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ट्रांज़िट अग्रिम ज़मानत

  • 23 Nov 2023
  • 9 min read

प्रिलिम्स के लिये:

प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR), अग्रिम ज़मानत, ज़मानत और उसके प्रकार, आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC), 1973, अनुच्छेद 21

मेन्स के लिये:

आपराधिक न्याय प्रक्रिया में मौलिक अधिकारों का संरक्षण, न्यायपालिका, संवैधानिक संरक्षण, ज़मानत के प्रकार 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने प्रिया इंदौरिया बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य, 2023 के मामले में निर्णय सुनाया कि एक राज्य में एक सत्र न्यायालय या उच्च न्यायालय किसी आरोपी को उस स्थिति में भी ट्रांज़िट अग्रिम ज़मानत दे सकता है प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर दर्ज़ की गई हो।

  • सर्वोच्च न्यायालय भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित नागरिकों के जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा की संवैधानिक अनिवार्यता पर ज़ोर देता है।

नोट:

  • ट्रांज़िट अग्रिम ज़मानत अभियुक्तों के लिये गिरफ्तारी से सुरक्षा के रूप में कार्य करती है जब तक कि वे कथित अपराध के लिये क्षेत्रीय अधिकार वाले न्यायालय में नहीं पहुँच जाते
    • शब्द "ट्रांज़िट अग्रिम ज़मानत" को आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) या किसी अन्य कानून में स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1998 में असम राज्य बनाम ब्रोजेन गोगोल मामले में ट्रांज़िट अग्रिम ज़मानत की अवधारणा पेश की।
  • इस प्रकार की ज़मानत विशेष रूप से एक अलग राज्य में रहने वाले व्यक्तियों के लिये न्यायसंगत और अंतरिम राहत प्रदान करती है, जिससे उन्हें अग्रिम ज़मानत लेने की अनुमति मिलती है।

ट्रांज़िट अग्रिम ज़मानत पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला क्या है?

  • सर्वोच्च न्यायालय का नियम है कि उच्च न्यायालय/सत्र न्यायालयों को उक्त न्यायालय के क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र के बाहर दर्ज FIR के संबंध में न्याय के हित में आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC), 1973 की धारा 438 के तहत अंतरिम सुरक्षा के रूप में ट्रांज़िट अग्रिम ज़मानत देनी चाहिये। 
    • सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि अधिकार क्षेत्र पर पूर्ण वर्जन से, विशेष रूप से गलत, दुर्भावनापूर्ण अथवा राजनीति से प्रेरित अभियोजन का सामना करने वाले वास्तविक (Bona Fide) आवेदकों के लिये अन्यायपूर्ण परिणाम हो सकते हैं
  • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि आवेदक को अपूरणीय क्षति से बचाने हेतु ट्रांज़िटअग्रिम ज़मानत "केवल असाधारण तथा बाध्यकारी परिस्थितियों" में ही स्वीकृत की जानी चाहिये।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरिम सुरक्षा के लिये शर्तें निर्धारित कीं:.
  • पहली सुनवाई के दौरान जाँच अधिकारी तथा सरकारी वकील को सूचना देना अनिवार्य है।
  • सीमित राहत देने वाले आदेश में स्पष्ट रूप से उन कारणों को दर्ज किया जाना चाहिये जो बताते हैं कि आवेदक अंतर-राज्यीय गिरफ्तारी की आशंका क्यों रखता है तथा इस तरह की सुरक्षा का चल रही जाँच पर संभावित प्रभाव पड़ सकता है।
  • आवेदक को FIR पर क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र वाले न्यायालय द्वारा अग्रिम ज़मानत देने में असमर्थता के बारे में न्यायालय को तुष्ट करना होगा।
    • तुष्टि उस क्षेत्राधिकार में जीवन अथवा दैहिक स्वतंत्रता के लिये खतरे की आशंका, मनमानी के बारे में चिंताओं अथवा चिकित्सा कारणों पर आधारित हो सकती है जहाँ FIR दर्ज की गई है।
  • निर्णय में आरोपी व्यक्तियों द्वारा अंतरिम सुरक्षा के लिये अनुकूल न्यायालय चुनने की संभावना को स्वीकार किया गया है।
    • इसके दुरुपयोग को रोकने के लिये न्यायालय अभियुक्त तथा न्यायालय की अधिकारिता के बीच राज्यक्षेत्र संबंध के महत्त्व पर प्रकाश डालती है।

