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सामाजिक न्याय

भारत में विचाराधीन बंदियों की स्थिति

  • 29 Nov 2024
  • 19 min read

प्रिलिम्स के लिये:

संविधान दिवस, BNSS की धारा 479, CrPC की धारा 436A, सर्वोच्च न्यायालय, विचाराधीन बंदियों के लिये ज़मानत संबंधी कानून, संसद, पुलिस, न्यायालय 

मेन्स के लिये:

भारत में कारागार प्रशासन की स्थिति, भारत में कारागार से संबंधित मुद्दे, दंड प्रक्रिया संहिता 1973 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री ने 26 नवंबर (संविधान दिवस) तक अपनी अधिकतम सजा का एक तिहाई से अधिक हिस्सा काट चुके विचाराधीन बंदियों की रिहाई में तीव्रता लाने की आवश्यकता पर बल दिया। 

  • यह पहल हाल ही में अधिनियमित भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 के अनुरूप है, जिसमें पहली बार अपराध करने वालों के लिये रियायती जमानत का प्रावधान किया गया है।

नोट: विचाराधीन बंदी ऐसा व्यक्ति होता है जो मुकदमे की प्रतीक्षा करते हुए या अपने खिलाफ विधिक कार्यवाही के समापन की प्रतीक्षा करते हुए कारागार में रहता है। इस श्रेणी में ऐसे लोग शामिल होते हैं जिन्हें अभी तक किसी अपराध के लिये दोषी न ठहराया गया हो एवं विधिक प्रक्रिया के दौरान उन्हें न्यायिक हिरासत में रखा गया हो।

भारत में विचाराधीन बंदियों की वर्तमान स्थिति क्या है?

  • विचाराधीन बंदियों का उच्च अनुपात: राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की कारागार सांख्यिकी भारत 2022 रिपोर्ट के अनुसार, भारत के कारागारों में बंदियों की संख्या 75.8% (5,73,220 में से 4,34,302) है।
    • कारागार में बंद 23,772 महिलाओं में से 76.33% विचाराधीन हैं तथा सभी विचाराधीन बंदियों में से 8.6% तीन वर्ष से अधिक समय से कारागार में हैं।
  • अत्यधिक भीड़: सर्वोच्च न्यायालय के अनुसंधान एवं योजना केंद्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय कारागारें 131% क्षमता पर संचालित हो रही हैं तथा इनमें 436,266 की क्षमता के मुकाबले 573,220 बंदी हैं। 
    • उल्लेखनीय बात यह है कि इनमें से 75.7% बंदी विचाराधीन हैं।
  • विधिक प्रतिनिधित्व का अभाव: अनुच्छेद 39A के तहत मुफ्त विधिक सहायता की गारंटी दिये जाने के बावजूद, कई विचाराधीन बंदियों को अधिवक्ता-बंदी अनुपात अपर्याप्त होने के कारण विधिक प्रतिनिधित्व तक पहुँच नहीं मिल पाती है, जिससे वे प्रभावी रूप से अपना बचाव करने में असमर्थ हो जाते हैं।

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भारत में विचाराधीन बंदियों से संबंधित प्रावधान क्या हैं?

