कृषि अवशेषों का दहन और प्रदूषण | 24 Jul 2020
प्रीलिम्स के लियेपार्टिकुलेट मैटर मेन्स के लियेकृषि अवशेषों के दहन का पर्यावरण पर प्रभाव |
चर्चा में क्यों?
हालिया अध्ययन के अनुसार, पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने वाले समय के चुनाव की अपेक्षा दिल्ली की मौसम संबंधी परिस्थितियाँ और हरियाणा तथा पंजाब में जलाए जाने वाले भूसे की मात्रा प्रदेश में वायु गुणवत्ता को खराब करने में अधिक भूमिका निभाती हैं।
प्रमुख बिंदु
- फसल जलना (Crop Burning):
- पंजाब और हरियाणा में पराली को जलाकर सर्दियों के मौसम में होने वाली बुआई के लिये खेतों को तैयार किया जाता है।
- खेतों को अक्तूबर-नवंबर के आसपास तैयार किया जाता है, यही वह समय होता है जब दक्षिण पश्चिम मानसून की वापसी हो रही होती है।
- ऐसे में पराली (भूसे) के जलने से निष्कासित होने वाले प्रदूषक और पार्टिकुलेट मैटर दिल्ली में प्रदूषण के अन्य स्रोतों के साथ-साथ मिलकर वातावरण की निचली परत में रह जाते हैं और सर्दियों के मौसम में दिल्ली और इसके आस-पास की वायु गुणवत्ता को बुरी से प्रभावित करते हैं।
क्या होते हैं पार्टिकुलेट मैटर?
पीएम-1.0:- इसका आकार एक माइक्रोमीटर से कम होता है। ये छोटे पार्टिकल बहुत खतरनाक होते हैं। इनके कण साँस के द्वारा शरीर के अंदर पहुँचकर रक्तकणिकाओं में मिल जाते हैं। इसे पार्टिकुलेट सैंपलर से मापा जाता है।
पीएम-2.5:- इसका आकार 2.5 माइक्रोमीटर से कम होता है। ये आसानी से साँस के साथ शरीर के अंदर प्रवेश कर गले में खराश, फेफड़ों को नुकसान, जकड़न पैदा करते हैं। इन्हें एम्बियंट फाइन डस्ट सैंपलर पीएम-2.5 से मापते हैं।
पीएम-10:- रिसपाइरेबल पार्टिकुलेट मैटर का आकार 10 माइक्रोमीटर से कम होता है। ये भी शरीर के अंदर पहुँचकर बहुत सारी बीमारियाँ फैलाते हैं।
- कारण:
- धान की फसल को मिलने वाली सब्सिडी और सुनिश्चित खरीद के कारण किसान धान की पैदावार को बढ़ाने की दिशा में निंरतर मेहनत कर रहा है, अधिक पैदावार से अधिक अवशेष उत्पन्न हो रहे हैं।
- कृषि के बढ़ते आधुनिकीकरण और मशीनीकरण के चलते किसान खेत में ही धान की फसल से दाने निकाल लेते हैं जिससे बड़ी मात्रा में धान की ठूंठ खेतों में ही छूट जाती हैं, परिणामतः खेतों को साफ करने के लिये किसान ठूंठों को जला देते हैं।
- पंजाब भूजल संरक्षण अधिनियम (Punjab Preservation of Subsoil Water Act), 2009:
- इसने भूजल निकासी को हतोत्साहित करने के लिये किसानों को धान की बुवाई में देरी करने (जून के अंत तक) के लिये बाध्य किया है।
- इसके कारण धान की बुवाई में वर्ष 2002-2008 की तुलना में औसतन 10 दिन की देरी होती है, इससे फसल में होने वाली देरी के कारण, पराली के दहन का समय लगभग वही होता है जब दक्षिण-पश्चिम मानसून की वापसी हो रही होती है।
- अध्ययन के परिणाम:
- ध्यातव्य है कि वर्ष 2016 में दिल्ली के गंभीर वायु प्रदूषण में फसल अवशेषों के दहन का योगदान लगभग 40% था।
- यह अध्ययन काफी हद तक गणितीय प्रतिरूपण पर निर्भर करता है।
- फसल के जलने और PM स्तर के एकत्रित डेटा को गणितीय मॉडल में प्रदर्शित किया गया।
- अध्ययन से प्राप्त जानकारी के अनुसार, वर्ष 2016 में दिल्ली के गंभीर वायु प्रदूषण के संदर्भ में बात करें तो हम पाते हैं कि यदि किसान निर्धारित समय से 10 दिन पहले फसल अवशेषों का दहन करते तो संभवतः दिल्ली के गंभीर वायु प्रदूषण में फसला दहन का योगदान बेहद मामूली (1%) होता।
आगे की राह
- फसल अवशेषों को जलाए जाने से रोकने से राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (NCAP) को बढ़ावा मिलेगा, जिसका उद्देश्य वर्ष 2024 तक वार्षिक PM सांद्रता में 20-30% तक की कमी लाना है।
- इसके अलावा, सरकार प्रोत्साहन और अभियोजन के संयोजन के माध्यम से लोगों को इस संबंध में जागरूक कर सकती है। हरित विधियों का उपयोग करने वाले किसानों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये।
- हालाँकि इस संदर्भ में कानून की भूमिका न्यूनतम प्रतीत होती है, फिर भी यह मौसम संबंधी स्थितियों के आधार पर आवश्यक दिशा-निर्देश जारी कर वायु गुणवत्ता की समस्याओं को कम करने या बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।