ज़मानत क्या है तथा इसके प्रकार क्या हैं?

  • परिभाषा:
    • ज़मानत कानूनी हिरासत में रखे गए व्यक्ति को, जब भी आवश्यक हो न्यायालय में उपस्थित होने के वादे के साथ, सशर्त/अनंतिम रिहाई है (ऐसे मामलों जिनमें न्यायालय द्वारा फैसला सुनाया जाना बाकी है)। 
    • यह न्यायालय में प्रतिभूति/सांपार्श्विक जमा के रूप में रखने की आवश्यकता को दर्शाता है।
    • विधिक मामलों के अधीक्षक और परामर्शी बनाम अमिय कुमार रॉय चौधरी (1973) मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने ज़मानत स्वीकृत करने के सिद्धांत की व्याख्या की है।
  • भारत में ज़मानत के प्रकार:
    • नियमित ज़मानत: 
      • यह न्यायालय (देश के भीतर किसी भी न्यायालय) द्वारा दिया गया एक निर्देश है जो पहले से ही गिरफ्तार और पुलिस हिरासत में रखे गए व्यक्ति को रिहा करने हेतु उपलब्ध है।
    • अंतरिम ज़मानत: 
      • न्यायालय द्वारा अस्थायी और अल्प अवधि हेतु ज़मानत दी जाती है, यह ज़मानत तब तक दी जा सकती है, जब तक कि नियमित या अग्रिम ज़मानत हेतु आवेदन न्यायालय के समक्ष लंबित नहीं होता है।
    • अग्रिम ज़मानत या पूर्व-गिरफ्तारी ज़मानत: 
      • यह एक कानूनी प्रावधान है जो आरोपी व्यक्ति को गिरफ्तार होने से पहले ज़मानत हेतु आवेदन करने की अनुमति देता है। भारत में पूर्व-गिरफ्तारी ज़मानत का प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 438 में किया गया है। 
      • इसे केवल सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा दिया जाता है।
        • अग्रिम ज़मानत का प्रावधान विवेकाधीन है तथा न्यायालय अपराध की प्रकृति और गंभीरता, आरोपी के पूर्ववृत्त एवं अन्य प्रासंगिक कारकों पर विचार करने के बाद ज़मानत दे सकता है।
        • न्यायालय ज़मानत देते समय कुछ शर्तें भी लगा सकता है, जिसमें पासपोर्ट ज़ब्त करना, देश छोड़ने पर प्रतिबंध या पुलिस स्टेशन में नियमित रूप से रिपोर्ट करना आदि शामिल हैं।
    • वैधानिक ज़मानत:
      • वैधानिक ज़मानत, जिसे डिफाॅल्ट ज़मानत के रूप में भी जाना जाता है, CrPC की धारा 437, 438 और 439 के तहत सामान्य प्रक्रिया में प्राप्त ज़मानत से अलग है।
      • जैसा कि नाम से पता चलता है, वैधानिक ज़मानत तब दी जाती है जब पुलिस या जाँच एजेंसी एक निश्चित समय-सीमा के भीतर अपनी रिपोर्ट/शिकायत दर्ज करने में विफल रहती है।
        • यह CrPC की धारा 167(2) में निहित है।

विधिक दृष्टिकोण: अभिवहन अग्रिम ज़मानत

https://www.drishtijudiciary.com/hin

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