  • BNSS की धारा 479: इसका उद्देश्य पहली बार अपराध करने वालों पर ध्यान केंद्रित करते हुए लंबे समय तक हिरासत में रखने की अवधि को कम करना है।
  • पहली बार अपराध करने वालों के लिये शिथिल मानक: पहली बार अपराध करने वालों को (जिन पर पूर्व में कोई दोष सिद्ध न हुआ हो) अधिकतम सजा का एक तिहाई हिस्सा पूरा करने के बाद जमानत पर रिहा किया जाना चाहिये।
  • जमानत के लिये सामान्य नियम: गैर-मृत्युदंड योग्य अपराधों (मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय नहीं) के आरोपी विचाराधीन बंदी अधिकतम सजा की आधी अवधि पूरी करने के बाद जमानत के लिये पात्र होते हैं।
    • यह CrPC की धारा 436A पर आधारित है, जिसमें इसी तरह आधी सजा काटने के बाद रिहाई की अनुमति दी गई है।
    • अपवाद: ये प्रावधान एक से अधिक अपराधों या अन्य अपराधों के लिये चल रही जाँच से संबंधित मामलों पर लागू नहीं होंगे।
  • CrPC की धारा 436A: 
    • जमानत के लिये पात्रता: जिन विचाराधीन बंदियों ने अपने कथित अपराध के लिये अधिकतम कारावास अवधि की आधी अवधि काट ली है, उन्हें व्यक्तिगत बॉण्ड (जमानत के साथ या बिना) पर रिहा किया जा सकता है।
    • अपवर्जन: यह मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराधों पर लागू नहीं होता।
  •  न्यायपालिका द्वारा निर्देश:
    • कारागार की स्थिति पर सर्वोच्च न्यायालय की जनहित याचिका (2013): 1382 कारागारों में अमानवीय स्थिति के संबंध में न्यायालय ने कारागारों में अत्यधिक भीड़, विलंबित सुनवाई और विचाराधीन बंदियों की लंबे समय तक हिरासत में रखने जैसे मुद्दों पर प्रकाश डाला।
      • इसने राज्य सरकारों को निर्देश दिया कि वे CrPC की धारा 436A  के तहत पात्र विचाराधीन बंदियों की समय पर पहचान और रिहाई सुनिश्चित करें।
  • BNSS की धारा 479 का पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू होना: सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि BNSS के तहत जमानत के शिथिल प्रावधान, इसके अधिनियमन से पहले दर्ज मामलों पर पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू होंगे।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत त्वरित सुनवाई एक मौलिक अधिकार है और सुनवाई में किसी भी अनुचित देरी के कारण जमानत दी जा सकती है।

भारत में विचाराधीन बंदियों के संकट के निहितार्थ क्या हैं?

  • मौलिक अधिकारों का उल्लंघन: बिना सुनवाई के लंबे समय तक हिरासत में रखना भारतीय संविधान द्वारा गारंटीकृत कई मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, जिसमें शीघ्र सुनवाई का अधिकार (अनुच्छेद 21) और दोषी साबित होने तक निर्दोषता की धारणा [अनुच्छेद 20(3)] शामिल है।
    • न्यायिक लंबित मामले: विचाराधीन बंदियों की उच्च संख्या भारतीय न्यायिक प्रणाली में लंबित मामलों की संख्या में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। ये लंबित मामले सभी व्यक्तियों के लिये न्याय में विलंब करते है और विधिक प्रणाली में जनता के विश्वास को कम करते है।
  • विलंबित न्याय का प्रभाव: लंबे समय तक हिरासत में रखने से न्याय तक पहुँच, पुनर्वास और विचाराधीन बंदियों और उनके परिवारों की सामाजिक-आर्थिक भलाई प्रभावित होती है। 
    • कारागारों में अत्यधिक भीड़ के कारण प्रायः अमानवीय जीवन स्थितियाँ पैदा हो जाती हैं, जिससे स्वास्थ्य और मनोवैज्ञानिक चुनौतियाँ बढ़ जाती हैं।
  • मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ: बिना दोषसिद्धि के लंबे समय तक कारावास में रहने से विचाराधीन बंदियों में गंभीर मनोवैज्ञानिक संकट पैदा हो सकता है, जिसमें चिंता, अवसाद और निराशा की भावना शामिल है।
  • विश्वास का क्षरण: विचाराधीन बंदियों की अधिक संख्या और इसके परिणामस्वरूप होने वाली देरी से विधिक व्यवस्था में लोगों का विश्वास कम होता है। जब न्याय में देरी होती है या उसे नकार दिया जाता है, तो नागरिकों का विधिक व्यवस्था की समय पर और निष्पक्ष परिणाम देने की क्षमता पर विश्वास खत्म हो सकता है।

भारत में कारागारों का विनियमन कैसे किया जाता है?

