे- भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1972, नागरिक प्रक्रिया संहिता, माल बिक्री अधिनियम, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882, भागीदारी अधिनियम 1932, साक्ष्य अधिनियम 1872 आदि।
- हालाँकि कुछ मामलों में इन नागरिक कानूनों के तहत भी भिन्नता है क्योंकि राज्यों द्वारा इनमें सैकड़ों संशोधन किये गए हैं।
- उदाहरण के लिये कई राज्यों ने एक समान रूप से मोटर वाहन अधिनियम, 2019 को लागू करने से इनकार कर दिया था।
- वर्तमान में गोवा एकमात्र ऐसा राज्य है जिसने UCC को लागू किया है।
- उत्पत्ति:
- UCC की उत्पत्ति ब्रिटिश शासन के दौरान वर्ष 1835 में प्रस्तुत की गई एक रिपोर्ट में निहित है।
- इस रिपोर्ट में अपराधों, सबूतों और अनुबंधों से संबंधित भारतीय कानून के संहिताकरण में एकरूपता की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया है, विशेष रूप से यह अनुशंसा की गई है कि हिंदुओं और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों को इस तरह के संहिताकरण से बाहर रखा जाए।
- व्यक्तिगत मुद्दों से निपटने वाले कानून में वृद्धि हुई। इसने सरकार को वर्ष 1941 में हिंदू कानून को संहिताबद्ध करने के लिये बी.एन. राव समिति बनाने के लिये विवश किया।
- हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956:
- बी.एन. राव समिति की अनुशंसाओं के आधार पर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (1956) को हिंदुओं, बौद्धों, जैनों और सिखों के बीच निर्वसीयत या अनिच्छा से उत्तराधिकार से संबंधित कानून में संशोधन और संहिताबद्ध करने के लिये अपनाया गया था।
- हालाँकि मुस्लिम, ईसाई और पारसियों के लिये अलग-अलग व्यक्तिगत कानून थे।
- UCC की उत्पत्ति ब्रिटिश शासन के दौरान वर्ष 1835 में प्रस्तुत की गई एक रिपोर्ट में निहित है।
- सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय:
- एकरूपता लाने के लिये न्यायालयों ने अक्सर अपने निर्णय में कहा है कि सरकार को UCC की ओर बढ़ना चाहिये।
- इस संदर्भ में शाह बानो वाद (1985) का निर्णय सर्वविदित है।
- एक अन्य मामला सरला मुद्गल वाद (1995) था, जो विवाह के मामलों पर मौजूद व्यक्तिगत कानूनों के बीच द्विविवाह और संघर्ष के मुद्दे का समाधान करता है।
- शायरा बानो वाद (2017) में सर्वोच्च न्यायालय ने तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) की प्रथा को असंवैधानिक घोषित किया था।
- यह तर्क देते हुए कि तीन तलाक और बहुविवाह जैसी प्रथाएँ एक महिला के सम्मान के साथ जीवन जीने के अधिकार को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती हैं, केंद्र ने सवाल उठाया है कि क्या धार्मिक प्रथाओं को दिया गया संवैधानिक संरक्षण उन लोगों तक भी बढ़ाया जाना चाहिये जो मौलिक अधिकारों के अनुपालन में नहीं है।
समान नागरिक संहिता की आवश्यकता (UCC):
- सभी नागरिकों को समान माना जाना चाहिये और सरकारी प्रायोजन/धार्मिक स्थलों/कार्यक्रमों के नियमों को संविधान में वर्जित किया जाना चाहिये।
- UCC को लागू करने से भारत जैसे देश में जहाँ विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं, धार्मिक विभाजन को कम करने में मदद मिलेगी।
- UCC का प्रवर्तन कमज़ोर वर्गों को सुरक्षा प्रदान करेगा, कानूनों को सरलीकृत करेगा और धर्मनिरपेक्षता के आदर्श का पालन करते हुए लैंगिक न्याय को सुनिश्चित करेगा।
समान नागरिक संहिता को अपनाने में चुनौतियाँ:
- धर्मनिरपेक्षता की भारतीय अवधारणा के खिलाफ:
- कई लोगों को यह आशंका है कि UCC को लागू करने का प्रयास करके संसद केवल कानून के पश्चिमी मॉडल की नकल कर रही है जो एकरूपता पर आधारित है लेकिन धर्मनिरपेक्षता की भारतीय अवधारणा धर्म और लोगों की विविधता पर आधारित है।
- भारत में लोगों की अलग-अलग धार्मिक आस्थाएँ हैं। विविध धार्मिक प्रथाएँ इसे हर धर्म के लिये बुनियादी मंच पर लागू करने के योग्य बनाती हैं।
- अल्पसंख्यकों यानी मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी लोगों की यह गलत धारणा है कि UCC उनकी धार्मिक प्रथाओं को नष्ट कर देगी और उन्हें बहुसंख्यकों की धार्मिक प्रथा का पालन करने के लिये बाध्य किया जाएगा।
- लोगों में जागरूकता का अभाव:
- सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा UCC के बारे में लोगों की अनभिज्ञता है और इस तरह की अनभिज्ञता का कारण शिक्षा की कमी, गलत समाचार, तर्कहीन धार्मिक विश्वास आदि हैं।
- सांप्रदायिक राजनीति:
- कई विश्लेषकों का मत है कि समान नागरिक संहिता की मांग केवल सांप्रदायिक राजनीति के संदर्भ में की जाती है।
- समाज का एक बड़ा वर्ग सामाजिक सुधार की आड़ में इसे बहुसंख्यकवाद के रूप में देखता है।
- संवैधानिक बाधा:
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25, जो किसी भी धर्म को मानने और प्रचार की स्वतंत्रता को संरक्षित करता है, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित समानता की अवधारणा के विरुद्ध है।
आगे की राह
- परस्पर विश्वास निर्माण के लिये सरकार और समाज को कड़ी मेहनत करनी होगी, किंतु इससे भी महत्त्वपूर्ण यह है कि धार्मिक रूढ़िवादिता के बजाय इसे लोकहित के रूप में स्थापित किया जाए।
- एक सर्वव्यापी दृष्टिकोण के बजाय सरकार विवाह, गोद लेने और उत्तराधिकार जैसे अलग-अलग पहलुओं को चरणबद्ध तरीके से समान नागरिक संहिता में शामिल कर सकती है।
- सभी व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध किया जाना काफी महत्त्वपूर्ण है, ताकि उनमें से प्रत्येक में पूर्वाग्रह और रुढ़िवादी पहलुओं को रेखांकित कर मौलिक अधिकारों के आधार पर उनका परीक्षण किया जा सके।
- मौलिक अधिकारों के संरक्षण और व्यक्तियों की धार्मिक हठधर्मिता के बीच संतुलन बनाया जाना चाहिये। यह धार्मिक या राजनीतिक विचारों के संबंध में बिना किसी पूर्वाग्रह के एक कोड होना चाहियेे।
विगत वर्ष के प्रश्न:प्रश्न. मौलिक अधिकारों की निम्नलिखित श्रेणियों में से किस एक में भेदभाव के रूप में अस्पृश्यता के विरुद्ध संरक्षण का प्रावधान है? (2020) (A) शोषण के विरुद्ध अधिकार उत्तर: (D) व्याख्या:
|