इंदौर शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 11 नवंबर से शुरू   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली अपडेट्स


भारतीय समाज

विशेष विवाह अधिनियम 1954

  • 17 Jan 2022
  • 7 min read

प्रिलिम्स के लिये:

विशेष विवाह अधिनियम (SMA), 1954, मौलिक अधिकार

मेन्स के लिये:

विशेष विवाह अधिनियम (SMA), 1954, के.एस. पुट्टस्वामी बनाम यूओआई (2017), निजता का अधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में देश में अंतर-धार्मिक विवाहों को नियंत्रित करने वाले कानून, विशेष विवाह अधिनियम (SMA), 1954 को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई।

  • वर्ष 2021 में इसके कई प्रावधानों को रद्द करने के लिये याचिकाएँ दायर की गईं।

विशेष विवाह अधिनियम (SMA), 1954:

  • विशेष विवाह अधिनियम भारत में अंतर-धार्मिक एवं अंतर्जातीय विवाह को पंजीकृत करने एवं मान्यता प्रदान करने हेतु बनाया गया है।
  • यह एक नागरिक अनुबंध के माध्यम से दो व्यक्तियों को अपनी शादी विधिपूर्वक करने की अनुमति देता है।
  • अधिनियम के तहत किसी धार्मिक औपचारिकता के निर्वहन की आवश्यकता नहीं होती।
  • इस अधिनियम में हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, जैन और बौद्ध विवाह शामिल हैं।
  • यह अधिनियम न केवल विभिन्न जातियों और धर्मों के भारतीय नागरिकों पर बल्कि विदेशों में रहने वाले भारतीय नागरिकों पर भी लागू होता है।

वर्तमान याचिका के बारे में:

  • SMA की धारा 5 में इस कानून के तहत शादी करने वाले व्यक्ति को इच्छित विवाह की सूचना देने की आवश्यकता होती है।
  • धारा 6(2) के मुताबिक, इसे विवाह अधिकारी के कार्यालय में एक विशिष्ट स्थान पर चिपका दिया जाना चाहिये।
  • धारा 7(1) किसी भी व्यक्ति को नोटिस के प्रकाशन के 30 दिनों के भीतर विवाह पर आपत्ति करने की अनुमति देती है, ऐसा न करने पर धारा 7(2) के तहत विवाह संपन्न किया जा सकता है।
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाले इन प्रावधानों के कारण कई अंतर-धार्मिक जोड़ों ने अधिनियम की धारा 6 और 7 को न्यायालय के समक्ष चुनौती दी थी।

प्रमुख बिंदु

  • अंतर-धार्मिक विवाह
    • अंतर-धार्मिक विवाह का आशय अलग-अलग धार्मिक आस्थाओं वाले दो व्यक्तियों के बीच वैवाहिक संबंध से है।
    • एक अलग धर्म में शादी करना किसी वयस्क के लिये अपनों व्यक्तिगत पसंद का मामला है।
  • अंतर-धार्मिक विवाह से संबंधित मुद्दे:
    • माना जाता है कि अंतर-र्धार्मिक विवाह के तहत पति-पत्नी (ज़्यादातर महिलाएँ) में से किसी एक का जबरन धर्मांतरण होता है।
    • मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार, गैर-मुस्लिम से शादी करने के लिये धर्म परिवर्तन ही एकमात्र तरीका है।
    • हिंदू धर्म केवल एक विवाह की अनुमति देता है और जो लोग दूसरी शादी करना चाहते हैं वे दूसरा रास्ता अपनाते हैं।
    • ऐसे विवाहों से पैदा हुए बच्चों के जाति निर्धारण के संबंध में कोई प्रावधान नहीं है।
    • विशेष विवाह अधिनियम, 1954 समाज के पिछड़ेपन के अनुकूल नहीं है।
    • उच्च न्यायालय द्वारा अंतर-र्धार्मिक विवाह को रद्द करने के संदर्भ में अनुच्छेद 226 की वैधता पर बहस चल रही है।
      • अनुच्छेद 226: रिट जारी करने की उच्च न्यायालयों की शक्ति।
  • अंतर-धार्मिक विवाहों से संबंधित कानूनों पर विचार करते समक्ष चुनौतियाँ:
    • मौलिक अधिकारों के विरुद्ध: किसी व्यक्ति को विवाह के चुनाव में कानून का हस्तक्षेप उसके मौजूदा मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है जैसे:
      • समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14)।
      • स्वतंत्रता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19)।
      • धर्म की स्वतंत्रता और जीवन का अधिकार (अनुच्छेद 25 व अनुच्छेद 21)।
    • धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध: भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता को प्रमुख सिद्धांतों में शामिल किया गया है।
      • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25 अपनी पसंद के किसी भी धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है।
      • इसलिये भारत में अंतर-धार्मिक विवाहों की अनुमति है क्योंकि संविधान किसी भी व्यक्ति को अन्य धर्म को अपनाने का अधिकार प्रदान करता है।
    • सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न निर्णयों के साथ भिन्नता:
      • सर्वोच्च न्यायालय  ने शफीन जहान बनाम अशोक केएम (2018) मामले में अनुच्छेद 21 के एक भाग के रूप में अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने के अधिकार को बरकरार रखा है।
        • सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, संविधान प्रत्येक व्यक्ति की जीवन-शैली या विश्वास का पालन करने की क्षमता को सुरक्षित करता है जिसका वह पालन करना चाहता है।
        • इसलिये अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी करने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 का अभिन्न अंग है।
      • इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय में के.एस. पुट्टस्वामी बनाम यूओआई (2017) के फैसले ने "पारिवारिक जीवन के चुनाव के अधिकार" को मौलिक अधिकार के रूप में माना है।
    • पितृसत्तात्मक: इससे पता चलता है कि कानून की जड़ें पितृसत्तात्मक हैं, जिसमें महिलाओं को माता-पिता एवं सामुदायिक नियंत्रण में रखा जाता है और यहाँ तक की जीवन के निर्णय लेने के अधिकार से वंचित किया जाता है, अगर वे निर्णय उनके अभिभावकों को स्वीकार्य न हो।

आगे की राह

  • किसी भी कानून को शामिल करने से बचने के लिये मानसिक और सामाजिक स्तर पर विशेष विवाह अधिनियम, 1954 की स्वीकृति होनी चाहिये।
  • अधिकारों का शोषण नहीं होना चाहिये, केवल विवाह हेतु धर्म परिवर्तन करना बिल्कुल भी बुद्धिमानी नहीं है।

स्रोत: द हिंदू

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2