  • संवैधानिक प्रावधान: 
    • अनुच्छेद 21: यह बंदियों को यातना और अमानवीय व्यवहार से बचाता है। यह बंदियों के लिये समय पर सुनवाई भी सुनिश्चित करता है। 
    • अनुच्छेद 22:  गिरफ्तार व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के कारणों के बारे में तुरंत सूचित किया जाना चाहिये और उसे अपनी पसंद के अधिवक्ता से परामर्श करने और बचाव कराने का अधिकार है। 
    • अनुच्छेद 39A: विधिक प्रतिनिधित्व का व्यय वहन करने में असमर्थ लोगों को न्याय सुनिश्चित करने के लिये निःशुल्क विधिक सहायता सुनिश्चित करता है।
  • विधिक ढाँचा: 
    • कारागार अधिनियम, 1894: ब्रिटिश शासन के दौरान अधिनियमित कारागार अधिनियम, भारत में कारागार प्रबंधन के लिये आधारभूत विधिक ढाँचे के रूप में कार्य करता है।  
      • यह बंदियों की हिरासत और अनुशासन पर केंद्रित है, लेकिन इसमें पुनर्वास और सुधार के प्रावधानों का अभाव है। 
    • बंदी शनाख्त अधिनियम, 1920: यह कानून बंदियों की पहचान प्रक्रिया और बायोमेट्रिक डेटा के संग्रह को नियंत्रित करता है। 
    • बंदियों अंतरण अधिनियम, 1950: यह विभिन्न राज्यों और अधिकार क्षेत्रों के बीच बंदियों के अंतरण के लिये दिशानिर्देश प्रदान करता है। 
  • निरीक्षण तंत्र 
    • न्यायिक निगरानी: भारतीय न्यायपालिका जनहित याचिकाओं (PIL) और बंदियों के अधिकारों से संबंधित विशिष्ट मामलों के माध्यम से कारागार की स्थितियों की निगरानी करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।  
      • उदाहरण के लिये, डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने गिरफ्तारी और हिरासत के लिये सख्त प्रोटोकॉल का निर्देश दिया था। 

भारत में कारागार सुधार से संबंधित पहल क्या हैं?

  • कारागार आधुनिकीकरण योजना: कारागारों, बंदियों और कारागार कर्मियों की स्थिति में सुधार लाने के उद्देश्य से कारागारों के आधुनिकीकरण की योजना वर्ष 2002-03 में शुरू की गई थी।
  • कारागार आधुनिकीकरण परियोजना (2021-26): सरकार द्वारा कारागारों की सुरक्षा बढ़ाने और सुधारात्मक प्रशासन कार्यक्रमों के माध्यम से बंदियों के सुधार और पुनर्वास के कार्य को सुविधाजनक बनाने के लिये कारागारों में आधुनिक सुरक्षा उपकरणों का उपयोग करने के लिये परियोजना के माध्यम से राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को वित्तीय सहायता प्रदान करने का निर्णय लिया गया है।
  • ई-कारागार परियोजना: ई-कारागार परियोजना का उद्देश्य डिजिटलीकरण के माध्यम से कारागार प्रबंधन में दक्षता लाना है।
  • मैनुअल कारागार का मॉडल अधिनियम, 2016: यह मैनुअल कारागार के बंदियों को उपलब्ध विधिक सेवाओं (निःशुल्क सेवाओं सहित) के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान करता है।
  • राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA): इसका गठन विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत किया गया था, जो 9 नवंबर, 1995 को लागू हुआ था, जिसका उद्देश्य समाज के कमज़ोर वर्गों को मुफ्त एवं सक्षम विधिक सेवाएँ प्रदान करने के लिये एक राष्ट्रव्यापी नेटवर्क स्थापित करना था।

आगे की राह:

  • कारागारों को सुधारात्मक संस्थान बनाना: कारागारों को पुनर्वास और "सुधारात्मक संस्थान" बनाने का आदर्श नीतिगत नुस्खा तभी प्राप्त होगा जब अवास्तविक रूप से कम बजटीय आवंटन, उच्च कार्यभार और प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों के संबंध में पुलिस की लापरवाही के मुद्दों का समाधान किया जाएगा।
  • कार्यान्वयन समिति की सिफारिश: सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्यायमूर्ति अमिताव रॉय (सेवानिवृत्त) समिति (2018) नियुक्त की गई, समिति द्वारा कारागारों में भीड़भाड़ की समस्या से निपटने हेतु निम्नलिखित सिफारिशें की गई:
    • त्वरित सुनवाई, भीड़भाड़ की अनुचित घटना को दूर करने के सर्वोत्तम तरीकों में से एक है।
    • प्रत्येक 30 बंदियों के लिये कम-से-कम एक वकील होना चाहिये, जो वर्तमान में उपलब्ध नहीं है।
    • पाँच वर्ष से अधिक समय से लंबित छोटे-मोटे अपराधों से निपटने के लिये विशेष फास्ट-ट्रैक अदालतें स्थापित की जानी चाहिये।
    • प्ली बार्गेनिंग की अवधारणा को बढ़ावा दिया जाना चाहिये, जिसमें अभियुक्त द्वारा कम सज़ा के लिये अपना अपराध स्वीकार किया जाता है।
  • कारागार प्रबंधन में सुधार: इसमें कारागार कर्मचारियों को उचित प्रशिक्षण और संसाधन उपलब्ध कराना, साथ ही निगरानी और जवाबदेही के लिये प्रभावी प्रणालियाँ लागू करना शामिल है।
    • इसमें बंदियों को स्वच्छ पेयजल, स्वच्छता और चिकित्सा जैसी बुनियादी सुविधाएँ प्रदान करना भी शामिल है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न

प्रश्न: भारत में विचाराधीन बंदियों की वर्तमान स्थिति पर चर्चा कीजिये और इन मुद्दों को संबोधित करने के लिये भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 के तहत प्रावधानों की क्षमता का विश्लेषण कीजिये तथा ऐसे सुधारों के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के उपाय सुझाइये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. संविधान दिवस के बारे में निम्नलिखित कथनों पर कीजिये: (2023)

कथन-I: नागरिकों के बीच सांविधानिक मूल्यों को संवर्द्धित करने के लिये संविधान दिवस प्रतिवर्ष 26 नवंबर को मनाया जाता है।

 कथन-II: 26 नवंबर, 1949 को भारत की संविधान सभा में भारत के संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिये डॉ. बी.आर. अंबेडकर की अध्यक्षता में प्रारूपण समिति बनाई।

उपर्युक्त कथनों के बारे में, निम्नलिखित में से कौन-सा एक सही है?

(a) कथन-I और कथन-II दोनों सही हैं तथा कथन-II कथन-I की सही व्याख्या है।
(b) कथन-I और कथन-II दोनों सही हैं तथा कथन-II, कथन-I की सही व्याख्या नहीं है।
(c) कथन-I सही है किंतु कथन-II गलत है।
(d) कथन-I गलत है किंतु कथन-II सही है।

उत्तर: (c)


प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा एक कथन किसी देश के 'संविधान' के मुख्य प्रयोजन को सर्वोत्तम रूप से प्रतिबिंबित करता है? (2023)

(a) यह आवश्यक विधियों के निर्माण के उद्देश्य को निर्धारित करता है।
(b) यह राजनीतिक पदों और सरकार के सृजन को सुकर बनाता है।
(c) यह सरकार की शक्तियों को परिभाषित और सीमाबद्ध करता है।
(d) यह सामाजिक न्याय, सामाजिक समता और सामाजिक सुरक्षा को प्रतिभूत करता है।

उत्तर: (c)


मेन्स:

प्रश्न 1 मृत्यु दंडादेशों के लघुकरण में राष्ट्रपति के विलंब के उदाहरण न्याय प्रत्याख्यान (डिनायल) के रूप में लोक वाद-विवाद के अधीन आए हैं। क्या राष्ट्रपति द्वारा ऐसी याचिकाओं को स्वीकार करने/अस्वीकार करने के लिये एक समय सीमा का विशेष रूप से उल्लेख किया जाना चाहिये ? विश्लेषण कीजिये।  (2014)

प्रश्न 2 भारत में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (एन.एच.आर.सी.) सर्वाधिक प्रभावी तभी हो सकता है, जब इसके कार्यों को सरकार की जवाबदेही को सुनिश्चित करने वाले अन्य यांत्रिकत्वों (मकैनिज्म) का पर्याप्त समर्थन प्राप्त हो। उपरोक्त टिप्पणी के प्रकाश में, मानव अधिकार मानकों की प्रोन्नति करने और उनकी रक्षा करने में, न्यायपालिका और अन्य संस्थाओं के प्रभावी पूरक के तौर पर, एन.एच.आर.सी. की भूमिका का आकलन कीजिये।  (2014)

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